मन को काबू कैसे करें?

Acharya Prashant

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मन को काबू कैसे करें?
जिसे तुम काबू में रखना चाहते हो, वो तुम्हारी छाया है। तुम जैसे हो, वो वैसी है। तुम उसे काबू में कैसे कर लोगे? मन निर्धारित ही इस बात से होता है कि तुमने अपने-आप को क्या समझ रखा है, क्या बना रखा है। तुम बदल जाओ, मन बदल जाएगा। इसलिए तुमने जो भी अपने-आप को बना रखा है, उसको समझो। ग़ौर से देखो कि क्या बना रखा है! फिर नहीं कहना पड़ेगा कि मन को काबू में कैसे करें। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा प्रश्न ये है कि मन को काबू में कैसे रखा जा सकता है? जो व्यावहारिक लोग हैं या जो समाज में रहते हैं, उनमें रहते हुए कोई ऐसी सरल विधि हो जिसका उपयोग करके मन को काबू में कर सकें और फिर अन्ततः जो भगवान ने राह दिखाई है, उसके ऊपर चल सकें।

आचार्य प्रशांत: ‘मन को काबू में कैसे रखें?’ किसके काबू में? कौन है जो मन को काबू में रखना चाहता है? ये धुरंधर कौन है? कहिए, ये ‘मैं’ कौन है जो मन को काबू में रखेगा? (श्रोतागण हँसते हैं।)

अब समझो गौर से! जिसे तुम काबू में रखना चाहते हो वो तुम्हारी छाया है। तुम जैसे हो वो वैसी है, तुम उसे काबू में कैसे कर लोगे? लेकिन मज़ेदार चीज़ है। न सिर्फ़ हम ये सवाल करते हैं कि मन को काबू में कैसे रखें, बाज़ार में इस सवाल के सैकड़ों जवाब भी बिक रहे हैं और खूब खरीददार हैं — ऐसे काबू में करें, वैसे काबू में करें। ये वैसा ही सवाल है कि जैसे कोई पूछे कि आइने में अपनी प्रतिछवि को कैसे बदल दें। अपनी शक्ल को बदलो तो आइने में जो दिख रहा है वो भी बदल जाएगा।

मन ‘मैं’ का मौसम है। मन ‘मैं’ के इर्द-गिर्द की गतिविधि है। ‘मैं’ जैसा होगा, उसके इर्द-गिर्द की गतिविधि भी वैसी ही होगी, उसका नाम मन है। मन निर्धारित ही इस बात से होता है कि तुमने अपने आप को क्या समझ रखा है, क्या बना रखा है, ‘मैं’ ने किससे आसक्ति जोड़ रखी है।

तुम अगर अपने आप को गलत समझते हो तो मन ठीक कैसे हो जाएगा? तुम अगर जाकर खड़े ही कीचड़ में हो गए हो, तो आसपास खुशबू का माहौल कैसे रहेगा? कोई कीचड़ के बीच खड़ा होकर के पूछे कि, 'ये सब बदबू कैसे बदली जाए, कैसे हटाई जाए, बदबू काबू में कैसे की जाए?’ तो मैं कहूँगा, ‘बदबू को छोड़ो, तुम जहाँ खड़े हो वहाँ से हटो।’ तुम जहाँ खड़े हो बदबू वहाँ की अनिवार्यता है। लेकिन ज़िद तुम्हारी पक्की है। तुम कहते हो, ‘हम वहीं खड़े रहेंगे जहाँ हम हैं, बदबू नहीं आनी चाहिए।‘ ये नहीं हो सकता!

तुमने अपने आप को जो बना लिया है उस कर्म का फल है मन का उपद्रव। तुम बदल जाओ, मन बदल जाएगा। मन माने क्या? मन से तुम्हारा आशय होता है चेतना। मन से तुम्हारा आशय होता है भीतर से जो भावनाएँ उठती हैं, विचार उठते हैं, प्रतिक्रियाएँ उठती हैं, इन्हीं सब को तुम मन कहते हो। तुम ये देख ही नहीं रहे कि ये सारे विचार किसको उठते हैं। ये सारी भावनाएँ, ये प्रतिक्रियाएँ किसको उठती हैं? तुम्हें उठती हैं। इनके केंद्र में तुम हो।

समझो! तुमने अगर अपनी परिभाषा ही यही रखी है कि मैं वो हूँ जो कमज़ोर है, जिसको सहारे की, सुरक्षा की ज़रूरत है, तो मन का माहौल हमेशा किसका रहेगा? मन का माहौल भय का रहेगा, डरा-डरा रहेगा। अब तुम कहो कि मुझे डर को काबू करना है — जैसे तुमने पूछा न मन को काबू में कैसे करें — अब मन में डर घूम रहा है और तुम कह रहे हो कि मुझे डर को काबू करना है। डर को तो मुझे काबू करना है, लेकिन मेरी पहचान यही है कि मैं वो हूँ जो कमज़ोर है। अब अगर तुम कमज़ोर ही हो, तो डर को काबू में कैसे कर लोगे भाई!

तुम अपने आप को कुछ बनाकर के जीवन में घूमते हो, रमण करते हो। जो तुमने अपने आप को बना रखा है उसको समझो, ग़ौर से देखो कि क्या बना रखा है! और जो कुछ भी तुमने अपने आप को बना रखा है, वो तुम्हारे लिए परेशानी का ही कारण बनेगा।

अध्यात्म है तुम्हें समझाने के लिए कि या तो अपने आप को पूरा कर दो या अपने आप को ख़त्म ही कर दो। इन्हीं दोनों स्थितियों में तुम्हें पहचानों से मुक्ति मिलेगी, इन्हीं दोनों स्थितियों में तुम्हें झूठे उपद्रवों से मुक्ति मिलेगी। क्यों अपने आप को आधा-अधूरा समझते हो? और जो भी कुछ तुम समझते हो अपने आप को, वो आधा-अधूरा ही है, आंशिक ही है, इधर से उधर से मिला है, पकड़ लिया है।

काम तो आसान होना चाहिए कि अपने आप को अब पूरा मानना है। पहले अधूरा मानते थे, अब अपने आप को पूरा माना करेंगे। आसान नहीं है। आसान इसलिए नहीं है क्योंकि अधूरा मानने में ‘मैं’ बचा रहता है। अपने आप को पूरा मानने में ‘मैं’ मिटता है। अधूरा मानने में बड़ा स्वार्थ जुड़ा हुआ है। स्वार्थ तो जुड़ा हुआ है, पर अधूरा मानने के साथ तकलीफ़ भी बहुत जुड़ी हुई है। जब तकलीफ़ उठती है तो फिर ऐसे सवाल करते हो कि मन को काबू में कैसे लाएँ। अधूरे ‘मैं’ को कहते हैं अहम्, पूरे ‘मैं’ को कहते हैं आत्मा।

समझ रहे हो बात को?

जब तक कहते रहोगे कि मैं कौन हूँ? 'मैं ये हूँ,' 'मैं ये हूँ,' 'मैं ये हूँ,' 'मैं ये हूँ,' 'मैं ये हूँ’ (अलग-अलग वस्तुओं की ओर इशारा करते हुए) तो मन तुम्हारी इसी परिभाषा के अनुसार निर्धारित होता रहेगा। फिर शिकायत मत करना। “बोए पेड़ बबूल, आम कहाँ से खाए”

इस बोध के साथ जिओ कि भीतर-भीतर हम बिल्कुल पूरे हैं, हमें कोई ज़रूरत नहीं, ज़रूरतें जितनी हैं सब बाहरी हैं। ज़रूरतें पूरी हो जाएँ तो भी कोई बाहरी चीज़ पूरी हुई, ज़रूरतें पूरी नहीं भी हुईं तो भी कोई बाहरी चीज़ अधूरी रही, भीतर-भीतर हम लगातार पूरे हैं। जब पूर्णता में जिओगे तो मन एक सीमा से ज़्यादा खराब नहीं होगा। मन खराब भी होगा तो बाहर-बाहर खराब होगा। क्योंकि फिर अच्छाई, बुराई, खूबी, खराबी सब बाहर-बाहर रहती हैं। तो फिर मन खराब भी होगा तो बाहर-बाहर होगा।

कोई तुम्हें देखकर कहेगा कि आज तुम्हारा मन, मूड कुछ अच्छा नहीं लग रहा। तुम कहोगे, ‘हाँ, खराब है थोड़ा, बाहर-बाहर खराब है, अंदर से तो मस्त है।‘ जैसे कोई फल हो रसीला, जिसके छिलके पर धूल पड़ गई हो, उस धूल का उसके रस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा, भीतर-भीतर वो फल मस्त है। हाँ, आंधी चली थी, धूल पड़ गई है। आज आंधी चली थी, धूल पड़ गई है। आज थोड़ा सा छिलका गंदा है, हम तो लेकिन रसीले ही हैं, हम पर कोई असर नहीं पड़ रहा, ऐसे जिओ। फिर नहीं कहोगे कि मन को काबू में करना है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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