प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या माँस-मदिरा, तंबाकू आदि का यदा-कदा सेवन करना गलत है? मैंने सुना है रामकृष्ण, विवेकानंद, जीज़स आदि मांसाहारी थे, और बुद्ध ने भी प्राकृतिक मौत से मरे जानवरों का माँस खाने के प्रति आपत्ति नहीं की है। तो क्या माँसाहार अध्यात्म में बाधक है? यदि बाधक है तो मुक्ति का उपाय बताएँ।
आचार्य प्रशांत: कल मैं पढ़ रहा था पुल्लेला गोपीचंद की बैडमिंटन अकैडमी के बारे में। तो जो लेख था, उसने कहा कि कई अच्छे खिलाड़ी जैसे साइना नेहवाल, पुरुषों में पी. कश्यप आदि जब गोपीचंद के पास आए थे तब वो शाकाहारी थे, और भी कई नाम थे जो जब आए थे तो शाकाहारी थे। गोपीचंद ने उनको तर्क देकर, समझाकर, आदेश देकर माँस खिलाया, और गोपीचंद के पास तर्क हैं, शायद साक्ष्य भी हों, प्रमाण भी हों कि माँस खाने से लाभ होता है। उन्होंने कहा — “प्रोटीन तो मिलता ही मिलता है, लोहे की भी पूर्ति होती है। तैयारी करते समय जो भीतर की माँसपेशियाँ फटती हैं, उनकी जल्द-से-जल्द मरम्मत हो जाए, इसके लिए आपको माँस चाहिए।” वह सब बातें ठीक होंगी। होंगी ही, क्योंकि उनका लाभ शायद खिलाड़ियों को मिला है।
तो पहली बात तो हमें ये स्वीकार करनी होगी कि यह जो शरीर है, इसे माँस से कोई आपत्ति नहीं है। जो अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि माँसाहार शरीर के लिए ही बुरा है, ऐसी कोई बात वास्तव में है नहीं। आप उन देशों की ओर देखें, उन समुदायों की ओर देखें जो करीब-करीब शत-प्रतिशत माँसाहारी हैं। आप पाएंगे कि वहाँ के लोगों के शरीर लंबे हैं, चौड़े हैं, सुदृढ़ हैं, चमकती हुई उनकी त्वचा है, दमकते हुए उनके चेहरे हैं और वो रोज़ ही माँस खाते हैं। माँस ही उनके लिए रोटी-सब्ज़ी है। तो शरीर को तो कोई आपत्ति होती दिखती नहीं। शरीर तो बल्कि हर्ष मनाता है कि माँस मिला। माँस मिला, अंडा मिला — शरीर तो मस्त हो जाता है। तो यह हुई शरीर की बात। शरीर माँस के साथ प्रसन्न है। शरीर नहीं कुछ कह रहा।
जो अक्सर तर्क दिया जाता है कि माँस खाओगे तो शरीर में यह समस्या आएगी, वह समस्या आएगी, उस तर्क में बहुत जान है नहीं। अगर माँस खाने वालों का और शाकाहारियों का औसत जीवनकाल देखा जाए तो हो सकता है कि जो माँस खाते हैं, उन्हीं का औसत जीवनकाल ज़्यादा मिले। उसमें और भी कई बातें शुमार होंगी, कई कारण शामिल होंगे, लेकिन फिर भी ये बात ज़ोर देकर कह पाना कि माँस खाओगे तो शारीरिक समस्याएँ आ जाएँगी, ज़रा मुश्किल है। ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
अब आते हैं बुद्धि पर — सात-आठ सौ से ज़्यादा नोबेल पुरस्कार दिए जा चुके हैं। नोबेल पुरस्कार जिन लोगों को मिलता है, अगर आप उनकी गढ़ना करेंगे तो उसमें आप पाएंगे कि 90% से अधिक क्या हैं?
प्रश्नकर्ता: माँसाहारी हैं।
आचार्य जी: माँसाहारी ही हैं। तो ऐसा लगता है कि बुद्धि को भी आपत्ति नहीं है, माँसाहार से। गणितज्ञ, वैज्ञानिक, लेखक, राजनीतिज्ञ, अनुसंधानकर्ता सब माँस खा रहे हैं और सबकी बुद्धि भरपूर चल रही है। तो माँस ऐसा भी नहीं है कि बुद्धि पर छा जाता है और बुद्धि को कुंद कर देता है। बड़ी-से-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ उन जगहों पर ही हुई हैं जहाँ पर माँस खाया जाता है। तो बुद्धि को भी कोई आपत्ति नहीं है। बुद्धि भी नहीं कहती कि माँस मत खाओ। बुद्धि भी कहती है — खाओ। तो शरीर भी खुश है ,बुद्धि भी खुश है।
अब कोई तर्क आपके पास बचता है क्या माँसाहार के विरुद्ध? तर्क कहाँ है कोई?
मैंने दूध पीना छोड़ा, मेरे शरीर में विटामिन बी-12 का स्तर गिरने लग गया। खतरे के निशान तक पहुंचने लग गया। फिर गोलियां दी गईं। ख़ैर, फिर मैंने उसको किसी तरीके से संभाल रखा है, वो ठीक चल रहा है। तो शरीर तो दूध माँग ही रहा था। शरीर को कोई प्रसन्नता नहीं हुई मैंने दूध छोड़ा तो। शरीर के तल पर कोई तर्क नहीं है माँसाहार के खिलाफ या दूध पीने के खिलाफ। आप किसी की हत्या करके उसका खून पियो, शरीर तो खुश ही हो जाएगा। और भूल जाओ दकियानूसी बातें कि पाप लगता है, कर्मफल चढ़ता है, कुछ नहीं — तुम जीवन भर जानवरों को मारते रहो, खाते रहो। तुम मिट गए, जानवर मिट गए। तुम्हारी हँसते-खेलते 80-90 साल की उम्र में मौत हो गई, तुम्हें और क्या चाहिए?
जो कुछ तुम हो, जो कुछ तुम अपनेआप को समझते हो, वह तो मौत के साथ मिट ही जाना है — खेल ख़तम। और खेल में तुम मस्त रहे, तुम्हारा खेल हँसते-खेलते बीता; विजयी रहे तुम खेल में। आप जानवरों का ही नहीं, इंसानों का क़त्ल कर-कर के खाएँ, आप पाएंगे आपका शरीर और तंदरुस्त होता जा रहा है। तो तर्क तो कोई नहीं है, क्योंकि तर्क जहाँ से आना है वह खुद माँस से पोषण पाती है — कौन?
बुद्धि।
माँसाहार के खिलाफ कोई तर्क नहीं है। जो लोग तर्क के आधार पर शाकाहारी होना चाहते हों, मैं उनसे कहूँगा — "आप छोड़ें शाकाहार", क्योंकि जिन तर्कों के आधार पर आप यह जीवनशैली अपना रहे हैं, वह तर्क बहुत दिन चलेंगे नहीं। हाँ, बिना तर्क के अगर तुम्हें माँस से ग्लानि उठती हो, तो दूसरी बात है। तर्क कोई नहीं है, कारण कोई नहीं है। बिना तर्क के छोड़ना चाहो, बिना कारण के छोड़ना चाहो तो बात दूसरी है।
मारने के कारण बहुत हैं, न मारने का कोई कारण नहीं है। बिना कारण के भी अगर लगे कि — “नहीं, मारना नहीं है, भले ही अपना नुकसान हो जाए। और मेरा नुकसान है, मुझे यह दिख रहा है। दूध नहीं पी रहा हूँ तो है मेरा नुकसान, पर पियूँगा नहीं।” बिना कारण के न पीना चाहो तो बात दूसरी है।
बिना कारण के जब तुम किसी का शोषण नहीं करना चाहते, तो उसे ‘करुणा’ कहते हैं।
और कारणबद्ध होकर, जब तुम किसी का शोषण नहीं करते, तो वह सिर्फ़ ‘व्यापार’ है। वहाँ तुमने बस हिंसा को स्थगित कर दिया है, छुपा दिया है। तुम कह रहे हो — “अगर हिंसा करी, तो कुछ नुकसान हो जाएगा, इस कारण हिंसा नहीं कर रहा हूँ”।
'करुणा' दूसरी चीज़ है। करुणा जान रही है कि हिंसा कर भी ली तो नुकसान नहीं होना है, फायदा ही होना है — शरीर पुष्ट होगा। हिंसा कर भी ली तो कोई नुकसान नहीं होना है — शरीर पुष्ट होगा, बुद्धि भी बलवती होगी और कहीं कोई चित्रगुप्त बैठकर हिसाब-किताब नहीं लिख रहा है कि तुमने कितने मुर्गे खाए, कि कितने बकरे काटे कि कितने जीवों को परेशान किया। हर तरीके से लाभ है, नुकसान कोई नहीं। जो नुकसान बताया जाता है, वह काल्पनिक है। कोई पाप-वाप सर नहीं चढ़ता। पाप सर चढ़ता होता तो दुनिया में रोज़ करोड़ों-अरबों जानवर कट रहे हैं। कितना बड़ा है पाप का घड़ा जो भर ही नहीं रहा? कोई पाप नहीं चढ़ता, किसी को नहीं चढ़ता। माँस खाने वाले मस्त हैं — मस्त हैं, फल-फूल रहे हैं, उन्हीं की दुनिया है, उन्हीं का राज है।
बिना कारण तुम पाओ कि तुम असहाय हो, तुमसे खाया जाता ही नहीं — इसलिए नहीं कि तुम संस्कारित हो, इसलिए नहीं कि तुम्हें माँस से बदबू आती है, इसलिए नहीं कि घिना जाते हो — बल्कि इसलिए कि तुम बर्दाश्त ही नहीं कर पाते हो कि तुम्हारी ज़बान के लिए, तुम्हारी सेहत के लिए, तुम्हारे स्वाद के लिए किसी का गला कटा। तुम नहीं बर्दाश्त कर पाते। तुम्हें यह बात जंचती ही नहीं कि कोई जीव चल रहा था, फिर रहा था, और तुमने पकड़ कर उसकी गर्दन मरोड़ दी। तुम उसकी आँखों में देखते हो, तुम कहते हो — “तेरा शरीर दूसरा है लेकिन तेरी आँखें बिलकुल मेरे जैसी हैं। कुछ है तेरी आँखों के पीछे, जो बिलकुल वही है जो मेरी आँखों के पीछे है।” फिर तुम कहते हो — “यार, भूख तो बहुत लगी है और मुझे पता है इसका माँस सेहतमंद भी है — स्वास्थ्यवर्धन होगा मेरा अगर मैं इसको अभी मारकर खा जाऊँ — पर खा पाऊँगा नहीं, चाहूँ तो भी तो नहीं खा पाऊँगा”, तब तुम माँस छोड़ना, अन्यथा नहीं। और तब माँस छोड़ने के लिए तुम्हें मेरी सलाह की ज़रूरत नहीं, क्योंकि तब माँस छोड़ना तुम्हारी आत्मिक विवश्ता बन जाएगी। कोई होगा तुम्हारे भीतर जो तुम्हें खाने ही नहीं देगा। बात खाने की नहीं है, बात मारने की है।
भारत में बहुत समय तक माँस को गंदा बोला गया — मलेच्छों का भोजन है, निम्नवर्ग का भोजन है, इत्यादि इत्यादि। “कुत्ता खाता है माँस” — ऐसा बोला गया। यह कोई तर्क नहीं है। गंदा तो सब कुछ है। मिट्टी के नीचे से तुम कितनी सब्जियाँ निकालते हो, वह गंदी नहीं हैं क्या? ‘माँस गंदा है’, यह तर्क नहीं चलेगा। गंदा है तो साफ कर दिया जाएगा। आज साफ करने की बहुत वैज्ञानिक विधियाँ मौजूद हैं।
माँस न खाने के लिए तो ‘दिल’ चाहिए। ऐसा दिल जो हत्या स्वीकार ही न करता हो।
जो देखे मुर्गे की तरफ और कहे — “यार, तू जी। मैं नहीं मार सकता तुझे, तू जी। ऐसा नहीं है कि तुझे मार पाने की ताकत नहीं मेरी। तेरी बिसात क्या है? नन्हा सा जीव है। मुझे एक पल नहीं लगेगा तेरा काम-तमाम करने में। पर नहीं मारुँगा। भूखा बहुत हूँ पर तुझे मारूँगा नहीं।” बस ऐसा ‘दिल’ हो आपके पास, तो बात दूसरी है। अन्यथा कोई तर्क नहीं है।
(एक कटाक्षपूर्ण हंसी के साथ) आप मारे जाओ जीवों को, सेहत बढ़ती रहेगी। कितने लोगों का उपचार है भई — माँस। ठीक है, माँस खाने से कई रोग होते भी हैं, पर कई रोग जाते भी हैं। अब वो बात तो फिर दाल-सब्ज़ी, सबके साथ लागू होती है। मूंग की दाल खाने से भी कई रोग बढ़ते हैं। अगर आप यह तर्क देते हो कि माँस खाने से ये-ये रोग होते हैं, तो ऐसे तो आलू खाने से भी कई रोग होते हैं। और माँस का उपयोग तो प्राचीन किताबों में भी औषधियों के रूप में है।
तो वो सारी बातें व्यर्थ हैं।
बस जब ‘दिल’ न करे मारने का, तब जान लेना कि माँस मेरे लिए नहीं है। जब चेतना इतनी ‘सजग’ हो जाए कि देखें माँस के टुकड़े को और ज़हन में कौंध जाए कि यह ‘जीव’ है — खाद्य पदार्थ नहीं है, वस्तु नहीं है, ‘चीज़’ नहीं है।
थोड़ी देर पहले इसमें लहर थी, उत्कंठा थी, ‘प्राण’ थे। यह चहक रहा था, यह ‘जीना’ चाहता था, इसे घास पर कूदना था, खेलना था, इसे साँस लेनी थी, इसे आसमान की ओर देखना था। जैसे बच्चे खेलते हैं, वैसे ही यह खेल रहा था, और मैंने इसके गले पर छुरी चलाई है। छुरी चलाने का क्षण समझते हो? किसी को भी मरते हुए देखा है? किसी की गर्दन काटी गई — उसे मरते हुए देखा है कैसे धीरे-धीरे आँखों से ज्योति बुझती है? इधर गले से लहू की धार बह रही है, दिल अभी धड़क रहा है, खून बहुत ज़ोर से बहता है, और उधर आँखें धीरे-धीरे निष्प्राण हो रही हैं, रोशनी बुझ रही है। और वह कह रहा है — “मुझे अभी जीना है। मुझे अभी जीना है।” और ये बात भावनाओं की नहीं है, भावनाएँ तो बदल जाती हैं। ये कुछ और है। वो ‘कुछ और’ है तुम्हारे पास अगर, तो तुम्हारा माँस खुद ही छूटेगा। और अगर तुम सिर्फ शरीर और बुद्धि हो, तो माँस के पक्ष में तर्क बहुत हैं। मैं उन तर्कों को काट नहीं सकता। तुम खाए जाओ।
शरीर हो तुम — तो खाए जाओ माँस, शरीर को भला लगेगा। मन हो तुम — तो खाए जाओ माँस, बुद्धि तीव्र होगी। खाए जाओ। हाँ, ‘कुछ और’ हो अगर तुम — तो फिर बात करने की ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि फिर तुम जान जाओगे कि जो तुम हो, वही वह है जिसकी हत्या करना चाहते हो। तुमसे की नहीं जाएगी।
पर बड़ी आफ़त है उस स्थिति में। उस स्थिति में ऐसा नहीं है कि तुम जानवर को ही नहीं मार पाओगे, फिर पत्ती तोड़ते हुए भी बुरा लगेगा। हाँ, वही है कि फिर जो थोड़ी देर पहले हम बात कर रहे थे न — “प्रकृतिगत इच्छाओं की”, कि बस उतना करोगे कि यह जो जीव है, यह जो शरीर है, यह चलता भर रहे — तब तुम यह भी नहीं चाहोगे कि कोई पौधा उखाड़ कर उसको खा जाओ। तुम कहोगे — “इससे कुछ स्वतः मिलता हो, फल इत्यादि, तो बढ़िया है, नहीं तो जान लेने का मन तो हमारा पौधों का भी नहीं करता।” उस स्थिति में आफ़त ही आ जाती है। व्रत इत्यादि मत उठा लेना कि ‘करुणा’ से ओत-प्रोत होना है, वह बड़ी ख़तरनाक चीज़ है, फँसा देती है। वो जिसमें उठती है, उसी में उठती है। वो वरदान भी है, अभिशाप भी है।
देखो, अभी इन्हीं की बात कर रहे थे — तुम जैसे-जैसे संतों को देखोगे, वैसे-वैसे पाओगे कि वह तो इस पक्ष में भी नहीं थे कि खाने के उद्देश्य से कोई पौधा लगाया जाए। तुमने चावल की बात करी है (लिखित प्रश्न को इंगित करते हुए), चाहे वो चावल हो, चाहे गेहूँ हो — उसको लगाया ही इसीलिए गया है, रोपा ही इसीलिए गया है कि ये बड़ा हो, इसमें दाने आएं। फिर दाने हम इससे तोड़ लें और उसके बाद इसको उखाड़ कर फेंक दें। यही करते हो न तुम — चावल, गेहूं, ज्वार-बाजरा के साथ क्या करते हो? उसको रोपते क्यों हो? रोपते ही इसी उद्देश्य से हो कि ये तो बड़ा हो, फिर उसमें दाने आएं और फिर इसकी कटाई हो जाए।
तो वह इतना कर लेते थे कि वृक्षों से फल ले लेते थे। और तमाम तरह के फल ले लिए, तरकारी ले ली। बहुत तरह की सब्जियाँ आती हैं, उनमें वृक्षों को कोई नुकसान नहीं होता। बल्कि उनके लिए अच्छा रहता है — तुम खाते हो तो उनके बीज फैल जाते हैं। वृक्षों का भला होता है। वह कहते हैं, “चलो, हमारे बीज कहीं और पहुंचे, वहाँ पर एक नया पेड़ तैयार हो जाएगा”। तुम नहीं पाओगे कि उपनिषदों के ऋषि खेती कर रहे हैं कि — “चलो भाई, दाल की फसल खड़ी करनी है, कि गन्ना खड़ा करना है”। यह नहीं पाओगे। आश्रमों में वृक्ष होते थे, जंगल होते थे, जाओ जंगलों से जो चाहिए ले लो। जंगल उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे।
तो जिन्हें नहीं मारना, वो नहीं मारेंगे। वो जानवर क्या, वो पौधे को भी नहीं मारेंगे। और अस्तित्व उनके निर्वाह के लिए जितना चाहिए उतना आसानी से दे देता है। पर फिर कह रहा हूँ — यह बातें नकल करने की नहीं हैं। तुममें जितनी संवेदना होगी, उसके अनुसार तुम्हारा जीवन स्वतः हो जाना है। जानते रहो बस। आँख खोल कर जियो। सारी आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है जीवन के सहज अवलोकन से। सब जाना जाता है। पता होना चाहिए तुम्हें कि कुछ पहन रहे हो, तो वह कहाँ से आता है।
देखते नहीं हो, कई उत्पादों पर प्रतिबंध लग जाता है। वह उत्पाद बड़ा बढ़िया है, पर प्रतिबंध क्यों लग जाता है फिर? — कि वो कंपनी अमेरिकन है और उसका कारखाना बांग्लादेश में था, और बांग्लादेश में बाल श्रम से उस उत्पाद का निर्माण होता था। (उदाहरण देते हुए) जूतों का जो ब्रांड है, वो यूरोपियन है, पर उसकी फैक्ट्री कहाँ थी? इंडोनेशिया में। और फैक्टरी में क्या चल रहा था? बाल श्रम, चाइल्ड लेबर। तो उस उत्पाद पर प्रतिबंध लग जाता है। तो ये आपने क्या किया? आपने कहा कि मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह जूता कहाँ से आता है, किस प्रक्रिया से होकर आता है। ठीक वैसे ही अपने खाने को भी तो देखो न। आपकी मेज़ पर जो रखा है, आपकी थाली में जो रखा है, वह कहाँ से आ रहा है? वह चीज़ क्या है? आप तो चिकन ऐसे बोलते हो जैसे फैक्ट्री से निकलता हो। ‘जीव’ है भाई वो, पक्षी है, मुर्गा है — तुम उससे बात कर सकते हो, तुम उससे दोस्ती कर सकते हो, उसकी आँखें हैं, उसकी चेतना है, उसे अच्छा लगता है, उसे बुरा लगता है, वह कभी बच्चा होता है और सब बच्चों की तरह वह भी क्रीड़ा करता है, फिर वह बड़ा होता है, उसे भी गुस्सा आता है, वह भी कभी थक के शांत होता है, वह भी कभी दौड़ा लेता है, वह भी बुरा मानता है, वह भी ठिठोली करता है।
अजीब बेवकूफ़ी है, तुमने के.एफ.सी. का वो लोगो देखा है — मुर्गा अपना माँस देने आ रहा है आपको और इतना खुश लग रहा है। अरे होश में आओ भाई, देखो कि कैसे कटता है मुर्गा — खुश नहीं होता है वो। उसकी आँखों को देखो जब उसके प्राण जा रहे होते हैं। अभी एक दुकान के सामने से गुजरा था, तो वहाँ एक खिलौना रखा हुआ था। खिलौना क्या था? गाय एक ट्रॉली लेकर चली आ रही है और ट्रॉली में दूध की बोतलें भरी हुई हैं। गाय ने अपने अगले दो पाँव उठा रखे हैं और उनसे वह एक ट्रॉली लेकर चली आ रही है, और ट्रॉली में क्या भरी हुई हैं? गाय के ही दूध की बोतलें। और गाय बड़ा राज़ी-खुशी आपको अपना दूध देने आ रही है। तुम चाहते हो कि बच्चे जब दूध की बोतल देंखें तो वो ईमानदारी से पूछें नहीं कि यह दूध की बोतलें किस प्रक्रिया से आती हैं। तुम यह खिलौना दिखा कर बच्चों को भ्रमित करना चाहते हो ताकि बच्चे जब दूध की बोतल देखें तो उन्हें लगे कि गाय तो स्वतः ही, स्वेच्छा से अपना दूध तुम्हें दान करती है। क्यों झूठ बोलते हो?
जैसे देखते हो कि — जूता कहाँ से आ रहा है, उसके पीछे बाल श्रम तो नहीं है? वैसे ही बच्चों को देखना सिखाओ, पूछें वो — “यह दूध कहाँ से आता है, हम समझना चाहते हैं। हम अपनी आँखों से देखेना चाहते हैं। हमें जाँच-पड़ताल करेंगे। हमें देखना है कि गाय को कैसा लग रहा है जब यह दूध निकाला जा रहा है। गाय के बछड़े का क्या हो रहा है। हम पूरी प्रक्रिया समझेंगे। यह गौपालन चीज़ क्या है।”
तुम्हारे हाथ में तो बनी-बनाई चीज़ आ जाती है, बना-बनाया उत्पाद — “यह लीजिए साहब, चिकन बिरयानी, कढ़ाई चिकन।” उसके पीछे का तुम्हें कुछ दिखाई नहीं देता। इतने मूर्ख हो? ऐसे अंधे? और ठीक है, शरीर कब कह रहा है कि तुम मूर्ख न रहो, अंधे न रहो? तुम्हें कुछ नहीं दिखाई देगा, तो भी शरीर तो चौड़ा होता ही जाएगा। और वही आज का उच्चतम आदर्श है — एक चौड़ा शरीर। वो हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि माँस नहीं खाओगे तो शरीर बनेगा नहीं। हजारों उदाहरण हैं इसके विपरीत भी — वो तुम्हें दिखा देंगे कि बिना माँस के, बिना दूध, बिना हिंसा और शोषण के भी पहलवानी की जा सकती है। लेकिन ज़रा मुश्किल पड़ती है, यह हमें मानना पड़ेगा। माँस के साथ ज़रा आसानी हो जाती है।
प्रश्नकर्ता: तर्क के तल पर तो हर प्रकार के तर्क मिल जाएंगे।
आचार्य जी: तर्क ज़्यादा हिंसा के पक्ष में ही मिलेंगे, और वो तर्क ठीक भी हैं। उन तर्कों में कोई खोट नहीं है। आप डॉक्टरों के पास जाइए और आपको कोई भी कमज़ोरी हो, वो पहली चीज कहेंगे— “लीजिए, साहब आप वाइट मीट खाइए। वो बिलकुल ठीक ही है, कोई दिक्कत ही नहीं है। अभी लीजिए।” वो डॉक्टर है, उसको पढ़ाया क्या गया है ज़िंदगी भर — शरीर। तो अपनी ओर से वह ठीक ही राय दे रहा है। उसने जीवन भर माँस का ही तो कारोबार देखा है। डॉक्टर और कसाई, दोनों में एक समानता होती है — क्या?
प्रश्नकर्ता: माँस।
आचार्य जी: दोनों ने जीवन भर क्या देखा है — माँस। एक ज़िंदा माँस को मुर्दा माँस बनाता है, दूसरा मुर्दा हो रहे माँस को चैतन्य रखता है। लेकिन दोनों हैं तो माँस के ही क्षेत्र में। तो चिकित्सक अगर आपसे बोले कि चलो कल से अंडा खाना शुरू करो, तो इसमें हैरत की क्या बात है? वह ठीक ही कह रहा है। आपको उसपर क्रोधित भी नहीं होना चाहिए। वह अपना फ़र्ज़ निभा रहा है। अब यह तो आपके ऊपर है कि आपको शरीर ही देखना है या आप शरीर के आगे भी कुछ हो।
प्रश्नकर्ता: कैनोपी पर एक ऑटो वाले से मुलाकात हुई। ऐसे ही बात चली तो उन्होंने बोला कि कई साल हो गए माँस छोड़े हुए, पहले बहुत खाता था। बस एक दिन पता नहीं क्या लगा, क्यों लगा और छोड़ दिया। उसके बाद कभी नहीं खाया। कारण पता भी नहीं है।
आचार्य जी: वही बात है न, शाकाहार के जितने पैरोकार हैं, वह सब हारते रहे हैं। लोगों ने बड़ी कोशिशें की हैं — माँसाहारियों को तर्क द्वारा समझाने की। माँसाहारियों के सामने लोग जाते हैं और तर्क देते हैं — “देखो, माँस मत खाओ, इससे तुम्हें ये बीमारी हो जाएगी। कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। दिल की बीमारी हो जाएगी। लीवर पर दबाव पड़ेगा। माँस मत खाओ।” और जितने आप तर्क देते हो, दुनिया में माँसाहार उतना बढ़ रहा है। तर्क से नहीं समझा पाओगे। किसी के हृदय में प्रेम जागृत कर पाओ तो दूसरी बात है।
माँसाहार छोड़ने का कारण कभी ‘तर्क’ नहीं बनेंगे; माँसाहार छोड़ने का कारण तो सिर्फ़ ‘करुणा’ बनेगी, ‘प्रेम’ बनेगा। जिसके दिल में प्रेम जग गया, बस उसे माँस से जुगुप्सा हो जाएगी।
वह प्रेम बड़ी अलौकिक बात होती है — वह तर्क से नहीं आएगा। वो किसी को विवश कर के नहीं आएगा। वो समझा-समझा के नहीं आएगा। आप बड़े तर्क दे लो, कोई दो महीने नहीं खाएगा, फिर एक दिन पहुँच जाएगा। वो तो जब एक दूसरी ‘लौ’ जगती है हृदय में, तब आदमी का पूरा जीवन ही बदलता है। बहुत कुछ छूटता है, उस बहुत कुछ के साथ माँस भी छूट जाता है। और अगर वह सब कुछ नहीं छूटा है जो अज्ञान की परिणति है, सिर्फ़ माँस छूटा है, तो माँस भी बहुत दिनों तक छूटा नहीं रहेगा। कोई बीमारी आएगी और आप माँस खाने लग जाओगे या कि माँस छूटा भी रहेगा तो वह बड़ी सतह-सतह की बात होगी। सतह-सतह पर तो आप शाकाहारी होगे, भीतर-भीतर आप में खूब हिंसा होगी।
शाकाहार तभी सार्थक है जब वह आत्मज्ञान से फलित हो; संस्कारगत आया हुआ शाकाहार बड़ा व्यर्थ है। पहली बात तो बहुत दिन चलता नहीं। माँ-बाप शाकाहारी होंगे, बच्चे को बड़े संस्कार देंगे कि बेटा खाना मत। तो वह घर में नहीं खाएगा। बाहर से ऑमलेट खाकर आएगा, फिर मुँह धो लेगा। सिगरेट पिएंगे, कुछ भी खाएंगे — चिकन मोमो, उसके बाद लिस्ट्रीन — मम्मी को पता ही नहीं चला। कितने दिन चलेगा ये सब?
ब्राह्मणों को, जैनों को देखिए, बड़े संस्कार हैं माँस न खाने के, और उनके बच्चे को देखिए — घूम रहे हैं, बकरे में पूरा मुँह डाल दिया है अपना। भैंसे के अंदर घुसे हुए हैं। ताज़ा खाना है, हेल्दी फ़ूड — “कच्चा भैंसा”। यह ब्राह्मणों और जैनों के हाल हैं, जिन्हें खून में संस्कार मिले होते हैं शाकाहार के। ‘शर्मा’ झटका कॉर्नर! तो मैं न तो संस्कारों वाले शाकाहार की बात करूँगा, न तर्कों वाले शाकाहार की बात करूँगा। संस्कारों वाला शाकाहार चल भी गया तो नकली है। बहुत घूम रहे हैं ऐसे बाभन-पंडित जो माँस-मच्छी, अंडा कुछ नहीं खाते और भीतर-ही-भीतर हिंसा से भरे हुए हैं। वो बेकार है। और न मैं तर्कों वाले शाकाहार की बात करूँगा क्योंकि शाकाहार के खिलाफ़-ही-खिलाफ़ तर्क हैं। उसके पक्ष में बहुत कम तर्क हैं। मैं तो उस शाकाहार की बात करूँगा जो ‘अतार्किक’ है, ‘अकारण’ है। पता नहीं कहाँ से आता है। वह जहाँ से आता है उसे परमात्मा बोलते हैं, आत्मा बोलते हैं, सत्य बोलते हैं। वह जब उठता है तो उस अवस्था को ‘प्रेम’ बोलते हैं, ‘करुणा’ बोलते हैं।
प्रेम फैले, करुणा फैले, माँस का सेवन अपनेआप हट जाएगा। और कोई रास्ता है भी नहीं। अपने से आगे का कुछ दिखना चाहिए। इसी को तो कहते हैं न ‘अध्यात्म’, मुझसे आगे भी कुछ है। परमात्मा कौन? जो ‘बियॉन्ड’ है, जो ‘पार’ है। जो तुमसे आगे का है। जब तुम्हें अपने से आगे का कुछ दिखता है तो जानते हो तुम क्या कहते हो? तुम कहते हो — “हो सकता है कि माँस खाने से मैं पाँच साल ज़्यादा जीता, पर मेरे दैहिक जीवन से आगे भी तो कुछ है न”। यहाँ ‘आगे’ से अर्थ ये नहीं कि मरने के बाद भी कुछ है। आगे से अर्थ है कि मेरे दैहिक जीवन से ज़्यादा महत्वपूर्ण भी तो कुछ है न। ठीक है! कम जी लेंगे। नहीं खाया मुर्गा, हो सकता है पाँच साल कम जिएँ। जी लेंगे पाँच साल कम।
इस ज़िन्दगी से ज़्यादा कीमती कुछ और है — इसी को अध्यात्म कहते हैं। इस जिंदगी से ज़्यादा कीमती कुछ और है। नहीं खाएँगे माँस, नहीं पीएँगे दूध। कम जी लेंगे, ठीक है। हो सकता है माँसपेशियों में थोड़ी ताकत कम रह जाए, कोई बात नहीं, पर मारेंगे नहीं। इस जिस्म से ज़्यादा कीमती कुछ और है। क्या नाम है उसका? हम नहीं जानते। उसका कोई नाम नहीं होता है। कहाँ होता है वो? कैसे देखा जाता है? कैसे उसकी कीमत लगाएँ? कुछ नहीं कह सकते, वह निराकार है। कीमत कुछ नहीं है, अमूल्य है। झेल लेंगे नुकसान। इस नुकसान से आगे कुछ और है।
जब आदमी कहता है — “तैयार हूँ नुकसान झेलने को पर मारूँगा नहीं। तेरा नुकसान नहीं कर सकता, भले ही हमारा नुकसान हो जाए। मारूँगा नहीं, भले ही मर जाऊँ। मुझसे बड़ा है कुछ।” यह जो आगे की बात है — यही अध्यात्म है, यही प्रेम है, यही करुणा है।