मैंनू कौन पछाणै बुल्ले शाह

Acharya Prashant

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मैंनू कौन पछाणै  बुल्ले शाह

मैनूं कौन पछाणे,

मैं कुझ गो गई होर नी | टेक |

हादी मैनूं सबक़ पढ़ाया,

ओत्थे होर न आया-जाया,

मुतलिक ज़ात जमाल विखाया,

वहदत पाया ज़ोर नी |

अव्वल होके लामकानी,

ज़ाहर बातन दिसदा जानी,

रही न मेरी नाम निशानी,

मिट गया झगड़ा-शोर नी |

प्यारे आप जमाल विखाली,

होई कलन्दर मस्त मवाली,

हंसा दी हुण वेख के चाली,

भुल गई कागां टोर नी |

वक्ता: ‘प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाये’!

‘ओत्थे होर न आया-जाया’, उसमें कोई और नहीं आ जा सकता। ‘होर’ माने दूसरा, ‘तामें दो न समाये!’, ‘कोई और माने’ दूसरा। दो की जगह नहीं है वहां। ‘हादी मैनू सबक पढ़ाया, ओत्थे होर ना आया जाया’। गुरु ने वो जगह दिखाई जहाँ पूर्ण अद्वैत है, जहाँ दो के लिए कोई जगह नहीं। कोई और से अर्थ है दो, परायापन, द्वैत। तो वहां पर एक ही जा सकता है। गुरु ने उस स्थान से परिचय कराया जहाँ मात्र एक है, पूर्ण एकत्व है। उस केंद्र से जोड़ा। ‘ओत्थे होर ना आया जाया’ का मतलब है, दूसरे के लिए जगह नहीं, दूसरेपन के लिए कोई जगह नहीं ।

सब एक दिखाई पड़ता है। मन की दुनिया में क्या है? खण्ड हैं, टुकड़े हैं, सब कुछ अलग-अलग दिखाई देता है, ये अलग, और ये अलग, हरा, नीला, काला, पीला; पानी, हवा, आग, बादल, पत्थर, सब अलग-अलग हैं। उस अलग-अलग में जो एक कूटस्थ तत्व है, उसको देख पाना और उस ही को सत्य जान पाना, ये है ‘ओत्थे होर ना आया जाया’ ।

उसको ऐसे भी कह सकते हो कि वहां पर मैं कुछ हो कर नहीं पहुँच सकता। उस केंद्र पर, उस शून्य स्थान पर, शून्य होकर ही जाया जा सकता है, कुछ और होकर नहीं। कुछ बनकर वहां नहीं पहुँच पाओगे। कोई पहचान लेकर, कोई व्यक्तित्व लेकर के वहां नहीं पहुँच पाओगे। वही होकर वहां पहुँच पाओगे। तुम जब तक कुछ हो, तुम कुछ अलग हो। कुछ होना ही अलगाव है। तो उस तक पहुँचने के रास्ता न कुछ होने का है, अपने आप को मिटाने का है। मिटो और पाओ! ये तो हम कह चुके हैं ना पहले, पाओ और गाओ; पर पाने के लिए मिटना पड़ता है तो,

मिटो, पाओ और गाओ!

इसलिए आगे कह रहे हैं, ‘वहदत पाया जोर नी’। ‘वहदत’ का अर्थ ही होता है अद्वैत। इस्लाम में वहदत का बड़ा केंद्रीय महत्व है। एक के अलावा दूसरे की बात नहीं। कि ओत्थे होर ना आया जाया, एक, दूसरा नहीं, दूसरे के लिए कोई स्थान नहीं, ‘एकोहम्’। उपनिषद् कहते हैं, ‘एकोहम्’, दूसरा कुछ नहीं। इसी बात को इन्ही शब्दों में कहा गया है कि, ‘ला इला इल अल्लाह’, कोई खुदा नहीं सिवाए खुदा के। दूसरा नहीं, कोई दूसरा नहीं, एक!

श्रोता १: सर यहाँ लिखा है, वह अनादि पुरुष है और जनम-मरण से परे है, किन्तु वही प्रियतम प्रत्यक्ष होकर, परोक्ष रूप में दिखाई देता है।

वक्ता: वही तो आप गाते हो, हो भी नहीं और हर जा हो। इन्द्रियों से परे भी हो और इन्द्रियों को जो कुछ दिखाई देता है उसका मूल तत्व भी तुम ही हो। एक हो, कोई शक नहीं इस बारे में। लेकिन दिखाई, अनेक रूपों में देते हो। ये लोक उसका ही नूर है।

श्रोता २: ये जो आखिरी पंक्ति है इसमें लिखा है कि इन्होने स्वयं को कलंदर, मस्त और मवाली आदि रूपों में दर्शन दिए। इसको सौन्दर्य क्यों बोल रहे हैं?

वक्ता: ऐसा है, हमने कहा था कल, कि गुरु वो है जिसको देख कर उस लोक की याद आये, और अभी हमने थोड़ी देर पहले बात की तो कहा कि उस लोक के गुण, यदि उन्हें गुण कहा जा सके, क्या होते हैं? मौज, आनंद, मस्ती, बेफिक्री। तो कलंदर, मस्त, मवाली, ये सब जो है ये मस्तों की श्रेणियाँ हैं, ये अवधूतों की श्रेणियाँ हैं, ये सब सूफी परंपरा से आ रहे हैं।मस्त होना, कलंदर होना; तो जब उनको देखते हो तो दिखाई पड़ता है कि ये बेफिक्री इस दुनिया में तो नहीं पाई जाती।इस दुनिया में क्या पाई जाती है; फ़िक्र। तो इसे बेफिक्री कहाँ से मिली? निश्चित रूप से कोई और दुनिया है।

तो कलंदर को देखते हो तो पार की याद आती है, द बियॉन्ड। यही वो कह रहे हैं वहां:

प्यारे आप जमाल विखाली,

होई कलन्दर मस्त मवाली,

अपना जमाल उसने दिखाया। उसका ज़माल मौजूद तो ज़र्रे-ज़र्रे में है। लेकिन सबसे ज्यादा, प्रत्यक्ष, सीधा, उसका नूर दिखाई पड़ता है कलंदर की आँखों में।तुम कहते हो ये मेरी दुनिया का तो नहीं लगता। मेरी दुनिया में तो क्या है? लटके हुए चहरे, बोझिल कंधे, उदास आँखें, यही है। तो कहाँ से आ रहा है भई, कहाँ का पासपोर्ट है तेरे पास? इस धरती के किसी देश का तो नहीं लगता तू। फिर वो बताएगा कि मैं वहां से आ रहा हूँ। उसका सन्देशवाहक हूँ।

-बुल्ले शाह की काफ़ी की व्याख्या पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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