मन को सही दिशा कैसे दें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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मन को सही दिशा कैसे दें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी-अभी मेरी एक प्रवेश परीक्षा हुई थी, मैं उसमें फ़ेल हुआ। बाहर हो गया उससे तो काफ़ी ज़्यादा आहत हुआ था। अब मन नहीं लगता पढ़ाई में बिल्कुल भी और अब आगे कुछ करने का दिल भी नहीं कर रहा। बिना करे कुछ होगा भी नहीं, चाहता हूँ कुछ दोबारा करूँ पर दिमाग टिक नहीं रहा। निष्ठा नहीं है उसके लिए।

आचार्य प्रशांत: मन तो बेटा पहले भी नहीं कर रहा था, तभी तो नतीजा ऐसा आया है। ऐसा थोड़ी है कि मन ताज़ा-ताज़ा बेज़ार हुआ है। मन तो पहले भी उदासीन ही था, पर अपनेआप को तुम ठेले रहे कि परीक्षा देनी है, तो दे आये। और उसमें कुछ हुआ नहीं, होगा भी कैसे।

मन को थोड़ा भरोसा तो दिलाओ कि उससे जो करवाना चाहते हो, वो उसके हित में भी है। बच्चे को पकड़कर घसीटे लिये जा रहे हो बाज़ार की ओर, और वो मचल रहा है, इधर उधर हाथ-पाँव फेंक रहा है। उसको कुछ पता भी है, तुम उसको बाज़ार क्यों लिये जा रहे हो? उसे बाज़ार में हासिल क्या हो जाना है? बस एक संकल्प, एक इरादा और मन से कहते हो कि तू पीछे-पीछे आजा। और मन पीछे न आये तो कहते हो कि इसको नियंत्रण में कैसे लायें? अध्यात्म में कोई नुस्ख़ा है क्या?

जैसे बच्चे को लाया जाता है नियंत्रण में, वैसे ही तुम मन को नियंत्रण में लाते हो। कभी ललचा के, कभी उसको ठोक बजा के, कभी उसपर ज़ोर-ज़बरदस्ती करके। ये होते देखा है कि नहीं कि पिताजी बच्चे को घसीटे लिये जा रहे हैं बाज़ार की ओर और वो घिसट रहा है? वो हाथ छुड़ाना चाहता है, उसका हाथ ज़बरदस्ती पकड़ लिया है और अब उसने क्या शुरू कर दिया है? घिसटना! ऐसा तो तुम्हारा और मन का रिश्ता है, उसे घसीटे रहते हो।

अगर जो तुम कर रहे हो, वो वास्तव में तुम्हारे लिए हितकर है, तो मन को समझाओ कि कैसे हितकर है। या फिर बच्चे से ही पूछ लो कि तुझे क्या चाहिए और उसे समझा दो कि जो तुझे चाहिए वो बाज़ार में ही मिलेगा, तो मेरे साथ तू ज़रा सहयोग कर और बाज़ार की तरफ चल!

जो भी तुम दे रहे हो प्रतियोगी परीक्षा वो क्यों दे रहे हो? उससे मन की बेचैनी को क्या लाभ होगा? बताओ?

हो सकता है कि तुम बच्चे को ले जा रहे हो डॉक्टर के यहाँ, लेकिन बच्चा तो ज़िद मारे है कि मुझे खिलौने चाहिए। या तो बच्चे को समझा दो कि खिलौने से ज़्यादा क़ीमती है दवा। या फिर ये भी हो सकता है कि तुम्हें बच्चे की वास्तविक ज़रूरतों से कोई मतलब ही नहीं है। तुम बाज़ार जा रहे हो, अपने लिए शराब लेने और बच्चा कह रहा है, मुझे दिलवा दो थोड़ी सी मिठाई! पर तुम्हें इस बात से मतलब ही नहीं है कि बच्चे को शराब भाएगी नहीं, उसको तो थोड़ी सी मिठाई चाहिए।

मतलब समझना! तुम जो जीवन जी रहे हो, तुम जिस दिशा बढ़ रहे हो, और मन की जो माँग है, उसमें कुछ सामंजस्य तो बनाओ। सामंजस्य बन गया तो मन अपनेआप सहमत नहीं हो जाएगा क्या? भई, मन की माँग है मिठाई, और तुम्हारे क़दमों की दिशा है बाज़ार। मन को अगर तुम बता दो कि जो तेरी माँग है, हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं, तो मन क्या अपनेआप चुप नहीं हो जाएगा? फिर वो तुम्हारे साथ सहयोग करेगा कि नहीं करेगा? फिर तो बच्चा बल्कि तुम्हारे आगे-आगे भागेगा। वो कहेगा, 'जिस दिशा चल रहे हो, उधर को ही चलिए, और तेज़ी से चलिए न! जितनी तेज़ी से चलेंगे, उतनी जल्दी मुझे मिठाई मिलेगी।'

पर अभी तो तुम्हारे कर्मों की दिशा और क़दमों की दिशा पता नहीं कहाँ को है। और मन की जो भूख है और प्यास है, उसकी दिशा बिल्कुल दूसरी है, कुछ और है। तो कोई मेल ही नहीं है, कोई एलाइनमेंट (सीध) ही नहीं है। तो बच्चा घिसट रहा है सड़क पर।

तुम जो भी कर्म कर रहे हो, वो क्यों कर रहे हो? बताओ, प्रतियोगी परीक्षा क्यों दे रहे हो? अगर तुम्हें साफ़-साफ़ पता हो कि तुम क्यों दे रहे हो परीक्षा, तो ऐसा कैसे होगा कि तुम फिर उसमें मेहनत नहीं करोगे? या तो मेहनत करोगे पूरी या फिर वो परीक्षा छोड़ ही दोगे। पर तुम ये कभी पता ही नहीं करने की कोशिश करते कि तुम कोई परीक्षा लिख रहे हो, तो क्यों लिख रहे हो। और उस पर तुम्हारा जलवा ये, तुम्हारी उम्मीद ये कि इस नासमझी में मन तुमसे सहयोग करेगा।

तुम ख़ुद ही नहीं जानते हो परीक्षा क्यों लिख रहे हो, मन को कैसे समझाओगे? इतने लोग हैं, हज़ार परीक्षाएँ लिख रहे होते हैं, उनको बैठाकर के पूछना शुरू कर दो, 'ठीक-ठीक बता, तुझे इस संस्थान में प्रवेश क्यों चाहिए? या तुझे ये नौकरी क्यों चाहिए?' तो कुछ इधर-उधर की दो-चार सतही बातें बोलेंगे, उसके बाद फुस्स! बहुतों का तो साक्षात्कार, इंटरव्यू ऐसे ही बर्बाद होता है। उनसे पहला सवाल ही यही पूछा जाता है, ‘ये नौकरी चाहिए क्यों?‘ और वो बेईमानी का जवाब देते हैं तो थोड़ी देर में पोल खुल जाती है। और ईमानदार जवाब देते हैं तो ईमानदार जवाब एक ही होता है कि वो चचा और ताऊ दोनों बोल रहे थे कि तू परीक्षा लिख दे तो हमने लिख दी। बाक़ी अगर पता करना है कि काहे को लिखी तो ताऊ को बुलाए देते हैं, नहीं तो फ़ोन लगाए देते हैं। ‘ताऊ, इनको बता देना, काहे तुम हमसे परीक्षा लिखवाए हो।’ क्योंकि अपनी मर्ज़ी से तो हमने परीक्षा लिखी नहीं थी। हम जो भी परीक्षा लिख रहे हैं, वो तो कोई और ही लिखवा रहा है हमसे।

क्यों, सही बोल रहा हूँ न?

तो इंटरव्यू में जब सवाल भी पूछा जाएगा तो उसका ईमानदार जवाब तो एक ही होगा कि पप्पा का नम्बर डायल किये देते हैं, लो उन्हीं से पूछ लो। का है कि वही हमसे बार-बार फॉर्म भरवाते हैं।' हमारा बस चले तो हम तो यहाँ से कब के भाग जाएँ। पर क्या बताएँ, कुछ मग़रूरी है, कुछ मजबूरी है। पेट भरना भी ज़रूरी है।

कॉलेज में कम्पनियाँ आती हैं, प्लेसमेंट के लिए। एक से एक सूरमा! सूरमा ऐसे कि वो एक साथ तीन मोर्चों पर लड़ते हैं! कहें, ‘तीन कम्पनियों का फॉर्म भर आये हैं।’

अच्छा, पहली कौनसी है?

’सॉफ्टवेयर।’

दूसरी क्या है?

’फ़ार्मा।’

तीसरी क्या है?

’रीटेल।’

तुझे करना क्या है ज़िन्दगी में? सूरमे!

'नहीं, कुछ नहीं पता! पर्चा था तो भर दिया!'

वैसे ही बाज़ार को निकलेंगे, वहाँ जो भी नया फॉर्म निकला है, भर दो। रेलवे का निकला है, भर दो; क्लर्की का निकला है, भर दो; आइएएस का निकला है, भर दो; प्यून का निकला है, भर दो। तुझे कुछ पता भी है, तुझे ज़िन्दगी में क्या करना है? 'हमें पर्चा भरना है।' और जहाँ भी तुक्का लग जाए, वहीं घुस जाएँगे। रिटेल में लग गया, रिटेल में घुस जाएँगे, फॉर्मा में लग गया, फॉर्मा में घुस जाएँगे।

और फिर तुम चाहते हो कि मन तुम्हारा साथ दे, तुम जो भी परीक्षा लिखने जाओ, तैयारी करो, उसमें मन बिल्कुल एकाग्र हो जाए, और पढ़ाई करे, और ध्यान दे। मन तुम्हारे साथ सहयोग क्यों करे बेटा? कभी तुम कहते हो कि मुझे सिपहसालार बनना है, कभी कहते हो, स्विमिंग पूल का चौकीदार बनना है। दोनों ही पर्चे तुम बराबर की शिद्दत के साथ भरते हो। और मन बेचारा हैरान! कह रहा है कि करवाना क्या है हमसे? कभी हलवाई की दुकान का फॉर्म भर दिया, कभी कुछ कर दिया, कभी कुछ कर दिया। जहाँ ही झिर्री देखी नहीं, वहीं नाक डाल दी।

मन, मुझे बताओ न, तुम्हारे इन सब अंधे प्रयत्नों में तुम्हारे साथ सहयोग करेगा क्या? अभी पिछले इंटरव्यू में तुम बोलकर आये थे कि मेरी तो ज़िन्दगी ही बनी है सॉफ्टवेयर के लिए। मैं ऊपर से लेकर नीचे तक कितना सॉफ्ट हूँ, मेरे सारे वेयर देख लो। आइ एम नथिंग बट सॉफ्टवेयर! अभी कल तो तुम ये बोलकर आये थे, ‘मैं तो जन्मजात सॉफ्ट हूँ।’ और अगले दिन दूसरे इंटरव्यू में बोल रहे हो कि मैं तो पैदा ही हुआ हूँ रियल एस्टेट के लिए। धरती मेरी माता है, कुल्हाड़ा मुझे भाता है, फावड़ा मेरा चुनाव चिह्न है।

आत्मा है कहीं? आत्मा माने समझते हो? जो एक होती है, बदलती नहीं। आत्मा है कहीं? तुम तो पल-पल बदल जाते हो। आत्मा कहीं हो, तो मन उसमें रमे। मन को रमने के लिए एक ही जगह सुहाती है, कौनसी जगह? आत्मा। तुम मन को पचास तरीक़े के व्यर्थ ठिकाने देते हो, वो भी ऐसे ठिकाने जो रोज़ बदल रहे हैं और चाहते हो कि मन कहीं भी जाए और वहीं पर जम जाए। मन जमेगा? वो विद्रोह करता है फिर। वो विद्रोह करता है, तुम उसे पीट देते हो, उसकी शिकायत और करते हो। अभी और क्या कर रहे हो? 'मन नहीं लग रहा, मन बहुत बुरा है।' ज़रूर!

कुछ करने लायक लक्ष्य बनाओ, फिर देखो कि मन को-ऑपरेट (सहयोग) करता है या नहीं करता! फिर करेगा, बेशक करेगा। कोई करने लायक़ काम तो करो। कोई हार्दिक लक्ष्य तो बनाओ। तुम्हारे लक्ष्य ही सब ऐसे ही हैं, ऊल-जलूल, हवा-हवाई! फिर रोज़ बताते हो कि मन नहीं लगता तो अब क्या करें आचार्य जी। फिर यही करते हैं, ‘जय हो!’

प्यार होता है तो मन को समझाना पड़ता है? 'प्यार कर ले, मान जा, अच्छा एक बार करके देख ले!' ऐसे समझाना पड़ता है? फिर तो मन अपनेआप ही आगे-आगे भागता है न? तो ज़िन्दगी में कोई प्यार करने लायक शय तो लेकर आओ! फिर तुम मना भी करोगे तो मन ऊर्जावान रहेगा। मन कहेगा, चीज़ इतनी अच्छी है कि उसको पाने के लिए अगर श्रम करना है तो हम करेंगे। उतनी अच्छी कोई चीज़ तो जिन्दगी में लाओ, उतना प्यारा कोई लक्ष्य तो बनाओ।

वैसे प्यारे लक्ष्यों की बात नहीं कर रहा हूँ कि पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा। (श्रोता गीत सुनकर गदगद हो जाता है) ये देखो, चेहरे पर क़तई जलेबी खिल आयी है, रस टपक रहा है, पोंछो! ‘बन्दा ये खूबसूरत काम करेगा, दिल की दुनिया में अपना नाम करेगा।’ (हँसी)

वहाँ भी लक्ष्य अगर वाक़ई खूबसूरत न हो, तो कुछ दिनों के बाद बोरियत होने लग जाती है। तुम्हें फिर अपनेआप को घसीटना पड़ता है कि चलो अब क़सम उठाई है, वादा किया है तो निभाओ। होता है कि नहीं होता है?

मन सौन्दर्य का पुजारी है, सौन्दर्य का! उसे कोई इतना खूबसूरत मंज़र दिखाओ कि वो होश खो बैठे। अपनेआप आगे बढ़ेगा फिर। दौड़ता चला जाएगा, रुकेगा नहीं!

प्र२: आचार्य जी, मैं पिछले पाँच-छ: साल में आपकी बदौलत टीचिंग में आया और बहुत मज़ा आया इसमें। हाल ही में ऐसा कुछ हुआ कि मुझे कुछ समय के लिए नॉन-टीचिंग (गैर-शिक्षण) में रखा गया जिसका मैंने कुछ विद्रोह भी किया। बाद में मुझे ऐसा लगा कि क्लासेज़ लेने में कुछ ख़ास नहीं है, इतना कोई शौक भी नहीं है। जबकि काफ़ी सालों से मुझे हमेशा यही लगता था कि ये मेरा पैशन (जुनून) है और ये हिला कभी नहीं है। पर अब ऐसा लग रहा है कि कोई ख़ास चीज़ नहीं है। हो तो ठीक, न हो तो ठीक। वो एक जज़्बा सा पहले रहता था कि करना है, बात करनी है, अब वो जज़्बा नहीं रहा।

आचार्य: उस जज़्बे से बहुत दिन तक दूर नहीं रहा जा सकता। जो पा रहा है, वो बाँटेगा। बीच में हो सकता है अभी एक अंतराल चल रहा हो, जब शिक्षण के प्रति तुममें थोड़ी उदासीनता आ गयी हो, बहुत समय तक नहीं रह पाएगी। शिष्य को शिक्षक भी होना ही पड़ेगा, यही गुरुता की तरफ़ उसकी यात्रा है। अगर सुन रहे हो, अगर यहाँ कमा रहे हो, तो बाँटना तो तुमको पड़ेगा ही। अभी हो सकता है दो-चार दिन, दो-चार महीने, मन का कोई मौसम चल रहा हो। अभी तुम कहो कि अभी बस भरेंगे अपने में, बाँटेंगे नहीं। पर जल्दी ही बरसात आएगी, बादल छाएँगे। जो पाया है, वो बरसाना भी पड़ेगा। पूरा साल नहीं बिता सकते तुम बिना बरसे! कोई साल बीता है ऐसा, जब बारिश न हुई हो। हाँ, कुछ महीनों के लिए नहीं होती!

कोई बात नहीं! जब तक पढ़ाने का मन नहीं कर रहा, तब तक बादल जैसे हो जाओ। पीते चलो, झुकते चलो, ताकि जब बरसने का दिन आये तो छप्पर फाड़कर बरसो फिर।

"निकला शेर हाँके से, बरसो राम धड़ाके से"

कितने ही साधक हुए हैं जो बहुत लम्बे समय के लिए मौन हो गये पर फिर विस्फोट होता था। और मौन टूटता था तो दसों दिशाएँ काँपती थीं। और मौन से जिसका शब्द उच्चारित होता है, उसके शब्द में बड़ी जान आ जाती है।

ये बड़ी मजबूरी की बात होती है, ये कोई शौक इत्यादि नहीं है। ये मजबूरी होती है। पाया है तो बाँटना पड़ता है और ये बात उन्हें कभी समझ में नहीं आएगी जिन्होंने पाया नहीं है। मुझसे लोग पूछते हैं, कहते हैं, 'तुम्हें खुजली क्या है? तुम्हें मिल गया है तो चुपचाप पड़े रहो, मौज मनाओ! ये तुमने क्या आफ़त फैला रखी है? अपना भी शरीर नष्ट कर रहे हो, दूसरों को भी नाहक परेशान करते रहते हो। कभी किसी को पकड़ लेते हो, कभी किसी के कपड़े उतरवा देते हो। ख़ुद जिओ, औरों को भी जीने दो। तुम्हें मिल गयी शान्ति न, तो ठीक है!'

तुम समझोगे नहीं। जिसे मिलती है, उसे बाँटना पड़ता है। ये बात शग़ल की नहीं है, शौक की नहीं है, ये बात मजबूरी की है। तुम ये जो कर रहे हो न, इतना घूम-घूमकर सुन रहे हो, पी रहे हो, ये तुम और क्या कर रहे हो? ये तुम इंतज़ाम कर रहे हो बाँटने का। उसमें जल्दबाज़ी की, हड़बड़ाहट की कोई ज़रूरत नहीं है। पर वो होकर तो रहेगा ही, नहीं तो फट जाओगे! समझ रहे हो?

गुब्बारा जितना ऊपर उठता जाता है, उतना उसके फटने की संभावना कम होती जाती है। ऊपर उठना गुब्बारे का रुआब नहीं है, उसकी मजबूरी है। अपनेआप को बचाने का उसका एकमात्र तरीक़ा है। जब गुब्बारा बिल्कुल धरातल पर होता है तब गुब्बारे के भीतर का दबाव और बाहर का दबाव बहुत अलग-अलग होता है। और बाहर-भीतर अगर दबाव इतने अलग-अलग हैं तो गुब्बारा फट जाएगा। गुब्बारा जितना ऊपर को उठता है, उतना अन्दर-बाहर का दबाव बराबर होता जाता है। तो गुब्बारा अपनी जान बचाने को ऊपर को उठता है। इसी तरीक़े से ऊर्ध्वगमन शिष्य की मजबूरी है। ऊपर उसे उठना ही पड़ेगा। नहीं उठेगा ऊपर, तो बर्बाद हो जाएगा, मर जाएगा!

और गुब्बारा पता है, ऊपर कहाँ जाकर रुकता है? जहाँ अन्दर-बाहर का दबाव एक बराबर हो जाता है, वहाँ रुक जाता है। अन्दर-बाहर अब एक सा हो गया। अष्टावक्र कहेंगे कि "घट के भीतर का आकाश, घट के बाहर के आकाश से मिल गया।"

"बाह्य भीतर एक सा"

अब अन्दर-बाहर बिल्कुल एक सा हो गया, अब वो रुक जाएगा। जब तक अन्दर-बाहर एक सा नहीं हो गया तब तक उसे गति करनी ही पड़ेगी। कौनसी गति? ऊर्ध्वगति! वो गति बहुत आवश्यक है, उसको रोक मत देना! नहीं, चैन नहीं पाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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