मांगन मरण समान है, मत कोई मांगे भीख | मांगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ||
-कबीर
वक्ता: जब एक साधारण आदमी मांगता है तो वो कुछ विशेष मांगता है| आप कुछ तो मांगने जाओगे न, या ये कह दोगे कि मांग तो रहा हूँ पर ये नहीं पता कि क्या मांग रहा हूँ? और आपने जो माँगा है उसके अतिरिक्त अगर कुछ और मिल गया तो आप स्वीकार भी नहीं करोगे| या कर लोगे?
ये इच्छापूर्ति है| ये वही है जिसको आप कह रहे थे कि अपने भीतर एक खालीपन है, एक अधूरापन है, उसको भरना है| मुझे पता है कि मेरे भीतर खालीपन है, मुझे ये किसी से मिल जाए तो उसको भरना है| इसकी सबसे बड़ी निशानी ये है कि आप कुछ विशेष मांगोगे, और उस विशेष के अतिरिक्त आप कुछ स्वीकार करोगे नहीं|
एक भिक्षु जब मांगता हुआ-सा लगता है, तब वो मांग नहीं रहा होता है| आप सांस लेते हो तो आप अस्तित्व से हवा मांग नहीं रहे हो| एक जानवर जब नदी से पानी पीता है, तो वो नदी से पानी मांग नहीं रहा है, वो नदी का हिस्सा हो गया है| वो और नदी एक हैं, एक ही तंत्र के हिस्से हैं| कौन किससे मांग रहा है ?
वहाँ कोई याचना नहीं है, वहाँ कोई अधूरापन नहीं है, वो प्रकृति है| सांस लेना मेरी प्रकृति है, पानी पीना मेरी प्रकृति है| जिस प्रकृति ने ये शरीर दिया है, वही प्रकृति ये इंतज़ाम भी करेगी कि ये शरीर चले| एक पेड़ के नीचे एक फल गिरा हुआ है, या एक फल लगा हुआ है और आप वो फल खा लेते हो, आपने पेड़ से फल माँगा नहीं है| वो पेड़ और आपका पेट एक हैं, वो एक ही व्यवस्था के दो सिरे हैं| एक ही व्यवस्था है, एक व्यवस्था है जो खाना पैदा कर रही है, और वही व्यवस्था उस खाने को पचाने का इंतज़ाम कर रही है| बात को समझियेगा|
एक ही तंत्र है| याद रखियेगा कि पेट मात्र वही पचा पाएगा जो पेड़ पर पैदा हो रहा है| निश्चित रूप से कोई समान व्यवस्था है, तो उसमें मांगने का कोई भाव नहीं है| इसी तरीके से, पेड़ जड़ों के माध्यम से ज़मीन से पानी और पोषण ले रहा है, तो मांग नहीं रहा है| पेड़ और ज़मीन एक हैं| कौन किससे मांगेगा? एक ही व्यवस्था है, वहां परायेपन का कोई भाव ही नहीं है |
मांगना तब शुरू होता है जब पृथकता आये और पृथक माने ‘अहंकार’| जब तक अलग होने का भाव नहीं है, तब तक मांगने जैसा कुछ नहीं है| इसी कारण प्रेम में आप किसी से कुछ भी ले लेते हो, बिना उसकी अनुमति के भी, बल्कि अनुमति मांगोगे तो परायापन शुरू हो जाएगा| आपका कोई दोस्त है, आप उसकी कमीज़ पहन लेते हो बिना उसकी अनुमति के| अनुमति ली, तो गड़बड़ हो जाएगी क्योंकि परायापन नहीं है| कौन किससे मांग रहा है? जब एक ही हैं, तो माँगना कैसा और देना कैसा?
एक भिक्षु जब मांगने निकलता है, तो वो मांग रहा ही नहीं है| वो अस्तित्व के सामने खड़ा है, अस्तित्व ही बनकर| वो कह रहा है की जहाँ से पेट आया है, वहीँ से अन्न भी आएगा| वो खड़ा हो जाता है और उसकी कोई विशेष मांग नहीं है| आप उसे रोटी दो, वो रोटी डाल लेगा| आप उसे फल दो, वो फल डाल लेगा| आप उसे चावल दो, तो वो चावल डाल लेगा| आप अधपका दो, वो अधपका ले लेगा| हाँ, वो ऐसा कुछ नहीं ले पायेगा जो सड़ा हुआ हो, पर वो तो पशु भी नही लेंगे| वो नहीं कहेगा कि मैं फलानी इच्छा लेकर आपके द्वार आया था, तो आप वही दीजिये| ‘देखिये आप चावल-दाल दे रहे हैं, आज हमारी पिज़्ज़ा की इच्छा है, और आप नहीं दे सकते तो हम कहीं और पता करते हैं’, भिक्षु ये नहीं करेगा| भिक्षु पशु की तरह है, या भिक्षु आपकी श्वांस की तरह है| वो सांस ले रहा है, और जहाँ जा रहा है वहीं से लगातार श्वांस ले रहा है|
उसकी श्वांस-श्वांस में धन्यवाद है, पर किसी विशेष के प्रति नहीं, किसी विशेष के प्रति नहीं| वो भी धन्यवाद दे रहा है, ले ज़रूर रहा है, पर वो पूर्ण से ले रहा है, सम्पूर्ण से ले रहा है| न उसकी कोई विशेष मांग है, और न वो किसी विशेष को धन्यवाद देगा| ‘तुमने थोड़ी ही दिया है, तुम्हारा क्यों अहसान माने? तुमने थोड़ी दिया है’|
किसने दिया? जिसने पेट दिया, उसी ने अन्न दिया और हम उससे अलग कुछ हैं नहीं, तो इसीलिए लेने-देने वाला कोई काम हुआ ही नहीं है| जब हम उससे अलग हैं ही नहीं, जब पृथकता है ही नहीं, तो कहाँ लेना और कहाँ देना?
आप यहाँ अपने सामने कुछ थाली में रखकर बैठ जाइये, और यहाँ यदि कोई छोटा बच्चा हो, तो वो आएगा और आपकी थाली में से उठाकर कुछ खाने की चीज़ ले जाएगा और खालेगा| न वो आपसे अनुमति लेगा, न वो आपको धन्यवाद देगा| तुम्हारा दावा होगा कि थाली तुम्हारी है, बच्चे को ऐसा कुछ नहीं है, वो भ्रम में नहीं है| उसे अच्छे से पता है कि खाना ठीक वहीँ से आ रहा है जहाँ से मैं आ रहा हूँ, तो किसकी मालकियत इस खाने पर?
अमेरिका में, जब यूरोपियन पहुँचे, तो वहाँ कुछ कबीले थे| उनको बड़ा ताज्जुब था इस बात पर कि ये कैसे लोग हैं जो ज़मीन को अपना कहते हैं और घर बनाकर रहते हैं| उन्हें बहुत ताज्जुब हुआ, और बहुत हँसे भी| उन्होंने कहा,’तुम कैसे कह सकते हो कि ज़मीन तुम्हारी है? अगर तुम कह रहे हो कि ज़मीन तुम्हारी है, तो ये भी दावा करो कि तुम्हारी कोई व्यक्तिगत हवा भी है, और तुम ये भी दावा करो कि तुम्हारी कोई व्यक्तिगत रोशनी भी है, और तुम ये भी दावा करो कि तुम्हारी कोई व्यक्तिगत नदी भी है’|
जब हवा, रोशनी और पानी व्यक्तिगत नहीं हो सकते, तो ज़मीन व्यक्तिगत कैसे हो सकती है? ज़मीन, ज़मीन है और इस ज़मीन पर जो कुछ भी उग रहा है, उसे ले सकते हैं हम| लोग अपने खेत लगायें और कबीले वाले आकर उसमें से अनाज ले जाएं और खा जाएं, और उन्हें पकड़ा जाए, उनसे पुछा जाए कि तुम मेरे खेत को कैसे खा गए, तो वो हंसेंगे, और कहेंगे, ‘तुम्हारा खेत कैसे हो गया? हवा तुम्हारी नहीं, पानी तुम्हारा नहीं, तो ये खेत तुम्हारा कैसे हो गया? ये मालकियत की भावना ही गलत है| हमारा सब कुछ है, हम अपने आपको इससे अलग मानते ही नहीं| हम बिल्कुल अलग नहीं मानते’|
इसी तरीके से घर बनाने की प्रवृत्ति, पागलपन है| तुम घर कैसे बना सकते हो? हाँ कहीं पर दो-चार दिन के लिए तम्बू गाड़ लो, वो अलग बात है| पर घर बना कैसे सकते हो? और वो भी ये दावा कैसे कर सकते हो कि ये ‘मेरा’ घर है और वो ‘तेरा’ घर है? अरे ज़मीन है तो सबकी है, या किसी की नहीं है| लेकिन जहाँ ‘मेरा-तेरा’ होगा वहाँ माँगना पड़ेगा|
माँगना हमारी नियति है क्योंकि हमने पृथकता बैठा ली है|
जैसे ही किसी दूसरे का घर हो गया, वैसे ही आपको अनुमति मांगनी पड़ेगी, और दूसरे का घर होकर रहेगा क्योंकि आपकी विशेष रूचि है अपना घर बनाने में| जो अपना घर बनाएगा, उसका दंड ही यही है कि उसे दूसरों के घर में घुसने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी| जो बहुत सारे ‘अपने’ खड़े करेगा, उसका दंड यही है कि बाकी दुनिया उसके लिए पराई हो जाएगी| जो भी अपने परिवार से बड़ा आसक्त रहेगा, उसकी सजा ही यही है कि बाकी दुनिया से वो कटता जाएगा, और दूर हो जायेगा|
‘मांगन मरण समान’, ठीक इसीलिए है क्योंकि जीवन एक है, और मांगने का अर्थ है- पृथकता, कटना, असंपृक्त होना| मांगोगे तो तभी न जब अलग होने का भाव होगा| तुम अलग हुए नहीं कि जीवन से अलग हो गये, और किसी से अलग नहीं हुआ जाता| जीवन ही है जिससे अलग हो जाते हो| या तो तुम समूचे हो और पूरे से जुड़े हुए हो, या जीवन से ही कटे हुए हो| ये मत सोचना कि तुम अपने पड़ोसी से कटे गए हो, तुम जीवन से ही कट गये हो|
जहाँ कुछ भी व्यक्तिगत आया, जहाँ कहीं भी ‘मेरा’ आया, वहाँ ही मरण हुआ|
इसीलिए मांगन मरण सामान है| भिक्षु का माँगना, माँगना है ही नहीं| भिक्षु का माँगना ऐसा ही है जैसे कि कोई पशु घास चर रहा हो| वो मांग नहीं रहा है|
श्रोता १: कहते हैं कि भिक्षु, जो कुछ भी मिलता था, उसे चुपचाप ले लेते थे|
वक्ता: किसी विशेष की आस लेकर नहीं जाते थे| जब हम ये नहीं तय कर सकते कि हमारा पेट किस प्रक्रिया से पचायेगा, तो हम इसमें क्यों कमी निकालें कि उस पेट में क्या जाएगा?
ये पता है कि पत्थर नहीं डालने हैं पेट में, और कुछ ऐसा नहीं डालना है जो सड़ ही चुका हो| उसके अतिरिक्त जो कुछ भी सुपाच्य हो, जब पेट उसे पचा सकता है, तो हम प्रतिरोध करने वाले कौन हैं? या तो कुछ ऐसा ही हो कि तंत्र ही स्वीकार नहीं करेगा, तब तो ठीक है| तब तो जिह्वा ही उसे अन्दर नहीं आने देगी, गटक ही नहीं पाओगे|
यदि पेट उसे पचा सकता है, तो मैं कौन होता हूँ उसे लेने से इंकार करने वाला? तुम दे रहे हो चावल का पानी, मेरा पेट कर लेगा स्वीकार| लाओ, धन्यवाद| हाँ, तुम नाली का पानी दे रहे होते तो मुझे इंकार करना होगा क्योंकि वो मेरा नहीं, पेट का ही इंकार होता|
श्रोता २: सर, पर ऐसी कई चीज़ें होतीं हैं, जिन्हें खा सकते हैं, पर अस्वास्थ्यकर होतीं हैं|
वक्ता: वहां पेट का इंकार है, पर तुम्हारा इकरार है| वहां पेट का पूरा-पूरा इंकार है, पर तुम्हारे चटोरेपन का पूरा-पूरा इकरार है |
(मौन)
मांगने में कोई दीनता नहीं है| भ्रम में मत पड़ जाइएगा, अधिकाँश लोगों के लिए ‘न माँगना’ गहरा अहंकार होता है| ‘हम किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते’! कबीर उससे बिल्कुल विपरीत बात कह रहे हैं| कबीर कह रहे हैं, ‘माँगना अहंकार है, तुम मांगो नहीं, हक़ से लो’| कबीर कह रहे हैं कि सब तुम्हारा है| ‘तुम्हें रोका किसने है? जाओ, लो| क्यों दीवारें खड़ी करते हो?’
पर दीवारें खड़ी करना बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर आप हक़ से पड़ोसी का लोगे, तो आपको पड़ोसी को भी ये हक़ देना पड़ेगा कि वो आपका भी ले| बड़ी दिक्कत है| अपना पैदा करने के चक्कर में, तुम हज़ार पराये पैदा करते हो| करते हो या नहीं करते हो ?
कबीर कह रहे हैं, न मांगो क्योंकि माँगना अहंकार का द्योतक है’| इसका अर्थ ये नहीं है कि लो नहीं| कबीर लेने को मना नहीं कर रहे हैं| कबीर कह रहे हैं, ‘लो, प्रेम में लो, पूरा-पूरा लो, जितना चाहिए लो, और प्रेम में लो जैसे बच्चा लेता है, वैसे लो’| बच्चा तुम्हारे हाथ से ले लेगा| तुम खा रहे होगे, वो आएगा तुम्हारे हाथ से लेकर खालेगा| वैसे लो, मांगो नहीं|
‘न मांगने’ को उसको अपनी ठसक मत बना लीजियेगा| ‘हम मरना पसंद करते हैं, माँगना नहीं’| ये तो और गहरा अहंकार है| आपने अपनी दीवारें और मोटी कर लीं हैं, और जब कभी भी आपको मांगने में झिझक आये, शर्म आये, तो समझ लीजिये कि अहंकार ही है क्योंकि शर्म और झिझक आएगी ही तभी जब परायापन हो| जब पराया नहीं समझते, तो मांगने में झिझकना कैसा? और जब पराया नहीं समझते, तो माँगना, माँगना है ही नहीं|
यही कबीर कह रहे हैं, ‘मांगन मरण सामान है’, मांगो नहीं ले लो, ग्रहण कर लो| उठा लो जो चाहिए, ले लो, ले ही तो रहे हो| हवा नहीं ले रहे? हवा मांगते हो? पानी नहीं ले रहे? जो कुछ भी महत्वपूर्ण है वो ले ही तो रहे हो न, अर्जित तो नहीं किया है| ले ही रहे हो और बिना मांगे ले रहे हो, ठीक जैसे सांस लेते हो|
तुम्हारी जो भी ज़रूरत है, अस्तित्व से मांग लो, मिल जायेगी|
-‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|