प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अपने जीवन को तभी देख पाती हूँ जब मन स्थिर रहता है। लगातार भागते हुए मन के मध्य अपना जीवन कैसे देखूँ?
आचार्य प्रशांत: थमना पड़ेगा। अभ्यास की बात है। नया-नया बल्लेबाज़ होता है, बहुत तेज़ी से यदि उसकी ओर गेंद आ रही होती है तो नहीं मार पाता। तो उसको तो धीमी गति की गेंद चाहिए, फिर वो बल्ला लगा पाएगा। इसी तरीके से आप यदि बहुत तेज़ी से भाग रही हैं, भागते हुए मन के साथ संलग्न हैं, तो साक्षित्व घटित नहीं होगा, कुछ पता नहीं चलेगा। साक्षित्व की शुद्धतम अवस्था तभी है जब आप स्थिर रहें और आपके चारों ओर जो कुछ भी तीव्रतम गति से भी घट रहा है, आप उसकी अस्पर्शित दृष्टा हो पाएँ। पर उसमें ज़रा समय लगेगा।
जब तक मन को उतना न साध लें, तब तक जीवन की गति कम रखने का प्रयास करें। थमना सीखे। घूमते पँखे में बता पाएँगी क्या कि कितनी पत्तियाँ हैं? पँखा तीव्रतम गति से घूम रहा है, बताओ उसमें कितनी पाखें हैं? थोड़ी गति कम हुई, अभी भी नहीं बता पाओगे। तो मैं नहीं कह रहा हूँ कि गति शून्य कर दीजिए, पर गति कम करते जाइए। एक बिंदु ऐसा आता है जब पँखा गतिशील है, लेकिन आपके लिए ये संभव हो गया है कि बता पाएँ कि हक़ीक़त क्या है, कितनी पाखें हैं, पाखों का तथ्य क्या है। आप गिन पाएँगे। और गति आप जितनी कम करेंगी और जितनी बार कम करेंगी, उतनी बार आपको ये भी पता चलेगा कि कम गति से जीना उतना भी हानिप्रद या डरावना नहीं है जितना आपने तीव्र गति में सोच लिया था। सुमधुर गति का, सम्यक गति का बड़ा रस है।
याद रखिए, जब मैं कह रहा हूँ, "गति कम रखिए," तो मैं कम गति का हिमायती नहीं हूँ। कम आपसे कह रहा हूँ बस तुलनात्मक रूप से क्योंकि आप बहुत तेज़ी से भागते हो। हम तीव्र गति के आदी हैं। डरा हुआ आदमी देखा है न कैसे भागता है? देखा है मोटे आदमी को कुत्ते से बचकर भागते हुए? लोग गिनते नहीं है उसका सौ मीटर का समय। उसने विश्व रिकॉर्ड बना दिया है। पता नहीं चलता है कभी क्योंकि गिना नहीं गया। तेज़ गति डर का परिचायक है, और बहुत न्यून गति तमसा और अकर्मण्यता का।
सम्यक गति चाहिए होती है। गति थोड़ा कम करेंगी, समझ में आएगा कि व्यर्थ ही तेज़ भाग रहे थे। अभी जो सामने है, अभी जिसका अनुभव हो रहा है, वो इतना भी बुरा नहीं है जितना सोचा था, जितना लगता था।
प्र: मन सतत गति कर रहा है लेकिन डरा हुआ है।
आचार्य: मन सतत गति कर रहा है, इसका मतलब आप डरे हुए हैं, और मन को आपकी ऊर्जा मिल रही है। मन गाड़ी है, और गाड़ी की गति बहुत तेज़ है, तो कौन डरा हुआ है? चालक डरा हुआ है ना? गाड़ी को ऊर्जा किसने दी? गाड़ी में तेल किसने डलवाया? खुद गई थी वो? किस गाड़ी के हाथ होते हैं कि जाकर फिलिंग ट्यूब को ले और अपने में घुसेड़ ले? मन गाड़ी है, आप चालक हैं। आप डरे हैं, गाड़ी भग रही है आपकी ऊर्जा से।
फिर कबीर साहब क्या गाते हैं?
ज़रा हल्के गाड़ी हाँको मेरे राम गाड़ी वाले
बात समझ में आयी? जब राम चालक हो जाते हैं, आप चालक नहीं रहते, तो गाड़ी सुमधुर चलती है, सम्यक गति से चलती है। हल्की नहीं चलती है; हल्की बस इसलिए कह रहे हैं क्योंकि आप तेज़ चलते हो। गाड़ी अभी भी चलती है, पर उचित गति से, सम्यक गति से। ताबड़तोड़ नहीं कि गड्ढे में गिरी और बंपर वहीं छोड़कर आगे बढ़ गयी। हम बहुत ज़ोर से भाग रहे हैं कुछ पाने के लिए। क्या पाने के लिए? उसका पता बहुत ज़ोर से भागते हुए चल नहीं सकता क्योंकि जिसे पाने के लिए दौड़ रहे हैं उसका नाम है स्थिरता। तो उसका पता बहुत ज़ोर से भागते वक्त चलेगा ही नहीं। आप जितनी ज़ोर से भागेंगे, आपको भागने के लक्ष्य का, भागने के साध्य का उतना ही पता नहीं चलेगा।
ठहरा हुआ कुछ नहीं है परमात्मा के संसार में, पर कुछ भी ऐसा नहीं है जो विक्षिप्त गति करता हो। चांद भी चल रहा है, सूरज भी चल रहा है, नदी-पहाड़, पशु-पक्षी, पौधे सभी चल रहे हैं; ठहरा हुआ तो कोई नहीं है। ठहरा हुआ तो सिर्फ स्वयं परमात्मा है। प्रकृतिगत तो जो कुछ है वो चलायमान ही है। चाल रहे, बस बेतरतीब, बेढंगी न रहे।
किसी ने नहीं कहा कि तुम जड़ हो जाओ, कृत्रिम तरीके से स्थिर हो जाओ। चलो, पर ऐसे नहीं ताबड़तोड़; कि जैसे बैलों का चलने का मन न हो, और उनको दनादन सूत दिया गया हो। तो उन्होंने कहा, "ठीक, अब हम चलेंगे।" अब पता नहीं चल रहा है कि बैलगाड़ी का एक पहिया कहाँ गया, और दूसरा कहाँ गया। गायब हो गयी है बैलगाड़ी, तुम पूँछ ही पकड़कर लटके हुए हो, और बैल अब रुकने का नाम नहीं ले रहे। ऐसे नहीं चलना है। गति संगीत में भी होती है, और गति विक्षिप्तता में भी होती है। बिना गति के कोई संगीत नहीं।
बुद्ध की कथा याद है ना? एक वीणावादक था। पहले बड़ा धनी था, व्यसनी था। बुद्ध के पास आया, तो उसने कहा, "पहले जैसे धन कमाने में अव्वल था, वैसे ही अब बुद्ध के यहाँ भी अव्वल बनकर दिखाऊँगा।" तो उसने त्याग का भी अतिरेक कर दिया। दूसरे भिक्षु कम खाएँ, ये कम-से-कम खाए; दूसरे भिक्षु श्रम करें, ये श्रम से आगे श्रम करे। तो बुद्ध ने उसको बुलाया एक दिन—कहानी है, कौन जाने?—बोलते हैं कि "मेरे पास आने से पहले तुम वीणा बजाते थे?" तो उसने कहा, "हाँ, बजाता था।" बुद्ध ने कहा, "वीणा बजानी छोड़ क्यों दी?" तो वो चुप रहा। बुद्ध गीत-संगीत की बात करेंगे अपेक्षित नहीं था।
फिर बुद्ध ने कहा कि जब वीणा के तार बहुत कस देते थे, तो क्या होता था? बोला, "गीत झंकृत नहीं होता था। कुछ टूट जाता था।" बोले, "और जब तार बहुत ढीले कर देते थे, तब क्या होता था?" बोले, "तब भी बात बनती नहीं थी।" बोले, "ऐसा ही है।"
संगीत का अर्थ होता है सम्यक गति। अतियों पर बैठना बहुत आसान है; अतियों पर द्वैत है। विवेक का अर्थ है: न उस अति न इस अति, न बहुत कसा न बहुत ढीला, न बहुत तेज़ न बहुत धीमा, न महत्वाकांक्षा न अकर्मण्यता, सम्यक गति। फिर संगीत है।
जितना राम की सेवा के लिए चाहिए उतना करेंगे। मध्यम का अर्थ ये नहीं है कि बीच का। मध्यम का अर्थ है: दोनों छोरों का नहीं। महत्वाकांक्षा बहुत कराती है, और अकर्मण्यता कुछ नहीं कराती है। एक छोर पर मालिक है महत्वाकांक्षा, और दूसरे छोर पर मालिक है तमसा।
सम्यक गति का अर्थ होता है: मेरा मालिक न रजस है न तमस है। रजस माने महत्वाकांक्षा। सम्यक गति का अर्थ है: मेरा मालिक न रजस है न तमस है; मेरा मालिक राम है। वो जितनी गति चलाएगा, मैं चलूँगा। हो सकता है कभी वो बहुत तेज़ चला दे—वो भी मध्यम मार्ग ही कहलाएगा। यदि सत्य के इशारे पर तुम बहुत तेज़ चल रहे हो, तो भी सम्यक है, तो भी तुम मध्यम मार्ग से चूक नहीं गए। और यदि सत्य के इशारे पर तुम अतिशय धीमे भी हो गए, तो भी सम्यक है। ये तो वक्त-वक्त की बात है, स्थिति का खेल है।
बस तुम ज़िद मत पालना कि मुझे बहुत तेज़ ही रहना है या बहुत धीमा ही। तुम निगाह दोनों छोरों पर से किसी पर भी रखना मत; तुम्हारी निगाह सत्य पर होनी चाहिए। वो जितनी तेज़ चलाएगा, हम उतनी तेज़ चलेंगे।
ड्राइवर चलाए गाड़ी, तो उसकी निगाह स्पीडोमीटर (चालमापि) पर नहीं होनी चाहिए; कि एक तरफ शून्य है स्पीडोमीटर के और दूसरे छोर पर दो सौ लिखा है (दो सौ किलोमीटर प्रति घंटा)। जो शून्य पर चिपक गया, वो भी कोई चालक नहीं; जो दो सौ की तमन्ना लेकर भगा रहा है, वो भी कोई चालक नहीं। चालक की नज़र स्पीडोमीटर पर नहीं, सामने होनी चाहिए, जो सामने है। तुम्हारी नज़र राम पर रहे। गति शून्य से लेकर दो सौ तक कितनी भी हो सकती है। संभावना यही है की बीच की कोई गति होगी—साठ कि अस्सी कि सौ—वो मध्यम मार्ग कहलाता है।
आपको गति कम करने के लिए इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हम राम की अपेक्षा स्पीडोमीटर को देख कर चलते हैं। तो गति ज़्यादा ही रहती है सामान्यतः, इसलिए कह रहा हूँ कम करने के लिए। कम करना आवश्यक नहीं है; राम पर नज़र रखना आवश्यक है। राम पर नज़र है, तो संभावना यही है कि अपने आप कम हो जाएगी।