मन - दुश्मन भी, दोस्त भी || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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मन - दुश्मन भी, दोस्त भी || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

माया दो प्रकार की , जो जाने सो खाए|

एक मिलावे राम से , दूजी नरक ले जाए||

~संत कबीर

वक्ता : माया क्या है? जहाँ कही भी मन जाकर बैठ जाए, उसका नाम माया है| कुछ चीज़ों को बहुत स्पष्ट समझा करिये| उसमें जटिलता की कोई आवश्यकता नहीं है, क्यूंकि बात बिलकुल सीधी है, उसे लाग लपेट के मत बोलिए| माया क्या? जो ही मन को आकर्षित करे, वो माया| वो किसी भी कारण आकर्षित कर सकती है| वो ऐसे भी आकर्षित कर सकती है कि लुभावनी लग रही है और ऐसे भी आकर्षित कर सकती है कि डरावनी लग रही है| दोनों में आकर्षण है| लोभ में भी आकर्षण है और डर में भी आकर्षण है| मन जा कर के बैठता है वहां बार बार| आपको कुछ प्रिय लगता है आप सोचोगे उसके बारे में| और आपको कुछ भयाक्रांत लगता है, आप उसके बारे में भी सोचोग| आप दोस्त के बारे में भी सोचोगे और आप दुश्मन के बारे में भी सोचगे| दोनों क्या हुए? माया| तो जो मन से न उतरे, “माया कहिये सोए” | माया क्या? मन जहाँ बार-बार जाकर बैठे, उसी का नाम माया है| जो ही विचार मन में लगातार भरे रहें, उसी का नाम माया है| तो हमारे जीवन में माया कहाँ है? ये जानने का बड़ा सरल तरीका है| यही देख लीजिये कि दिन-रात किस के विषय में सोचते हो|

जो ही विषयमनमें भरा हुआ है, सो ही माया है|

अच्छा| तो मन को जो खींचे, वो माया|

कबीर कह रहे हैं कि एक माया ऐसी भी है, जो राम से मिला देती है| मन को जो खीचें सो माया और कबीर कह रहे हैं कि, ‘’एक माया राम से भी मिला देती है|’’ इन दोनों बातों को जोड़िये| मन को यदि ऐसा कर लो कि उसको राम ही आकर्षक लगने लगे, तो क्या बात बनेगी? मन ही है जो यत्र-तत्र भागता है| इसी मन को ऐसा क्यूँ न कर दें कि वो राम की तरफ़ भागे? वो भी एक प्रकार का आकर्षण ही है| मीरा रो रही है, कृष्ण के लिए| कह रही हैं कि शैय्या बिछी हुई है, आते क्यूँ नहीं? सेत सूनी पड़ी है| ठीक वैसे ही कह रही है जैसे कि एक आम प्रेमिका अपने प्रेमी को बोलती है| शब्द वैसे ही हैं, पर भाव दूसरे ही हैं| आकर्षण वहां भी है, पर वो आकर्षण उसे मिला रहा है- राम से, श्याम से| खाता कौआ भी है और खाता हंस भी है| आकर्षित दोनों होते हैं| पर क्या कहते हैं कबीर? कि एक नहाता है ताल-तल्लिया में और दूसरा नहाता है मान सरोवर| तो ऐसा क्यूँ न कर दें मन को कि वो आकर्षित ही मान सरोवर की ओर हो और कहीं वो लगे ही न| तुम मीरा के सामने अंगु- पंगु खड़े कर दो, वो आकर्षित हो जाएगी क्या? उसने अपने मन को कैसा कर लिया है? कि परम के अलावा, वो कहीं लगता ही नहीं| मन ही है, याद रखिएगा| और कबीर ने कहा है कि जो मन से न उतरे, “माया कहिये सोए|” मीरा के मन में भी कोई समाया हुआ है| और जो ही मन में समाया, वही माया है| मीरा के मन में भी कोई समाया है| कौन समाया हुआ है?

श्रोतागण: राम |

तो क्यूँ न कर ले मन को ऐसा? यही मन है, जो हमारी सबसे बड़ी सज़ा है| अगर ये बेचैन होकर इधर-उधर भागे| अतीत, भविष्य, आगे-पीछे| और यही मन हमारा सबसे बड़ा दोस्त है, अगर ये सध जाए| और उस अवस्था को कहते हैं-

“यत्र यत्र मनोजतीत्र तत्र समाधी|”

मन जहाँ कही भी जा रहा है, वही समाधी है| तो मन जहाँ भी जा रहा है, राम के साथ ही जा रहा है| ऐसा क्यूँ न कर लें मन को? और कहीं लगता ही नहीं| खींचो इधर-उधर, तो भी कहीं जाता ही नहीं| जहाँ ही जाता है, उसी को और जाता है| संसार पूरी कोशिश कर ले, अपने लुभावने से लुभावने रूप में नाच ले, मन फिर भी अपने केंद्र पर स्थित रहता है| आदमी-औरत, बूढ़े-बच्चे, जिसको देखता है, उसको ही देखता है| भूत और भविष्य में भी घूमता है, तो स्थित वर्तमान में ही रहता है| मन को ऐसा क्यूँ न कर लें? कि सोच रहा है आगे की, ठीक| बिचर रहा है स्मृतियों में, ठीक| लेकिन बैठा वर्तमान में ही हुआ है| वर्तमान से नहीं हिलता| अतीत की सोच भी रहा है, तो आसन वर्तमान में ही है| ‘एक मिलावे राम से, दूजी नरक ले जाए,’

मन का एक होना वो है, मन की एक सामग्री वो है, जो मन को उसके स्रोत से दूर करती है| और मन की एक दूसरी सामग्री वो है जो उसको स्रोत के निकट लेकर जाती है| ये आपके सामने कुछ पन्ने हैं, किताबें हैं |तो एक किताब हो सकती है जो मन को बहकाए और एक किताब हो सकती है जो मन को साध दे| स्रोत के पास ले जाए| हैं दोनों किताबें ही| हैं दोनों शब्द ही, किसी और का कहा हुआ शब्द है| दोनों ही किसी और के कहे हुए शब्द हैं| दोनो में ही कोई दूसरा मौजूद है| और दोनों की मौजूदगी में ही ज़मीन आसमान का अंतर है| एक है, जो आपको आपके करीब ले जा रहा है और एक है जो आपको आपसे ही दूर लेकर के जा रहा है और यही सूत्र है जीने का| यही कला है जीने की| कि क्या चुनें और क्या न चुनें| इसी का नाम विवेक है|

उसको चुनो जो तुम्हें तुम्हारे करीब ले आता हो और उससे बचो जो तुम्हें तुम से दूर ले जाता हो| और यही पहचान है दोस्त और दुश्मन की भी| यही कसौटी होनी चाहिए जीवन में कुछ भी करने की, देखने की| इस व्यक्ति के साथ जब होता हूँ, तो अपने करीब होता हूँ या अपने से दूर हो जाता हूँ? जो तुम्हारे जीवन में आकर तुमको हिला-डुला दे, तुमको तुम से दूर कर दे, उसकी संगती से बचो| वो, वो वाली माया है जो तुमको नरक ले जाएगी| नरक और कुछ नहीं है?

स्वयं से दूर हो जाना ही नरक है|

नरक और कुछ नहीं है? यही नरक है| इसीलिए कहा है कि नरक भी यहीं, स्वर्ग भी यहीं| जिन क्षणों में अपने से ही दूर हो गए, उन क्षणों में नरक में हो| और जिसकी संगती में मन उपद्रव से भर जाता हो, स्वयं से दूरी बन जाती हो, एक अलगाव बन जाता हो, वही नरक का एजेंट है| और जिसकी संगती में पाते हो कि अपने पास आ गए| “तुम्हारे पास होते हैं, तो अपने पास आ गए”, जिससे ऐसा कह सको, वही तुम्हारा प्रेमी है| तुम्हारे पास होते हैं, तो अपने पास आ जाते हैं|

आम तौर पर प्रेमियों की पूरी-पूरी कोशिश होती है कि जब हमारे पास रहो, तो अपने से दूर हो जाओ| ये प्रेमी नहीं है, ये नरक का एजेंट है| ‘एक मिलावे राम से, दूजी नरक ले जाए,’ नरक और कुछ नहीं है? यही नरक है| जो चित को भटका दे, वही नरक है| समझ में आ रही है बात|

यही जीवन जीने का सूत्र है| इसी का नाम विवेक है| विवेक माने- भेद करना, चुनना| कैसे चुनें? जीवन प्रतिपल चुननें की ही प्रक्रिया है| कैसे चुनें? ऐसे चुनें| यही सवाल पूछें| इस किताब के साथ रहूँगा, तो अपने पास रहूँगा या अपने से दूर रहूँगा| इस व्यक्ति के साथ रहूँगा, इस माहौल में रहूँगा, इस समारोह में रहूँगा, इस जगह पर रहूँगा तो अपने पास रहूँगा या अपने से अलहदा कर दिया जाऊंगा? यही सवाल है? जहाँ पर जवाब आए, ‘’हाँ| अपने पास आ जाओगे|’’ वहां पर आँख बंद कर के पहुँच जाओ| वही व्यक्ति शुभ है तुम्हारे लिए| वही जगह शुभ है तुम्हारे लिए और जहाँ पर जवाब न में आए कि न| मैं शांत भी होता हूँ, तो इस व्यक्ति के पास रह कर के मन में उपद्रव आ जाते हैं| मैं चुप-चाप बैठा होता हूँ, तो इस व्यक्ति को चैन नहीं हैं जब तक कि ये मेरे मन में हज़ार तरीके के उपद्रव न भर दे| उससे बचो; जान बचाओ| वही नरक है| नरक आपको कैसा लगता है, कैसा है? वहाँ बड़े-बड़े तेल के कढ़ाए उबल रहे हैं, जिसमें आपके शरीर को उबाला जाएगा? नहीं- नहीं| नरक वो है, जहाँ आपका मन उबलने लगे| नरक में आपका शरीर नहीं उबाला जाता| नरक वो जहाँ आपका मन उबाल दिया जाए|

जिसकी संगती में आपकामनखौल उठे, वही नरक है

और जिसकी संगती में आपका मन शीतल हो जाए, वही स्वर्ग है| अब अपने आप से पूछिए कि आपकी पारिधि में जो लोग हैं, वो कैसे हैं? उनमें सो जो-जो ऐसे हैं की जिनके स्पर्श मात्र से मन शीतल हो जाता है, उनको जीवन में जगह दीजिए और बाकियों से बचिए| जिनसे नज़रें मिलती हों और मन बिलकुल हिमवत हो जाता हो उनको आदर दीजिए, सम्मान दीजियए| उनको अपने मंदिर में बैठाइए| और जो आते ही हों खुराफ़ात के लिए, कि उनकी आहाट से ही सब हिल उठता है| कि फ़ोन की घंटी बजी नहीं और मन झनझना जाता है कि “बाप रे! पता नहीं क्या होगा अब?” तो भला है कि नंबर ब्लॉक ही कर दीजिये|

जहाँ तक आपकी बात है, तो एक ही जीवन है आपके पास| इतनी सहूलियत नहीं है कि उसको व्यर्थ उड़ाते चले| इतने क्षण नहीं है आपके पास, इतना अवकाश नहीं है कि उसको फिज़ूल लोगों के साथ ज़ाया करते चलें| आत्मा होगी अमर, आप अमर नहीं है| अंतर समझिएगा| इस चक्कर में मत रह जाइएगा कि, “मैं तो अमर हूँ|’’ ये जन्म अगर उपद्रव में बीत भी गया तो क्या होता है?” आप नहीं अमर हैं| आपके पास एक ही जन्म है| दूसरा कोई जन्म नहीं होता| आप जो हैं, वो कभी लौटकर नहीं आएगा| आत्मा होती होगी अमर| बहुत सावधानी से कदम रखिए| विवेक का यही अर्थ है – अन्तर कर पाने की क्षमता, चुन पाने की शमता| भेद कर पाने की क्षमता| क्या रखूँ, क्या न रखूँ? क्या पहनूं क्या न पहनूं? क्या कहूँ क्या न कहूँ? क्या खाऊं क्या न खाऊं? क्या पढूं क्या न पढूं? किसको जीवन में जगह दूँ और किसको न दूँ? यही विवेक है| “एक मिलावे राम से दूजी नरक ले जाए|”

समझ ही गए होंगे कि विवेक का अर्थ है- प्राथमिकता| किसको ऊपर रखना है और किसको नीचे रखना है| और हमारी ज़िन्दगी में गड़बड़ ही यही है कि हमको नहीं पता कि किसको प्राथमिकता देनी है? आप एक काम कर रहे हैं, वो काम महत्वपूर्ण है या कुछ और ज़्यादा महत्वपूर्ण है? वो हम जानते नहीं| हमारे सारे निर्णय उलटे-पुल्टे रहते हैं| इसी को “अविवेक” कहते हैं| पता ही नहीं है कि किस चीज़ को महत्व देना है| यह भी दिख ही रहा होगा कि विवेक और मूल्य आपस में जुड़ी हुई बात है| मूल्यों का यही अर्थ है- कि क्या कीमती है और क्या कीमती नहीं है? हम नहीं जानते कि क्या कीमती नहीं हैं| हम बिलकुल नहीं समझते कि क्या कीमती नहीं है| हम ऐसे पागल हैं जो हीरे को पत्थर और पत्थर को हीरा समझते हैं| और समझते अगर नहीं भी हैं, तो कम से कम दूसरों को तो यही जताते हैं| “अरे! हम बहुत व्यस्त चल रहे हैं| हम विदेशी कंपनी में काम करते हैं| हमारे पास एक एक्सेल शीट पर दो शब्द लिखने का समय नहीं है|” तुम सब क्या जानो देसी लोगों? तुम्हारा तो नाम भी देसी है| “हम सब बहुत बिज़ी हैं|” तुम व्यस्त नहीं हो, तुम जड़ हो, तुम मुर्ख हो|

अविवेक इसी को कहते हैं| तुम्हें पता ही नहीं है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं है? क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए? उसके बाद अगर नरक में जलो तो ज़िम्मेदार कौन? पीड़ा भुगत रहे हो| समझ नहीं रहे हो अभी भी कि तुम्हारी इस पूरी पीड़ा का कारण क्या है? तुम्हारा अपना अविवेक| और उसी अविवेक को तुम बढ़ाए जा रहे हो आगे| अभी भी उससे मुक्त नहीं होना चाहते| जिन कारणों से तुमने इतना कष्ट झेला है| जिन कारणों से मन इतना जल रहा है, उन्ही कारणों से अभी भी चिपके हुए हो| ‘एक मिलावे राम से, दूजी नरक ले जाए|’

हम ऐसे हैं कि राम के द्वार पर भी नरक निर्मित कर देंगे| हम ऐसे हैं कि स्वर्ग के बीचों-बीच अपने व्यक्तिगत नरक की स्थापना कर देंगे| और उसको नाम देंगे कि, ‘’ये मेरा है|’’ “*माई पर्सनल स्पेस, डू नॉट इंटरफ़ेयर*” | आप इतना अगर संकल्प कर लें तो देखिएगा कि जीवन की गुणवत्ता में कितना अंतर आता है| बस अगर इतना संकल्प कर लें| जो कह रहा हूँ, उसको ध्यान से सुनियेगा| अपने साथ अन्याय नहीं होने दूंगा| जो मेरे मन में उपद्रव पैदा करते हैं, जो मेरी शान्ति में विघ्न डालते हैं, उनके साथ नहीं रहूँगा, नहीं रहूँगा| संकल्प कर लीजिये बस, मुट्ठी बाँध लीजिये| फिर देखिए कि जीवन बदलता है कि नहीं? जहाँ ही पाउँगा कि, ‘’ये जो मेरी गहरी आंतरिक शान्ति है, उसमें बाधा पड़ रही है, मैं उस जगह से अपने कदम पीछे खींच लूँगा| मैं उस कमरे से ही बहार आ जाऊंगा|’’ देखिए कि जीवन बदलता है कि नहीं बदलता है|

लेकिन आप झेलने को बहुत तैयार हैं न| आप बहुत ज़िम्मेदार हैं| आप कहते हैं कि “अरे! अगर मैं कमरे से बाहर चला गया, तो मेरा क्या होगा? कहीं कोई नाराज़ न हो जाए? कहीं कोई सम्बन्ध न टूट जाए?” न| आप एक बार ये व्रत उठाकर देखिये| फ़िल्म देखने गए हैं| ठीक है| खरीद लिया आपने तीन सौ रूपए का टिकट और शुरू के बीस मिनट में ही पता चल गया कि ये वो चीज़ नहीं है, मुझे धोखा हो गया| अब बाहर आ जाइये| कसम उठा लीजिये की जो कुछ भी मन को ख़राब कर रहा होगा उसे झेलूँगा नहीं| पहली क्या गलती की कि तीन सौ का टिकट खरीदा| ये एक गलती है, इसको आप ठीक नहीं कर सकते| और अब क्या गलती कर रहे हो| अब क्या कह रहे हो? “कि क्यूंकि अब तीनसौ का खरीद लिया है तो तीन घंटे बैठूँगा भी|” तुम्हें क्या लगता है कि इस दूसरी गलती को करके तुम पहली गलती को ठीक कर रहे हो, ये पहली गलती को दो गुना कर रहे हो| उत्तर दीजिये?

श्रोतागण: बढ़ा रहे हैं |

वक्ता: पर हमारी मानसिकता क्या रहती है? क्यूंकि एक गलती कर दी है, तो अब पांच गलतियाँ और करूँगा लेकिन ये मानूंगा नहीं की पहली गलती हो गई| चुपचाप मान लो न की निर्णय लेने में गलती हो गई| चुनाव गलत हो गया| जो मूवी देखनी ही नहीं चाहिए थी, उसका टिकट खरीद लिया| धोखा हो गया| मान लो कि धोख हो गया| पर अब जब धोखा हो गया तो क्या जन्म भर उस धोखे को निभाओगे? कर दी एक गलती| चूक हो गई निर्णय लेने में| कोई बात नहीं| दिख गया जैसे ही, कि चूक हो गई है, धोख हो गया है, उठो और सिनेमा हॉल से बहार आ जाओ| हम खाना खाने में भी यही गलती करते हैं| हम खाना खाने गए हैं और ऐसा खाना आ गया है- तला भुना, मिर्च वाला, कुछ भी कर के| अब क्या करें? आर्डर दे दिया| आ गया है| अब एक गलती ये करी कि गलत जगह पर, गलत पदार्थ मंगाया| अब तुम दूसरी गलती भी करना चाहते हो| क्या? उसे खा भी लेना चाहते हैं| और हम ठीक यही करते हैं कि नहीं करते हैं? अतीत की गलतियों को आगे बढ़ाते रहते हैं| उनसे पीछा नहीं छुड़ाते और इसको हम वफ़ा का नाम देते हैं| “अरे टिकट खरीद लिया, वफ़ा कर ली, अब बेवफा कहलाएँ क्या?” व्यक्तियों के साथ भी हम ठीक यही करते हैं| समझ ही गए होंगे| कि, ‘’अब किसी से एक सम्बन्ध बना लिया है और कैसे स्वीकार कर लें कि वो सम्बन्ध बनना ही नहीं चाहिए था| वो सम्बन्ध ही गलत था| झूठ की बुनियाद पर था| अब उसको हम निभाएँगे और जीवन भर ढोएंगे’’ और किसका नाम नरक है? तो आग्रह कर रहा हूँ आपसे कि ज्यों ही दिखे की गलती हुई है, तत्क्षण रुक जाइये| उसे आगे मत खींचिए| ज्यों ही दिखे कि मन अस्थिर हो रहा है, मन कम्पित हो रहा है, उस माहौल से दूर हो जाइए| ये मत कहिए कि इसमें मेरा बड़ा इन्वेस्टमेंट है| जीवन के कई साल लगाए हैं इस पर, न| तब जानते नहीं थे| धोख हो गया था| अब दिख रहा है न, बचो|

~ ‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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