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मन के विकारों के विरुद्ध कैसे लड़ें? || महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मन के विकार दिखते तो हैं कि झूठे हैं, पर मैं उनके प्रति हथियार नहीं उठा पाता। मेरे भीतर तो विकार, इच्छाएँ और डर भी सगे-संबंधी बनकर आते हैं।

आचार्य प्रशांत: क्या सेवा करूँ तुम्हारी? तुम्हारा युद्ध मैं लड़ूँ?

जब जान गए हो इतना कुछ, तो फिर अटक क्यों रहे हो? देर किस बात की है? या इरादा बस शिकायत करने का है? जैसे नुक्कड़ पर चर्चा होती है, या गाँव इत्यादि में चले जाओ तो वहाँ पर घर के बाहर खाट और हुक्का चलता है। पूरे ज़माने की ख़बर ली जाती है। “ओबामा पुतिन से नहीं डरता था, ट्रंपवा डरता है।”

कुछ करना है? सही जीवन जीना है, या बस वाक-जाल फैलाना है, समेटना है, फैलाना है फिर समेटना है?

देखो कि क्या कर रहे हो तुम। कुल बात तुमने यह की है कि “मन में विकार उठते हैं, वृत्तियाँ हैं, राग-द्वेष हैं, भय है, और मैं जानता हूँ कि वह सब गड़बड़ है मामला, पर वो सब मुझे बड़े प्यारे लगते हैं, सगे-संबंधियों जैसे लगते हैं।”

तो क्या करें?

और क्या जवाब दोगे तुम ऐसे आदमी को जिसको तुम बता दो कि यह ज़हर है, और वो कहे कि, "मुझे बड़ा प्यारा लगता है"?

एक बिन्दु आता है जहाँ पर समझाने इत्यादि की महत्ता ख़त्म हो जाती है। उसके बाद सीधे-सीधे दो रास्ते हैं – या तो कर रहे हो या नहीं कर रहे हो, ‘हाँ’ या ‘ना’। अब समझाने का कोई लाभ नहीं।

राग-द्वेष, भय-लोभ, इनकी बात सिर्फ़ तब करते हो क्या जब सवाल लिखकर भेजते हो? दिन-प्रतिदिन के जीवन में इन पर नज़र नहीं है? देखते नहीं हो कि ये तुम्हारा क्या हाल कर रहे हैं? और अगर समझ पा रहे हो कि ये तुम्हारा क्या हाल कर रहे हैं, तो क्यों अपनी दुर्गति करवाए जा रहे हो?

कोई तुम्हें पीट रहा है, तुम्हारा कचूमर निकाले दे रहा है, उसको तुम कैसे बोले जा रहे हो कि, "यह मेरा सगा है, संबंधी है"? सगा-संबंधी तो वो हुआ न जो हितैषी हो तुम्हारा। जिससे तुम्हारा अहित-ही-अहित होता हो, वो कैसे सगा हुआ?

यहाँ तो जो सगे-संबंधी होते हैं, वो अहित यदि कर दें तो आदमी उनसे किनारा कर लेता है, और जो तुम्हारा अहित किए ही जा रहा है, और तुम स्वीकार भी रहे हो कि अहित कर रहा है, उसको तुम छोड़ने को तैयार नहीं, तो फिर बात इतनी ही समझ आती है कि तुम इस सवाल के माध्यम से झूठ बोल रहे हो; तुम्हें अपना अहित दिखाई ही नहीं दे रहा। ये सब जितने हैं राग-द्वेष इत्यादि, इनमें तुम्हें रस आता है, इसलिए नहीं छोड़ रहे। तुम्हें इनमें नुकसान पता चलता होता, तुमने कब का छोड़ दिया होता। तुम्हें इनमें नुकसान नहीं फ़ायदा दिख रहा है।

तो फिर तो एक ही तरीका है – आँख खोलकर देखो कि तुम्हारा कितना नुकसान हो रहा है, या प्रतीक्षा करो कि नुकसान इतना बड़ा, भयावह, विराट, साक्षात हो जाए कि तुम्हें स्वीकारना ही पड़े कि नुकसान कहाँ हो रहा है वास्तव में। अभी तो तुम्हें जो नुकसान हो रहा है वो शायद तुम्हें प्रतीत नहीं हो रहा, साक्षात नहीं है, प्रामाणिक नहीं है, तो तुम अपने-आपको भुलावा दिए दे रहे हो कि, "कोई नुकसान नहीं हो रहा, मज़ा आ रहा है!" मज़े लिये दस रुपए बराबर और क़ीमत भरनी पड़ी पाँच रुपए बराबर, तो अभी तो फ़ायदा हो रहा है। “राग-द्वेष के, लोभ, कामना, ईर्ष्या के मज़े लिये चलो।”

या तो साफ़-साफ़ देख लो कि तुम्हारा गणित ग़लत है, तुमने हिसाब ग़लत लगाया है—पाँच का फ़ायदा नहीं, पाँच सौ का नुकसान हुआ है—या फिर इंतज़ार करो कि नुकसान इतना बड़ा हो जाए, जैसा मैंने कहा इतना विकराल, इतना विकराल कि तुम्हें मानने पर मजबूर होना पड़े कि “हाँ है, और बहुत बड़ा नुकसान है।” अब तुम देख लो जो भी रास्ता चुनना हो तुमको।

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