मजबूरी का रोना मत रोओ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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मजबूरी का रोना मत रोओ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी मेरा सवाल है कि मुझे पता है कि समय काफ़ी सीमित है मेरे लिए। और इसे व्यर्थ करने की ज़रूरत नहीं है। इसको कुछ अर्थपूर्ण चीज़ों में लगाने की ज़रूरत है। मैं कोशिश भी करता हूँ इसके लिए। लेकिन समस्या है कि कई सारे भटकाव जिनकी मैं उपेक्षा नहीं कर पाता। कई सारी चीज़ें हैं जिनसे मैं दूर रहने की कोशिश करता हूँ। जैसे आप कहते हैं कि जो लोग मुझे नीचे खींच रहे हैं उनसे दूर रहने की ज़रूरत है। कुछ चीज़ें हैं जो नहीं करनी हैं, उनसे मैं दूर रहने की कोशिश करता हूँ। लेकिन कुछ चीज़ों की मैं उपेक्षा नहीं कर सकता। कुछ लोग हैं जिससे मैं बाहर निकलता हूँ। कई सारे भटकाव हैं जिससे मैं दूर नहीं रह पाता हूँ। तो उससे मैं ख़ुद को कैसे बचा सकता हूँ? कैसे मैं उससे ख़ुद को ऊपर उठा सकता हूँ? ताकि मैं जो सही चीज़ें हैं उस पर मैं अपने समय को लगा सकूँ।

आचार्य प्रशांत: लम्बा-चौड़ा जवाब नहीं है। निर्णय आपने पहले ही घोषित कर दिया है। उसके बाद आप कहें कि मैं निर्णय कैसे बदलूँ, तो कोई क्या कहेगा? आपने कहा, 'कुछ लोग हैं उनसे मैं दूर नहीं रह पाता।' ये एक निर्णय है। ये विवशता नहीं है। ये एक निर्णय है। उसके बाद कह रहे हैं कि उनसे दूर कैसे रहूँ।

निर्णय घोषित कर देने के बाद किसी प्रकार की विचार प्रक्रिया या संवाद का कोई महत्व बचता है क्या? अदालत में मुकदमा चल रहा हो। और शुरुआत में ही निर्णय घोषित कर दिया गया हो। उसके बाद गवाह, सबूत, प्रमाण, बहस इनका कोई औचित्य? कुछ बचा?

विवशता के आगे न कोई तर्क चलेगा, न ज्ञान चलेगा, न अभ्यास चलेगा कुछ नहीं चलेगा। जो व्यक्ति अपना प्रश्न ये कह कर शुरू करता हो कि फ़लानी चीज़ मैं कर नहीं पाता, उसको क्या कहा जाए? आत्म प्रवंचना है, बेटा! स्वयं को धोखा देने की बात है। तुम कहते हो कि कुछ लोग हैं, मैं उनसे दूर नहीं रह पाता हूँ। क्यों?

उनमें कोई चुम्बकीय शक्ति है? क्या हो जाता है? पुलिस आती है तुम्हें जबरन बाँध करके सामने डाल देती है। क्या हो जाता है? अपने ही पाँव चलकर के उनके पास जाते हो न? तो क्या है ये अपना? निर्णय है!

और स्वेच्छा से लिए हुए निर्णय सिर्फ़ स्वेच्छा ही बदल सकती है। कोई न जानता हो, उसको जनवाया जा सकता है। पर जिसने जाना है भले और बुरे को तोला है और तोलने के बाद ये फैसला करा है कि मुझे तो अपनी बुराई की ओर जाना है, कौन उसका कोई हित कर सकता है? जादू नहीं होते। अध्यात्म में, वेदान्त में कोई जादुई शक्ति नहीं है।

आपको कुछ बातें बताई जा सकती हैं। आपके हित में क्या है? आपके लिए अहितकर क्या है, आप कुछ करते हैं तो उसका कैसे परिणाम आता है, ये सब बातें आपको बताई जा सकती हैं। लेकिन आप एक युवा व्यक्ति हैं, आपको वेदान्त मजबूर तो नहीं कर सकता न।

व्यक्ति का स्वभाव है मुक्ति! और उसका अर्थ ये है कि मुक्ति की ओर जाना है या नहीं जाना है ये निर्णय भी आपको अपनी मुक्ति में ही करना पड़ेगा। आप मुक्त हैं ये निर्णय करने के लिए भी की आपको मजबूरी का मुखौटा पहने रहना है। मैं मजबूर हूँ। इसके आगे कोई क्या कर सकता है? मुझसे नहीं हो रहा!

मुझसे नहीं हो रहा! मुझसे नहीं हो पाएगा। इसके आगे कोई सलाहकार, कोई गुरु आपकी मदद नहीं कर सकता। आप टेनिस खेलने गये हैं। कोच आपको गेंदें डाल रहा है। चार गेंदें उसने डाली। पाँचवी पर आप बोल दें, ‘मेरे बस की नहीं है, मुझसे नहीं हो रहा।’ ये तो आपने निर्णय पारित कर दिया न। अब कोई क्या मदद करेगा?

पहली बात कही कि आचार्य जी आप समझाते हैं कि किन कामों से, किन लोगों से दूर रहना चाहिए। और अगली बात कही, ‘लेकिन मैं ग़लत लोगों से दूर नहीं रह पाता।’ अब, मेरे लिए कुछ करने को शेष नहीं है। हाँ, मैं मदद कर सकता था यदि प्रश्न ये होता कि मैं कैसे जानू कौन मेरे लिए अच्छा, कौन मेरे लिए बुरा, अच्छे-बुरे का तकाज़ा क्या है, तो मैं कुछ कह पाता।

आप समझ चुके हो, क्या अच्छा, क्या बुरा। उसके बाद क्या हुआ? उस के बाद बस यही हो सकता है कि देख लो कि तुम्हारे स्वार्थ तुमसे जो करवा रहे हैं उसका परिणाम क्या आता है। कोई विवश नहीं होता, स्वार्थ होते हैं। और इसीलिए उन लोगों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है, जो बार-बार यही बताते चलें कि मैं तो शोषित हूँ, पीड़ित हूँ। मेरे साथ तो दुनिया ने ग़लत कर दिया। या मैं भीतर से कमज़ोर हूँ न, इसीलिए मैं कोई अच्छा काम कर नहीं पाता। किसी भली राह पर आगे बढ़ नहीं पाता।

कमज़ोरी एक झूठ है। मजबूरी एक ढोंग है। असली शब्द है स्वार्थ। आपका जहाँ स्वार्थ जुड़ा होता है वहाँ मजबूरियाँ, कमज़ोरियाँ सब खड़ी हो जाती हैं। लेकिन बुरा-सा लगता है, स्वीकार करने में कि हम स्वार्थ की कठपुतलियाँ हैं। तो हम कहते हैं, ‘नहीं-नहीं। मेरा कोई स्वार्थ थोड़े ही है फ़लाने व्यक्ति की संगति करने में। मैं तो मजबूर हूँ इसलिए करना पड़ता है।’

पहली बात जानिए कि आप स्वार्थ के चलाए चलते हैं। दूसरी बात ये भी जानिए कि स्वार्थ माने फायदा, माने मुनाफ़ा, माने लाभ। जितना आप को दिख रहा है उससे कहीं ज़्यादा आपको नुक़सान दे रहा है। आपका असली लाभ किसी और दिशा में है। स्वार्थ आपने देख लिया। अपनी सीमित गणना में आपने इतना देख लिया कि इस तरफ़ को जाऊँगा, मान लो बाईं तरफ़़ को तो इतना मुझे लाभ हो जाता है। ये अपने सीमित गणना में आपने देख लिया। मैं कह रहा हूँ अपनी गणना को विस्तार दीजिए। देखिए कि उधर जाने में लाभ तो हो रहा है आपको दस, बीस, पचास रुपये का। नुक़सान कितने का हो रहा है? और फिर जब कुल तस्वीर सामने आएगी तो आपको पता चलेगा उधर नहीं जाना है। आप तुरन्त मजबूरी झाड़कर उठ खड़े होंगे।

आप कहेंगे, 'अरे! मजबूरी वगैरह तो पहले भी नहीं थी। मुझे लगता था उधर जाने में मुनाफ़ा है इसलिए बार-बार चला जाता था। पर अभी-अभी साफ़ दिख गया कि कोई मुनाफ़ा नहीं है। तो अब मैं उधर नहीं जाऊँगा।' भावनात्मक विवशताएँ, आदतें ये सब झूठें शब्द हैं। आप निर्णय करते हैं। जो कुछ भी आपके जीवन में हो रहा है वो संयोगवश नहीं घट रहा उसमें आपकी सहमति शामिल है।

आप किन्हीं परिस्थितियों में हो तो सकते हैं संयोगवश, पर उनमें बना रहना ये बात संयोग की नहीं चुनाव की होती है। मेरे मोहल्ले में बड़ी दुर्गन्ध उठती है। हो सकता है आपका जन्म वहाँ हुआ हो। हो सकता है आप जब वहाँ आये हों तब वहाँ दुर्गन्ध न हो, अब फैल गयी हो। ये बात संयोग कि हो सकती है। पर आप वहीं पर टिके रह जाएँ, ये बात अपना चुनाव होती है। मैं जैसे ही कहता हूँ कि फिर वहाँ टिके क्यों हो? तो आप पलटकर कहते हैं, ‘तो चले कहाँ जाएँ?’ जा तो आप कहीं भी सकते हैं।

बस बात इतनी है कि कहीं और जाने में कष्ट होगा, वो कष्ट आप चुनना नहीं चाहते। वहाँ टिके रहने में कुछ सुविधा है, आराम है, स्वार्थ है। इसीलिए आप चुनाव करते रहते हैं कि मैं वहीं टिका रहूँगा, भले ही कितनी बदबू हो। अब वहाँ टिके रहने के आप मज़े भी लेना चाहते हैं और साथ-ही-साथ शिकायत करके भले भी बनना चाहते हैं कि अरे, मैं क्या करूँ मैं मजबूर हूँ, मैं पीड़ित हूँ। इतनी बदबू में मुझे रहना पड़ रहा है। आप उस बदबू में एक पल न रहें अगर वहाँ रहने में आपको कोई सुविधा, कोई सुख, कुछ आराम न मिलता हो। वो आपने छुपा रखा है। वो आप बताना नहीं चाहते।

वो चाहे बदबूदार मोहल्ला हो, चाहे अपनी कोई पुरानी आदत हो, चाहे किसी व्यक्ति की संगत हो। निश्चित रूप से आप वहाँ से कुछ मुनाफ़ा कमा रहे हैं। नहीं तो आप वहाँ टिके नहीं रहते। मुनाफ़े की बात छुपा क्यों जाते हो भाई? दुख-दर्द अपना सब बयान कर देते हो। अरे! वहाँ हूँ। वो मुझे बहुत मारता है। मैं क्या करूँ? परेशान करता रहता है।

और मैं हैरत से चेहरा देखता हूँ। मैं कहता हूँ कोई आपको मारता है, कोई परेशान करता है, किसी की संगति बुरी है तो वहाँ टिके क्यों हो? फिर धीरे-धीरे-धीरे जब खोदो, खुरचते जाओ तो बात उभर कर आती है कि महीने का गल्ला भी वहीं से आता है। वो बात बड़े आराम से दबा गये। वो नहीं बताते। और फिर ये मेरे साथ भी अन्याय होता है।

अपना सब सड़ा-गला, दुख-दर्द आकर के बता देते हो और वो जो वहाँ मौज लूट रहे हो वो नहीं बताते हो। और मौज मिल न रही होती तो वहाँ टिके न होते। क्या ये सम्भव है कि किसी को कहीं सिर्फ़ दुःख मिल रहा हो फ़िर भी वहाँ पर रुका हुआ हो, कहिए? क्या ये सम्भव है? कोई कहे कि उसे सिर्फ़ दुःख मिल रहा है और कहीं रुका हुआ है, इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि व्यक्ति बेईमान है। खूब सुख भी पा रहा है लेकिन सुख छुपा जा रहा है। सुख बताना ही नहीं चाहता। और इधर-उधर जाकर के दुख-दुख छाती पीट रहा है। मजबूरियों की बात नहीं करेंगे। मजबूरियाँ सबके पास बहुत हैं।

प्र १: आचार्य जी आपने कहा कि उसमें जो निर्णय लेना है वो ख़ुद से लेना है। अच्छे-बुरे का फिर पहचान कैसे कर सकें उसमें थोड़ा प्रकाश डाल सकें।

आचार्य: अगर सुनते हो मुझे तो जानते ही हो। जहाँ मन हल्का होता हो, साफ़ होता हो, जहाँ विचारों में ऊँचाई आती हो वो जगह तुम्हारे लिए अच्छी है, वो संगति भली है। जहाँ मन में लालच डाला जाता हो, मन को भ्रष्ट-दूषित किया जाता हो, तुम्हारी मुक्ति पर पहरे बिठा दिये जाते हों वो जगह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। जीवन में गहराई आ रही है या और उथला होता जा रहा है। तुम हमेशा साहस आता जा रहा है या और डरपोक होते जा रहे हो। जिसके पास बैठे हो वो तुम्हें नशे की तरफ़ धकेल रहा है या होश की तरफ़। आसान है ना? तुरन्त पता चल जाता है कि संगति सही है कि नहीं। अगल-बगल का ख्याल रखो। इसी को तो संगति कहते हैं।

प्र २: प्रणाम आचार्य जी, आपका एक लेख है की व्यर्थ जाते जीवन की भयावहता जानो पूरे तरीक़े से। फिर देखो ज़िन्दगी बदलती है या नहीं। तो इसमें पूरे तरीक़े जानने का क्या मतलब है? मतलब ये कभी-कभी समझ में आता है कि ज़िन्दगी छोटी है। हर क्षण का सदुपयोग करना चाहिए। लेकिन वो हर क्षण में जागरूकता नहीं बनी रह पाती। मतलब कभी-कभी समय बर्बाद भी कर लेते हैं। फिर दिख जाता है।

आचार्य: मजबूरी है? मजबूरी है? मजबूरी होती है ये? क्या होता है?

प्र २: चुनाव।

आचार्य: तो मैं क्या कर सकता हूँ, आप ऐसा चुनाव करते हैं तो। आपका चुनाव है आप जानिए मैं इसमें क्या कर सकता हूँ? वो चुनाव करके आपने क्या लूटे? मज़े! और अभी यहाँ पर कैसे खड़े हैं? (आचार्य जी मजबूर व्यक्ति का मुँह बनाते हुए और विनती का स्वर निकालते हुए) (श्रोतागण हँसते हैं)

जब वो चुनाव कर रहे थे और मज़े लूट रहे थे तब जैसी शक्ल थी वैसी शक्ल बनाओ न। उत्तर मिल जाएगा। फिर तो आईना ही उत्तर दे देगा कि बात क्या है। जब उस तरह के चुनाव करते हो तब देखा न शक्ल कैसी रहती है बिलकुल दमकती हुई। चेहरे पर खून दौड़ रहा होता है, आनन्द आ रहा होता है। बस वही है। उत्तर वही है, और कोई उत्तर नहीं है।

प्र २: आचार्य जी इसमें व्यर्थ जाते जीवन की भयावहता को मतलब जानें कैसे?

आचार्य: देखकर के बेटा! थोड़ा सा रुकना होता है, थमना होता है, देखना होता है। कुछ भी ऐसा नहीं जो छुपा हुआ है। लेकिन राग-रंग, मज़े, लालच के आगे हम चाहते ही नहीं है देखना। दिख भी जाए तो स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। आप सब अच्छे तरीक़े से जानते हैं। मैं भी जानता हूँ। आप भी जानते हैं। सब! कोई आध्यात्मिक इसमें बात नहीं है।

कि क्या खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता। सब जानते हैं न? वो आपके सामने रखा होता है और आप उसे खा रहे होते हैं। आपको कोई आचार्य चाहिए आपको बताने के लिए कि उसमें क्या भयावह है? जल्दी बता दो! कोई भी आपको बाहरी मदद चाहिए ये जानने के लिए कि उसमें क्या भयावह है? सामने रखा हुआ है। दिख रहा है कि वो भयावह है जो अपने साथ कर रहे हो।

मज़ा आ रहा है। चटकारे हैं! वैसी शक्ल बनाओ न! (चटकारा लेते हुए) (श्रोतागण हँसते हैं)

यही उत्तर है। इसका कोई और उत्तर नहीं होता। भयावहता कोई गुप्त बात थोड़े ही है कि मैं उसको शास्त्रों के बीच से खोदकर निकालूँगा और तुमको बताऊँगा कि देखो ये भयावह है। सब जानते ही हो कि क्या भयावह है। लेकिन जहाँ भयावहता है वहीं पर मज़ा भी तो है। भ‌ई, मज़े का क्या करें? ‘मज़े! मज़े! मज़े!’

अपनेआप को आन्तरिक प्रशिक्षण दो। जहाँ मज़ा आ रहा हो वहाँ ठिठक जाने का। प्रकृति ने आप को प्रशिक्षण दे रखा है जिधर मज़ा हो उधर बह जाने का। आप अपने आप को उल्टा प्रशिक्षण दीजिए। मज़ा नहीं आ रहा है तो फिर भी आप एक साधारण चाल चलते रहिए। लेकिन अगर किसी दिशा से मज़ा आपको खींच रहा है तो ठिठक जाइए। कहीं कुछ गड़बड़ होगी। मज़ा बिना गड़बड़ के आता ही नहीं। कुछ तो गड़बड़ है। दाल में लाल, काला, पीला सबकुछ है। नहीं तो मज़ा! मज़ा कहाँ से आ गया?

बुद्ध तो बता गये थे जीवन दुःख है। और मुझे जीवन में मज़े ही मिल रहे हैं। बुद्ध इतने ग़लत तो नहीं हो सकते। निश्चित रूप से ये दुःख ही है जो मज़े का रूप धरकर आ रहा है। लेकिन हम ऐसा करते नहीं, हमें मज़ा आया नहीं कि हम बिलकुल वही जैसे चिड़िया जाती है जाल में पड़े दानों की ओर वैसे ही उड़कर, फुदककर पहुँच जाते हैं। ‘मज़ा! मज़ा! मज़ा! मज़ा! मजा!’

और उसके बाद जब फँस गये तो ‘आचार्य जी!’ काहे जब फुदक के उधर जा रहे थे तो आचार्य जी नहीं याद आये थे। तब कोई नहीं याद करता। ये मुझे बड़ी शिकायत है। कोई रोती हुई तस्वीरें भेजता है, कोई दुःख की पूरी रामायण भेज देता है। अरे, अपनी मज़े वाली तस्वीरें भी कोई भेजा करो। सुख में तो आचार्य जी याद ही नहीं आते। सुख के बाद जब सुख का कोढ़ फूटता है पूरी हस्ती से, तब दौड़ते हो, ‘ये क्या हो गया, अचार्य जी?’

सुख तो छुपा जाते हो, पूरा! उस समय तो अगर मैं कहीं से टहलता- टुहलता आ भी जाऊँ तो दरवाज़ा बन्द कर लोगे। कहोगे, ‘अरे! ये कहाँ से इस वक्त आ गये कबाब में हड्डी।’ इतने लोग आते हैं, आचार्य जी विवाह हो गया है। पति ऐसा है, पत्नी ऐसी है। फिर मैं याद करता हूँ, पिछले दस बरस में पिछले पन्द्रह बरस में एक भी विवाह समारोह का मुझे आमन्त्रण नहीं आया है। (श्रोतागण हँसते हैं)

जब तुम शादियाँ कर रहे थे तब तुमने मुझे बुलाया नहीं, अब शादियों से जो ये रक्तबीज पैदा हुआ है; उसकी समाप्ति के लिए मुझे याद कर रहे हो। शादी में मुझे क्यों नहीं बुलाते? ये बताओ न? मैंने पकड़ा था एक बार, बोले, 'होगी नहीं फिर।' (श्रोतागण हँसते हैं)

बुलाया करो न, तब भी बुलाया करो। जब मज़े ले रहे हो तब भी तो बुलाओ। और इसमें एक प्रतिशत भी अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ। मुझे छोड़ दीजिए। पूरी संस्था में किसी को, संस्था में किसी को भी किसी तरह का कोई आमन्त्रण नहीं आता। हाँ, दिन भर दुःख की दुहाइयाँ आती रहती हैं। ईमेल से टपक रही हैं, फ़ोन पर आ रही हैं। जितने तरीक़ों से हो सकता है। कई दुःखी ऐसे होते हैं वो दीवार फाँदकर अन्दर आ जाते हैं।

पर जब सुख ले रहे थे तब उन्हें संस्था याद नहीं आयी। तो यही समाधान है। सुख में भी याद कर लिया करो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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