माटी कुदम करेंदी यार || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2023)

Acharya Prashant

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माटी कुदम करेंदी यार || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह पर (2023)

माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार। माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार। माटी घोड़ा, माटी जोड़ा, माटी दा असवार। माटी घोड़ा, माटी जोड़ा, माटी दा असवार। माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार। माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार। माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दा खड़कार। माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दा खड़कार। माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार। माटी कुदम करेन्दी यार, वाह वाह माटी दी गुलज़ार।

आचार्य प्रशांत: “माटी कुदम करेन्दी यार।” तो तीन में माटी कौन है? अहम्, आत्मा, प्रकृति, इसमें मिट्टी क्या है? प्रकृति। ये प्रकृति का उत्सव है। लेकिन ये उत्सव सिर्फ़ तब सम्भव हो पाता है जब आप प्रकृति के साक्षी हो जाऍं। जब आप प्रकृति से लिप्त न रहें तो प्रकृति के दर्शन मात्र में आनन्द है। पुरुष का आनन्द है प्रकृति का निर्लिप्त दर्शन।

हम सोचते हैं, आनन्द है प्रकृति को भोगने में। नहीं, आनन्द प्रकृति को भोगने में नहीं, प्रकृति को देखने में है। जो भोगेगा वो पछताएगा, जो देखेगा वो उत्सव मनाएगा। ये अभी प्रकृति के उत्सव का गीत है। भूलिएगा नहीं कि ये गीत किसके लिए है, कौन गा सकता है। सिर्फ़ वो जो प्रकृति का साक्षी हो गया हो। तो “माटी कुदम करेन्दी यार”, देखो, माटी कितनी उछल-कूद मचा रही है! माटी कितने खेल खेल रही है, सब प्रकृति का ही खेल है — देखो, खेलों को देखो। देखो!

“वाह-वाह माटी दी गुलज़ार।” ये जो पूरा उत्सव है, ये जो गुलज़ार है पूरी, रौनक है, ये मिट्टी की ही तो है, प्रकृति की ही है। लेकिन रौनक तभी है जब देख रहे हो रौनक को। जो उसके भीतर घुस गये उनके लिए तो अन्धेरा है।

“माटी घोड़ा, माटी जोड़ा, माटी दा असवार।” माटी का ही घोड़ा है माने जितने जीव हैं वो सारे, उस पर मिट्टी का ही आसन पड़ा हुआ है और उस आसन पर मिट्टी का ही सवार बैठा हुआ है। जितनी गतियाँ देख रहे हो, जितने तरीके के रिश्ते देख रहे हो, वो रिश्ते बस मिट्टी से मिट्टी के हैं, मिट्टी से मिट्टी का रिश्ता है। अहम् सोचता है कि उसका इसमें भी कुछ खेल है, अहम् का कुछ नहीं है जो भी कुछ चल रहा है, वो मिट्टी से मिट्टी का रिश्ता मात्र है।

“माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दा खड़कार।” अगर ये जो घोड़े को दौड़ाया जा रहा है, इसको गौर से देखो तो पता चलेगा कि मिट्टी ही मिट्टी को दौड़ा रही है। जो घोड़े के ऊपर बैठा है वो भी मिट्टी है, जो दौड़ रहा है वो भी मिट्टी है और ये जो खड़कने की आवाज़ आ रही है, चाहे वो जो घोड़े को मारा जाता है उसको दौड़ाने के लिए, उसकी खड़क हो, चाहे घोड़े के पावों की टाप हो, ये सब भी जो हो रहा है बस मिट्टी की ही आवाज़ें हैं। मिट्टी ने कितने रूप ले लिये!

देखिए, श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘देखो, जड़ तो पदार्थ जड़ है ही जिसको तुम चेतन समझते हो, वो भी जड़ ही है। तो ये अन्तर करना छोड़ दो कि जड़ और चेतन अलग-अलग होते हैं।’ श्रीकृष्ण की ही बात को यहाँ बाबा बुल्लेशाह बड़े काव्यात्मक तरीके से सामने रख रहे हैं। वहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘जो तुमको प्रकृति लगती है वो तो है ही’ तो जड़ पदार्थ को कह देते हैं, ‘वो हैअपरा प्रकृति और जिसको तुम चेतना समझते हो, वो भी प्रकृति ही है बस उसको बोल दो कि वो परा प्रकृति है।’ ये अहम् के ऊपर जो बड़ी-से-बड़ी चोट करी जा सकती है, वो करी श्रीकृष्ण ने।

अहम् कहना चाहता है, ‘मैं चैतन्य हूँ और सामने जो पत्थर दिख रहा है, वो जड़ है।’ अहम् की यही बात रहती है न? अगर मैं पत्थर को देख रहा हूँ तो मैं कहूँगा, ‘इधर चेतना है, उधर जड़ता है। पत्थर जड़ है, मैं चेतन हूँ।’ वहीं श्रीकृष्ण आ गये; बोले, ‘रुको तुम! जैसा वो पत्थर है, तुम भी वही हो, दोनों मिट्टी हो! दोनों मिट्टी हो। बस वो मिट्टी है जो बोलती नहीं है कि मैं चेतन हूँ और इधर जो मिट्टी है, वो बोलती है कि मैं चेतन हूँ। इतना अन्तर है दोनों मिट्टियों में लेकिन ये अन्तर नहीं है कि उधर मिट्टी है और इधर कुछ और है। न! मिट्टी तो दोनों तरफ़ है, बस एक तरफ़ की मिट्टी बकवास ज़्यादा करती है। और तुम्हें बकवास के ही आधार पर अगर अन्तर करना है तो लो कर देते हैं, प्रकृति वो भी है, प्रकृति तुम भी हो। उसका नाम कर देंगे ‘अपरा प्रकृति’ और तुम्हारा नाम कर देंगे ‘परा प्रकृति।’ तुम दोनों एक हो।’

जो ज़िन्दा है वो भी मिट्टी है, जो मरा है वो भी मिट्टी है। बस ज़िन्दे को गुमान हो गया है कि वो मिट्टी नहीं है अभी। मिट्टी दोनों हैं।

और उसी मिट्टी की गुलज़ार का गीत है ये। समझ में आ रही है बात? तो घोड़ा भी मिट्टी है, सवार भी मिट्टी है और घोड़ा जिस मिट्टी पर दौड़ रहा है, वो तो मिट्टी है ही। बताने वाले आपको इस भ्रम से बाहर लाना चाहते हैं कि आप मिट्टी से भिन्न हो। सबको यही लगता है न? ‘मैं मिट्टी से भिन्न हूँ।’ आप मिट्टी से भिन्न नहीं हो। किस अर्थ में भिन्न नहीं हो? ये जो चेतना है जो आपको इस भ्रम में डाल देती है कि आप भिन्न हो, वो चेतना भी मिट्टी से ही उठी है। उस सिद्धान्त को समझाने के लिए इस गीत की रचना हुई है।

‘काफ़ी’ बोलते हैं, बुल्लेशाह की काफ़ियाँ। इसकी जो रचना है, वो आपको यही सिद्धान्त समझाने के लिए है कि जिसको तुम अपनी कॉन्शियसनेस (चेतना) बोलते हो, वो भी पूरे तरीके से मटीरियल (पदार्थ) ही है। और कोई बहुत अनूठा होता है, बिरला होता है जिसकी चेतना मटीरियल, भौतिक नहीं रह जाती, जिसकी चेतना को इश्क हो जाता है आसमान से। बाकी तो सबकी चेतना मिट्टी से ही उठी थी और मिट्टी में ही लिपटी रहती है, लथपथ मिट्टी से।

आपकी चेतना मिट्टी से उठी थी इतना तो समझते हैं न? मिट्टी माने शरीर। शरीर से चेतना उठी तो मिट्टी से उठी। और ये जो चेतना है ये चाह भी क्या रही होती है हर समय? अरे! मिट्टी का कुछ मिल जाए, मिट्टी का घर मिल जाए, मिट्टी का महल मिल जाए। मिट्टी का कोई पुरुष, मिट्टी की कोई स्त्री मिल जाए, मिट्टी का घोड़ा मिल जाए, मिट्टी की गाड़ी मिल जाए, मिट्टी के पैसे मिल जाऍं। तो ज़्यादातर लोगों की चेतना मिट्टी से ही उठती है और मिट्टी में ही लोटती रहती है।

“माटी माटी नूं मारन लग्गी, माटी दे हथियार।” और ये लोग घोड़े पर दौड़ते हुए जा रहे थे, मान लीजिए कोई सैनिक हैं, ये जो सवार हैं, घुड़सवार हैं, ये कोई सैनिक हैं और जाकर के किसी दूसरे को मारने भी लग गये। मिट्टी के हथियार से मिट्टी ने मिट्टी को मार डाला! हुआ क्या? कुछ नहीं, मिट्टी। क्या हुआ? मिट्टी! मिट्टी मिट्टी हो गयी। जिसको हम मृत्यु कहते हैं, उसके उपरान्त हमें मिट्टी हो जाना है, ये तो हम सब जानते हैं। मुक्त वो हो गया जो जान ले कि आप अभी भी मिट्टी ही हैं। फिर ऐसे के लिए मृत्यु विशेष नहीं रह जाती। उसको जीवित मृतक बोलते हैं। वो मर गया।

“जिस माटी पर बहुती माटी, सो माटी हंकार।” और अहंकार भी यही है। मिट्टी से उठे थे और बहुत सारी मिट्टी इकट्ठा कर ली, इसे अहंकार बोलते हैं। और सोच ये रहे हैं कि हम मिट्टी से भिन्न हैं, यही अहंकार है। अहंकार को यही बताना होता है, तुम मिट्टी से भिन्न नहीं हो! माने तुम नहीं हो। तुम अपनेआप को जो सोचते हो, वो तुम हो ही नहीं, मिट्टी भर है।

“माटी बाग, बगीचा माटी, माटी दी गुलज़ार।” बाग-बगीचा, जितनी दुनिया के उत्सव हैं, रौनकें हैं, आयोजन हैं, रिश्ते हैं, आप जो कुछ भी कर रहे हो, वो सब मिट्टी ही है, प्रकृति ही है। क्यों भिन्न मानते हो इससे किसी भी चीज़ को? जहाँ भी कोई गति हो रही है, कर्म हो रहा है, वो सब क्षेत्र प्रकृति का है। समझ में आ रही है बात?

सन्तों ने बार-बार इसीलिए बोला है, कितना समझाया है, “मोहे मरण का चाव।” मिट्टी से उसका सम्बन्ध देख पा रहे हैं? “मोहे मरण का चाव।” ये बिलकुल ऐसा है कि “मोहे बोध का चाव।” मुझे ये जानने का चाव है कि मैं जीवित ही नहीं हूँ, मैं मिट्टी ही हूँ। मुझे इस बोध का चाव है कि मैं मिट्टी ही हूँ। व्यर्थ ही भीतर कोई है जिसे ये भ्रम हो गया है कि वो जीवित है, वो मिट्टी नहीं है। आप मिट्टी ही हो। मिट्टी की कुछ प्रक्रियाऍं हैं, अभी चल रही हैं। उसको आप कह देते हो, ‘ये मेरी जीवित अवस्था है।’ मिट्टी की जो प्रक्रियाऍं होंगी, वो प्राकृतिक तौर पर ही एक दिन चलनी बन्द हो जाऍंगी तो आप कह दोगे, ‘ये मेरी मृतक अवस्था है।’ अवस्था बदलने से तत्व थोड़े ही बदल जाता है! सूखी मिट्टी को गीली मिट्टी कर दो तो ये कहोगे क्या कि अब ये मिट्टी नहीं रही? ठीक उसी तरह मनुष्य का जीवन।

“माटी माटी नूं वेखण आयी, माटी दी ए बहार।” माटी (श्रोतागण की ओर इशारा करते हुए) माटी (आचार्य जी स्वयं की ओर इशारा करते हुए) नूं देखण आयी, माटी (पूरे कक्ष की ओर इशारा करते हुए) दी ए बहार। उधर की मिट्टी इधर की मिट्टी को देखने आयी है और ये देखो क्या बहार है! ये कुछ बजा रहे हैं, वो कुछ गा रहे हैं। ये इतने सारे उपकरण लेकर बैठे हुए हैं, वो लोग वहाँ नीचे बैठकर के मुस्करा रहे हैं। मुस्कुराती माटी! (श्रोता हॅंसते हुए)

“इस खेड फिर माटी होवै, सौंदी पॉंव पसार।” ये मिट्टी का पूरा खेल खेलने के बाद फिर मिट्टी हो जाते हो और पाँव पसारकर सो जाते हो। मिट्टी का खेल खेलते हो न जाने कितने सालों, दशकों तक और मिट्टी का खेल खेलकर फिर मिट्टी हो जाते हो और लम्बे पाँव पसारकर के सो जाते हो मिट्टी होकर के।

“बुल्हा एह बुझारत बुज्झें, तां लाह सिरों भुई मार।” भुई मार! भुई पर मार दो, ज़मीन पर मार दो, पटककर मार दो। “बुल्हा एह बुझारत बुज्झें, तां लाह सिरों भुई मार।” बुल्लेशाह कहते हैं कि अगर इस बात के रहस्य को जानना चाहते हो तो तुम्हें अपना बदलाव करना पड़ेगा। तुम्हारे अपने सिर पर जो बोझ है, पहले उसको भुईं पर, ज़मीन पर पटककर मारो तो तुम्हें समझ में आएगा।

अहम् प्रकृति को तब तक नहीं समझ सकता जब तक वो अपनेआप से शुद्ध नहीं हो गया। जब तक अपने सिर पर आपे का बोझ रखा हुआ है तब तक माटी का खेल समझ में नहीं आएगा। या ऐसे कह लो, जब तक अपने ही ऊपर मिट्टी चढ़ा रखी है तब तक मिट्टी का खेल एक रहस्य ही बना रहेगा।

रेगिस्तान को समझना चाहते हो, समझ में आएगा अगर उसी रेगिस्तान की रेत का एक कण भी आँख में पड़ गया हो? बोलो! लम्बे-चौड़े खेत हैं, जानना चाहते हो खेत क्या है, फसल क्या है, नहर क्या है, फल क्या है, फूल क्या है, कुछ भी समझ में आएगा अगर थोड़ी सी मिट्टी आँख में पड़ गयी है तो उन्हीं खेतों की? बोलो! जिन खेतों को समझना चाहते हो, उनकी ज़रा सी मिट्टी आँख में पड़ जाए तो कुछ समझ में आएगा क्या? तो प्रकृति को वही समझ सकता है जिसकी आँख में प्रकृति नहीं पड़ी हुई। मिट्टी को वही समझ सकता है जिसकी आँख में मिट्टी नहीं पड़ी हुई। आशय समझ रहे हो? आँख माने? देख पाना। जिसका देख पाना बाधित हो गया है देखे जा रहे विषय से, उसे देखा जा रहा विषय समझ में नहीं आएगा।

जिस विषय को समझना हो, उससे मुक्त होना ज़रूरी है उस विषय को समझने के लिए। तुम जिससे सम्बन्धित हो गये, उसको कभी समझ नहीं पाओगे।

धृतराष्ट्र कभी नहीं समझ पाये दुर्योधन कौन है। तुम्हारा जिससे सम्बन्ध बैठ गया, तुम्हें वो कभी समझ में नहीं आएगा। प्रकृति बहुत सीधी सी चीज़ है, देखो कैसे गा दिया यहाँ पर बाबा ने। प्रकृति बहुत सीधी चीज़ है लेकिन नहीं किसी को समझ में आती क्योंकि हमने प्रकृति से आसक्ति का रिश्ता बैठा लिया है। आँख में रेत का कण चला गया, रेगिस्तान नहीं समझ में आएगा। और आँख में धूल का, मिट्टी का कण चला गया तो लहलहाता हरा खेत नहीं समझ में आएगा।

दृश्य को अगर समझना हो तो द्रष्टा को दृश्य से मुक्त रहना पड़ेगा और जब दृश्य से मुक्त होकर द्रष्टा देखता है तो उसके लिए विशेष नाम होता है दर्शन।

दर्शन वास्तव में सिर्फ़ तब है जब जिसको देख रहे हो, उससे कामना नहीं है। जिससे कामना है, उसको अगर देखोगे तो उसे कभी समझ नहीं पाओगे। समझ में आ रही है बात ये? तो अगर ये पूरी बात समझ में नहीं आ रही है तो बुल्लेशाह अन्त में बता गये हैं कि समझने का सूत्र क्या है। सिर पर जो बोझ रखा हुआ है, उसको उठाकर के मिट्टी पर पटक दो तो सब समझ में आने लगेगा। जो भी लोग कहें कि नहीं, बातें समझ में नहीं आतीं। बातों में कुछ ऐसा जटिल है ही नहीं कि समझ में न आये। आपके सिर पर बोझ रखा हुआ है जो आप उतारने को तैयार हो जाइए, हर बात बिलकुल साफ़ हो जाएगी शीशे की तरह।

बातें तो बहुत सीधी हैं। जीवन की बाते हैं, किससे छुपी हुई हैं? जी वो भी रहे थे जिन्होंने ये बातें कहीं, जी आप भी रहे हैं। ऐसा कैसे होगा कि आपको ये बात समझ में नहीं आती? बस अन्तर ये है कि सिर पर मिट्टी बहुत चढ़ी हुई है और मिट्टी सिर पर चढ़ाकर के कुछ समझ में नहीं आना है। “जा माटी ते बहुती माटी, ता माटी हंकार।” क्यों भाई, बजा दो माटी!

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, मेरा प्रश्न जब आपने ये बताया था कि चेतना भी मिट्टी से ही है, उसी को लेकर है। अब जब हम चुनाव करते हैं सही या गलत, वो तो चेतना से ही होनी चाहिए और मन में ये बात है कि चेतना ऊॅंची है शरीर और मन से। मतलब शरीर और मन में जो भावनाऍं उठती हैं चेतना ज़रा उनसे ऊॅंची बात है और चेतना ही वो पुल है जिससे हम आध्यात्मिक जगत में आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन जब हमने ये बोल दिया कि चेतना भी केवल मिट्टी ही है तो जैसे फिर ऊँची बात क्या रही इसमें फिर ऐसा? एक डाउट (सन्देह) मन में रहता है।

आचार्य: ऊँचा नहीं मानना है। तीन से बाहर जाने को मना करा है न? (श्रोता हाॅं में सिर हिलाते हैं) हमेशा क्या याद रखना है? तीन ही हैं। यहाँ जितनी भी बातें कही हैं, वो सारी बातें किसके अन्तर्गत होंगी? तीन के ही अन्तर्गत होंगी, चौथा कुछ होता है क्या? अच्छा चौथा, पाॅंचवाॅं, आठवाँ, नौवाँ जितने होते हैं, वो क्या होते हैं? वो प्रकृति होती है। तो तीसरे पर आकर सब रुक जाता है न, इसीलिए तो वेदान्त को दुनिया का उच्चतम दर्शन माना जाता है। राधाकृष्णन कहते थे, ‘वेदान्त वहाँ पहुँच गया है जहाँ लिमिट ऑफ़ थॉट (विचार की सीमा) है। उसके आगे कुछ नहीं हो सकता। आप उसके आगे जो भी कुछ बोलेंगे, वो वेदान्त ने पहले ही कह दिया है। उसके आगे अब कुछ हो नहीं सकता क्योंकि बात अब आइ (मैं) पर ला दी है न! और जो कुछ भी है वो किसके लिए है?

श्रोता: आइ के लिए।

आचार्य: तो आपने कोई ऊँची बात भी बोल दी तो किसके लिए बोल दी? तो वेदान्त के आगे कुछ हो ही नहीं सकता। इस तीन के आगे कोई चौथा नहीं है, कोई चौथा नहीं है।

ऊँचा कौन है इस तीन में? और नहीं कोई ऊँचा है, कोई और ऊँचा नहीं है। जितने भी आपके दिमाग में शब्द आते हैं उनको इन्हीं तीन में समेट लीजिए, नहीं तो धोखा खाऍंगे। आत्मा ऊँची है। तो चेतना के लिए ये चुनाव ऊँचा है कि वो? बोलो-बोलो, जल्दी बोलो! ये (तीन उँगलियों में बीच की उँगली दिखाते हुए) क्या है?

श्रोता: अहम्।

आचार्य: इसको अहम् या चेतना जो भी बोलना चाहते हो। ये चुनाव ऊँचा है कि वो किसको चुने?

श्रोता: आत्मा को चुने।

आचार्य: और ये चुनाव गलत है कि वो किसको चुने?

श्रोता: प्रकृति को।

आचार्य: बस ये है। चेतना इनसे (आत्मा से) नहीं ऊँची है।

प्र: चेतना को आत्ममुखी होना, बस उतना ही?

आचार्य: बस वही ऊँचा है, उसके अलावा कुछ नहीं है। न आदमी ऊँचा है, न औरत ऊँची है, न कोई जाति ऊँची है, न कोई वर्ण ऊँचा है, न शिक्षा ऊँची है, न ज्ञान ऊँचा है, न अनुभव ऊँचा है, न उम्र ऊँची है, कुछ ऊँचा नहीं है। दस मंज़िली इमारत दो मंज़िली इमारत से ऊँची नहीं है आपके लिए। वो आपस में उनकी ऊँचाई होती होगी पर आपको दस मंज़िली मिल गयी तो आप दस गुना ऊँचे नहीं हो जाओगे, पाँच गुना ऊँचे नहीं हो जाओगे दो मंज़िली से।

कुछ ऊँचा नहीं है, कुछ भी ऊँचा नहीं बना देगा आपको। सिर्फ़ एक चीज़ है जो आपको ऊँचा बना सकती है, क्या?

श्रोता: आत्मा।

आचार्य: ‘ऊँचे बने क्यों?’ तुम्हारी मर्ज़ी मत बनो! कोई पूछे, ‘क्यों बने ऊँचे? नहीं, मुक्ति चाहिए ही नहीं।’ तो क्या बोलना है उससे? ‘तुम्हारी मर्ज़ी, हम क्या ज़बरदस्ती कर रहे हैं?’ और ज़बरदस्ती कोई कर भी दे तो उससे कुछ हासिल होगा? इन मामलों में ज़बरदस्ती नहीं करी जा सकती। वो एक पल आता है, आप अधिक-से-अधिक सलाह दे सकते हो, थोड़ा समझा सकते हो पर ये तो तभी होता है जब वो पल आता है जब आप खुद ही स्वीकार करते हो कि हाँ है, इश्क है। वो पल आपके लिए अगर नहीं आ रहा तो आप जानो। ठीक है?

ऊँची-से-ऊँची चीज़ भी ऊॅंची नहीं है। पाप क्या नीचा है? नहीं है नीचा। पुण्य क्या ऊँचा है? नहीं है ऊँचा। कुछ न ऊँचा, न कुछ नीचा, सिर्फ़ कौन ऊँचा? आत्मा ऊॅंची। तो चेतना भी कैसे ऊँची होगी? आत्मा का वरण करके। पुण्य भी कब है? जब हम आत्मा को चुने इसको पुण्य कहते हैं। बाकी सब चीज़ें जो आप पुण्य के नाम पर करते हैं, उनमें कोई पुण्य नहीं है। आत्मा को चुनना एकमात्र पुण्य है और प्रकृति को चुनना पाप है। पाप भी क्यों है? इसलिए नहीं कि नैतिकता ने निर्धारित करा है, पाप इसलिए है क्योंकि दुख पाओगे और कोई बात नहीं है।

इससे एक बड़ा मज़ेदार निष्कर्ष निकल रहा है, आपने पकड़ा होगा, कुछ लोगों ने अब तक।

आनन्द ही ऊॅंचाई है और दुख ही निचाई है। आनन्द ही पुण्य है, दुख ही पाप है।

ये बात जब जीसस ने बोली एक ऐसी जगह पर जहाँ पर वेदान्त पहुॅंचा नहीं था, जेरूसलेम, लोग स्वीकार ही नहीं कर पाये। उन्होंने बोल दिया, ’सफ़रिंग इज़ सिन, दुख पाप है!’ लोग स्वीकार ही नहीं कर पाये, मार ही दिया उनको, या कम-से-कम प्रयास करा मारने का।

आनन्द पुण्य है! आत्मा का स्वभाव है आनन्द। सच्चिदानन्द घन बोलते हो न, सच्चिदानन्द भी बोलने से बात नहीं बनती पूरी। क्या बोलते हो? घन। घन माने क्या होता है? ठोस, *डेंस*। जैसे ब्लैक होल होता है। कितनी डेंसिटी होती है उसकी? वो सबकुछ खा जाता है, वो प्रकाश को भी खा जाता है। आत्मा उतना ठोस आनन्द का नाम है कि आनन्द-ही-आनन्द है, बीच में कोई खाली जगह नहीं है। आनन्द-ही-आनन्द, आनन्द-आनन्द-आनन्द। वो आत्मा है। वही फिर पुण्य है।

और जो अपनेआप को व्यर्थ दुखी रखे, उदास रखे, वही पापी है। जो दुख से निवृत्ति का प्रयत्न न करे, उसको पापी जानना। जो दुख में हो और दुख में बने रहने की आदत डाल चुका हो, वही पापी है। लोग देखे हैं न ऐसे, पेशेवर दुखी लोग। एमएसटी, पूरा करो, *मास्टर इन सफ़रिंग टेक्नोलॉजी*। वो नये-नये तरीके, तकनीकें ईजाद करते हैं कि दुखी कैसे रहा जाए। जहाँ दुख का कोई कारण भी न हो, वहाँ वो कारण निर्मित करेंगे कि दुखी, कैसे रहें। और वो लोगों को आनन्दित देखें तो उनको बड़ी उलझन हो जाती है।

किसी जगह पर सच्चे आनन्द का भी उत्सव हो रहा हो — मैं नहीं कह रहा कि फ़ालतू का कोई उत्सव है — किसी जगह पर सच्चे आनन्द का भी उत्सव हो रहा हो तो ऐसे लोग होते हैं जो उन जगहों पर असहज हो जाते हैं। वो कहते हैं, ‘अरे! यहाँ कोई कलप नहीं रहा, कोई रो नहीं नहीं रहा! सब छाती पीटने वाले कहाँ गये? और ऐसे लोगों को समाज में अक्सर बहुत सम्मान मिलता है। मिलता है कि नहीं? कोई आनन्दित हो, उसको बोल दोगे लुच्चा! कोई नाच रहा हो तो कह दोगे, ‘धार्मिक आदमी नाच कैसे सकता है? गलत काम कर दिया!’ और कोई रो रहा हो, तो कह दोगे ये धार्मिक लगता है।

तूने ऐसा करा क्या कि तुझे इतना रोना पड़ा? पापी तो तू होगा! भाई अगर प्रकृति में ही दुख होता तो सारे जानवर भी रो रहे होते? वो तो सब पूरी तरह प्राकृतिक हैं! पर जानवर हमें रोते हुए तो नहीं दिखाई देते, आनन्दित भी नहीं दिखाई देते पर रोते हुए भी नहीं दिखाई देते। ये जो अतिशय रोना है, ये जो दुख का अतिरेक है, ये तो ज़रूर तुम्हारे ही पाप से आया है। और पाप करने पर सम्मान चाहते हो? ये तो गलत हो गया सौदा।

प्र२: गुड ईवनिंग सर। अभी आप जो बता रहे थे, उसमें आपने बताया था कि मोह को मोह बोलना शुरू कर दें या डर को डर बोलना शुरू कर दें तो वो खत्म हो जाएगा। कुछ समझ में नहीं आया। मिट्टी चढ़ गयी!

(आचार्य जी के साथ सभी हॅंसते हुए)

आचार्य: देखिए, चुनाव बदलता है न! आपके सामने कुछ पीने को रखा हो, ठीक है? ये यहाँ पर रखा हुआ है (मेज़ पर रखी गिलास की ओर इशारा करते हुए) और आपको बता दिया जाए कि ये क्या है सचमुच तो आपका चुनाव प्रभावित होगा या नहीं होगा?

श्रोता: होगा।

आचार्य: बस इतनी सी बात है। चेतना जो चुनाव करती है, वो बहुत बातों से प्रभावित होकर करती है। जिसमें से एक तो यही है — नाम। जिन चीज़ों के सम्माननीय, सुसज्जित नाम हैं, चेतना उनकी ओर भागती है। गलत चीज़ को भी सही नाम दे दोगे, चेतना उसकी ओर भागने लगेगी। कोई बहुत मूर्खता की बात हो, तुम घोषणा कर दो कि ये तो बहुत दैवीय चीज़ है, लोग उसकी ओर भाग पड़ेंगे। जो चीज़ जैसी हो अगर उसको वैसा ही नाम आप देने लग जाओ तो चुनाव बदल जाते हैं।

इसीलिए तो मैं इतना बोलता हूँ कि ये नॉन-वेजिटेरियन क्या होता है। इनको फ्लेशिटेरियन (माॅंसाहारी) बोलो, इनको ब्लडिटेरियन (रक्ताहारी) बोलो। आप जब वेजिटेरियन हो नहीं तो वेजिटेरियन के आधार पर अपना नाम क्यों बता रही हो? ये नॉनवेज क्या है? भाई, ऐसे तो हम ये भी कह सकते हैं कि वेजिटेरियन को नॉन-फ्लेशिटेरियन बोलो। ऐसा बोलते हैं क्या? जब आप वेजिटेरियन को नॉन-फ्लेशिटेरियन नहीं बोलते, तो फ्लेशिटेरियन को नॉन-वेजिटेरियन क्यों बोलते हो? वो अगर वेजिटेरियन है तो तुम *ब्लडिटेरियन हो*। बोलो!

जैसे ही ये हो जाएगा न कि एक मेन्यू आएगा कि मैम वेज ऑर ब्लड ? चुनाव बदल जाएगा। अभी तो आपके लिए बहुत आसान हो जाता है, *‘मैम वेज ऑर नॉन-वेज’*। आप बोलते हो, ‘नॉन-वेज।’ नॉन-वेज में भी बोला तो वेज ही, नॉन में सबकुछ छुपा दिया आपने। हत्या, खून, सब छुपा दिया बस नॉन में, साथ में वेज बोल दिया, अब वेज तो सीधा-सादा है। कैसा लगेगा आप फ़्लाइट में हैं या रेस्तराँ में हैं। ‘मैम ब्लड? फ्लेश?’ फिर चुनाव बदलता है न कि नहीं बदलता है? (श्रोता हाॅं में सिर हिलाते हैं) वैसे ही।

सिर्फ़ शब्द ही अगर तथ्यपरक हो जाऍं, चुनाव बदल जाऍंगे। कोई आपसे आकर बोलता है, ‘आइ लव यू।’ आपका उस पर एक सोच बनेगी। और कोई आपसे आकर साफ़-साफ़ बोल दे, जैसे वो गाना नहीं आया था, ‘आइ ऍम इन लव विद योर बॉडी।’ कोई सीधे आकर बोल दे, ‘आइ लव योर बॉडी।’ अब ऐसा नहीं कि पहले भी आपको पता नहीं था कि क्या है बात लेकिन अब बात इतनी ज़ाहिर हो गयी है, इतनी खुल्लम-खुल्ला हो गयी है कि आपके लिए इज़्ज़त वाली झंझट हो जाएगी उसके प्रस्ताव को स्वीकार करना। अब आपको कहना ही पड़ेगा कि नहीं मतलब, इतना भी नहीं बोलना था खुलकर के!

जो चीज़ खोल दी जाए उससे आज़ादी मिल जाती है। जो चीज़ खोल दी जाए आदमी उससे मुक्त हो जाता है। झूठ चलता ही इसलिए रहता है क्योंकि कोई हिम्मत नहीं करता उसका नकाब उतारने की, उसकी पोल खोलने की।

एक ग्रुप है जिस पर मैं हूँ, उस पर बात चल रही थी अभी, मेरे ही साथ के लोग हैं। बोल रहे हैं, ‘आजकल ब्रेड क्रम्बिंग बहुत होती है।’ तो मुझे पता नहीं मैंने कहा, ये नयी चीज़, ब्रेड क्रम्बिंग ये क्या होती है? बोले, ब्रेड क्रम्बिंग ये होती है, जब तुम अपने साथी से छुटकारा पाना चाहते हो लेकिन खुलकर बोल भी नहीं पाते कि छुटकारा पाना है। तो जैसे ब्रेड क्रम्ब्स किसी की ओर फेंके जाते हैं, उसको बस उतना ही ध्यान देते हो। कि दिन में उसको एक मैसेज कर दिया बस। मैंने कहा, ये तो गज़ब बात है!’ मैंने कहा, ‘अगर जान ही गये हो कि ब्रेड क्रम्बिंग चल रही है तो मुक्त काहे नहीं हो जाते? तुम वो जो ब्रेड क्रम्ब्स हैं, उनको स्वीकार काहे के लिए कर रहे हो?’

बोले, ‘उसके लिए आमने-सामने बात करनी पड़ेगी, पूछना पड़ेगा, कन्फ़्रंट करना पड़ेगा और कन्फ़्रंटेशन की हिम्मत नहीं है। तो ब्रेड क्रम्बिंग सालों तक चल सकती है कि किसी को पूरा भोजन देने की जगह उसको क्या दिये? *ब्रेड क्रम्ब्स*। बात करो न, सामने बात करो क्या बात है!

झूठ यही स्वीकार नहीं करता है, खुल्ली बात, सीधी चर्चा, स्पष्टवादिता, जस-को-तस बोल देना। जिसका मतलब ये नहीं होता कि आप लड़ाई करें, जिसका मतलब होता है कि आप बात करना चाहते हैं बिना लाग-लपेट के। उसमें कोई हिंसा नहीं, उसमें कोई आक्रामकता नहीं, उसमें बस सत्यनिष्ठा है। कि भाई जो भी है, ज़रा सीधी बात तो कर लें! वो सीधी बात हम करना नहीं चाहते। झूठे नाम दे देंगे कुछ भी। बिना बात के कोई बोल देगा, ‘हाँ, हैप्पी?’ ‘हाँ जी, हैप्पी! हैप्पी।’ आपको पता होता है सामने वाला मुँह पर झूठ बोल रहा है तो भी आप क्या उसका सामना करते हो? उसको बोलते हो कि यार ज़रूरत क्या है झूठ बोलने की? ऐसे हाथ मिलाएगा, *प्लीज़्ड टू मीट यू*। उसके मुँह पर लिखा हुआ है कि बस चले तो गला घोंट दे अभी आपका। तो उसको रोककर बोलिए कि भाई, मैं तुझे दस रूपया भी ज़्यादा नहीं देने वाला अगर तूने बोला है, *प्लीज़्ड टू मीट यू*। तो तुझे ये झूठ बोलकर कोई लाभ नहीं है? क्यों झूठ बोल रहा है फ़ालतू का?

‘गुड माॅर्निंग’! क्या गुड क्या है? नहीं, हम नहीं कह रहे कि बैड है पर ऐसा क्या विशेष गुड है कि तुम्हें उसका उल्लेख करना पड़ रहा है? ज़रा बता तो दो। गुड क्या है? सुबह-सुबह इतनी ज़ोर की बारिश हुई, न जाने कितनी चिड़िया मर गयीं! गुड मॉर्निंग क्या है? आज इतना तूफ़ान आया था सुबह-सुबह आप सो रहे थे सब, आपको नहीं पता? इतना तूफ़ान आया है और बारिश हुई है इतने ज़ोर की, हमारे यहाँ पर तीन घोंसले हैं गौरैया के, तो वो तो बच गयीं। नहीं वो बच गयीं, वो अन्दर हैं। हम उनको ज़ेड प्लस में रखते हैं, वो तो सब बच गयीं। पर जो वो बाहर पेड़ों पर थीं, उनका क्या हुआ? और बोल रहे हो गुड मॉर्निंग। क्या ज़रूरत है झूठ बोलने की?

झूठ हमारी आदत बन चुका है। झूठ हमारी इस हद तक आदत बन चुका है कि कोई अगर सीधा-सादा फ़ैक्ट, तथ्य भी बोलता है तो हमें चुभ जाता है एकदम! मैं आपको बोल दूॅं स्टुपिड! आपको बुरा लगेगा। मैं बोल दूॅं इंटलेक्चुअली हैंडीकैप्ड तो कहेंगे, ‘ये थोड़ा ठीक है।’ ये सही में हुआ था। वो बेचारे का कद कम तो वो बोल रहा है, मैं वर्टिकली हैंडीकैप्ड हूँ। मोटा बहुत ज़्यादा है तो बोल रहा है, ‘ग्रैविटेशनली हैंडीकैप्ड हूँ।’ ग्रैविटी के विरुद्ध उछल नहीं पाता ज़्यादा।

सीधे बोलो मोटा। कितना प्यारा शब्द है और कितने संक्षेप में पूरी कहानी बता दी। तोंदू, मोटा, डबलरोटा! ऐसे बात किया करो। तकलीफ़ क्या है? कुछ नहीं। हास्य अलग से मिलेगा। साफ़गोई में, स्पष्टवादिता में जो ह्यूमर (विनोद) है, उसकी तो बात ही दूसरी है!

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=FeYfUnQ4yd0

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