मन को एकाग्र कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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मन को एकाग्र कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, मन भटकता बहुत है। कहीं भी एकाग्र करने का प्रयास करूँ, तो भी एकाग्र नहीं होता। इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: मैं तुम्हें बता दूँ कि मन को कैसे एकाग्र करते हैं, ताकि तुम इसको बिल्कुल बढ़िया वाली जगह पर एकाग्र कर दो। है न? क्या इरादे हैं भई? जैसे कोई कसाई मुझसे आकर के पूछे कि – “ये मेरे बकरे भागते बहुत हैं इधर -उधर,” और मैं उसको बता दूँ कि कैसे वो न भागें ताकि वो उन्हें ……

श्रोतागण: काट सके।

आचार्य प्रशांत: भली बात है कि मन भाग जाता है। नहीं भागेगा, तो तुम करोगे क्या उसका? कहाँ एकाग्र करने वाले हो, ये तो बाताओ। तुम्हें ‘एकाग्रता’ तो चाहिए, और बहुत दुकानों पर एकाग्रता बिक रही है, बताया जा रहा है कि कंसन्ट्रेट (एकाग्र) कैसे करना है, पर कहाँ कंसन्ट्रेट करना है, पहले मुझे ये बताओ।

अपने सड़े हुए दफ़्तर में बैठे हो, जहाँ सड़ा हुआ काम है, वहाँ से मन भाग रहा है। ये तो भली बात है कि मन भाग रहा है। मन भागकर तो तुमको यही बता रहा है कि – जहाँ बैठ गए हो, वहाँ तुमको नहीं बैठना चाहिए। और ज़िंदगी में जो कुछ भी कर रहे हो, अगर वो इस लायक नहीं है कि तुम्हें शांति दे सके, तो मन वहाँ से भागता है।

मन को एक बार वो तो देकर देखो न जो मन को चाहिए, फिर मुझे बताना कि मन भागा क्या। जिनका मन एकाग्र नहीं हो पाता, वो भले हैं उनसे जिनका मन एकाग्र हो पाता है। अपने बच्चों को एकाग्रता सिखा मत देना।

देखना कि लोग अपने मन को कहाँ-कहाँ एकाग्र कर लेते हैं; दुनिया के बड़े-से-बड़े पाप हो रहे हैं एकाग्रता से। सब बड़े अपराधियों को देखना, उन्होंने बहुत एकाग्र होकर अपराध किए। और दुर्भाग्य की बात ये है कि देखोगे तो अपराधी ज़्यादा पाओगे।

सत्कार्य करने के लिए एकाग्रता नहीं, एकनिष्ठा चाहिए। और इन दोनों में बहुत अंतर है। सही जीवन एकाग्रता से नहीं ,एकनिष्ठा से आता है।

एकाग्रता और एकनिष्ठा में अंतर क्या होता है?

एकाग्रता में विषय तुम चुनते हो। तुम चुनते हो कि – “अब ज़रा मुझे एकाग्र हो जाना है।” अपने बच्चों को बताते हो न – “बेटा, अब एकाग्र होकर ज़रा इतिहास पढ़ो”?

और एकनिष्ठा में तुम चुनने का अधिकार त्याग देते हो।

वो एकनिष्ठा है।

मन तुम्हारा इधर-उधर भागता ही इसीलिए है क्योंकि तुम उसे सही जगह नहीं दे रहे। और मन बहुत ज़िद्दी है। उसे सही जगह नहीं दोगे, तो वो तो भागेगा।

तुम बहुत ज़बरदस्ती करोगे उसके साथ, तो वो कहेगा, “ठीक है, अभी कर लो ज़बरदस्ती। हम मौका देखकर भागेंगे। अभी नहीं भागेंगे, तो सपनों में भागेंगे।”

तो जो लोग अपने जीवन को बड़ा संयमित कर लेते हैं, बड़ा अनुशासित कर लेते हैं, उनका मन मौका देखकर के फिर सपनों में और ढील के क्षणों में, बंधन तोड़-तोड़कर भागता है।

तुम्हें किसी को बंधक बनाकर रखना है, हिंसा करनी है, या उसे प्रेमपूर्वक शांति दे देनी है? बोलो क्या करना चाहते हो? बच्चा है तुम्हारा, वो भागता है। अरे भई, तो तुम देखो कि कैसे अभिभावक हो तुम। उसे वो दो न जो उसे तृप्त कर देगा।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बच्चों के प्रति सख्ती न रखी जाए, तो समाज उन्हें भला-बुरा कहता है, और हमारी परवरिश पर सवाल उठता है। ऐसे में क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: बच्चा थोड़े ही है, सार्वजनिक संपत्ति है। दुनिया के लिए पैदा किया था, पैदा करते ही न्यौछावर कर दिया था दुनिया को – “ये बालक मैंने विश्व कल्याण हेतु, अभी-अभी ताज़ा पैदा किया है। अब ये विश्व को समर्पित है।”

सीधे क्यों नहीं बोलते कि डरते हो। डर का इलाज करो न अपने। बच्चे की क्यों जान ले रहे हो? दुनिया से इतना ख़ौफ़ खाते हो, और वही ख़ौफ़ बच्चे में डाल रहे हो। वो भाग रहा है इधर-उधर, लोगों को कह रहे हो – “अरे, माफ़ कीजिए।”

एकाग्रता के पीछे लालच होता है, एकाग्रता के पीछे डर होता है। एकनिष्ठा में प्रेम होता है।

जब कॉलेज के युवाओं से संवाद में बात करता था, तो मैं पूछता था, “ये बंदूक अगर मैं तुम्हें दिखाऊँ, तो तुरंत एकाग्र हो जाओगे या नहीं?” तो वो बोलते थे, “हाँ, हो जाएँगे।” अभी अगर यहाँ पर बंदूक दिखा दी जाए, तो बिल्कुल चित्त स्थिर हो जाएगा। सब विचार आने बंद जाएँगे। समाधि लग गई अभी! योगस्थ हो गए हैं।

(हँसी)

तुम्हें तो बंदूक वाला योग चाहिए। और ये भय वाला योग है – एकाग्र-योग। वैसे ही एक दूसरा होता है। मैंने पूछा लड़कों से, “अभी मैं यहाँ एक कोलाज लगा दूँ तस्वीरों का, और वो सारी तसवीरें देवी-देवताओं, महात्माओं, संतों की हों, और बीच में उसमें नग्न स्त्री की एक छोटी-सी तस्वीर हो, कोलाज है। एकाग्र हो जाओगे या नहीं?” तो वो बोले, “टेलिस्कोप लेकर हो जाएँगे।” और एकाग्र हो ज़रूर जाएँगे।

(हँसी)

ये लोभ वाला चित्त है – एकाग्र। या तो तुम बंदूक से, भयभीत करने वाली वस्तु से एकाग्र हो सकते हो, या तुम्हें कोई लोभित करने वाली कोई वस्तु चाहिए, तो उससे एकाग्र हो सकते हो। ऐसी होती है एकाग्रता। और किसी तीसरी प्रकार की होती हो तो बताओ।

*एकाग्रता सदा अहम को बल देती है, क्योंकि एकाग्र करने वाली वस्तु या तो तुम्हें प्रिय होती है,* *या अप्रिय होती है।* प्रिय होती है, तो उसके प्रति एकाग्र होते हो। अप्रिय होती है, तो उसके विरुद्ध एकाग्र होते हो।

एकाग्रता का अहम से लेनादेना है, अध्यात्म से नहीं। अध्यात्म तुम्हें नहीं सिखाता एकाग्रता। एकाग्रता का तो मतलब होता है कि – अहम अब और ठोस पिंड हो गया। बिखरा हुआ, जो अमोर्फोस पिंड था, वो अब और ज़्यादा एक पिंड हो गया।

और अध्यात्म है उस पिंड का घुल जाना।

अभी तुम मुझे सुन रहे हो, तो क्या एकाग्र हो? नहीं। अभी तुम जो हो, वो ‘एकनिष्ठा’ कहलाती है। विचार और विचलन एकाग्रता में भी नहीं पता चलते, एकनिष्ठा में भी नहीं। पर दोनों में आयामगत अंतर है। अभी-भी तुम में से बहुत होंगे, जिनके विचार इधर-उधर नहीं भाग रहे होंगे। विचारों के विचलित न होने का कारण एकाग्रता नहीं, ध्यान है – यूँही बैठे हो, भय या लोभ से सम्बंधित कोई कारण नहीं है। अकारण बैठे हो।

जीवन में कुछ ऐसा लेकर आओ, जहाँ एकाग्रता की ज़रुरत ही न पड़े।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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