प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल्पनाशीलता अधिकांश समय मस्तिष्क पर हावी रहती है, क्या करना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: ज़िन्दगी, कम से कम जवान आदमी की, ऐसी होनी चाहिए कि पूरा रगड़ दिया जाए। चैन की नींद सोओगे। सात घंटे से पहले उठने का नाम नहीं लोगे और गहरी नींद आएगी। ये जो तुम दिनभर मटरगश्ती करते हो न, ऊर्जा का सम्यक उपयोग नहीं करते, उसके कारण फिर रात में तरह-तरह के सपने आते हैं। मेहनतकश ज़िन्दगी जियो। आदमी पैदा हुए हो, मज़दूरी करो। यही जीने का एकमात्र तरीक़ा है। सब सपने, सब अरमान दिन में ही निकाल दो, रात के लिए बच्चू को छोड़ो ही मत।
वो लड़का कहाँ है? (एक स्वयंसेवक को पूछते हुए जो ज़्यादा काम करता है) देखो, अब उसको सपने आएँगे? तुम्हें क्या लग रहा है, अभी तक वो सत्र में क्यों नहीं था? सो रहा था कहीं पर? और कोई भरोसा नहीं है कि अभी उसने खाना भी खाया है। खाना खाये हो? खाना नहीं खाया है। उसे सपने आएँगे?
ये अय्याशियाँ हैं, ये सब नवाबों के रोग हैं — स्वप्नदोष (श्रोता हँसते हैं), स्वप्नरोष, स्वप्नजोश। दिन में ही दस-बीस के नायक बन जाओ तो फिर सपने में ये हसरत क्यों पालो कि मैं दस-बीस का नेता हूँ। पर दिन में नायक बनने में बड़ी मेहनत लगती है, है न? रात में नायक बनना सस्ता है।
फ्रायड ने यही तो बताया था, बात बहुत सीधी सी थी। तो जो काम तुमसे चेतना की एक अवस्था में नहीं हो पाता, उसको तुम दूसरी अवस्था में पूरी करने की कोशिश करते हो। तुम तो तुम ही हो न? सोते समय भी तुम वही हो, जागते समय भी तुम वही हो, बस चेतना की हालत बदल गई है, वृत्ति तो वही है। जायज़ तरीक़े से ही काम कर लो तो नाजायज़ तरीक़े से ना करना पड़े।
सही काम ना करने की सज़ा होती हैं कल्पनाएँ। कर ही लो, फिर कल्पना के लिए क्या जगह बचेगी। उचित कर्म का घटिया विकल्प बनती हैं कल्पनाएँ। अभी देखा मैंने मैच में, एक था वो बोल्ड होकर जा रहा था वापस पवेलियन (ख़ेमा) और वापस जाते-जाते प्रैक्टिस (प्रयास) कर रहा था कैसे खेलनी है (श्रोता हँसते हैं)। अरे भाई, खेल ही लिया होता तो बोल्ड नहीं होता, वापस नहीं जा रहा होता। अब यह वापस जाते हुए क्या प्रैक्टिस करते हुए जा रहा है! ऐसी तो तुम्हारी कल्पनाएँ हैं कि अगली बार जब ऐसी गेंद आएगी तो पाँव पूरा बाहर निकाल दूँगा, फिर बोल्ड नहीं होऊँगा। जितना तू अभी अभ्यास कर रहा है स्टम्प उखड़वाने के बाद, उसका आधा भी पहले कर लिया होता तो स्टंप काहे को उखड़ता।
प्र२: आचार्य जी, सामान्यतः शोरगुल होने पर इसकी आलोचना करने का भाव होता है, पर आज सुबह गंगा जी में नहाते समय ऐसा भाव नहीं उठ रहा था, बल्कि ऐसा प्रतीत हो रहा था कि माया और सत्य दो नहीं हैं, अपितु एक हैं। इससे क्या निष्कर्ष निकलता है?
आचार्य: निष्कर्ष मत निकाला करो, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है। (चुटकी लेते हुए) माया और सत्य दो चीज़ नहीं हैं, तो डूब जाना माया में, कहना, यही तो सत्य है।
प्र२: तो ये मेरी समस्या हो गई थी वहाँ पर कि जब ये है तो फिर हकीकत कहाँ है?
आचार्य: तुम खुद निष्कर्ष निकालो, मैंने दिया निष्कर्ष? किसने निकाला?
प्र२: मैने निकाला।
आचार्य: तुमने निकाला, फिर तुम ख़ुद उसमें गोते मार रहे हो। तुम तो रोज़ ऐसी नयी समस्याएँ पैदा करोगे। तुम्हें किसने सिखाया कि माया और सत्य एक ही हैं? ये तो तुम्हारा ख़ुद का उद्घाटन है न? ये अभी-अभी खोदकर निकाला है हीरा, माया और सत्य एक ही हैं। और फिर वो हीरा तुम चाटो, उसमें तुम्हें ज़हर लगे तो मैं ज़िम्मेदार हूँ?
प्र२: तो जब फिर मैं सोचता हूँ कि दो हैं, तो उस दूसरे के लिए जो नहीं है अभी दिमाग में, उसके पीछे एक सोच शुरू हो जाती है जो वास्तविकता नहीं है, अपितु कल्पना मात्र है।
आचार्य: तुम भी हो इधर के ही, काम-धन्धा कुछ है नहीं तुम्हारे पास, सोच शुरू हो जाती है। भौतिक बेरोज़गारी से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होती है आध्यात्मिक बेरोजगारी। कोई है नहीं जिसके साथ लिप्त रह सकें। भीतरी तौर पर कोई काम-धन्धा है ही नहीं। तो फिर क्या करते हैं? कल्पनाएँ।
अंदर बेहोश रहा करो, लिप्त रहा करो, लिपटे पड़े हो जैसे। ऐसे रहा करो। बाहर-बाहर इन्द्रियाँ सक्रिय रहें, भीतर बिलकुल बेहोशी का, मदहोशी का आलम रहे। ये हलचल नहीं चाहिए कि माया और ये पचास हैं। मुझे तो कभी नहीं ये ख़्याल आया कि माया कितनी है, क्या है।
प्र२: आचार्य जी, जब आप ये कह रहे हो कि भीतर बेहोश रहा करो तो क्या बेहोश रहना मेरा कर्म होगा? आपने बोला था, 'वहाँ रहो जहाँ पर कुछ भी असर नहीं हो सकता, शरीर तो ठंडा-गर्म सब देखेगा, चोट लगेगी, तुम वहाँ रहो जहाँ पर यह सब नहीं होता।' तो इसमें 'तुम' कौन है?
आचार्य: तुम माने तुम, जो बोल रहा है। तुम माने तुम, जो अपनेआप को हर अनुभव का 'भोक्ता' कहता है। तुम माने वो जो कहता है कि मुझे बड़ा सुख है कि दुःख है। उसको मैं कहता हूँ वो 'टुन्न' रहे। बाहर-बाहर चीज़ें चल रही हैं, उसे कुछ पता ना चले। सन्तों ने कभी उसको खुमारी कहा है, कभी उन्मनी दशा कहा है, कभी निर्लिप्तता, कभी उदासीनता। ज्ञानी की भाषा में वह निर्लिप्तता होगी, मैं उसको लिप्तता कहता हूँ। मैं कहता हूँ तुम परमात्मा से लिपट जाओ, ऐसी लिप्तता, लिपट जाओ, टुन्न, फिर कहाँ माया!
प्र२: नदी में पानी बहुत ठंडा था (सब हँसते हैं)। मैं सोच रहा था तो फिर मैं वहाँ कैसे रहूँ जहाँ मुझे होना चाहिए?
आचार्य: अरे ठंडा था तो ठंडा तो था ही, परमात्मा गर्म थोड़े ही कर देगा उसको? कहें, 'अध्यात्म का मतलब है कि अपने साथ हीटर लेकर चल लो।' पानी तो ठंडा ही लगेगा न ठंडा है तो? भीतर कुछ होना चाहिए जो यह ठंडी-गर्मी, इन सबमें एक समान रहे।
प्र३: तो इसका मतलब इसका बाहर के कर्मों से कोई लेना-देना नहीं है?
आचार्य: नहीं, है ना। अगर भीतर समरसता है, समभाव है, तो बाहर भी तुम कम उपद्रव करोगे।
प्र३: तो क्या ये हमारे कर्मों में भी परिलक्षित होगा?
आचार्य: हाँ-हाँ दिखेगा, बिलकुल, और क्या? अध्यात्म अगर आचरण में नहीं दिख रहा है तो फिर व्यर्थ है। अध्यात्म बिलकुल व्यवहार में दिखेगा ही दिखेगा, अलग से चमकोगे। और कोई अगर ज्ञाता होगा तो तुम्हें दूर से देखकर बता देगा कि यह बन्दा अलग है।
प्र३: तो क्या इसी का परिणाम होता है कि बौद्ध पुरुषों की आँखों में चमक दिखाई देती है या वाणी में मधुरता परिलक्षित होती है?
आचार्य: पर वो चमक या मधुरता सब की पकड़ में नहीं आते और ना ही वो एक तरह के होते हैं। हम जिस तरीक़े से मूर्तियों में या चित्रों में दिखा देते हैं वो अति सरलीकरण है, ओवरसिंप्लीफिकेशन है। हम तो सबको ही एक जैसा दिखा देते हैं। हमारे दिखाए तो नानक साहब की आँखें और बुद्ध भगवान की आँखें बिलकुल एक जैसी होती हैं। देखा है? अधमुंदी आँखें, बिलकुल एक जैसी।
आवश्यक नहीं है एक जैसी हों। हाँ, ओजवान चेहरा दोनों का होगा, नूर दोनों के चेहरे से उठेगा, पर वो नूर अलग-अलग तरह का होगा। वो ऐसा नहीं है कि तुम पहले से एक छवि बनाकर जाओगे कि सन्त का चेहरा तो ऐसा ही होता है और तुम फिर उस चेहरे से मिलान कर-करके खोज लोगे, गूगल सर्च। वैसे नहीं कर पाओगे। तेज होता है, लेकिन तेज कोई बच्चों की कहानियों की चीज़ नहीं है कि तुम उसको यूँ ही चिह्नित कर लो।
मेरे ख़्याल से रमण महर्षि थे, उन्होंने कहा था कि ज्ञानी अलग ही दिखता है पर उसको अलग देख भी ज्ञानी ही पाता है।