मैंने बहुत घिनौने काम किए हैं, मेरा कुछ हो सकता है? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

12 min
155 reads
मैंने बहुत घिनौने काम किए हैं, मेरा कुछ हो सकता है? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: मैंने बहुत घिनौने पाप किए हैं, क्या मेरा कुछ हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारा ही कुछ हो सकता है। उनका नहीं हो सकता जो अपने आप को बड़ा पुण्यात्मा या धर्मी समझते हैं। देखो, पापी तो हम सारे ही हैं। जीसस कह गए हैं कि "सफरिंग इज़ सिन (दुःख पाप है)।" जो भी कोई पीड़ा में है, दर्द में है, दुःख में कराह रहा है, उसने कहीं-ना-कहीं तो पाप कर ही रखा है।

सनातन परंपरा के ग्रंथ जगह-जगह पर कहते हैं कि —"जो मुक्त होते हैं वो दोबारा जन्म नहीं लेते। जिनकी ज़िंदगी में कोई कमी रह गई होती है, जो कामनाओं के जाल में रह गए होते हैं, उन्हीं को मनुष्य की देह धारण करनी पड़ती है।" तो पापी तो हम हैं ही। बस अंतर ये है कि कुछ ईमानदारी से इस बात को स्वीकार करते हैं कि वो पापी हैं, और बाकियों को बड़ा नाज़ है, गौरव है, फ़क्र है, कि —"हम तो दूध के धुले हैं, हंस के पंख हैं हम।" उनकी वो जाने।

परिवर्तन वास्तविक शुरू ही तब होता है जब तुमको दिखाई दे जाता है कि तुम पापी भर नहीं हो, जैसे तुम बने बैठे हो, तुम पाप मात्र हो। और चमत्कार की बात ये है कि जब तुम स्वीकार कर लेते हो कि तुम पाप मात्र हो, उस क्षण तुम्हारा पुण्य शुरू हो जाता है। 'पुण्य' और 'पाप' से मेरा आशय क्या है? कोई नैतिक आशय नहीं है कि फ़लाना चीज़ करो तो पाप, और फ़लाना काम करो तो पुण्य। 'पाप' और 'पुण्य' से मेरा आशय है कि जो कुछ भी तुम्हें तुम्हारे दुःख से और तुम्हारी तड़प से मुक्ति दिला दे, वो पुण्य है, और जो कुछ भी तुम्हारी बेहोशी, अंधेरे, और बेड़ियों को और सघन करता हो, वो पाप है तुम्हारे लिए।

पापी सभी हैं, कोई नहीं है जो पापी नहीं है।

ये बहुत अच्छी बात है कि नाम भेजकर, पूरा परिचय-पता बताकर तुम ये स्वीकार कर रहे हो कि तुमने बहुत घिनौने पाप किए हैं। तुमने यहाँ तक ख़तरा मोल लिया है कि मैं अभी लाइव सेशन में तुम्हारा नाम, परिचय सब बोल सकता था, पर तैयार हो तुम कि - "हज़ारों-लाखों लोगों तक भी ये सब बात पहुँच जाए तो पहुँच जाए, लेकिन मुझे अपनी ओर से सब स्पष्ट बता देना है।" सुंदर बात है, साहस की बात है। कुछ होगा, कुछ बदलेगा।

मैं ये जानने में उत्सुक भी नहीं हूँ कि तुमने क्या पाप किया है, क्योंकि देखो, सारे पाप एक तरह की बेहोशी होते हैं, एक तरह की तंद्रा में होते हैं; एक तरह की नींद है वो, नशा है वो। तुमने अपनी तंद्रा में क्या दुःस्वप्न देख लिया, मैं तुमसे क्या पूछूँ? मुझे रुचि तुमको जगाने में है। ये जानकर मैं करुॅंगा क्या कि तुम अभी जब बेहोश पड़े थे तो तुम कैसे-कैसे सपने ले रहे थे। बेहोश थे, ये जानना काफ़ी है। समझ में आ रही है बात?

जैसे मैं नहीं देख रहा हूँ कि तुमने अतीत में क्या-क्या कर डाला है, वैसे ही तुम ये मत देखो कि तुमने अतीत में क्या-क्या कर डाला है। अगर ये समझ गए हो कि जो कुछ भी कर डाला है उसमें कर्म अमहत्वपूर्ण है, करने वाला महत्वपूर्ण है—और जो करने वाला था वो बिल्कुल अंधेरे में था। देखो, हमें बताया गया है कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं। ये बात ठीक है एक हद तक, लेकिन वास्तविक बात ये है कि पापी ही कर्ता है, पाप तो उसका कर्म होता है, है न? कह रहे हैं, "पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।" पाप से घृणा कर ली, पाप को हटा दिया, पापी शेष रह गया, तो वो पचास पाप और करेगा। एक बार तुमने उसको बता दिया, "ग़लत है, हटा दे भाई," और पापी पर तुम्हारी नज़र ही नहीं, तो वो हज़ार पाप और करेगा। करेगा न? इसीलिए अलग-अलग पापों की बात करना आवश्यक नहीं है। एक झटके में ही प्रश्नकर्ता ने कह दिया, "मैं पापी हूँ, मैंने मान लिया," बात पूरी हो गई।

अब जितने भी पाप थे, वो तो सब ये जो पापी नाम का मूल था, जड़ थी, इसी से फूट रहे थे न। तुमने जोड़ पर ही प्रहार कर दिया। किसी पेड़ की जड़ पर प्रहार कर दो, उसके बाद तुमको उसकी जितनी अलग-अलग शाखाएँ हैं, काटनी पड़ेंगी क्या? बोलो? कुल्हाड़ी उठाकर तुमने उसकी जो मूल मोटी जोड़ है वही काट दी, अब तुमको ये करना है कि विशाल वृक्ष है, उसकी अब ये वाली डाल भी काटो, वो वाली डाल भी काटो? तुमने जड़ ही काट दी, ख़त्म।

पापी क्या है? जड़। पाप क्या है? तमाम तरह की टहनियाँ, शाखें, ये सब। शास्त्र इसको ऐसे बताते हैं कि अहम् वृत्ति जो छुपी रहती है चेतन मन के नीचे, कभी प्रकट नहीं होती। वो क्या है? जड़। अहंकार क्या है? 'मैं', तना। और ये जो 'मैं' अलग-अलग रूप लेता है, अलग-अलग दिशाओं में फूटता है, पचासों तरफ़ विस्तार करता है, ये क्या है? शाखाएँ, टहनियाँ। और जिस मिट्टी में, जिस धरातल पर, जिस आधार से ये पूरा वृक्ष खड़ा है, उसका क्या नाम है? वही ब्रह्म है। वही सत्य है।

पेड़ ये बात समझता नहीं; वो अपने आप को अलग जानता है। वो जानता ही नहीं कि लहर भर है वो ब्रह्म की, उसी से उठा है और उसी में विलीन हो जाना है। समझ में आ रही है बात?

तुमने विलीन करने की दिशा में एक बड़ा कदम उठा लिया है। तुमने उस पेड़ की जड़ पर ही प्रहार कर दिया है। तुमने सीधे ही कह दिया है कि, "मैंने बहुत घिनौने पाप किए हैं।" अब बस इसमें इतनी सावधानी और बरतना कि पापों पर और ज़्यादा विचार मत करना। बहुत ज़्यादा विचार करोगे तो एक बड़ा ख़तरा है—कहीं-न-कहीं से तुम किसी तरीक़े का कोई स्पष्टीकरण खोज लोगे। तुम विचार करते ही रहोगे तो कोई-न-कोई भीतर से तर्क आ ही जाएगा कि फ़लाना जो काम है या पाप है, वो इसलिए वैध था, उचित था, या जायज़ था। जस्टिफिकेशन (औचित्य) मिल जाएगा कभी-न-कभी कोई, और मिला नहीं कि पापी प्रसन्न। वो कहेगा, "देखा, ग़लत थोड़ी कर रहा था"।

अब जो घोषणा कर दी, वो कर दी, अब उसको बंद कर दो। जान लो कि केंद्रीय रूप से ही मैं गड़बड़ हूँ। और अगर मैं केंद्रीय रूप से गड़बड़ हूँ तो मुझे क्या बदलना है? अपने कर्म बदलने हैं? अपना केंद्र बदलना है; कर्म फिर अपने आप बदलते रहेंगे, स्वतः। तो अलग-अलग कर्मों पर ध्यान मत दो।

होता है यहाँ पर, लोग ग़लतियाँ करते हैं, पूछता हूँ, "फ़लाना ग़लती क्यों करी?" वो उस ग़लती का कोई कारण बता देगा। ऊपर से गुस्सा दिखाता हूँ, भीतर से मुस्कुराता हूँ, क्योंकि यहाँ जो बोल रहा हूँ, ऐसा तो नहीं है कि यहाँ से हट जाता हूँ तो भूल जाता हूँ। तुम अपने कर्म का स्पष्टीकरण दे रहे हो। तुम बता रहे हो कि फ़लाना ग़लती मुझसे इस वजह से हो गई। तुम अभी भी ये नहीं मान रहे हो कि 'तुम' ही ग़लत हो। तुम्हें अभी भी ये लग रहा है कि —"मैं तो सही हूँ, ये तो बस एक आकस्मिक दुर्घटना हो गई, भूल-चूक हो गई।" तो आकर बताओगे, "नहीं, मैं वो फ़लाना चीज़ यहाँ भूल गया।" तुम वो फ़लाना चीज़ नहीं भूल गए, तुम भुलक्कड़ बने बैठे हो, क्योंकि तुम्हें कुछ और ही ग़लत चीज़ है जो सर्वदा याद है। हाँ, ये जो तुम दूसरी ग़लत चीज़ को अपने ज़हन में बिठाए हुए हो, उसका प्रमाण हर समय नहीं मिलता। उसका प्रमाण बस तब मिलता है जब तुम सही चीज़ में कोई भूल कर बैठते हो।

नहीं समझे?

आप एक वीडियो बना रहे हो घंटे भर का, ठीक है? अब जब आप वीडियो बना रहे हो तो आपके दिमाग में चल तो कुछ और ही कहानी रही है। वो चल रही है, वो लगातार चल रही है, आप मग्न हो उसमें—आधा दिमाग, तिहाई, दिमाग, चौथाई दिमाग, दो तिहाई दिमाग कहीं और ही लगा हुआ है। अब उस वीडियो में बीच में एक-दो मिनट में कुछ ग़लती हो गई है। ग़लती कितने में हुई है? एक या दो मिनट में। तो आपकी जब ग़लती पकड़ी जाएगी और आपसे जवाब माँगा जाएगा, तो आप क्या कहेंगे? "वो तो बस इस एक-दो मिनट में ग़लती हो गई और इसकी वजह ये थी, ऐसा-ऐसा हुआ था।" जबकि सही बात क्या है? आप लगातार प्रसुप्त थे, आप लगातार अनुपलब्ध थे, आप नामौजूद थे। बात समझ में आ रही है? आप लगातार एब्सेंट (अनुपलब्ध) हो। हाँ, एब्सेंस (अनुपस्थिति) बस एक-दो मिनटों में पकड़ी गई है। आप थे ही नहीं उस काम में, कभी भी नहीं थे। ये तो राम भरोसे है कि बाकी अट्ठावन मिनट में कोई ग़लती हुई नहीं, या अगर उन बाकी अट्ठावन मिनटों में भी ग़लती होने की संभावना होती, तो हो गई होती।

वो तो उन अट्ठावन मिनटों में कोई ग़लती हो ही नहीं सकती थी, काम सीधे-सीधे निकल गया, गाड़ी अपना सीधे-सीधे चलती गई। जहाँ मोड़ था बस वहाँ पर टक्कर हो गई। भाई, आप सोए पड़े हो, गाड़ी सीधी चल रही है, सड़क भी सीधी है, टक्कर होगी क्या? नहीं। तो आपको क्या लगेगा कि मैं गाड़ी ठीक चला रहा हूँ। आप गाड़ी ठीक नहीं चला रहे हैं। सो तो आप घंटे भर ही रहे थे, गाड़ी की टक्कर बस तब हुई जब मोड़ आया। तो आप कह रहे हो, "वो मोड़ पर मुझसे कुछ ग़लती हो गई"। नहीं, मोड़ पर नहीं ग़लती हुई है, आप ग़लत ही हो।

तो कर्म पर ज़्यादा ध्यान देने से ये ख़तरा रहता है कि कर्ता की जो रुग्ण स्थिति है, जो अनुपस्थिति है कर्ता की, जो उसकी एब्सेंस है, वो छुप जाती है। एक बार ये जान लो कि एक-दो ग़लती नहीं हो रही है, मामला पूरा ही ग़लत है, फिर बदलाव की कोई संभावना बनती है।

पर आप पाओगे कि लोग सालों से एक ही तरह की ग़लतियाँ कर रहे हैं, एक ही तरह की, देखे हैं ऐसे लोग? कोई प्रगति ही नहीं हो रही है; ना उनके जीवन में ना उनके काम में। उसकी वजह यही है, भीतर घनघोर अहंकार है जो यह मानने को तैयार नहीं कि. 'मैं इंसान ही ग़लत हूँ'। वो ये नहीं मानेंगे। उनको कोई ग़लती दिखाई जाए तो उस ग़लती के एवज में कोई स्पष्टीकरण भेज देंगे—जस्टिफिकेशन, क्लेरिफिकेशन आ गया। और हर स्पष्टीकरण के पीछे एक दंभ है, एक दंभपूर्ण तर्क है, क्या? "आदमी तो मैं अच्छा हूँ बस इस मामले में ग़लती हो गई।"

ये नहीं होने देना है। पापी पर ध्यान देना है। ठीक है?

आप स्वीकार कर रहे हो कि बहुत पाप किए हैं, अब हटाओ। जो पाप आपने करें हैं, वो तो आपको पता ही हैं; जो आपने और पाप करे हैं, हो सकता है वो आपको पता भी ना हों। तो अब इस बात को हटाओ कि कितने पाप करे हैं कितने नहीं। जान गए कि पापी हो, इतना काफ़ी है। इस बात पर दृढ़ता से कायम रहो—"मैं पापी हूँ"।

और पापी माने ये नहीं कि तुम अपनी ही नज़रों में गिर जाओ, आत्मग्लानि में गढ़ जाओ, अपने आप को ही देख कर लज्जित होना शुरू कर दो, इत्यादि। पाप से मेरा ऐसा आशय बिल्कुल भी नहीं है। पाप की मैंने परिभाषा आरंभ में ही दे दी थी, क्या? बेहोशी में जीना पाप है। अपने ही बंधनों को और भारी और मजबूत करना पाप है। अज्ञान और अंधेरे का समर्थक रहना पाप है। ये पाप है।ठीक है? उसमें लज्जा और ग्लानि से बात नहीं बनेगी।

अगर आप जान ही गए हो कि आप पापी हो, तो फिर निष्ठा चाहिए, दृढ़ता चाहिए, शक्ति और संकल्प चाहिए। आपको कहना होगा कि "मुझे ये कलेवर ही नहीं, मुझे ये हस्ती ही त्यागनी है। सिर्फ़ चेहरा नहीं धो लेना है, चेहरा ही नहीं मुझे रंग-पोत लेना है, मुझे ये हस्ती ही त्यागनी है। मुझे बंदा ही दूसरा हो जाना है। मुझे इंसान ही दूसरा हो जाना है। मेरी आँख बदल जाए, मेरी आवाज़ बदल जाए।"

आवाज़ किसी की नहीं बदल सकती, पर आशय समझ रहे हैं न आप?

"सब कुछ मेरा कुछ और ही हो जाए, जैसे मैंने दूसरा जन्म लिया है"— ये हुआ पाप से छुटकारा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories