मासिक धर्म में महिलाएँ अपवित्र हो जाती हैं? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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मासिक धर्म में महिलाएँ अपवित्र हो जाती हैं? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: मैं एक परंपरावादी परिवार से हूँ। मेरे परिवार में ये प्रथा रही है कि महीने के कुछ दिनों में महिलाएँ पूजाघर और मंदिर तो क्या रसोईघरों में भी नहीं जातीं। ऐसी मान्यता हमेशा से चलती आई है। लेकिन अब पिछले कुछ सालों से मेरी पीढ़ी की जो लड़कियाँ थीं, उन्होंने इस तरह की प्रथा को मानना बंद कर दिया था।

और इधर हाल ही में ये हुआ कि एक काफ़ी प्रसिद्ध गुरुजी हैं। उनका वीडियो आया जिसमें उन्होंने अपनी तरफ़ से कोई बड़ा वैज्ञानिक कारण देकर के समझाया कि क्यों मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं को पूजाघरों और मंदिरों वगैरह में नहीं जाना चाहिए। वैसे तो वो वीडियो अंग्रेज़ी में था, पर उसका अनुवाद हिंदी में भी आ गया। तो मेरी माताजी ने देख लिया। और माताजी ने जब से देखा है तब से मुझे परेशान करना शुरू कर दिया है। तो माताजी का जो पुराना हठ था घर की पुरानी प्रथा को लेकर के, वो फिर से जागृत हो गया है। माताजी अब कह रही हैं कि, “देखो, हमारी जो पुरानी प्रथा थी, परंपरा थी, वो ग़लत नहीं थी। अब तो इतने बड़े गुरु जी ने भी हमारी पुरानी प्रथा के पक्ष में बात कर दी है, वो भी अंग्रेज़ी में।"

मेरे पास अब कोई बहुत अच्छे तर्क नहीं बच रहे हैं माँ को समझाने के लिए। माँ हैं, मौसी-वौसी हैं। क्या इस बात में कुछ है दम कि महीने के कुछ दिनों में महिलाएँ अपवित्र हो जाती हैं और मंदिर नहीं जा सकतीं?”

आचार्य प्रशांत: इस तरह की किसी बात में कोई दम नहीं है, देवी जी। शरीर थोड़े ही मंदिर जाता है। शरीर का कल्याण करने थोड़े ही मंदिर जाते हो। मन में दोष होते हैं न? मन का दोष मिटाने मंदिर जाते हो। शरीर का दोष मिटाने तो अस्पताल जाते हो। शरीर में अगर कोई विकार है, तो उसको ठीक करने कहाँ जाते हो? अस्पताल जाते हो। मंदिर तो मन का विकार ठीक करने जाते हो।

तो शरीर में क्या हो रहा है, क्या चल रहा है, क्या नहीं चल रहा है, इसका मंदिर जाने न जाने से क्या संबंध, भाई? एकदम एक प्रतिशत भी कोई संबंध नहीं। एकदम मूर्खतापूर्ण रूढ़ि है यह। और न जाने आज तक महिलाएँ ऐसी बात को मानती क्यों आईं, कि चार-पाँच दिन कहीं नहीं जाना है, मंदिर नहीं जाना है, रसोई नहीं जाना है। क्या पता इसलिए मानती आई हो कि पाँच दिन तक खाना बनाने से मुक्ति मिलती हो। तो बोलीं, “बढ़िया है, मान ही लो। पुरुषों ने बात तो बहुत मूर्खतापूर्ण की है, लेकिन इसी बहाने पाँच दिन तक खाना बनाने से निजात मिली। छोड़ो, मान लिया। बिल्कुल सही बात है। पाँच दिन तक हम गंदे हो जाते हैं, खाना नहीं बनाएँगे, तुम ही बनाओ खाना।”

ख़ैर, ये तो मज़ाक की बात हुई। लेकिन ये बात मज़ाक से आगे बड़े खेद की है। कैसे आप ऐसी बातें मान सकते हो, और अपनी बेटियों पर ऐसी बातें लाद सकते हो? फिर इसके बाद जब आपकी बेटियाँ धर्म के ही खिलाफ़ हो जाती हैं तो आपको बड़ा ताज्जुब और अफ़सोस होता है।

आप कहते हो, “अरे! देखो, आजकल की जो पीढ़ी है, वो धर्म को मानती ही नहीं।” तुम धर्म के नाम पर अपनी बेटियों से इस तरह की फिज़ूल बातें करोगे, उसके बाद ये उम्मीद करोगे कि तुम्हारी बेटियाँ धर्म को सम्मान देंगी? और फिर न जाने तुम कौन से गुरु जी का वीडियो बेटियों को दिखा देते हो ।

आजकल ये एक नए तरीके का धंधा चल निकला है कि पुरानी जो भी सड़ी-गली प्रथाएँ चल रही हों, उनको कोई भी फ़ालतू का कुतर्क देकर के सही साबित करना। और अगर वो जो तुम कुतर्क दे रहे हो, उसमें दो-चार तुम साइंटिफ़िक (वैज्ञानिक) क़िस्म की बातें बोल दो, तो ऐसा लगता है कि देखो, बिल्कुल एकदम सही साबित कर दिया कि हमारी जो पुरातन परंपराएँ हैं, वो बिल्कुल श्रेष्ठ ही थीं।

और लोग एकदम ऐसे फूल के कुप्पा हो जाते हैं, छाती चौड़ी हो जाती है। कहते हैं, “देखा, हमारी संस्कृति में तो जो कुछ है, उससे ऊँचा तो कुछ हो ही नहीं सकता। अरे! जहाँ से ये परंपराएँ आ रही हैं, वो लोग महा-वैज्ञानिक थे।”

जो तुम्हारे देश के असली वैज्ञानिक थे, उनका किसी का नाम तुमको पता नहीं होगा। मैं प्राचीन भारत की बात कर रहा हूँ। मैं तुमसे पूछूँ, आर्यभट का नाम पता है; तुम्हें नहीं पता होगा। मैं तुमसे पूछूँ, तुम्हें सुश्रुत का नाम पता है; तुम्हें नहीं पता होगा। जो असली वैज्ञानिक थे। लेकिन प्राचीन भारत के नाम पर तुमको इस तरह की मूढ़ताओं का पता है।

और तुम इनको आज साइंटिफ़िक (वैज्ञानिक) सिद्ध करने पर तुले रहते हो। और इसको करने के लिए तुमको कुछ स्यूडो साइंस (छद्म विज्ञान) वाले गुरु जी भी मिल जाते हैं। वो भी लगे हैं, “हाँ-हाँ, बिल्कुल ठीक है। एकदम सही है।”

प्राचीन भारत का जो वास्तविक गौरव था, उसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं है। दर्शनशास्त्र में कौनसे प्राचीन भारतीय श्रेष्ठ दार्शनिक थे, तुम्हें नहीं पता होगा। नाट्यशास्त्र में कौन थे, तुम्हें नहीं पता होगा। साहित्यकार कौन थे, तुम्हें कुछ नहीं पता। वैज्ञानिक कौन थे, गणितज्ञ कौन थे, तुम्हें कुछ नहीं पता। चिकित्साशास्त्री कौन थे, तुम्हें कुछ नहीं पता। और भारत ने इन सब क्षेत्रों में बहुत, बहुत प्रगति की थी। विज्ञान में भारत बिल्कुल चरम पर था।

मैं असली विज्ञान की बात कर रहा हूँ। मैं उस विज्ञान की बात नहीं कर रहा जो कहता है कि जो पुराने भारतीय लोग थे, वो छूकर के ताँबे को सोना बना देते थे। आजकल तो भारतीय वैज्ञानिकता के संबंध में इसी तरह की बात चल रही हैं कि “अरे साहब! यह जो एटॉमिक एनर्जी (परमाणु ऊर्जा) है, ये अमेरिका ने तो अभी खोजी है। हमारे यहाँ, तो आज से दस हज़ार साल पहले भी एटॉमिक एनर्जी थी।”

एक सज्जन आए। तो ये जो अमेज़न (बहुराष्ट्रीय कंपनी) की एलेक्सा (आभासी सहायक तकनीक) है, ये रखी हुई है। तो देखा कि उसको बोला जा रहा है, ‘एलेक्सा , फलाना गाना बजाओ’, तो वो गाना बजा देती है। बोले, “ये कोई चीज़ है! ये चीज़ तो हमारे रामायण, महाभारत में बहुत पहले से मौजूद है। वहाँ तो जिस भी चीज़ को बोला जाता था कि फलाना काम करो, करने लगती थी। ये तो एलेक्सा सिर्फ़ गाने बजा सकती है। हमारे देवता लोग तो पत्थर को बोलते थे, "चल, उड़कर दिखा, पत्थर उड़ने लगता था। तो देखिए, ये सब चीज़ें अमेरिका वगैरह को समझने में अभी वक्त लगेगा। ये सब कुछ नहीं है, ये तो पुराना इंडियन साइंस (भारतीय विज्ञान) है, जो उनको अब धीरे-धीरे समझ में आ रहा है।”

तुम यही बेवकूफ़ी की बातें करते रहो और असली साइंस से कोई मतलब मत रखो। और मैं तुमको बता रहा हूँ, पुराने भारत का असली साइंस से बहुत गहरा मतलब था। भारतीय गणितज्ञों ने जो उपलब्धियाँ हासिल कीं, आप पढ़ेंगे तो दाँतों तले उँगली दबा लेंगे। और मुझे बड़ा ये दुःख रहता है कि आपको पुराने भारतीय गणितज्ञों के बारे में कुछ नहीं पता। आपको नहीं पता इसीलिए ज़माने को भी नहीं पता है।

मैं सातवीं में था। तो हम लोगों को बेसिक लैंग्वेज (भाषा) में फाइबोनोकी सीरीज़) सिखाई गई थी। बिगिनर्स ऑल पर्पज़ सिंबॉलिक इंस्ट्रक्शन कोड (आरंभक हेतु बहुउद्देशीय प्रतीकात्मक निर्देश कोड)। बेसिक एकदम जो कंप्यूटर लैंग्वेज होती है जिससे शुरुआत की आती है, उसमें जो शुरुआती प्रोग्राम हमें लिखने को कहा जाता था, उसमें एक ये भी होता था – जनरेट द फाइबोनोकी सीरीज़ (फाइबोनेकि श्रृंखला बनाएँ)।

और फाइबोनोकी साहब एक इटेलियन (इटली वासी)। हमें पता ही नहीं था कि वो जो फाइबोनोकी सीरीज़ है, वो वास्तव में एक भारतीय द्वारा खोजी गई थी। और ये बात हम नहीं कह रहे, ये बात स्वयं फाइबोनोकी ने कही हुई है, लेकिन हमें उसका नाम भी नहीं पता। वो सब चीज़ें बिल्कुल काल के गाल में समाई जा रही हैं। हम उनको खोज के निकालने की और उनको सम्मान देने की चेष्टा भी नहीं करते।

हम बल्कि इस तरह की बातें करते रहते हैं। अभी आएगी दिवाली, निकट ही है। देखो, नासा (अमेरिकी अंतरिक्ष संस्थान) के एक सेटेलाइट ने ऊपर से भारत की दिवाली के दिन ये फोटो ली है । देखो पूरा भारत कैसे जगमगा रहा है।” तुम पागल हो गए हो? सही-सही बताना तुम्हारे विज्ञान में कितने नंबर आए थे? दसवीं में तुम फेल हुए थे न? ऐसी बातें कोई महामूढ़ ही कर सकता है।

तुम कह रहे हो ये जो चीनी झालरें तुम लगाते हो अपने घरों में, ये नासा के सेटेलाइट को वहाँ से दिखाई दे रही हैं और जगमग-जगमग भारत का नक्शा जगमगा रहा है। तो खूब चलता है और लोग इस तरह की चीज़ें एक-दूसरे को बिल्कुल झनाझन-झनाझन फॉरवर्ड कर रहे हैं । और बड़ा गर्व महसूस होता है। क्या बात है! क्या बात है!

और इस तरह की कोई भी बात तुम्हें सिद्ध करनी होती है, तो नासा को ज़रूर बीच में ले आते हो। किसी दिन नासा तुम पर मुक़दमा ना कर दे, तो देखना। पर किस-किस पर करेगा? यहाँ तो हर मोहल्ले में यही हो रहा है। कुछ तुम्हें सिद्ध करना होता है, 'नासा ने कहा है।'

जो तुम्हारा वास्तविक हीरा है, उसका तुमको कुछ नहीं पता। भौतिकी के क्षेत्र में भारत कितना आगे था, तुमको पता है? और ये बात कोई मैं कल्पना के तौर पर नहीं कह रहा हूँ, एपोक्रिफल , सुनी-सुनाई बात नहीं है, दस्तावेज़ हैं, ग्रंथ हैं। मैं ट्रेडिशन (परंपरा) के तौर पर नहीं बोल रहा हूँ कि ये तो साहब हमारी…एंड यू नो इन द फलानी ट्रेडिशन इट इज़ सेड देट…(और आप जानते हैं फलानी परंपरा में ऐसा कहा जाता है कि…) मैं इस भाषा में बात नहीं कर रहा हूँ। किताबें मौजूद हैं, उनको पढ़ो! और वो किताबें कहीं छुपी हुई नहीं है कि किसी ख़ास गुरुजी के तहखाने में ही मिलेंगी। किताबें लाइब्रेरीज़ (पुस्तकालयों) में रखी हुई हैं। भारतीय विज्ञान निश्चित रूप से बहुत उन्नत था। पर वो, वो नहीं था जैसी तुम अफवाहें उड़ा रहे हो। तुम जो अफवाहें उड़ा रहे हो वो पूरी तरह से अवैज्ञानिक हैं।

मैं इसमें अब तुम्हें क्या समझाऊँ, क्या स्पष्टीकरण दूँ कि पीरियड्स में औरतें अपवित्र हो जाती हैं? क्या बताऊँ मैं? इसमें बोलने को ही मेरे पास बहुत कुछ नहीं है। एक प्रतिशत भी इस चीज़ में सच्चाई नहीं है। हाँ, इतना देखो, ज़रूर है, तुम किसी भी जगह जाते हो और वो जगह अगर तुम्हारे लिए मूल्यवान है, तो इतना करते हो न कि शारीरिक साफ़-सफ़ाई का ध्यान रख लेते हो। वो बात केंद्रीय नहीं है, लेकिन करते हो फिर भी। तो उतना बस कर लिया करो।

उस चीज़ की एक हाइजिनिक वैल्यू (स्वच्छता संबंधी मूल्य) हो सकती है, कोई स्पिरिचुअल वैल्यू (आध्यात्मिक मूल्य) नहीं है। और वो जो हाईजीन को लेकर के वैल्यू है, वो तो चाहे मंदिर जाओ और चाहे अपनी दफ़्तर की मीटिंग में जाओ, चाहे कहीं और जाओ, वो तो हर जगह लागू होती है।

तुम किसी से मिलने भी जाते हो और तुम्हारे जूतों में कीचड़ लगा हुआ है, तो तुम जूते बाहर डोर मेट (पायदान) पर उतार देते हो न। अपने भी घर में आते हो तो जूते लेकर के तुम अपनी रसोई में तो नहीं घुस जाते। ये तो बहुत सीधी-सादी साफ़-सफ़ाई की बात है। इसका कोई आध्यात्मिक कोण बिल्कुल भी नहीं है। साफ़ रहो, सफ़ाई से रहो।

आत्मा का कोई संबंध तुम्हारी देह की किसी गतिविधि से नहीं है। वो भी ऐसी गतिविधि जो तुमने माँगी नहीं, जो तुमने शुरू नहीं की, जिस पर किसी तरह का तुम्हारा कोई नियंत्रण नहीं होता। जिसमें तुम्हारी चेतना का किसी तरह का कोई अधिकार ही नहीं है, कोई किरदार ही नहीं है। एक सहज प्राकृतिक बात है, जैसे पेट में खाने का पचना । ये ऐसी-सी बात है कि कोई कहे कि अगर ठीक से खाना नहीं पचा है, तो तुम मंदिर मत जाओ। प्राकृतिक बात है, भाई! मुझे क्या पता पचा है कि नहीं पचा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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