प्रश्नकर्ता: आचार्य जी कुछ समय पहले यूनाइटेड नेशंस का एक ट्वीट आया था उसमें उन्होंने कहा था कि माँसाहार क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) के प्रमुख कारणों में से एक है इसलिए माँसाहार कम करें। तो यह ट्वीट आया और फिर कुछ घण्टों में या एक दिन के अंदर वो ट्वीट फिर से गायब हो गया। वह ट्वीट इसलिए गायब हुआ क्योंकि मीट (माँस) और डेयरी ऑर्गेनाइजेशन (दुग्ध उत्पादक संस्था) से कुछ दबाव आया था। तो इसका मतलब यह है कि जागरूकता अगर बन भी रही है तो उसको रोका जा रहा है।
आचार्य प्रशांत: साज़िश है! साज़िश है! जागरूकता है, जागरूकता दबाई जा रही है जानबूझकर के। ये साज़िश है। यूनाइटेड नेशन की ओर से ट्वीट आता है कि क्लाइमेट चेंज का प्रमुख कारण माँसाहार है लेकिन तमाम तरह की लॉबीज़ (संगठन) हैं, तमाम तरह के प्रेशर ग्रुप (दबाव समुह) हैं और तमाम तरह की संवेदनाओं को, सेंसिबिलिटी (भावनाओं) को ध्यान में रखना होता है तो फिर उन लोगों ने वो ट्वीट डिलीट कर दी। डिलीट इसलिए कर दी कि, "अरे अरे अरे कहीं मीट इंडस्ट्री (माँस उद्योग) को घाटा ना हो जाए, कहीं लोगों की धार्मिक मान्यताओं को ठेस ना लग जाए, कहीं लोगों की स्वाद लोलुपता को बुरा ना लग जाए।"
यह बात बच्चों को उनकी पाठ्य-पुस्तकों में कक्षा तीन से पढ़ाई जानी चाहिए, कि बिलकुल अगर व्यापक स्तर पर देखो तो क्लाइमेट-चेंज का मूल कारण है — आदमी की जनसंख्या और अगर हमारे कर्मों और चुनावों के तल पर देखो तो क्लाइमेट चेंज का कारण है — माँसाहार। यह बात बताई ही नहीं जा रही है। बहुत बड़ा कारण है। जैसा अभी तुमने बोला कि मीट इंडस्ट्री और डेयरी इंडस्ट्री हैं।
और यह दोनों बिलकुल आपस में जुड़ी हुई इंडस्ट्री हैं। डेयरी इंडस्ट्री हो ही नहीं सकती बिना मीट इंडस्ट्री के। बहुत लोग जो दूध पीते हैं वह सोचते हैं, "हम तो सिर्फ दूध पी रहे हैं।" नहीं साहब, आप सिर्फ दूध नहीं पी रहे, आप माँस भी तैयार कर रहे हो। जिस जानवर का आपने आज दूध पिया है उसी का माँस कल बाज़ार में आएगा।
जानवर इकोनॉमिकली सस्टेनेबल (आर्थिक रूप से फायदेमंद) ही तब हो पाता है उसको पालने वालों के लिए, जब पहले उससे दूध उगाहा जाए और फिर उससे माँस निकाला जाए।
ऐसे समझो कि जब तुम एक गाड़ी लेते हो तो तुम उस गाड़ी से दो तरह के मुनाफे लेते हो, क्योंकि तुमने उस पर पैसा खर्च किया है, तो तुम उससे दो तरह की कीमत वसूलना चाहते हो। तुम कहते हो, "जब तक यह गाड़ी चल रही है तबतक तो मैं इससे यात्रा करूँगा।" यह समझ लो तुमने गाड़ी से दूध दुह लिया, कि, "अभी चल रही है तो मैं इस से यात्रा करता हूँ।"
"और फिर जब यह चलने लायक नहीं रहेगी तब मैं इसे कहीं बेच दूँगा या जब मेरा इससे मन भर जाएगा तो मैं इसे बेच दूँगा। चाहे मैं किसी दूसरे ग्राहक को बेचूँ या कबाड़ी को बेचूँ, जिसको भी बेचूँगा कुछ रीसेल वैल्यू (पुनः विक्रय मूल्य) मिलेगी।" यह तुमने मीट इंडस्ट्री को प्रोत्साहन दे दिया।
तो जैसे तुम गाड़ी से दो-दो तरह की कीमत या फायदे वसूलते हो न, कि, "पहले चलाऊँगा और फिर रिसेल (पुनः विक्रय) से भी तो कुछ पैसा पा जाऊँगा", उसी तरीके से यह जो जानवर पाले जाते हैं वह इसी तरह से पाले जाते हैं कि पहले इनका दूध बिकेगा फिर इनका माँस बिकेगा।
जानवर पालने वाला अगर दूध को एक भाव पर बेच पा रहा है, जो भी दूध का भाव है, वह इसलिए क्योंकि पता है कि अभी आगे चलकर के इस जानवर का माँस भी बिकना है। अगर उस जानवर का माँस बिकना बंद हो जाए तो दूध महँगा हो जाएगा।
इसी तरीके से अगर दूध बिकना बंद हो जाए तो माँस इतना महँगा हो जाएगा कि फिर मीट खाने वालों की आफत आ जाएगी। तो इसीलिए जानवर की हत्या करने में दूध खाने वाले और माँस खाने वाले यह दोनों बिलकुल साथ-साथ चल रहे हैं। बस बात इतनी सी है कि दूध खाने वालों को अभी ये पता ही नहीं है अधिकांशतः कि जानवर के उत्पीड़न में वह भी उत्तरदाई हैं। उनकी भी ज़िम्मेदारी है। वह सोचते हैं, "हम तो सिर्फ दूध ले रहे हैं!"
देखिए वह ज़माने चले गए जब घर की गाय हुआ करती थी कि घर में ही जन्मती थी, घर में ही खाती-पीती थी और फिर घर में ही वह दम तोड़ देती थी। ज़्यादातर लोग जो दुग्ध पदार्थों का इस्तेमाल करते हैं, मुझे बताइए क्या उनकी घर की गाय-भैंस से दूध आता है? अगर उनकी घर की गाय-भैंस से दूध आता है तो मैं उनको अलग रख रहा हूँ, फिर मैं उनकी बात नहीं कर रहा। पर निन्यानवे प्रतिशत लोगों के घर में तो बाज़ार से दूध आता है न? तो उनको पता भी है कि जिस जानवर से उनको दूध आ रहा है, वह दूध किस तरीके से आ रहा है, जानवर का कितना शोषण करके आ रहा है? और जब वह जानवर तुमको दूध देने लायक नहीं रहेगा तब उस जानवर के साथ क्या व्यवहार होने वाला है?
तो दूध को खरीद करके और दूध का लगातार उपभोग कर कर के तुमने जानवर के शोषण को ज़बरदस्त प्रोत्साहन दे दिया है। अब वह जानवर कटेगा आगे। बल्कि वह जानवर कटेगा क्या, वह तो पैदा ही इसलिए हुआ था सिर्फ ताकि तुमको दूध दे सके।
तुम्हें क्या लगता है वह जानवर प्राकृतिक तौर से पैदा हुआ था, नहीं उसको कृत्रिम तौर से ज़बरदस्ती पैदा कराया गया था। गाय का, भैंस का जबरदस्ती गर्भाधान कराया जाता है। एक तरह का बलात्कार होता है वह। ताकि तुम्हारी दुग्ध-पिपासा शांत हो सके। नहीं तो इतने सारे लोग हैं इनको दूध देने के लिए गाय थोड़े ही बहुत तत्पर हैं, कि दुनिया भर की गायों ने संकल्प उठाया है कि आदमी अपनी आबादी बढ़ाता रहे, बढ़ाता रहे — अब आठ-सौ करोड़ आदमी हो गए हैं दुनिया में — और गाय कह रही हैं कि, "इनको दूध देने की ज़िम्मेदारी हम लेते हैं न, हमारी प्रजाति तो है ही इसीलिए कि आदमी अंधाधुंध अपनी आबादी बढ़ाता रहे और हम उसको दूध पिलाती रहें।"
नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। गायों का बड़ा शोषण है। और जिन लोगों को गायों से प्रेम हो, वह पहला काम तो यह करें कि दूध पीने से दूर हो जाएँ। अनजाने में ही सही लेकिन आप पशु-पीड़न का पाप अपने सर ले रहे हैं। खैर यह मुद्दा प्रश्नकर्ताओं के मुद्दे से थोड़ा अलग हो गया लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दा है।
प्र१: आचार्य जी, जो दो प्रश्न आए थे इनमें एक चीज़ मैंने देखी थी इन्होंने पशु उत्पीड़न के बारे में तो बात ही नहीं की, कि जैसे जिस तरह से उन्हें फैक्ट्री फॉर्म्स में रखा जाता है छोटे से केज (पिंजड़े) के अंदर। हमें तो बस उन पशुओं की मृत्यु दिखती है लेकिन उनका जीवन कैसे रहता है वह तो हमें पता भी नहीं। जिस तरह उनको छोटे-छोटे घुटन भरी पिंजरों में रखा जाता है वह तो उनके लिए अत्यंत पीड़ादायक होता है।
आचार्य: यह मुद्दा एक तरफ तो महत्वपूर्ण है, दूसरी तरफ मैं इस बात में एक प्रकार का नैतिक आडंबर भी देखता हूँ, जब कहा जाता है कि जो कटने के लिए जानवर हैं उनके साथ ह्यूमेन ट्रीटमेंट (मानवीय बर्ताव) होना चाहिए। तो यह बात सही भी लगती है मुझे, लेकिन जैसा कहा न कि नैतिक आडंबर से ओतप्रोत भी लगती है।
तुम कह रहे हो कि, "काट तो मैं उसे कल दूँगा ही, पर आज ज़रा उसका ख्याल रख लूँ।" यह क्या बात है? तुम्हें ख्याल रखना ही है तो काटे ही क्यों रहे हो? और कैसा दिल है तुम्हारा कि आज तुम उसका ख्याल रखोगे और कल तुम उसकी छाती में छुरी उतार दोगे? बाकी बात तुम्हारी बिलकुल सही है कि अगर कोई बस एक बार जाकर के देख ले यह जितने बड़े-बड़े मैकेनाइज्ड स्लॉटर हाउस (यांत्रिकत कसाईखाना) होते हैं इनके अंदर, कि किस तरीके से जानवरों की दुर्दशा है।
एक बार कोई जानवर जा रहा हो कटने के लिए उसकी आँख-में-आँख डाल कर देख लें फिर मजाल है कि तुम माँस खा पाओ। यह तो जो डब्बा बंद मीट तुम्हारे सामने आ जाता है, इसके कारण तुम्हें लगता है कि यह तो शायद कोई ऐसी चीज़ है जो किसी मशीन से निकली है या फल जैसी ही है। वह पूरी प्रक्रिया जान लो कि माँस कैसे बन रहा है और जानवर कैसे कट रहा है तो तुम ज़िंदगी में दोबारा माँस खा नहीं पाओगे।
और अभी तो उस तरह का डब्बा बंद मीट सप्लाई करने के लिए हिंदुस्तान में नई नई कंपनियाँ आ रही हैं। ऑनटरप्रेनरशिप (उद्यमिता) के नाम पर यह शुरू किया जा रहा है। “पैकेज्ड मीट (डब्बाबन्द माँस) हम सप्लाई करेंगे बिलकुल स्वादिष्ट, डिलीशियस * ।” धिक्कार है ऐसी * ऑनटरप्रेनरशिप पर। लोगों को और यह भ्रम रहेगा कि देखो यह तो बस हमने डब्बा खोला और जैसे डब्बे से आप तेल निकालते हो, मक्खन निकालते हो, मैगी निकालते हो वैसे ही आपने माँस निकाला और आपने खा लिया। जब आप कम-से-कम सड़क किनारे वाला जो कसाई होता है उसकी दुकान पर लटकते हुए कटे हुए बकरे को देखते हो तो कुछ तो आपको पता चलता है, उस जानवर की वेदना के बारे में।
डब्बा बंद माँस आपके पास आ गया फिर तो और बड़ी सुविधा हो जाएगी कि यह तो बिलकुल पैकेज्ड प्रोडक्ट है बस। और यह सब कुछ हमारे यहाँ पर चल रहा है ऑनटरप्रेनरशिप के नाम पर। नए-नए प्रतिभाशाली एमबीए निकल कर आ रहे हैं और उनका बिज़नेस प्लान यह है कि अब हम पैकेज्ड मीट होम सप्लाई करने वाली कंपनी बनाएँगे। लानत है!
प्र: एक तर्क कई बार आता है उसमें कई लोग कहते हैं कि यह जो ग्लोबल वार्मिंग वगैरह की समस्याएँ हैं यह तो पिछले बीस-तीस-चालीस दशक की समस्या है लेकिन माँस तो कई हज़ार सालों से खाया जा रहा है, तो माँसाहार अभी कैसे ग्लोबल वार्मिंग का कारण हो सकता है। खासकर बंगाली समूह ऐसा कहते हैं।
आचार्य: कई सौ सालों से बंगाल में सती प्रथा भी चलती थी बंद क्यों कर दी बंगालियों ने? यह बेचारी मछली ही इतनी अभागी है कि उसके साथ जो प्रथा सम्बंधित है वह बंद नहीं की जा सकती।
सालों में ही पीछे जाओगे तो जितना पीछे जाओगे उतना आदमी को नंगा पाओगे, तो कहते क्यों नहीं कि कई लाख वर्ष तक आदमी नंगा घूमता रहा आज हम कपड़े क्यों पहन रहे हैं? यह अतीत का हवाला देकर के क्यों कुतर्क करते हैं हम? कि, "पहले भी तो हमारे जो पुरखे-पूर्वज थे जंगली, वह माँस खाते थे तो हम भी खाएँगे।"
वह पुरखे-पूर्वज ना तो स्कूल जाते थे, ना शादी-ब्याह करते थे। जिस स्त्री को पाँच-सात पुरुष मिले तो वो उसी के साथ सहवास कर लेती थी। किसी पुरुष को अपने जीवन काल में आठ-दस स्त्रियाँ मिल गई तो वह उन्हीं से संतानें पैदा कर लेता था। इस तरीके के थे। वह जो जंगल में रहते थे।
और ऐसा भी नहीं है कि वह जंगल में बैठकर अनिवार्य रूप से माँस ही खा रहे थे। इतना नहीं आसान है किसी जानवर को पकड़ कर उसका माँस खा लेना। जानवर भी अपनी रक्षा के लिए तत्पर होता है। और आदमी का शरीर इतना ना तो सुदृढ़ है, ना बलवान है, ना हमारे पास पैने पंजे हैं, ना तीखे दाँत हैं कि हम आसानी से जानवर को पकड़ सकें और खा भी सकें।
यह जितने बकरा-बाज, मुर्गा-बाज हैं इनसे मैं कह रहा हूँ तुम एक मुर्गे को पकड़ कर दिखा दो खुले मैदान में। और फिर बताओ कि हमारे पूर्वज तो मुर्गा ही चबाया करते थे। काहे भाई? कैसे चबा लिया करते थे? आज तो तुमसे वह दौड़ता मुर्गा पकड़ में आ नहीं रहा है, तब मुर्गा जंगल में दौड़ता था बिलकुल खुला, तब तुम्हारे पूर्वज कैसे पकड़ लेते थे मुर्गा?
तो ऐसा नहीं है कि हमारे सब पूर्वज माँसाहारी ही थे। आदमी का जैसा शरीर है हमारे लिए ज़्यादा आसान यही था कि हम फल-फूल, पत्ते वगैरह खाएँ। हाँ बीच-बीच में कोई शिकार लग गया हाथ तो अच्छी बात है। लेकिन कुलाँचे मारते हिरण को तुम रोज़ पकड़कर नहीं खा सकते। तुम से कहीं ज़्यादा कुशल है वह और तीव्र है दौड़ने में।
तो बड़ी बुद्धिहीन किस्म की बातें होती हैं कि पूर्वज तो हमारे सब माँसाहारी ही थे। जैसे कि माँसाहार उनको पत्तल में सजाकर परोसा जा रहा हो कि “लीजिए न साहब, खाइए न।” कहाँ से मिल जाएगा? फल तो बेचारा लटक रहा है पेड़ से, उसको तो तुम तोड़ भी लोगे। मुर्गा थोड़े ही पेड़ पर लटक रहा है कि जाकर तोड़ आओगे। मुर्गा भी कहेगा “अहा! तुम्हारी ही भूख कीमती है? हमारी ज़िंदगी कीमती नहीं है?” वह भाग जाएगा, कैसे पकड़ लोगे?
पूर्वजों की ज़माने की बात कर रहा हूँ, जब न हथियार हैं न औज़ार हैं। कैसे पकड़ लोगे बताओ? तो तब भी आदमी अधिकांशत: शाकाहारी ही था। और अगर थोड़ा सा जो रिसर्च (शोध) हुई है, पुराने आदमी के खानपान में, उसको पढ़ोगे तो यही बात सामने आएगी कि हाँ, अधिकांशत: शाकाहारी ही थे हमारे पूर्वज।
इतना जो माँसाहार हो रहा है आजकल, जानते हो यह प्राचीन काल से नहीं चला आ रहा है। इस भ्रम से बाहर आओ। यह जो इतना माँसाहार हो रहा है यह पिछले लगभग सौ सालों में शुरू हुआ है। पिछले सौ सालों में ही यह भ्रम फैलाया गया है कि माँसाहार से ही प्रोटीन मिलेगा। इंडस्ट्राइलाइजेशन (औद्योगीकरण) हुआ है इसीलिए इंडस्ट्रीलाइज्ड मीट प्रोसेसिंग (औद्योगिक माँस बनने) होने लग गई है, एनिमल एग्रीकल्चर (पशुओं की खेती) होने लग गया है। तो माँसाहार कोई बहुत पुरानी चीज़ नहीं है इतनी। बल्कि इतना व्यापक माँसाहार बस पिछले सौ सालों की बात है और उसके दुष्परिणाम हमें आज भुगतने पड़ रहे हैं।
प्र२: कुछ महीने पहले आचार्य जी एक वीडियो देखा था, बीबीसी का वीडियो था। उस में दिखाया गया एक डॉक्यूमेंट्री था। उसमें एक छोटा सा छौना है और जो उसका मालिक है वह उसको कह रहा है कि इसकी माँ मर गई है और यह हमारे लिए बहुत बड़ी बात है। तो कृत्रिम तरीके से उस छौने का पालन पोषण होता है और बड़ा मार्मिक दृश्य दिखाया गया है। और अंत में पता यह लगा कि वह एक एनिमल हसबेंडरी (जानवर की खेती) का पूरा तन्त्र है। और वीडियो के नीचे लोगों के कमेंट आ रहे हैं कि “वाओ! कितना बढ़िया,” “हाउ लवली * ” और आखरी में जब मैंने वहाँ कमेंट किया कि “हम इस पूरे खेल में समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अंत में वह मरेगा। यह बात ही नहीं की जा रही है। आप कैसे यह कमेंट लिख रहे हो कि ‘वाओ कितना प्यार है'?” तो उसके नीचे काफी लोगों ने पुनः जवाब दिया कि “यह हमारा * ह्यूमेन तरीका है जानवरों को रखने का।” आजकल काफी विज्ञापन आते हैं इंस्टाग्राम पर, कुछ नए ब्रांड आए हैं जो बोल रहे हैं कि “हम बड़े ह्यूमन तरीके से इनका दूध निकालते हैं। गायों को हम बिलकुल स्वतंत्र रूप से मैदानों में घूमने देते हैं। और जो बाकी जानवर हैं उनको भी हम घूमने के लिए छोड़ देते हैं।” और अंत में वो कह रहे थे कि हम उनको बुलेट से एक झटके में ह्यूमेन तरीके से मार देते हैं।
आचार्य: हमें अपनी पाशविक प्रवृत्तियों के मज़े भी लेने हैं और अपनी नैतिकता को भी संतुष्ट रखना है। तो हमें अपनी पशुता दिखानी है पर नैतिक तरीके से। पशुता तो दिखानी ही है पर नैतिक तरीके से। ठीक है? जैसे कि तुम किसी लड़की का बलात्कार करो और उसके बाद उससे कहो कि “यह लीजिए आप एक-लाख रुपए लिजिए। देखिए मैंने यूँ ही नहीं आपका शरीर भोग लिया, मैं आपके साथ बड़ा ह्यूमेन ट्रीटमेंट (मानवीय व्यवहार) कर रहा हूँ।”
तो उसी तरीके का यह काम है कि, "जानवर की हत्या तो मैं करूँगा ही!" उस पर मैं कोई बहस या बातचीत नहीं करना चाहता, मैं बहस इस बात पर कर सकता हूँ कि ह्यूमेन ट्रीटमेंट दो भाई। सारा मुद्दा यह बना लिया है कि उसको काटने से पहले थोड़े बड़े पिंजरे में रखो, खाना-पीना ठीक रखो इत्यादि इत्यादि। मुद्दा यह बना लिया है। यह मुद्दा ही नहीं है कि भाई तुझे उसे पिंजरे में रखना ही क्यों है? इसकी नहीं बात कर रहे।
जैसे कि मुद्दा यह चल रहा हो कि बलात्कार के बाद मुआवज़े के तौर पर एक-लाख देना है कि पाँच लाख देना है। यह बात ही नहीं करना चाहते कि बलात्कार करना ही क्यों है। या कि हत्या के बाद मुआवज़ा दस-लाख देना है कि पचास-लाख देना है। कुल बहस इस बात पर चल रही है कि, "दस या फिर पचास, दस या फिर पचास?" इस बात पर कोई मुद्दा ही नहीं है कि हत्या करनी ही क्यों है।
प्र३: आचार्य जी, जब मैं पशु-वध के तथ्यों को देखता हूँ तो मुझे यह उम्मीद होती है कि पढ़े लिखे लोग भी इसे समझेंगे, लेकिन जब हमारे देश में कुछ समय पहले गाय के माँस पर रोक लगाने की बात की जा रही थी तो यही उच्च-मध्यम वर्गीय और पढ़े लिखे लोग इसका विरोध कर रहे थे और उनका तर्क यही था कि “मेरी थाली में क्या हो यह तो मेरी मर्ज़ी है।”
आचार्य: नहीं फिर तुम यह भी तो बोल सकते हो कि “मेरी गाड़ी काला धुँआ फेंकती है। मेरी मर्जी, मेरी गाड़ी क्या धुँआ फेंक रही है इससे तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?”
तुम्हारी गाड़ी धुँआ मार रही है तो पुलिस तुम्हारा चालान काट देती है, तब तुम क्यों नहीं कहते कि “मेरी मर्ज़ी, मेरी गाड़ी, *माय पर्सनल चॉइस*। मैं ऐसी गाड़ी रखना चाहता हूँ जो धुँआ मारती है।” तब क्यों नहीं कहते?
तो यह बहुत मूर्खतापूर्ण बात है कहना कि, "मैं माँस खा रहा हूँ, मेरी मर्ज़ी!" वह तुम्हारा पर्सनल या प्राइवेट मसला थोड़े ही है। तुमने वह जो अपनी थाली पर रखा हुआ है उससे पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग बढ़ी है। तुम जो खा रहे हो उसका कार्बन फुटप्रिंट ज़बरदस्त है और उससे मेरे ऊपर भी असर पड़ रहा है। तो वह तुम्हारा निजी मसला नहीं है, वह मेरा भी मसला है। मैं तुमसे बात करूँगा और हस्तक्षेप करूँगा। और तुम्हें जवाब देना पड़ेगा कि तुम ऐसा काम क्यों कर रहे हो जिससे दुनिया भर में कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ रही है।
भैया ऐसा थोड़े ही यह है कि तुम अपने एक बंद कमरे में सारा अपना जीवन बिता रहे हो, जहाँ जो कुछ हो रहा है उसका बाकी संसार पर कोई असर नहीं पड़ रहा, तुम जो कुछ कर रहे हो उसका असर मेरे ऊपर पड़ रहा है। ठीक वैसे ही तुम्हारी प्लेट पर रखी मीट का मुझ पर असर हो रहा है। जैसे तुम्हारी गाड़ी से निकलते काले धुँए का मुझ पर असर पड़ रहा है तो यह तुम्हारा पर्सनल मैटर नहीं है। निजी चुनाव, माय चॉइस इत्यादि जुमले उछाल करके बेवकूफी मत करो।
प्र३: एक दूसरा तर्क है जो कुतर्क की तरह इस्तेमाल किया जाता है उन लोगों द्वारा जो थोड़े पढ़े-लिखे भी हैं और शायद माँस खाने की तरफ रुचि भी रखते हैं वह अक्सर कहते हैं कि जो होमोसेपियंस हैं वह अपना विकास ही इसलिए कर पाया क्योंकि वह माँस खाता था।
आचार्य: अब तो बन गए या अभी कुछ और बनना है? अजीब बात है। तुम कक्षा छह से कक्षा सात में जा इसलिए पाए क्योंकि तुमने कक्षा छह की किताब पढ़ी थी तो आज भी पढ़ते रहोगे? अरे, वह अतीत में हो सकता है तुम्हारे लिए लाभकारी रही हो, आज थोड़े ही है, कि आज भी है, बोलो?
तुमने बचपन के दाँत देखी हैं? अपने तुम्हारे आज यह जो बत्तीस दाँत हैं यह आ ही इसीलिए पाए क्योंकि तुम्हारे जो दूध के दाँत थे वह गिरे थे। अरे जो अतीत में हुआ था तुम्हें उसका लाभ मिल चुका, अब वही व्यवहार दोबारा थोड़े ही दोहराओगे।
अतीत के दाँत गिरे थे तो उससे तुम्हें कुछ लाभ मिल गया इसका मतलब यह थोड़े ही है कि तुम आज भी अपने दाँत तोड़ते रहोगे। तो यह तर्क हो सकता है अपने-आपमें सही भी हो कि भाई अतीत में माँस खाने के कुछ लाभ मनुष्य को मिले हों। यह शोध का विषय है, शोधकर्ता ही बता पाएँगे। हो सकता है नुकसान भी हुआ हो लेकिन अगर लाभ मिले भी थे तो पहले मिले थे। आज तुम्हें क्या ज़रूरत है? और आज तो तुम माँस खा कर के अपने ही ग्रह, अपने ही घर, इस पृथ्वी का सर्वनाश किए दे रहे हो, आज की बात करो न। पहले क्या हुआ था वह पहले की बात है, खत्म किस्सा। अभी का बताओ।