माध्यम मंज़िल नहीं || (2015)

Acharya Prashant

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माध्यम मंज़िल नहीं || (2015)

प्रश्नकर्ता: सर, जब भी आपको सुनता हूँ, जितनी भी देर आपके साथ होता हूँ तो ऐसा लगता है मेरे भीतर एक ऊर्जा है। कैसे यह ऊर्जा हर समय बनी रहे? कैसे रोकूँ?

आचार्य प्रशांत: तुम कहते हो कि जब यहाँ होते हो, मेरे साथ, मेरे सामने, तो ऊर्जा होती है। अगर नहीं होते हो मेरे साथ, मेरे सामने, तो ऊर्जा नहीं होती है। तो बात बहुत सीधी है। मैं तुमसे पूछता हूँ कि ऐसा कोई भी बिंदु, समय, स्थान आने क्यों देते हो जब मेरे सामने नहीं हो? कौन यह विचार करता है कि दूर हो गए? तुम ही यह विचार करते हो न कि अब दूर हो गए? तुम ही अपने-आप को यह कह देते हो न कि अब दूर हो गए? और यह कहने के बाद तुम हतोत्साहित हो जाओ, तुम्हारी ऊर्जा गिर जाए, और परिणाम हों, तो तुम जानो। तुमने क्यों कहा अपने-आप से कि दूर हो गए?

तुम कहोगे – सर, ये कैसी बात है? तो क्या चौबीस घण्टे यहीं बैठे रहें? जहाँ जाएँ, आपको साथ ले कर जाएँ? जो करें सामने करें? अगर मुझे ऐसे ही देख रहे हो जैसे तुम्हें दिख रहा हूँ, तो तुम्हारा तर्क जायज़ है कि जहाँ जाओगे मुझे ले कर नहीं जा सकते। यह संसार बहुत बड़ा है, तुम्हें चलना-फिरना, उठना-बैठना, दौड़ना, यह तमाम गतिविधियों में होना है, कैसे सामने रहोगे? अगर मैं वही हूँ जो तुम्हारे सामने बैठा हूँ, तो दूरी पक्की है। होनी ही है। पर फिर यह ध्यान से देखो कि तुम्हें ऊर्जा मिलती किससे है। तुम्हें ऊर्जा उस व्यक्ति से नहीं मिलती है जो तुम्हारे सामने बैठा है और जिससे दूर होना अवश्यम्भावी है। वो व्यक्ति अधिक-से-अधिक प्रतीक हो सकता है। वो व्यक्ति अधिक-से-अधिक एक माध्यम हो सकता है जिसका उपयोग कर के तुम कहीं पहुँचते हो। जिसकी उपस्थिति से तुम उपस्थित हो जाते हो। माध्यम को तुम हमेशा अपने साथ नहीं ले जा सकते, लेकिन वो माध्यम तुम्हें जहाँ पहुँचाता है वह हमेशा तुम्हारे साथ रह सकता है।

तुम्हें यह विचार करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि माध्यम दूर हुआ तो वह जिससे तुम्हें चैन मिल रहा था, शांति मिल रही थी और ऊर्जा मिल रही थी वो भी तुमसे दूर हो गया। हाँ! अगर देह भर देखोगे, दुनिया तुम्हारे लिए पदार्थ रहेगी। आँखों से सिर्फ़ शरीर ही नज़र आएगा तो दूरी का दुःख भी भुगतोगे। क्योंकि शरीर कब किसका हुआ है? शरीर कभी पास होता है, कभी दूर होता है और एक दिन तो जल भी जाना है। जिस दिन जल जाएगा उस दिन तो अनंत काल के लिए दूरी हो जानी है। तब क्या करोगे?

तुम्हें जो मिल रहा है, तुम्हें जो अनुभव होता है, वह कोई भौतिक अनुभव नहीं है – मेटीरियल (पदार्थ) नहीं है। और जो अनुभव भौतिक नहीं है, वह किसी भौतिक शरीर पर बहुत निर्भर नहीं हो सकता। भौतिक शरीर, जैसा कि कहा, अधिक-से-अधिक माध्यम बन सकता है, इशारा बन सकता है, राह बन सकता है। पर जो पहुँच गया, वह राह को पकड़ कर खड़ा रहे – उसकी कोई ख़ास ज़रूरत नहीं। जो नया-नया है जिसे रास्ते पता नहीं, उसे कोई एक बार, दो बार, रास्ते बता दे, इशारा कर दे, ठीक है। पर इशारे हो गए, फिर तुम उस बिंदु पर स्वयं भी स्थित रह सकते हो, और स्वयं स्थित रहने में दिक़्क़त आती हो अगर तो यही कर लो कि इशारा करने वाले को याद कर लिया। इतनी बातें जो तुम्हारे मन में उमड़ती-फुमड़ती रहती हैं, इतना कुछ है जो याद रखते हो, इशारे को भी याद रख लो। अगर माध्यम तुम्हारे लिए इतना ही कीमती, उपयोगी है, तो याद रख लो उसको। लेकिन फिर तुमसे कह रहा हूँ – माध्यम को आखिरी बात मत समझ लेना।

माध्यम को बहुत महत्व दोगे, तो दुःख में फँसोगे। तुम जो कह रहे हो, मैं समझ रहा हूँ। तुम अभी यहाँ बैठे हो, तुम्हें शांति लगती है, तुम्हें ऐसा लगता है जैसे एक ऊर्जाक्षेत्र में ही बैठे हुए हो। मन में जो हज़ार तरह की शंकाएँ होती हैं और डर होते हैं, अभी नहीं रहते हैं। लेकिन मैं फिर तुमसे कह रहा हूँ, जो भी तुम्हें अनुभव होते हैं, उनके मौलिक कारण को जानना। उनका मौलिक कारण भौतिक नहीं है। उनका मौलिक कारण शारीरिक नहीं है। उनका मौलिक कारण जितना मुझे उपलब्ध है उतना ही तुम्हें भी। हाँ! अब मैं यहाँ बोल रहा हूँ और तुम सामने बैठे हो मेरे, तो तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम्हारे अनुभव का कारण मैं हूँ, ऐसा है नहीं। और इसकी पुष्टि तब हो जाएगी जब तुम्हें यही शांति, यही ऊर्जा, मेरे ना होते हुए भी अनुभव होगी, और वह हो सकता है, बड़ी साधारण सी बात है, होगा ही।

और वास्तव में अगर माध्यम हूँ तो मेरी उपयोगिता तुम्हारे लिए यही है कि प्रथमतया माध्यम ही रहूँ, मंजिल ना बन जाऊँ, और दूसरा, माध्यम भी बहुत समय तक ना रहूँ। माध्यमों की ज़रूरत तभी तक पड़ती है जब तक तुम्हें दूरी का एहसास हो रहा होता है। तुम्हें लगता है मंजिल दूर है, तो तुम कहते हो, “ठीक है, सड़क का इस्तेमाल करेंगे, गाड़ी का इस्तेमाल करेंगे”, यही सब माध्यम हैं। माध्यम माने जो बीच मैं है, “मध्य”। याद रखना जो बीच में है, वह एक तरफ़ से देखो तो मददगार है और दूसरी तरफ़ से देखो तो बीच में खड़ा है, इसीलिए गुनहगार है। कोई क्यों बीच में खड़ा रहे? कोई क्यों माध्यम बने? कोई क्यों गुनाह अपने ऊपर ले?

तुम्हारी और परम की बात-चीत तुम जानो। मैं क्यों बीच का बिच्छू बनूँ? कबाब में हड्डी! अब से ये मानना ही मत कि दूर हो गए। बिलकुल मत मानना। तुम्हारी ऊर्जा का जो ह्रास होता है, वह इसी विचार के कारण होता है कि दूर हो गए। जैसे मानते थे कि दूर हो गए अब वैसे ही मानते रहना कि दूर हो ही नहीं सकते। लगातार पास हैं। चीज़ों से दूर हुआ जाता है, सत्य से दूर नहीं हुआ जाता। जहाँ भी जाएँगे, आकाश के तो नीचे ही रहेंगे न? जहाँ भी जाएँगे पृथ्वी के तो ऊपर ही रहेंगे न? और लगे कि दूर हो ही गए हैं, यह बात कचोटे कि, "नहीं, नहीं! कितना भी मान रहे हो, दूरी तो है ही।" तो स्मरण कर लेना। यहाँ भी जिसको तुम नज़दीकी कह रहे हो वो एक प्रकार की मानसिक गतिविधि ही है। आँखों से देख रहे हो इसीलिए कह रहे हो नज़दीकी है। उसी तरीके से आँख बंद कर के स्मरण कर लेना।

स्मरण किसको?

किसी को नहीं।

आँख बंद करना काफी होगा। ना किसी बात को स्मरण करना ज़रूरी है, ना किसी चेहरे को स्मरण करना ज़रूरी है, ना किसी वाक्य को स्मरण करना ज़रूरी है।

आँख बंद करी, इसका मतलब है स्मरण हो गया। स्मरण ना हुआ होता तो आँख क्यों बंद करते? आँख बंद करना ही काफ़ी है। और आँख बंद करने का आशय समझ रहे हो न? ज़रा सा दुनिया की ओर से बेपरवाह हो जाना। यही है आँख बंद करना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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