प्रश्नकर्ता: अभी हम ये उपनिषद् पढ़ रहे हैं और आपसे समझ रहे हैं, तो ये बार-बार आप बता रहे हैं कि जब पढ़ो ब्रह्म और परमात्मा के बारे में तो अपनी ओर देखो; लेकिन यदि कोई खुद से ही बैठकर पढ़ता है तो ये मुश्किल होता है। तो उस संदर्भ में, यदि किसी को बोला जाए कि “आप पढ़ें”, तो बिना किसी गुरु के सान्निध्य में उपनिषद् पढ़ने का कितना लाभ होगा?
आचार्य प्रशांत: उपनिषद् तो देखिए उपकरण हैं, और उनका आविष्कार खास तरीके से प्रयुक्त होने के लिए ही हुआ था। उपनिषद् तो लिखे भी बहुत बाद में गए, पहले तो परम्परा श्रुति की ही थी। तो ऐसा तो सोचा ही नहीं गया था कि कोई व्यक्ति उपनिषद् नामक ग्रन्थ लेकर के स्वाध्याय करेगा; स्वाध्याय करना माने खुद पढ़ना; ऐसा तो कल्पित नहीं था, पूरी बात ही यही थी कि गुरु के निर्देश तले ही इनको पढ़ा जाएगा।
और जब कोई समझाने वाला होता है तो एक ही श्लोक के, श्रोता के अनुसार वो अलग-अलग अर्थ दे पाता है; सुनने वाले लोग एक प्रकार के हैं तो एक तरीके से समझाया जाएगा, दूसरे तरीके के लोग हैं सुनने वाले तो दूसरे तरीके से समझाया जाएगा। तो सारी रचना ही इन ग्रंथों की इस तरीके से की गई थी कि एक जीवित चेतना शिष्य के सामने होगी, जो शिष्य को देख सकती है, समझ सकती है, उसकी जीवन-स्थिति से परिचित हो सकती है, और फिर उसकी जीवन-स्थिति के अनुसार वो श्लोकों का वर्णन और अर्थ कर सकती है।
स्वाध्याय में कुछ खतरा तो निश्चित रूप से है, लेकिन बिलकुल ही न पढ़ने से तो बेहतर है कि स्वाध्याय ही कर लो। अंततः तो सब कुछ अपने मन की शुद्धता पर निर्भर करता है। मन की शुद्धता से मेरा आशय है अभीष्ट की शुद्धता, इरादे की शुद्धता, नीयत साफ़ है कि नहीं। अगर नीयत साफ़ है, और आप उपनिषद् पढ़ने बैठें और न समझ में आए, तो आपको स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा कि आपको मार्गदर्शक की आवश्यकता है। और नीयत साफ़ नहीं हो, आप पढ़ने बैठें, न समझ में आए, तो या तो आप कह देंगे कि “ग्रंथ ही बेकार है, मुझे समझ में नहीं आता,” या फिर अपने मन-मुताबिक कोई ऊल-जलूल अर्थ श्लोक के ऊपर प्रक्षेपित कर देंगे। आप कहेंगे, "समझ में नहीं आ रहा, कोई बात नहीं। हम तुक्का लगा लेते है कि ऐसा ही कुछ अर्थ होगा।" अपने हिसाब से आप उसका कुछ अर्थ बैठा लेंगे, और संतुष्ट होकर, प्रसन्न होकर अगले श्लोक पर पहुँच जाऍंगे।
तो ये खतरे रहते हैं अशुद्धि के साथ आगे बढ़ने में; कोई अगर समझाने के लिए सामने बैठा है तो निश्चित रूप से ये खतरे कम हो जाते हैं।
प्र: आचार्य जी, आपने कहा कि उपनिषद् जिनसे कहे गए थे उनके चित्त बहुत संवेदनशील थे, और वो अपने मन के हाल से लगातार परिचित रहते थे। संवेदनशीलता अगर मन के हाल के प्रति रखनी है तो ऐसा कैसे हो सकता है कि मन के हाल के प्रति भी संवेदनशील रहें, और जो रोज़-मर्रा के काम हैं वो भी पूरी गति के साथ करते रहें?
आचार्य: ये तो सवाल ही उल्टा है न, रोज़-मर्रा के काम। सही कामों की बात कर रहा हूँ; रोज़-मर्रा के व्यर्थ के काम तो आप जानें, उसका मुझे पता नहीं। पर अगर सही काम है आपके पास रोज़ाना, और वो आपसे नहीं होते, तो उसकी वजह ही यही है कि आप संवेदनशील नहीं हैं। आपसे काम हो ही इसलिए नहीं रहा न, क्योंकि आपमें ये संवेदनशीलता ही नहीं है कि ये काम कितना ज़रूरी है? आपको ये पता हो कि ये काम कितना संवेदनशील है तो आप उस काम के साथ कोताही, गुस्ताख़ी, धृष्टता कर कैसे लोगे?
अभी कुछ दिन पहले आपमें से एक ने मुझसे बड़ी शिकायत करी, बोले, "आप डाँटते बहुत हैं।"
मैंने कहा, "मैं डाँटता हूँ तो कोई वजह तो होगी न?"
बोले, "हाँ, वजह तो होती है, लेकिन आप छोटी-छोटी वजहों पर बहुत ज़्यादा डाँट देते हैं।"
मैंने कहा, "तुम्हें कैसे पता वजह छोटी थी? तुम्हें कैसे पता कि वो गलती छोटी है, ये तुम्हें कैसे पता?"
बात बस इतनी-सी है कि संवेदनशीलता नहीं है, है न? जैसे कि कोई सितार हो, और उसको मैं उँगली से ज़रा-सा छेड़ दूँ तारों को, तो झनझना उठेगा; छोटी-सी चीज़ हुई है, वो समझ जाएगा कि बहुत बड़ी बात है, वो झनझना उठेगा। और ईंट पड़ी हो बहुत सारी, और उसको मैं बजाता भी रहूँ तो उसमें से कोई प्रतिक्रिया ही नहीं आएगी।
संवेदनशीलता का मतलब है ये पता होना कि जो आप काम कर रहे हो वो इतना ज़रूरी है कि उसमें थोड़ी-सी ढील, थोड़ी-सी कोताही बहुत भारी पड़ रही है।
कोई बिलकुल मृत्यु-शय्या पर पड़ा हुआ है, और डॉक्टर (चिकित्सक) आपको कहता है कि “नीचे जाओ भागकर के, और डिस्पेंसरी (औषधालय) से ये दवाई ले आओ।“ बड़ा अस्पताल है, ठीक है? और डॉक्टर की उम्मीद है कि आप नीचे जाओगे और तीन से चार मिनट के भीतर ले आओगे। उसने तो उम्मीद ये करी कि आप भागकर जाओगे नीचे, वहाँ डिस्पेंसरी में भी शोर मचा दोगे कि, “ऊपर कोई बिलकुल मर रहा है, डॉक्टर ने बोला है जल्दी से दवाई दो,” सबसे पहले आप दवाई लोगे; दवाई अगर चार सौ रूपए की है तो आप पाँच सौ का पत्ता फेंकोगे—सौ रूपए वापस लेने के लिए भी नहीं रुकोगे- भागते हुए आप ऊपर आओगे और जल्दी से डॉक्टर को दवाई दे दोगे।
और आप नीचे गए, आपने तसल्ली से पहले तो दस मिनट में दवाई ली कतार में खड़े होकर। भई आपने कहा, "नियम यही है न, कि कतार में खड़ा होना था; मैं नियम का ही तो पालन कर रहा हूँ। मैंने कोई गलती थोड़े ही करी है। मुझ पर कोई इल्ज़ाम न लगाए कि मैं कोई गलती कर रहा हूँ; मैं तो नियम का पालन कर रहा हूँ।" उसके बाद डिस्पेंसरी से बाहर निकले तो कैफ़े था, आपने कहा "इतना भागकर नीचे आया तो मैं थक भी तो गया हूँ। तो अब तो इंसाफ़ की बात है कि एक समोसा खाऊँगा।" आपने तसल्ली से वहाँ पंद्रह मिनट बैठकर समोसा खाया, और उसके बाद आप डॉक्टर के पास पहुँचे, और डॉक्टर से आप कह रहे हैं कि, “आपके पास कुल पच्चीस मिनट में दवाई ले तो आया हूँ, आप मुझे डाँट क्यों रहे हो?" डॉक्टर ने कहा "तुमने देर कर दी न!" आप बोल रहे हो "देर करी तो है पर थोड़ी-सी देर करी है, आप मुझे इतना ज़्यादा क्यों डाँटते हो?"
तो वो सेंसिटिव (संवेदनशील) नहीं है। तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि मामला कितना संवेदनशील है, वो मर गया। बस वहाँ जो मर गया वो एक जीवित, स्थूल प्राणी था तो तुमको लाश दिखाई दे जाएगी। रोज़-मर्रा के कामों में जब तुम भ्रष्टाचार करते हो, बदनीयती करते हो, तो जो मर रहा है वो सूक्ष्म है, तुमको दिखाई ही नहीं देता तुम्हारी स्थूल आँखों से। या ये कहो कि बेईमानी के चलते तुम देखना नहीं चाहते, तो तुम स्वीकार ही नहीं करते कि तुम हत्यारे हो, तुमने जान ले ली किसी की। उल्टे तुम शिकायत करने आ जाते हो, कि, "आचार्य जी, आप मुझे इतना डाँटते क्यों हो छोटी-छोटी बातों पर?"
वो छोटी बातें हैं? तुम्हें कैसे पता कोई चीज़ छोटी है, बड़ी है, पैमाना क्या है तुम्हारे पास? मुझे समझाओ। तुम किसी चीज़ को छोटा और किसी को बड़ा घोषित कैसे करते हो? मुझे समझाओ। तुम्हें कैसे पता कि तुमने बस एक छोटी-सी भूल कर दी है? मेरी नज़र में वो बहुत बड़ी भूल है, तुम्हें कैसे पता वो भूल छोटी है? सिर्फ़ बात ये है कि तुम वीणा के तार नहीं हो, तुम कोलतार हो; जिस पर कितना भी पाँव पटक लो, चिप-चिप हो सकती है, कोई झंकार नहीं उठती।
अब ये क्या प्रश्न है, कि, "संवेदनशील होते हुए भी रोज़-मर्रा के काम कैसे सही रखें?" ये तो पूछा ही नहीं कि रोज़-मर्रा के काम खराब क्यों हो रहे हैं। जिसको खबर होगी कि क्या चीज़ दाँव पर लगी हुई है, वो आलस, कोताही, बेईमानी, झूठ, फ़रेब, ये सब कर कैसे लेगा?
एक वीडियो था, कृष्णमूर्ति बोल रहे थे, अचानक से वो बिलकुल फ़नफ़ना जाते हैं और बोलते हैं, "सच लवलेस पीपल (कितने प्रेमहीन लोग हैं)!" यही है, लवलेस (प्रेमहीन) हो, प्रेम की कमी है, प्रेम क्या होता है तुम्हें पता ही नहीं।
प्रेम का मतलब होता है कीमत देना किसी चीज़ को; तुम कीमत देना जानते ही नहीं।
तुम्हारे लिए तुम्हारे ये छोटे-छोटे दुर्गुणों की और दुर्गंधों की ही बहुत कीमत है; तुम इन्हीं में लिपटे रहते हो बस। कुछ है जो तुमसे बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण है और उसकी बहुत बड़ी कीमत है, ये तुम्हें समझ में ही नहीं आता। तुम्हें लगता है जैसे तुम हो, वैसे ही दुनिया के सब काम हैं—मूल्यहीन। "सच लवलेस पीपल! "
तुमने एक चीज़ जो छह महीने पहले हो सकती थी उसे छह महीने विलम्बित करा दिया, तुम मुझे बताओ ये छोटी-सी भूल कैसे है? तुमने छह दिन भी अगर उसमें देर करा दी तो ये छोटी-सी भूल कैसे है? मुझे बताओ।
तुम्हें दवाई लाने भेजा गया था, तुम कतार नहीं तोड़ पाए, तुम कानून का पालन कर रहे थे, ये छोटी-सी भूल कैसे है? तुम काम पर गए थे, तुम समोसा खा रहे थे, ये छोटी-सी भूल कैसे है? महत्व ही नहीं समझ रहे न! महत्व देना और प्यार करना एक बात होती है बिलकुल, जानते हो न? प्यार उसी से कर सकते हो जिसको…
प्र: महत्व दे सकते हों।
आचार्य: और तो कोई प्यार के काबिल होता ही नहीं। और किस से प्रेम करोगे, किसी महत्वहीन चीज़ से?
मूल्य व्यवस्था ही विकृत है; समझते ही नहीं हो कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या महत्वहीन है। जिस चीज़ की दो कौड़ी की कीमत नहीं उससे लिपटे रहते हो; जो असली चीज़ है उससे मुँह चुराते रहते हो। और उसी बेईमानी का नतीजा ये है कि चेहरे पर भय साफ दिखाई देता है; भय ही मौत है।
बिना बेईमानी के जी करके तो देखो। ठसक के साथ जीने का मज़ा दूसरा होता है; फिर मुँह छुपाते नहीं फिरना पड़ता, कि यहाँ से डर रहे हैं, वहाँ छुप रहे हैं।