प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मन, बुद्धि और आत्मा में क्या अंतर है?
आचार्य प्रशांत: बुद्धि मन का एक अंग समझ लीजिए और आत्मा सत्य है आपका। मन सो जाता है तो बुद्धि भी सो जाती है। मन के माहौल के अनुसार बुद्धि काम करने लग जाती है, तो बुद्धि छोटी चीज़ है।
वास्तव में मन, बुद्धि और आत्मा इन तीन की बात करना कोई विशेष महत्व नहीं रखता। मन है और आत्मा है, बस। जिसको हम शरीर भी कहते हैं, वो मन का ही स्थूल रूप है।
प्र: ये तो मन की आवाज़ होती है।
आचार्य: आत्मा की कोई आवाज़ नहीं होती। जब आप कह रहे हैं, "उनको अलग-अलग कैसे जानूँ?" तो पहले मैं समझना चाहता हूँ आपने उनको एक कैसे जान लिया? बुद्धि का मतलब है हिसाब-किताब, मन का मतलब है वृत्तियाँ और आत्मा है प्रकाश मात्र। तो आप उनको एक समझ कैसे रहे हैं? अलग-अलग तो मैं तब बताऊँ न। बुद्धि वो जो जोड़ना-घटाना जानती है, बुद्धि वो जो इस चीज़ और उस चीज़ में संबंध स्थापित करना जानती है, बुद्धि वो जो उपाय जानती है और तर्क जानती है। मन वो जिसमें संकल्प-विकल्प उठते-गिरते रहते हैं, जिसमें आकर्षण-विकर्षण आते-जाते रहते हैं, जहाँ कभी कुछ है और कभी कुछ नहीं है और कभी कुछ और है। और आत्मा वो रौशनी है जिसमें आपको बुद्धि भी पता चलती है, मन भी पता चलता है। इनको आप एक कैसे समझ रहे हैं पहले तो ये बताइए?
प्र: एक नहीं समझ रहे हैं।
आचार्य: तो फिर जब एक नहीं हैं तो अलग ही हैं। अगर एक नहीं समझ रहे तो फिर वो अलग हैं ही न।
प्र: उसकी पहचान जाननी है।
आचार्य: आत्मा की कोई पहचान नहीं होती। यहाँ रौशनी है, आप इस रौशनी में इन चेहरों को पहचान सकते हैं। रौशनी की क्या पहचान है?
आत्मा वो प्रकाश है जिसमें सब पहचाने होती हैं, आत्मा की कोई पहचान नहीं होती। मन की वो क्षमता जिसका संबंध तर्क इत्यादि से है, बुद्धि कहलाती है। और वृत्तियाँ जिस आकाश में आती हैं, अपनी मौजूदगी दर्शाती हैं उसको मन कहते हैं।
प्र२: आचार्य जी, विपश्यना ध्यान की एक बहुत प्रचलित पद्धति है। कृपया इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
आचार्य: विपश्यना पर प्रकाश क्या डालना है, पद्धति है, आपके काम आती है, आपको लाभ हो रहा है तो उसका पालन करिए।
आज जिस तरीके से विपश्यना आपके सामने है वो पद्धति बुद्ध ने नहीं दी थी, बुद्ध ने सिद्धांत दिया था। आज वो आपके सामने जिस तरीक़े से आई है उसका विकास पिछले सौ-डेढ़-सौ सालों में ही हुआ है। लेकिन फिर भी पद्धति है, अच्छी पद्धति है, साफ़-साफ़ देखने को कहते हैं विपश्यना। सिद्धांत है जो कहता है — साफ़ देखो, अनवरत देखो, निरंतर देखो।
अभी जो पद्धति चल रही है उसमें साँस को देखने पर बड़ा ज़ोर है। पर वास्तव में विपश्यना का मतलब ये नहीं होता कि साँस को ही देखो। विपश्यना का मतलब होता है — देखो। 'पश्य' धातु है, पश्य माने देखना। सबकुछ देखो — मन को देखो, दुनिया को देखो, विचारों को देखो, भावनाओं को देखो, प्रतिक्रियाओं को देखो, अपनी दुनिया को देखो। हाँ, आप जब साँस को देखने का अभ्यास करते हो तो उससे देखने की आपकी सामर्थ्य और दृढ़ होती है। आपकी काबिलियत पक्की होती है कि आप अगर अनवरत रूप से साँस को देख पा रहे हो तो इसी एकाग्रता से, इसी अभ्यास से आप जीवन के अन्य पक्षों को, शरीर की अन्य क्रियाओं को, अपनी पूरी ज़िंदगी को ही देख पाओगे। ये विपश्यना है। देखो।
प्र३: तो क्या अभी हम सुबह से शाम तक नहीं देखते हैं?
आचार्य: लगता तो ऐसा ही है। जिन्होंने पद्धति दी वो पगलाए तो नहीं थे कि जो पहले से ही देख रहा है उसको कह रहे हैं देखो। तुम देख ही रहे होते तो वो क्यों चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे होते कि, "भाई आँख खोल और देख!" लगता तो ऐसा ही है कि उन्होंने समझ लिया था कि तुम कुछ देखते नहीं, आँख खुली है फिर भी देखते कुछ नहीं।
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