मन को देखना मग्नता || आचार्य प्रशांत (2012)

Acharya Prashant

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मन को देखना मग्नता || आचार्य प्रशांत (2012)

वक्ता: शरीर नहीं चाहता, मन चाहता है। शरीर चाहता हो तो भूल नहीं सकते। पर भ्रम यह है कि ज़रूरतें शरीर की हैं।

अब, क्या यह संभव है कि किताबी ज्ञान तो हो पर उसके गुलाम न हो जाएँ? यह पता होना कि वह मेरा दोस्त है और गहरे में यह पता होना कि मैं दोस्ती के परे हूँ। यह है समझ से जी हुई ज़िन्दगी। यह बोध कि मैं पिता हूँ, ठीक, पर पिता होने से कहीं आगे भी कुछ हूँ। और याद रखियेगा कि इससे आप उसकी परवाह कम नहीं कर रहे। ऐसा नहीं है कि बेटे की परवाह करनी कम कर दी है।

श्रोता १: यह बात तब तक ठीक है जब तक वह क्षण नहीं आता। जैसे ही एक क्षण आया, हमारा असली स्वभाव बाहर आ जाता है।

वक्ता: क्या असली स्वभाव क्षण से चालू होता है? ‘असली स्वभाव’ माने क्या?

श्रोता १: एक आदमी जो मुखौटा लगाये रहता है पर असलियत में कुछ और होता है।

वक्ता: क्या हम असली में कुछ होते हैं? आप असली में अपने आप को जो भी समझते हैं, क्या वह मुखोटा उतारा नहीं जा सकता? या बस इतनी सी बात है कि जैसे प्याज़ है, प्याज़ ने अपने तीन छिलके उतार दिए और चौथे को बोल रहा है कि यह मेरा असली चहरा है। बस इतनी सी बात है कि चौथा अभी उतरा नहीं है। फिर पांचवे को कहोगे कि मेरा असली है। और जब पूरा उतार दोगे तो कौन सा चहरा दिखाई देगा?

श्रोता १: प्याज़ ही ख़तम हो गया।

वक्ता: यानी, मैं ही ख़तम हो गया। तो मैं का कोई भी असली चहरा हो सकता है क्या? या सारे ही चहरे बाहरी हैं?

श्रोता २: सारे छिलके हों पर पता हो कि छिलके हैं।

वक्ता: कोई भी छिलका निंदनीय नहीं है। किसी भी छिलके को फेंकना नहीं है। जीवन बिना उन छिलकों के नहीं चल सकता। पर जीवन अगर छिलके हैं, तो जीवन बचा ही नहीं, क्योंकि जीवन वर्तमान है। जीवन में अगर वह छिलके हटा दिए तो बचेगा क्या? सच तो यह है कि सब असत्य ही है। यह पेड़ ऐसा इसीलिए दिख रहा है क्योंकि यह मेरे दिमाग की संरचना ही है जो इसे ऐसे देख रही है। पर सवाल यह है कि ये सब हो ही नहीं तो फिर जीवन भी कहाँ बचा?

सही बात तो यह है कि यहाँ न ये बैठे हुए हैं, न ये बैठे हुए हैं (श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए), मेरा मन बैठा हुआ है ऐसे।

तो, इन छिलकों का होना ही जीवन है। बिना इन छिलकों के कौन सा रंग बचेगा जीवन में? तो जीवन में रंग तो छिलकों का ही है। ये जो हमारी लड़ाईयाँ होती हैं ये न हों, ये जो हमारी छोटी-छोटी हरकतें होती हैं ये न हों, तो इसके बिना रंग क्या बचेगा जीवन में। तो जीवन में रंग तो छिलकों का ही है पर अगर सिर्फ छिलके ही हुए तो बड़ा घटिया जीवन हुआ।

श्रोता ३: तो इसका मतलब है कि जीना छिलकों के साथ है?

वक्ता: जीना छिलकों के साथ नहीं है। जिसको तुम जीना कहते हो वह तो छिलके ही हैं। छिलके न हों तो साक्षी क्या देखेगा? सोचो ना, साक्षी की कितनी दुर्दशा होगी कि अगर ये सब जो है – हमारी बेवकूफियाँ, हमारा शोर, अगर ये सब न हों तो; साक्षी क्या देखेगा?

यह सब दबाने की चीज़ें नहीं हैं। जीवन ऐसे ही चलेगा; यही ऊँच-नीच। पर इन सबका रंग बदल जाता है। इनमे गुणवत्ता का अंतर आ जाता है।

श्रोता ३: क्या इसमें चीज़ें आपको प्रभावित करना बंद कर देंगे, जिन्हें ले कर के हम दुखी होने लगते हैं

वक्ता: सही, प्रभावित करना बंद कर देंगी। आप उनके साथ तादात्मय नहीं बैठाओगे।

श्रोता ३: तादात्मय नहीं बैठाएँगे और उसके बाद खुश हो जाएँगे की मैंने अपना काम कर दिया।

वक्ता: तो मन चिल्लाएगा, “मैं जानता हूँ।” तो मन को चिल्लाने दो।

मन को ये उपदेश देने की जरूरत ही नहीं है कि तुम नहीं जानते। पूरे आत्मविश्वास से, पूरे जोर से बोलो, “मैं जानता हूँ।” और साक्षी देखता रहे।

इसलिए कही जा रही है बात। विद्यार्थी के सामने अगर ‘मुझे पता है’ कि साथ गए तो ख़तम हो जाओगे। अधिकतर टीचर स्टूडेंट्स के सामने ‘मुझे पता है’ के साथ ही जाते हैं।

(सभी जिद्दू कृष्णमूर्ति का लेख पढ़ते हैं।)

कृष्णमूर्ति कह रहे हैं कि, “*मैं बोल नहीं रहा हूँ,* *तुम सुन रहे हो। अगर तुम साथ मैं नहीं हो तो समझ में नहीं आएगा।”*

श्रोता ४: यह कह रहे हैं कि, हम कुछ भी विशेष की चर्चा नहीं कर रहे हैं।

वक्ता: बिलकुल! वास्तव में जब ये स्पेशल-नेस आ जाती है न, कि बड़ी ख़ास बात की चर्चा होने वाली है, यह एक पलायन होता है। तो मेरी जो निजी ज़िन्दगी है! रोज़ना की खटपट! इसको अलग रखो। अभी तो मैं एक नए भाग में जा रहा हूँ। और उस भाग को हम क्या कह देते हैं?

श्रोता ४: दर्शन, आध्यात्म। “मैं आध्यात्म को प्रतिदिन अपना समय देता हूँ।”

वक्ता: पर मैं अपनी दैनिक ज़िन्दगी पर ध्यान नहीं देता। इसलिए जिद्दू कृष्णमूर्ति लगातार एक ही बात को कहते रहे कि, *इधर-उधर मत भागो। जो कर रहे हो उसे देखो। देखो कि कैसे खाना खाते हो,* *कैसे सोते हो ,* *कैसे चलते हो,* *तुम्हारी पत्नी से,* *माँ से ,* बच्चे से सम्बन्ध कैसे हैं। बस यही देखो,*और कुछ मत देखो,* *बस यही देखो। न कुछ ये पढो ,* *न वो पढ़ो -जब ज़िन्दगी मौजूद है तो खट-पट क्यों?* *जब जीवन उपलब्ध है देखने के लिए तो दूसरी चीजों में क्यों जाना चाहते हो ?*

जब ज़िन्दगी है तो क्यों इधर-उधर मुँह मार रहे हो? कि कभी कोई उपनिषद् पढ़ लिया, किसी के पास जाकर ज्ञान ले आये। अपनी आँखें हैं! अपनी ज़िन्दगी है! दिख नहीं रहा है क्या? यह ही जिद्दू कृष्णमूर्तिकहते रहे पूरी ज़िन्दगी।

श्रोता ५: हमने हमेशा जिद्दूकृष्णमूर्तिके एकालाप पढ़े। यह एक बातचीत है। शुरुआत में हमेशा कहते हैं कि, “आओ साथ में खोजें।”

वक्ता: मन नासमझ ही रहना चाहता है क्योंकि मन हमेशा ही ध्यान से भागना चाहता है। बड़ा आसान है। बस दोहराते रहो। नए को कौन देखे? अब सामने एक अथॉरिटी बैठी है, उन्हें मेहनत करने दो। बड़े हैं, पूज्य हैं, नब्बे साल के हैं और बोल रहे हैं तो कुछ जानते ही होंगे। वह बार-बार इसलिए बोलते हैं कि, मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकता। अपनी अकल लगाओगे तो समझ जाओगे। यह बात हर शिक्षक को हर कक्षा में कम से कम दो बार दोहरानी चाहिए। तुम्हारा विकास तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।

श्रोता २: पर इनका काम एक माहौल बनाना तो हुआ।

वक्ता: हाँ! यह एक ऐसा मॉहौल देंगे जो तुम्हारे लिए अच्छा है। यह एक अच्छा विषय दे देंगे बातचीत के लिए। वह एक ऐसी स्थिति निर्मित कर देंगे जिससे हमारा मन इधर को जा सके पर अंत में क्या होता है, वह हम पर निर्भर है।

गीता में अर्जुन कृष्ण से पूछते हैं कि, *क्यों भ्रमित कर रहे हो?* *अभी तुमने मुझे सांख्य सुनाया और अब कर्मयोग।*

इन दोनों में हमेशा से लड़ाई रही है। कृष्णमूर्ति पूरी तरीके से सांख्यवादी हैं। सांख्य का मतलब है, ‘कुछ करने को नहीं है, सिर्फ समझो।’ तुम्हें कुछ पाना है ही नहीं, क्योंकि तुमने कुछ खोया ही नहीं था। तुम्हे कहीं पहुँचना नहीं है। तुम जहाँ हो वहीँ तो सत्य है। “केवल जानो! केवल जानो! केवल जानो!”

और योग बोलता है कि तुम कुछ करो। करने से ही होगा। कृष्णमूर्तिका सारा खेल कुछ करने का नहीं, जानने का है।

श्रोता ५: … इस कल्पना के साथ कि पढ़ने वाला समझ रहा है?

वक्ता: हाँ, यह बहुत बड़ी कल्पना है। हम समझ के सिवा हैं क्या? इतनी श्रद्धा रखते हैं सुनने वालों पर कि समझ है और जानने की क्षमता है बिना किन्हीं तकनीकों के। ‘बस ध्यान’ और जान सकते हो। तुम देखो कृष्णमूर्ति क्या करते हैं। सिर्फ एक कोशिश कि तुम अटेंशन में आ जाओ। अटेंशन का दुश्मन होता है ‘जवाब’। इसलिए जवाब कभी नहीं देते। यह सिर्फ पलट-पलट कर तुम पर सवाल फेंकते हैं। इसलिए इतना चिड़-चिड़ा है इन्हें पढ़ना। तुम सोचते हो कि सवाल पूछ लिया गया है, अब उत्तर आएगा। अब सवाल का उत्तर आता नहीं है, कुछ रैंडम सा विवरण आ जाता है और एक सवाल और आ जाता है। इनके लेख में हमने देखा कि बात शुरू हुई थी ‘गुरु और शिष्य में सही सम्बन्ध क्या है। उसका उत्तर आया नहीं और बात प्रेम पर आ गयी। और कुछ देर बाद्वो सवाल भी छोड़ दिया।

यह सब क्या है? यह सब ध्यान की विधियाँ हैं। हमें परेशान करके, ध्यान में लाकर उस ही सवाल पर लायें जिससे तुम अपनी आँखों से देख पाओ। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में टीचर को गाली ज़रूर पड़ती है। क्योंकि जब तुम जवाब खोजते हो तो तुम्हारा अपना होता है। कृष्णमूर्ति क्या करते हैं। इन सबके बाद सुनने वाला:

  1. पहले परेशान होगा।
  2. फिर दो-चार दिन में एक अंतर्दृष्टि उपलब्ध होगी और एक तरीके की स्पष्टता आएगी।
  3. फिर इसे पता चलेगा कि स्पष्टता इसी की है।

उस स्पष्टता में कृष्णमूर्ति का क्या योगदान है इसे कभी समझ नहीं आएगा। सुनने वाले को सिर्फ यह याद रहेगा कि पाँच दिन पहले उन्होंने मुझे बहुत परेशान किया था। पर इसे समझ नहीं आएगा कि उस ही परेशानी के कारण उसे पांचवे दिन इसको इतनी स्पष्टता उपलब्द हुई है।

दूसरी तरफ तुम किसी ऐसे के पास जाते हो जो तुम्हें तत्काल जवाब दे देता है। तो मन उसे रजिस्टर कर लेता है कि इस से मुझे फायदा हुआ, और मन बहुत आभारी होगा कि इसने मुझे जवाब दिया। कृष्णमूर्ति के केस में तुम कभी आभारी नहीं होगे। क्योंकि तुम्हे सिर्फ इसकी स्मृति रहेगी कि कृष्णमूर्ति ने मुझे परेशान किया था। तुम्हें यह नहीं पता चलेगा कि उस परेशानी के कारण तुम्हारा दिमाग साफ़ कितना हुआ।

श्रोता: विकसित हो गया बिलकुल।

वक्ता: उस विकास को आप देख नहीं पाओगे।

श्रोता २: तत्काल फायदा नहीं है।

वक्ता: तत्काल फायदा है भी तो तुम उसे समझ नहीं कर पाओगेकी यह फायदा उनके प्रयास से हुआ है।

श्रोता: और तभी के तभी जवाब मिलने के बाद वो चीज़ काम नहीं करी तो आप कहोगे कि मेरी किस्मत खराब है।

वक्ता: पर जवाब तोमिल गया ना।

श्रोता: शायद इसीलिए कृष्णमूर्ति के साथ ये भावना नहीं उठती कि वे पूज्य हैं।

अब यह आभार तब उठेगा जब तुम एक दम ध्यान में होगे और इस बात को पकड़ लोगे कि ‘*इनकी बात ने मेरे दिमाग पर किया क्या है**?*‘ जब पढ़ते-पढ़ते तुम्हे यह भी दिखेगा कि यह क्या खेल खेल रहे हैं, क्या कर रहे हैं पढ़ने वाले के साथ? ये बार-बार एक ही वाक्य क्यों दोहरा रहे हैं?

जब तुम ये समझने लगोगे तो खुद आभार प्रकट करने लग जाओगे।

श्रोता: इसका मतलब कि जितनी जल्दी हम समझ गए गुरु भी चला जाएगा?

श्रोता ७: *गुडनेस*।

वक्ता: अब देखो हम कितनी आसानी से ‘गुड’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। ‘गुड’ क्या है? हम इतने जम गए हैं कि हमें असलियत में किसी की ज़रुरत है जो हमारे कानो में इस साधारण से सवाल को चिल्लाए। *गुड क्या है*?

श्रोता ५: कुछ ऐसा जो हमारे मन के अनुकूल हो।

वक्ता: प्लेज़र ? प्लेज़र अच्छा है। पर क्या तुम्हारा प्लेज़र, विद्यार्थियों के लिए अच्छा है?

श्रोता ९: कृष्णमूर्ति कहते हैं ,”‘अच्छा’ शब्द का कई गुना महत्त्व है जब आप उसे पूर्णता से सम्बंधित करते हैं।”

वक्ता: जब हम यह जानने लगते हैं कि

“अच्छा” का अर्थ है “पूर्ण”, तब अच्छे में कुछ जान आई। जो हमारा गुड है वह तो सिर्फ ‘प्लेज़र’ है।

श्रोता २: हमारा “अच्छा” परिस्थिति विशिष्ठ, व्यक्ति विशिष्ठ और काल विशिष्ठ है।

वक्ता: हाँ! व्यक्ति विशिष्ठ! काल विशिष्ठ! भाव विशिष्ठ!…

हमने कई बार खंडित होने ‘फ्रेगमेंटेशन ‘ की बात करी। इसका क्या अर्थ है?

श्रोता ६: विभाजन। टुकड़े होने का क्या मतलब है?

श्रोता ५: जैसे मैं यहाँ बैठा हूँ और कीड़े परेशान कर रहे हैं। मेरा यह सोचना कि मैं यहाँ बैठूँ या नहीं।

वक्ता: ये चुनाव है क्या? यहाँ बैठने से आशय क्या है?

श्रोता ५: ये मेरा मनोवैज्ञानिक चुनाव है जो मेरे पास है।

वक्ता: यह क्या है?

श्रोता ५: विचार।

वक्ता: और वो दूसरा वाला क्या है?

श्रोता ५: वो भी विचार है।

वक्ता: तो जब यहाँ बैठे हो तो क्या हो रहा है? दो विचारों के बीच में लगातार लड़ाई हो रही है।

ठीक है। आगे बढ़ते हैं। क्या कोई भी ऐसा विचार हो सकता है जो संघर्षरहित हो?

सभी: नहीं।

वक्ता: क्या विचार का होना ही खंडित होने का सबूत नहीं है?

श्रोता ८: विचारों का होना खंडित है, पर विचार का होना तो नहीं।

वक्ता: क्या कोई विचार अकेला हो सकता है? अकेला होने का मतलब होता है पूर्ण।

श्रोता २: वो हो नहीं पाएगा क्योंकि फिर उसके आस-पास का हिस्सा बचेगा।

श्रोता ८: विचार का होना ही खंडित होने का प्रमाण है क्योंकि विचार समय में हो गया।

श्रोता ९: सर, एक विचार है, हम रौशिनी को देखते हैं तो अँधेरा-रौशनी का न होना है। तो विचार है तो उसका एक अंतर्विरोध भी हो गया।

वक्ता: बहुत बढ़िया, इस बात को पकड़ो और बताओ, पीड़ा के बिना इच्छा हो सकती है?

सभी: नहीं।

वक्ता: हर विचार एक कल्पना है, विचार एक इच्छा है। कोई भी विचार हमेशा अपने से विपरीत विचार लेकर ही आता है। तो ये मत बोलो कि दो विचारों के बीच में है, एक विचार अपने आप में संघर्ष है क्योंकि उसके पीछे दबा हुआ एक विचार है ही उसका विपरीत।

यह वैसे ही है जैसे तुम कहो, “मुझे जूता दो।” क्या कभी एक जूता हो सकता है? वह हमेशा दो होंगे – जूते! इसी तरीके से कभी भी एक विचार तुम्हारे मन में नहीं आता। याद रखो, विचार हमेशा अपने साथ अपना विपरीत लेकर आता है, इसलिए वो डरावना होता है, इसलिए वो डरावना और हिंसक होता है। एक विचार जो तुम चाह रहे हो, अपने साथ हमेशा ये सम्भावना लेकर आता है कि उसका विपरीत भी घट सकता है।

श्रोता ५: जैसे मैंने कहा था, मैं उस कमरे में जाना चाहता हूँ।

वक्ता: उसमें एक सुख का विचार है कि यहाँ बैठना तड़प है। तो, एक प्लेज़र है और पीड़ा है। यह हमेशा साथ में होंगे। वह बिना पीड़ा के नहीं हो सकती।

एक अद्वैता की किताब में था, बड़ी खूबसूरत पंक्तियाँ थी –

नाऊ ब्रिंग्स देन

हेयर ब्रिंग्स देयर

दिस ब्रिंग्स दैट

रहस्य सुरक्षित है!

जिस पल तुम *“नाऊ”* बोलते हो, उसी वक्त एक अस्पष्ट विचार “देन ” का होता है। जिस क्षण कोई यह बोलता है, *“ दिस इज़ इट*” वहीँ हमेशा दैट का एक अस्पष्ट विचार रहता है। इस तरह से रहस्य छुपा रहता है।

श्रोता ६: सर, एक बार आपने बताया था ना कि मन में बहुत सारे विचार हैं, और कोई तो है जो इन सारे विचारों को देख रहा है।

वक्ता: ‘देख रहा है’, यह कोई नियम नहीं है; देखा जा सकता है। क्योंकि जो देख रहा है उस से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्या आप जानते हो कि वो जान रहा है? आपको तो साक्षित्व का तब पता लगता है जब आपका मन जानने लग जाए कि, साक्षी हो।

कोई कर रहा होगा, कोई होगा “आत्मन्”, उसका आपसे क्या मतलब है। कोई है जो “आत्मन्” को जानता है? हम तो मन को जानते हैं और हम मन ही हैं।

अब खंडित होना क्या है? अब अगर विचार खंडित है, तो क्या करें, मन को विचारशून्य कर दें?

श्रोता ६: जब तक मन है तब तक विचारशून्यता तो हो नहीं सकता।

वक्ता: खंड का क्या करना है? पूर्ण और अविभाज्य मन का क्या अर्थ है? फिर मन तो सोचेगा, और सोचने में ही खंड आ गया।

श्रोता ५: फिर मन तो रहेगा ही नहीं।

वक्ता: उसी एक मन को ही साक्षी कहते हैं

पूर्ण मन ही साक्षित्व है।

तुम ये न समझना कि विचार आने बंद हो जाते हैं, या विचारधारा बंद हो जाती है। कई लोगों को बड़ी ग्लानि होती है कि मैं बड़ी देर से ध्यान कर रहा हूँ और विचार आ रहे हैं।

पूर्णता, सम्पूर्णता, अविभाज्य जीवन – इन सबका मतलब सिर्फ यह है कि उसको जानो जो पूर्णता, सम्पूर्णता और अविभाज्य है। जो पूर्णता, सम्पूर्णता, अविभाज्य हो नहीं सकता तुम उसको पूर्णता कहोगे तो सब ख़त्म हो जाएगा।

श्रोता ५: ‘सविकल्प समाधि’, उसमें कोई एक विचार रह जाता है।

वक्ता: नहीं , एक विचार नहीं। देखो यह सब भाषा की बातें हैं , एक विचार रह सकता है कभी ? अगर मात्र एक हो , तो क्या तुम एक को भी जान पाओगे ? तुम एक को जान ही तभी सकते हो जब एक से ज्यादा हो।

तुम स्पेस में हो , और स्पेस में सिर्फ एक है , स्पेस क्या तुम जान पाओगे कि यह स्पेस है ? और कोई मापदंड ही नहीं है उसको स्पेस बोलने के लिए। एक को तभी जाना जा सकता है जब एक से ज्यादा हो। तो सविकल्प समाधि में यह कहना कि एक रह जाता है , कहने की बात है। विकल्प का मतलब ही है ‘दो’।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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