मन हमेशा बेचैन क्यों रहता है? || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग (2014)

Acharya Prashant

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मन हमेशा बेचैन क्यों रहता है? || आचार्य प्रशांत, छात्रों के संग (2014)

श्रोता: आचार्य जी, जब भी हमें खाली समय मिलता है, हम बातें शुरू कर देते हैं । ऐसा क्यूँ ?

आचार्य प्रशांत: मन को लगातार करने के लिए कुछ चाहिए, कुछ तो चाहिए । वो जो कुछ भी करता है उसका कोई विषय होता है; सब्जेक्ट । मन की ये वृत्ति होती है की उसको जो विषय सबसे प्यारा लग रहा है, वो उसकी ओर भागता है ।

श्रोता 2: आचार्य जी, मन से मतलब क्या होता है ? दिमाग ?

आचार्य जी: मन माने, मन । मन जानते हो ना । हाँ, दिमाग कह लो । वही जो सोच रहा है, जिसको उसने सवाल किया ना कि अन्दर कुछ चलता रहता है ।

मन वो, जिसमें अन्दर कुछ चलता रहता है ।

कुछ है ना जिसमें से आवाजें आती रहती हैं, जिसमें कभी डर उठता है, जिसमें कभी खीज उठती है, जिसमें कभी आकर्षण उठता है; कुछ है ना, उसी को मन कहते हैं ।

तो मन को कुछ चाहिए पकड़ने के लिए, किसी की ओर तो उसे जाना है । खाली वो बैठ नहीं सकता, यही प्रकृति है उसकी । मन में ऐसा भी नहीं होता की बड़ी वफादारी होती है । तुम एक विषय के साथ हो, उसे कोई दूसरा मिल गया जो उसे ज्यादा लुभा रहा है, तो वो तुरंत ही उस दूसरे की ओर चल देगा । ये देखा है ?

तुम पढ़ने बैठे हो और तुम्हें लग रहा है की पढ़ना अभी बहुत जरूरी है, तो अभी विषय क्या है, ‘पढ़ना’ और, कुछ और होने लग जाता है – मोबाईल फोन पर, इंटरनेट पर, या खिड़की के बाहर और मन पढ़ाई से सारे रिश्ते-नाते तोड़ कर तुरंत उधर को चल देता है । देखा है ?

कुछ तो चाहिए मन को, और मन को कौन चाहिए, जो अच्छा हो, सुन्दर हो, आकर्षक हो, जिसके पास जा कर के उसे ‘सुकून’ मिलता हो ।

मन लगातार उसी की तलाश में है, इसी कारण किसी एक जगह वो रुकता नहीं है । पढ़ने बैठते हो तो वो पढ़ाई पर नहीं रुकता है, क्योंकि उसको पढ़ाई से ऊँचा कोई चाहिए । पढ़ाई उसका पेट नहीं भर रही है । उसे कुछ चाहिए जो अभी और ज्यादा ‘सुकून’ दे ।

जिधर को गए हो तुम पढ़ाई को छोड़ के, ऐसा भी नहीं है की मन वहाँ रुक जाएगा । देखा है? तुम पढ़ाई को छोड़ कर के अगर टहलने निकल पड़ो तो क्या तुम बीस घंटे टहल पाते हो ? पंद्रह मिनट टहल कर के भी बोर (ऊब) हो जाते हो । होते है की नहीं ? फिर कहते हो कुछ और चाहिए । फिर फोन निकाल के किसी से बात करना शुरू कर दोगे, या फिर किसी दूकान पर खड़े हो जाओगे, या फिर किसी दोस्त के तरफ चल दोगे ।

मन कहीं ठहरता ही नहीं । ये पाया है न, कहीं ठहरता ही नहीं । खासतौर पर जहाँ ठहराना चाहो, वहाँ तो बिल्कुल ही नहीं ठहरता है । ठीक, यही है ना? इसको तुम लोग कई बार कहते हो की यही तो हमारी एकाग्रता की समस्या है; कंसनट्रेशन । नहीं, वो बात नहीं है । अगर ध्यान दोगे तब कुछ समझ में आएगा, मन को कुछ चाहिए । ‘मन को कुछ चाहिए’ और वो उसे मिल रहा नहीं है ।

इतनी तुम्हारी उम्र हो गयी,

अभी तक मन कहीं ठहरा नहीं, या ठहरा है ? ठहरने का मतलब होता है की वहीँ जाकर रुक गया, उसकी तलाश खत्म हो गयी, अब और कुछ नहीं चाहिए । कोई है तुममें ऐसा जिसकी तलाश खत्म हो गयी हो ?

कोई तुममें ऐसा भी नहीं है जो कहे की अगला लक्ष्य नहीं है । एक के बाद एक लक्ष्य आते गए और अब अगला आ जाता है, उसकी ओर भाग रहे हो । तलाश लगातार जारी है, और जब इतने – इतने सालों में तलाश पूरी नहीं हुई, तुम कहीं ठहर नहीं पाए तो ये उम्मीद करना व्यर्थ ही है की इसी तरीके से तलाशते – तलाशते आगे कहीं ठहर जाओगे ।

कुछ जो तुम्हें बहुत आकर्षक लगता था कभी, आज कैसा लगता है ? याद करो वो सब चीजें, वो बातें, जो तुम्हें, जब तुम दस साल के थे या पंद्रह साल के थे, तो बड़ी आकर्षक लगती थीं । आज उनका कोई महत्व रह गया है ? कितनी ही ऐसी बातें पीछे छूट गईं । वो दोस्त, वो यार वो कपड़े, वो पकवान, वो जगहें, जो ऐसा लगता था की, वाह! स्वर्ग हैं । आज उनका यहाँ तुम्हारे लिए कोई मोल नहीं है । आज जो तुम्हें बहुत महत्वपूर्ण लग रहा है, आज से दस साल पहले ज़रा भी महत्वपूर्ण लगता था ?

बात दस साल की भी नहीं है, तुम छे महीने में ही देख लो, कैसे तुम्हारी प्राथमिकतायें बदलती हैं । बदलती हैं की नहीं बदलती हैं ? जैसे हम कपड़े बदलते हैं, वैसे हम सब कुछ बदलते हैं । मन का पूरा मौहौल देखा है, कितनी तेजी से बदलता रहता है । हम क्या नहीं बदल देते और सब कुछ बदल के भी हमें चैन कहाँ मिलता है । लोग घर बदलते हैं, द्वार बदलते हैं, नौकरी बदलते हैं, पति – पत्नी भी बदल देते हैं और बदल – बदल के भी कुछ होता है क्या ? कुछ होता है ?

मन को कुछ चाहिए, उसके बिना वो रुकेगा नहीं । उसके बिना वो इधर – उधर, इधर – उधर, भागता ही रहेगा ।

मन को क्या चाहिए ? अंततः तुम जिधर को भी भागते हो यही सोच के भागते हो ना की ये मिल गया तो इसके बाद और कुछ नहीं चाहिए; शांति । अगर तुम्हे पता हो की जिसके तरफ तुम भाग रहे हो, उसके मिलने के बाद भी तुम्हें और चाहिए होगा, तो उसकी ओर भागोगे ? तुम खाना खाने जा रहे हो किसी रेस्त्रां में, तो तुमसे कहा जाए की इस रेस्त्रां से जब तू खा के भी निकलेगा तो भूखा ही रहेगा, तो तुम जाओगे वहाँ? जवाब दो ।

श्रोता: नहीं ।

आचार्य जी: तुम किसी रेस्त्रां की ओर जा रहे हो तुम्हें बता दिया जाए की तू यहाँ से जब खा के भी निकलेगा तब भी भूखा रहेगा । तू कितना भी खा ले और तू कितने भी पैसे व्यर्थ कर ले, तू चुका दे बिल, लेकिन तू भूखा तब भी निकलेगा, तो तुम जाओगे ? तुम्हारी उम्मीद क्या होती है ? जब तुम रेस्त्रां में घुसते हो की यहाँ से जब निकलूंगा तो भूख मिट जाएगी ।

तो अंततः मन जिधर को भी जा रहा है उसकी उम्मीद एक ही है, भूख मिटेगी या ये मेरी भूख का अंत होगा । तुम एक दोस्त, तुम एक यार, तुम एक प्रेमी – प्रेमिका बनाते हो । तुम ये सोच के थोड़ी बनाते हो की इसके बाद अब एक गर्लफ्रेंड और करनी पड़ेगी । जब तुम कहते हो कि तुम्हें प्रेम हुआ है तो उस वक़्त तो तुम्हें यही लगता है की मिल गयी मंजिल, ये आखिरी है । क्या कोई ऐसा भी है जो कहता है, ‘तीन महीना’ ? नहीं हो सकते हैं, कोई बड़ी बात नहीं हैं ।

सुना है ना मुल्ला-नसरुद्दीन का ? उसकी बीवी मर रही थी । तो बीवी बोलती है कि मैं मर रही हूँ, तुम मेरे मरने के बाद निकाह करोगे दूसरा ? मुल्ला बोलता है की कैसी बात कर रही हो, बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नहीं । तो बोलती है कि देखो कमीने तो तुम हो, तो करोगे तो तुम है ही । बस मैं तुमसे इतना कह रही हूँ की मेरा सामान उसको मत देना । जितना भी मेरा कपड़ा, गहना है, ये सब है, ये मत देना उसको बाकी तुम्हें जो करना होगा करना । तो वो बोलता है, “अरे! पागल, तेरे कपड़े रज़िया को वैसे भी नहीं आएँगे ।”

तो ऐसे भी होते हैं की अभी पहली मरी नहीं, उसने दूसरी तय कर रखी है, इसके बाद रज़िया । नहीं, जब कुछ होता है, जिंदगी में बड़ा, जो मन को आकर्षक लगे तो उम्मीद तो उस वक़्त यही रहती है की ये आखरी होगा, मिल गयी मंजिल । उसके पाने पर हम हर्ष भी ऐसे ही मानते हैं की हो गया, आखिरी काम हो गया । आई एम डन

जिस दिन तुम्हारी पहली नौकरी लगती है, देखो ना तुम्हें क्या लगता है, ‘हो गया’ । जिस दिन शादी करते हो उस दिन भी लगता है, ‘हो गया’ । लोग गाड़ी खरीदतें हैं, कहते हैं, यस आई हैव अराइव्ड , ‘हो गया’ । जिस दिन गृह – प्रवेश होता है, उस दिन भी यही, ‘हो गया’ । जिस दिन व्यापार किसी खास आंकड़े पर पहुँचता है, दस करोड़ पर पहुँच गया व्यापार, ‘हो गया’ । जिस दिन घर में बच्चा आता है, ‘हो गया’ । आखरी से आखरी ऊँचाई जहाँ हम पहुँच सकते थे, बिल्कुल चोटी फतह कर ली ।

पर ऐसा होता नहीं ।

हम भूखे ही मर जाते हैं ।

एक के बाद एक रेस्त्रां में जाते हैं और अंततः भूखे ही मर जाते हैं । किसी मरते हुए आदमी से कभी पूछना, हो गया ?

कोई आदमी आजतक पेट भर के नहीं मरा ।

इसका मतलब हम जो चीजें तलाश कर रहे हैं, मन अपनी अक्ल से जिन विषयों की तलाश में है, उनसे तो उसका पेट भरेगा नहीं, ये बात पक्की है । भरना होता तो हमारा कब का भर गया होता और हमारा ना भरा होता तो कम से कम दूसरे उदाहरण सामने होते की लोगों का भर गया । बड़े – बड़े अमीर, बड़े – बड़े राजनेता, बड़े – बड़े सुलतान – सिकंदर, सब भूखे पेट ही मरे । ‘सब भूखे पेट ही मरे’ |

जब भी मन के भीतर ये आत्म – संवाद सुनो की बक – बक – बक – बक किये जा रहा है, समझ लो कि वो कुछ माँग रहा है जो उसको शान्त कर दे । इसके साथ ही इस बात को जोड़ो की जो कुछ तुमने उसे आज तक दिया है वो तो शान्त उसे कर नहीं पाया; उसे कुछ और ही चाहिए । उसे कुछ ऐसा चाहिए जिसे तुम सोच नहीं पा रहे हो, शायद सोच सकते ही नहीं, शायद वो सोच से बाहर का है । क्योंकि अगर हम सोच पाते की मन को क्या चाहिए, तो हमने मन को वो कब का दे दिया होता । दे दिया होता ना?

हमने ना दिया होता तो किसी और ने दे दिया होता और जिसने दिया होता, उसने लिख दिया होता की मन जब उपद्रव करे तो उसको ये खिलौना दे देना, शान्त हो जाएगा । तुम ने उसके नसीहत मान के खिलौने तैयार कर लिए होते मन को देने के लिए ।

पर जो शान्त हो पाए, वो बता नहीं पाए या उनहोंने बताया भी तो हमें समझ नहीं आया की मन को क्या चाहिए, क्यूँ ये बिलखता रहता है, कुलबुलाता रहता है । जैसे कोई छोटा बच्चा हो । रोए जा रहा है, रोए जा रहा है, वो रोए जा रहा है और रो – रो के एक दिन मर जाएगा । जीवन भर वो जिस खातिर रो रहा है वो उसे मिलेगा नहीं । छोटे बच्चे को जो चाहिए होता है ना वही हम सब को चाहिए । छोटे बच्चे को उसकी तलाश होती है, वो जहाँ से आया है, जो उसका स्त्रोत है, जो उसकी ‘माँ’ है । हमें भी उसी की तलाश है ।

उस ‘माँ’ की नहीं जो शरीर ही है, जो घर में बैठी है, न । उस ‘माँ’ से हमारी तलाश मिटनी होती तो कब की मिट गई होती ।

हमें भी ‘माँ’ की ही तलाश है । ‘माँ’ माने जननी, ‘माँ’ माने हमारा वास्तविक उद्गम बिंदु । जहाँ से हम उठे हैं, जो हम हैं ही ।

सब को उसकी तलाश है । मन को जबतक वो नहीं मिलेगा, तबतक मन शान्त नहीं होगा । मन को चाहिए अपने से कोई बहुत बड़ा, जो उसकी सोच से आगे का हो । सोच तो मन की ही है ना तो मन से छोटी ही होगी । मन की सोच मन से ज्यादा बड़ी तो नहीं हो सकती है ना ? मन के भीतर की रही होगी ? मन को अपने से कहीं – कहीं ज्यादा वृहद् किसी की तलाश है ।

उसी को कभी प्रेमी कहा गया है, कभी पति कहा गया है, कभी पिता कहा गया है, कभी माँ कहा गया है, कभी ईश्वर कहा गया है, ब्रह्म या अल्लाह कहा गया है । जब तक वो नहीं मिलेगा तब तक वही रहेगा । एक के बाद एक । कल्पना करो ना, एक इंसान एक के बाद एक रेस्त्रां में घुसता जा रहा है और पेट बजाता हुआ बाहर आता है ।भूख है की बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है ।

तुम जो कुछ अपने आप को देने की कोशिश कर रहे हो वो व्यर्थ जाना है । नौकरी, चाकरी, छोकरी, जो भी तुम देना चाहते हो अपने आपको उससे निराशा ही मिलनी है । कुंठा । क्योंकि एक इंसान की कोशिशे जब एक के बाद एक व्यर्थ होती है ना तो उसके भीतर बड़ा फ्रस्ट्रेशन जगता है । जब तुम पहली बार कोशिश करते हो और हारते हो तो तुम कहते हो, “कोई बात नहीं पहली हार थी । उम्मीद पर दुनिया जिंदा है, हम और कोशिश करेंगे” और जब एक के बाद एक, एक के बाद एक, एक के बाद एक तुम पाते हो…..

यही वजह है की चालीस – पचास की उम्रे बीतते – बीतते लोगों की हालत बड़ी खराब होने लगती है । खीजे – खीजे , ऊबे – ऊबे से रहते हैं । तुम साठ, सत्तर, अस्सी, साल के लोगों के चेहरे पर बहुत कम निर्मल हँसी देखोगे । तुम उन्हें बहुत कम शान्त या सहज पाओगे । उनके भीतर एक व्यर्थ गए जीवन की कुंठा होती है की चार दिन मिले थे, तीन दिन व्यर्थ चले गए हैं । जीवन, हाथों से सरकता जा रहा है, मौत करीब आती दिखाई दे रही है; कुछ हासिल नहीं हुआ ।

समय बहुत तेजी से फिसलता है ऐसे ही, जैसे हाँथ में से रेत फिसलती है । जल्द ही तुम भी वहीं खड़े होगे, तुम्हारा भी समय दूर नहीं है । बहुत समय तो वैसे ही गँवा चुके हो ।

जिस किसी ने ये सोचा कि एक परम विषय के अलावा किसी और विषय से उसको शांति, तृप्ति मिल जाएगी, पेट भर जाएगा; वो भूखा ही मरा ।

सुना है ना जब सिकंदर मरा था तो उसने क्या कहा था की मेरी जब शव यात्रा निकले तो मेरे दोनों हाथ बाहर होने चाहिए और दोनों हाथ खुले होने चाहिए, मुट्ठियाँ बंद नहीं होनी चाहिए । उसने कहा की लोगों को देख लेने दो की खाली हाथ आया था और खाली हाथ जा रहा हूँ और दुनिया फतह करी थी उसने ।

वो चाहता था की वापस पहुँच जाए, अपने घर पहुँच जाए और वहीँ पर मरे । इतनी सी भी उसकी ख्वाइश पूरी नहीं हो पाई । हिन्दुस्तान पर उसने आक्रमण करा था, वापस लौट कर अपने घर नहीं पहुँच पाया, रास्ते में ही मौत हो गई, और वादे थे जो उसे पूरे करने थे, वो वादे भी पूरे नहीं कर पाया ।

घर से कुछ ही दूर था जब उसकी मौत हुई, उसने जो भी प्रमुख चिकित्सक थे उनको सब को बुलाया यूनान के, दुनिया भर के । लोग आए; कहानी ऐसा ही कहती है और उनसे कहा कि इतना कर दो की चंद दिन और जी जाऊँ । एक संत है वहां पे, इंतजार कर रहा है । उससे वादा किया था, मिलूँगा आकरके, उससे मिल लूँ । उन्होंने कहा, “हम कुछ नहीं कर सकते, आपका समय आ गया है । जाना होगा ।”

दुनिया का सुलतान भूखा मरा ।

*आध्यात्मिकता* कोई फूहड़ रूढ़ – रिवाज नहीं है । वो ऊँची से ऊँची अक्लमंदी है ।

आध्यात्मिकता का वो अर्थ है ही नहीं जिसे हम आम तौर पर समझते हैं या हमें बताया जाता है । आध्यात्मिकता साधारण बुद्धि वाले आदमी को समझ में ही नहीं आएगी । आध्यात्मिकता के लिए बड़ा शान्त, बड़ा कुशाग्र मन चाहिए । ‘सूक्ष्म’, जो समझ सके की बात क्या है, जो देख सके की चल क्या रहा है । मूर्खों को ये बातें समझ में ही नहीं आती । वो तो बस वही एक दूकान से दूसरी दूकान और बस खाली तब भी, खाली ।

वो ही एक गाना आया था, ‘इश्क भी किया रे मौला, दर्द भी दिया रे मौला । यूँ तो सब सहा लेकिन कुछ रह गया बाँकी ।’ बेचारा बड़ी कशिश के साथ अंत में बोलता है ‘पर जहाँ रुका वहां जाम है खाली’ । सब कुछ कर लिया लेकिन जहाँ रुका वहाँ जाम है खाली । जब देखोगे जाम की ओर, उसे खाली ही पाओगे ।

पर जहाँ रुका वहाँ जाम है खाली । जहां देखोगे जाम खाली ही मिलेगा, करोगे क्या अब । बड़ी दैनीय हालत होती है । देखो जो यात्रा शुरू करता है, उसकी यात्रा उतनी दयनीय नहीं होती, उतनी खराब नहीं होती । बहुत ज्यादा खराब हालत इनकी होती है जिन्होंने कई – कई दशक लगा दिए होते हैं, कुछ पाने में, कुछ अर्जित करने में और जब इनका जाम खाली होता है तब बड़ी खराब हालत होती है ।

बहुत खराब हालत होती है, एगदम फनफनाये घुमते हैं । बहुत खराब हालत होती है, एकदम फनफनाये घुमते हैं । और दुनिया पर अपनी चिढ़, उब, खीज उतारते हैं । खासतौर पे अपने बच्चों पर ।

चालीस के बाद वो उम्र आनी शुरू हो जाती है । एक व्यर्थ गई जिंदगी अब अपना एहसास कराने लगती है की जिंदगी बर्बाद गयी ।

पर जहाँ रुका वहाँ जाम था खाली ।

मन बिल्कुल शांत हो जायेगा उसे वो मिल जायेगा जो वो चाहता है । तुम उसे वो दे दो । जब तक नहीं दोगे तब तक वहाँ कुछ ना कुछ कुट – कुट – कुट – कुट चलती रहेगी । ये करो, वो करो, ये पाओ, वो पाओ, यहाँ से भागो, वहाँ को जाओ । यही सब तो चलता रहता है मन में । ये अच्छा, वो बुरा, ये पसंद, वो नापसंद, इसके आलावा और क्या चलता है मन में ?

ये चलता ही रहेगा । मन को वो दे दो, और वो बहुत सहज है देना । बहुत सहज है देना । उसके बाद वो तुम्हें कुछ नहीं करेगा, उसके बाद वो तुम्हें खुला छोड़ देगा । कहेगा, “ठीक, मुझे मिल गया । मुझे मिल गया जो मुझे चाहिए था, अब तुम निष्फिक्र होक जो करना है करो ।” फिर तुम खेलो – कूदो मन परेशान नहीं करनें आएगा ।

फिर मन तुम्हारा दोस्त बन जायेगा, अभी तो मन दुश्मन है । दुश्मन जैसा ही है ना ? कोई संकल्प लेता है और उसे पूरा नहीं कर पाता । हज़ार तरह के उसमें बवाल चलते रहते हैं, इर्ष्या चलती रहते है, क्लेश, डर, चलता रहता है ना । अभी तो दुश्मन जैसा है मन, जिंदगी उसने खराब कर रखी है । फिर दोस्त हो जाएगा ।

जब उसका पेट भरा होगा, जब वोमाँ के पास होगा, फिर मन दोस्त हो जाता है । फिर तुम जो भी करते हो, वही बहुत मस्त रहता है । फिर तुम पढ़ोगे, मस्ती में पढ़ोगे और फिर जिंदगी ढर्रों पर नहीं चलेगी । फिर ऐसे जियोगे जैसे आकाश में पक्षी उड़े । खुला बिल्कुल, कोई दिशा ही नहीं है । जिधर को जाए, वही उसकी दिशा । मुक्त, ऐसे जिओगे ।

आ रही है कुछ बात समझ में ?

लेकिन पहले तुम्हें उम्मीद छोड़नी पड़ेगी । जब तक तुम्हारे पास उम्मीद है, आशा है, तब तक तुम फँसें रहोगे । जब तक तुम ये सोच रहे हो की नहीं – नहीं – नहीं – नहीं, अगली नौकरी, जब तक तुम सोच रहे हो नहीं – नहीं – नहीं – नहीं, बड़ा घर, जब तक तुम सोच रहे हो नहीं – नहीं, विदेश में बस जाएँगे तो शान्ति मिल जाएगी; जब तक इस तरह की उम्मीदें तुमने पकड़ रखी है तब तक तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता । तब तक तुम्हारी गति यही रहेगी की ‘तड़पो’ ।

इधर – उधर से उम्मीद छोड़ो, नाता छोड़ो । जिधर गति है, जहाँ सार्थकता है, उधर को जाओ और सब मस्त

और फिर मैं तुमसे कह रहा हूँ, उधर को जाने का मतलब ये नहीं होता की तुम किसी पहाड़ पे चढ़ के बैठ जाओगे, दुनियादारी छोड़ दोगे । उधर को जाने का मतलब होता है की मैं अब ‘बोध’ में जीता हूँ । ऐन इंटेलीजेंट वे ऑफ़ लिविंग (जीने का एक बुद्धिमान तरीका) ।

बात समझ रहे हो ?

लोग डर भी जाते हैं जब उनसे कहा जाता है कि सत्य को जानो, असलियत में जीयो, तो बड़ा खौफ उठता है मन में की इसका क्या मतलब ? इसका मतलब है की दुनिया छोडनी पड़ेगी, किसी निर्जन जंगल, पहाड़, रेगिस्तान में जाकर धूमी रमानी पड़ेगी । शमशान में नाचना पड़ेगा । क्या करना पड़ेगा?

नहीं कुछ नहीं करना पड़ेगा । इसका मतलब इतना ही है की यहाँ(सिर की ओर इशारा करते हुए ) पर जो उलटी – पुलटी धारणाएँ हैं उनको छोड़ना पड़ेगा, उनकी उम्मीद को त्यागना पड़ेगा ।

आ रही है बात समझ में ?

तो फ़िज़ूल छवियाँ नहीं बनाओ ।

ना धर्म वो है जो तुम माने बैठे हो, ना आध्यात्मिकता वो है जो तुम माने बैठे हो, ना सत्य वो है जो तुम माने बैठे हो । ये पंडों पुरोहितों, रीति रिवाजों की बात नहीं है । ये बोध की, इंटेलिजेंस की बात है । ये कपोल कल्पनाएँ नहीं हैं । ये एक मात्र सत्य है ।

और जो इसमें नहीं जी रहा, मैं नहीं कह रहा हूँ की वो नरक जायेगा, उसे पाप चढ़ेगा या ऐसा कुछ । मैं कह रहा हूँ, जो इसमें नहीं जी रहा वो दिन रात दुःख भोग रहा है । और इतना काफी है । इससे बड़ी कोई सज़ा हो सकती है की दिन – रात दुःख भोगो । शकल उतरी रहे, उदास रहो, चिढ़े रहो, हिम्मत ना बंधे – इससे बड़ी कोई सज़ा हो सकती है ?

आ रही है बेटा बात समझ में कुछ ?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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