मन को केवल सत्य की ग़ुलामी भाएगी || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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मन को केवल सत्य की ग़ुलामी भाएगी || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ग़ुलामी क्या है? और ग़ुलामी में ही जीना अच्छा है, कि अपनी मर्ज़ी से जीना भी अच्छा है?

आचार्य प्रशांत: एक तो वो ग़ुलामी है जिससे तुम परिचित ही हो। वो ग़ुलामी है कि जब कोई दूसरा तुम पर दबाव बनाए इत्यादि। अभी उस दिन तुम कह रहे थे कि जहाँ तुम काम करते हो, वहाँ पर माहौल ऐसा है।

प्र: घर पर भी इमोशनल (भावनात्मक) ग़ुलामी हो जाती है।

आचार्य: और घर पर भी माहौल ऐसा है। तो एक तो ये ग़ुलामी हुई कि कोई संबंधी है या कार्यालय में तुम्हारा कोई सीनियर है, वरिष्ठ है, अधीक्षक है, वो तुम पर हुक्म चला रहा है, तुम्हें तुम्हारे मन की नहीं करने दे रहा इत्यादि; एक तो ये ग़ुलामी है। इससे बड़ी जो ग़ुलामी है और इस छोटी ग़ुलामी के पीछे जो मूल ग़ुलामी है, मैं उसकी बात करता हूँ।

मूल ग़ुलामी होती है अपनी ग़ुलामी। मन जैविक और सामाजिक संस्कारों से लिप्त हो जाता है। जैविक संस्कार तो उसमें जन्म के समय ही होते हैं और समय के साथ उसके ऊपर बहुत सारे सामाजिक संस्कार भी चढ़ जाते हैं। सांसारिक संस्कार चढ़ गए, इधर-उधर से कुछ सुना, प्रभाव पड़ा और प्रभाव चढ़ गए। ज़्यादा बड़ी ग़ुलामी है जब मन इन संस्कारों का ग़ुलाम हो जाता है।

मन को ग़ुलाम होना चाहिए सत्य का, उसकी जगह जब मन संस्कारों का ग़ुलाम हो जाए, वृत्तियों का ग़ुलाम हो जाए, तो समझ लेना बहुत बड़ी ग़ुलामी हो गई। और जिसको ये बड़ी ग़ुलामी हो गई, उसे बहुत सारी छोटी-छोटी ग़ुलामियाँ झेलनी पड़ेंगी।

शरीर है, शरीर से कोई वृत्ति उठी है—कुछ खा लूँ, कुछ पी लूँ—और बहक गए, बहकने के लिए किसी ने दबाव डाला था तुम्हारे ऊपर? किसी ने पिस्तौल दिखाई थी कि शराब पी लो? कैसे बहक गए? अपने ही ग़ुलाम हो गए न। तुम्हारे ऊपर जो संस्कार पड़े थे, उनके ग़ुलाम हो गए।

भीतर शरीर है, बाहर दुकान दिख गई, और समाज के तमाम लोग आसपास दिख गए पीते हुए, और जितनी बातें पढ़ी-सुनी हैं, वो सब सक्रिय हो गईं। कोई आया तो नहीं है तुम्हें बलात् पिलाने के लिए। पीते वक़्त तो तुम यही कहोगे न कि अपनी मर्ज़ी से खरीदी और अपनी मर्ज़ी से पी?

ये जो अपनी मर्ज़ी की ग़ुलामी है, ये सबसे बड़ी ग़ुलामी है, क्योंकि तुम्हारी मर्ज़ी तुम्हारी नहीं होती, तुम्हारी मर्ज़ी होती है संस्कारजनित। लेकिन तुम ये मानते ही नहीं कि वो बाहरी बात है, कि ये सारे आरोपित संस्कार हैं; तुम कहना शुरू कर देते हो कि, "ये चाहत, ये इच्छा संस्कारों से नहीं आ रही, प्रभावों से नहीं आ रही, ये तो मेरी अपनी है।" ये बहुत बड़ी ग़ुलामी है। और मैं कह रहा हूँ कि जो इस बड़ी ग़ुलामी में फँस गया, उसको अनेक छोटी ग़ुलामियाँ भी करनी पड़ेंगी। बड़ी ग़ुलामी से बचो, छोटी ग़ुलामी अपने-आप छूट जाएगी।

और पाओ अगर कि दुनिया के बहुत लोग हैं जो तुम पर शासन कर रहे हैं, जो तुम्हें दबाए हुए हैं, जिनसे डरते हो, तो साफ़ समझ लेना कि भीतर बड़ी ग़ुलामी बैठी हुई है। तुम्हारे भीतर कोई ना होता जो ग़ुलाम बनने को तैयार है, तो कोई बाहर वाला तुम्हें ग़ुलाम बना नहीं सकता था। भीतर ग़ुलाम की मौजूदगी ही बड़ी ग़ुलामी है; भीतर वृत्तियों और संस्कारों का शासन ही बड़ी ग़ुलामी है। इसी से बचना है।

तुम अपने मालिक हो जाओ, फिर बाहर कोई तुम्हारा मालिक नहीं हो पाएगा। बाहर वाले सब इसीलिए हुक्मरान बने हुए हैं क्योंकि तुम्हारे भीतर मालिक नहीं बैठा है, क्योंकि असली मालिक की तुम इबादत नहीं करते। जो असली मालिक के सामने नहीं झुकेगा, दुनिया में सौ लोग उसके मालिक हो जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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