प्रश्न: उन पलों में जिनमें हम ध्यान में नहीं होते, उन पलों में एक गति होती है। वो गति ध्यान के पलों में क्यों नहीं होती?
वक्ता: गति की ज़रूरत सिर्फ़ तभी पड़ती है जब कोई संचलन या निरंतरता हो। ध्यान में सब आता और जाता है। ध्यान में कोई निरंतरता, कोई गति, कोई जीवन, कोई आयु नहीं होती। बिमारी आती है और जाती है। तुम जब गहरी से गहरी अशांति में भी हो, तो भी वो अपनी जगह है। ध्यान कोई नई चीज़ नहीं होती है। इस कमरे में तुम गहरी अराजकता मचादो, उठा-पठक कर दो, तो भी ये रौशनी अपनी जगह रहेगी। तुम यहाँ पर कतई शान्ति कर दो, रौशनी तब भी अपनी जगह है। तुम इस कमरे में कुछ भी कर दो ये रौशनी नहीं बदलेगी। यहाँ की गतिविधियों से ये नहीं बदल जाएगी।
श्रोता १: एक तनाव है मेरे दिमाग में, जिसके कारण मैं इस समय यहाँ उपलब्ध नहीं हो पा रहा हूँ।
वक्ता: ‘मैं’ माने कौन, बेटा? ‘मैं’ माने जो ध्यान में नहीं है। ‘मैं’ थोड़ी ही उपलब्ध होता है।
श्रोता १: फिर ये ‘मैं’ क्यों आया यहाँ पर, थोड़ी देर के लिए ही सही, क्यों?
वक्ता: वो उस समय उससे पूछना जब वो आया हो। इसका जवाब यही है कि जब वो आए तो उससे पूछना कि तू क्यों आया। फिर देखना कि वो बचा कि नहीं बचा।
श्रोता १: उसके आने से नहीं उसके जाने से दिक्कत है।
वक्ता: कि विचलन चली क्यों गयी?
श्रोता २: विचलन गयी, ठीक है; पर विचलन गयी, ध्यान आया?
वक्ता: ध्यान नहीं आया।
श्रोता २: ठीक है, मैं ‘मैं’ की बात कर रहा हूँ। ‘मैं’ गया, फिर ‘मैं’ यहाँ क्यों आया?
वक्ता: जब आए तो उससे पूछना।
श्रोता २: ‘मैं’ से पूछूँ?
वक्ता: कि तू क्यों आया?
श्रोता २: और यह पूछने के लिए मुझे ध्यान में होना होगा।
वक्ता: बस, तो हो जाओगे तुरंत ध्यान में।
श्रोता २: यह विचार से आ रहा है, विचार मन से आते हैं, मन…
वक्ता: इसीलिए आया क्योंकि तुमने पूछा नहीं, तुम भूल गए।
श्रोता २: मैं“मैं” को कैसे भूल गया?
वक्ता: फिर जब भूल जाओ तो उससे पूछना कि तुम भूल क्यों गए।
श्रोता २: सर कैसे पता चलेगा क्यों आया?
वक्ता: वही बता देगा।
श्रोता २: फिर तो ध्यान में आ जाएँगे न।
वक्ता: अरे, ये एक ऐसी स्थिति में पूछ रहा है जहाँ पर सवाल सिर्फ़ याद्दाश्त है। जिस चीज़ का इलाज ही तभी हो सकता है जब वो सामने हो उसका समाधान ये याद्दाश्त से करना चाहता है। नहीं समझे बात को? एक चूहा है जिसे पकड़ा कब जा सकता है? जब वो सामने हो न। उसको ये याद्दाश्त में पकड़ लेना चाहता है। मैं कह रहा हूँ जब सामने आए तब पकड़ लेना। ये पूछ रहा है “चूहे को कब पकडूँ?” मैं कह रहा हूँ जब सामने आए। और पूछता है कि “सामने क्यों आ जाता है?” मैं कहता हूँ कि तुम पकड़ते नहीं इसलिए सामने आ जाता है। अब जब आए तो पकड़ लेना। अब जब गुस्से में हो या जो भी है, विचलन हो रहा हो, तो बस इतना ही पूछो कि क्यों हो रहा है भई। इस पर तो एक मंत्र है, बताओ?
श्रोता ३: ‘तुम्हें क्या चाहिए?’ ?
वक्ता: जब भी परेशान हो तो एक ही मंत्र बोलो – क्या चाहिए तुम्हें? इससे मन ठंडा हो जाता है। ये जो इतनी बैचैनी हो रही है – तू बता न तुझे चाहिए क्या? ठीक-ठीक बता दे भई क्या चाहिए। किस बात पर इतना फ़ालतू परेशान है? फिर कुछ चाहिए होगा तो बता देगा। कुछ नहीं चाहिए होगा तो इधर-उधर मुँह छुपा कर भाग जाएगा।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।