माँ-बाप तुम्हारी ही तरह आम हैं, उनसे विशिष्टता की उम्मीद अन्याय है || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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माँ-बाप तुम्हारी ही तरह आम हैं, उनसे विशिष्टता की उम्मीद अन्याय है || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्नकर्ता: सर, माँ-बाप कहते हैं, “पढ़ो! पढ़ो!”, तो वो बोलते हैं कि, "तुम्हारे लिए ही तो बोलते हैं!" लेकिन ऐसा लगता है जैसे वो अपने लिए ही बोलते हैं। कहीं-न-कहीं उन ही का उद्देश्य रहता है कि ये हो जाए, वो हो जाए। वो खेलता रहता है, खुश रहता है तो कहतें हैं कि तुम खेलते रहते हो, पढ़ने पर तुम्हें ध्यान नहीं है। अभी तक माँ बोलती हैं- “तुमको इतना हम लोगों ने सोचा था। तुमने उस समय इतना महनत नहीं की। और तुम जो मन में आता है वही करती हो। बात नहीं सुनी, देखो ये फल है। ऐसे रहता तो ऐसे होता।” तो पहले मुझे लगता था मैंने ही कहीं गलती करी, मैं नहीं सुनती हूँ। लेकिन अब मुझे लगता है कि कहीं-न-कहीं उन्हीं की महत्वाकांक्षाएँ हैं जो बच्चों को बोलते हैं “पढ़ते रहो! पढ़ते रहो!” उनको चिन्ता हो जाती है जब बच्चे पढ़ते नहीं हैं तो। जब वो खुश रहते हैं, खेलते रहते हैं – चिंता हो जाती है, "बच्चा खुश क्यों है!" लगता है कोई परेशानी है कि खेल रहा है तो। उसे परेशानी नहीं है तो आपको क्या परेशानी है?

आचार्य प्रशांत: यहाँ कुछ माएँ भी बैठी हुईं हैं, उनसे पूछो कि क्या परेशानी है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र१: नहीं, नहीं, हमें बुलाते हैं न जब रिपोर्ट कार्ड के लिए डाँट पड़ती है माँ को! बाप तो जाते नहीं हैं!

प्र: नहीं, मैं ऐसा कोई माँ को ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल रही हूँ। ये है कि थोड़ा समझने का मौका देना चाहिए कि बच्चा भी क्या करना चाहता है। उसको भी समझना चाहिए। हो सकता है कि वो ज़्यादा ही पढ़े! इतना ज़ोर देने से खुद ही नहीं पढ़ेगा!

आचार्य: आप तो इतनी अपेक्षा कर रहे हो। आपके मन में एक धारणा बैठी हुई है। आप सोच रहे हो कि माँ-बाप ख़ास होते हैं। माँ-बाप क्या हैं? साधारण व्यक्ति ही तो हैं। उन्होंने जीवन में और नहीं समझा जब तो बच्चों को कैसे समझ लेंगे?

माँ-बाप क्या हैं? देखो! जब तुम बेटा या बेटी हो करके देखते हो तो तुमको हमेशा ऐसा लगता है कि माँ-बाप माने पता नहीं क्या! और शाहरुख़ खान ने तुमको बताया है कि ख़ुदा खुद नहीं आ सकता इसलिए उसने माँ भेज दी है। तो तुमको ऐसा लगता है कि माँ-बाप हैं तो माने कोई विशिष्टता होनी चाहिए। अब मैं कह रहा हूँ माँ-बाप होने से विशिष्टता क्या आ जाएगी?

प्र२: विशिष्टता ख़त्म ही हो जाती है!

आचार्य: नहीं! आप जो हो वैसे ही तो रहोगे न? आपके शरीर से प्रक्रिया हो गई, कुछ महीनों की बात है, आपने एक बच्चा पैदा कर दिया। जो की कोई बड़ी बात नहीं है। ये तो प्रकृति ने ही तैयार कर दिया है आपके शरीर को। उसके कारण क्या आपके भीतर समझ पैदा हो जाएगी? आप तो जो हो वही रहोगे!

प्र२: सर, माँ-बाप तो रग-रग पर दौड़ने लगते हैं। मैं ऐसा बोलती हूँ तो ऐसा लगता है मेरी माँ बोल रही है अंदर से। मुझे ऐसा लगता है कि प्रतिक्रिया तो मेरी माँ देती है। मेरी ऐसी नेचर नहीं है।

आचार्य: वो तो होता ही है। ये भी पता नहीं, इसमें भी बड़ी मज़ेदार बात है। बेटा, बाप जैसा बने न बने, बेटी को माँ की कॉपी बनना पक्का है। मेरे साथ एक था, उसकी शादी होने का समय आया तो जब वो लड़की देखने जाता था, वो लड़की में उसकी कोई रूचि ही नहीं होती थी। वो बोलता था, “माँ कहाँ हैं? माँ कहाँ है?” बोलता था – “पाँच-दस साल बाद ये बिलकुल माँ के जैसी हो जाएगी। अभी जो इसने ये रूप धरा है न ये तो मुझे धोखा देने के लिए है। असली रूप देखना है! माँ दिखाओ माँ!”

और ये होता ही है। वो जो लड़की है वो पूरी माँ की ट्रू-कॉपी बनेगी। दिखेगी भी वैसे ही – “लड़की पैंतालीस किलो की, माँ पंचानवे किलो की! अरे बाप रे! ऐसी होगी!”

तो शादी अगर करनी हो तो देखना कि लड़की की माँ से तुम्हारी पटती है कि नहीं। ये बिलकुल पक्की बात है।

प्र२: सर, मैं माँ का बहुत विरोध करती हूँ, बहुत बातों पर। लेकिन मैं देखती हूँ कि घूम-फिरकर के मैं बहुत सारी परिस्थितियों में उन्हीं के जैसे बन जाती हूँ।

आचार्य: बेटा, इसलिए ही बन जाती हो न क्योंकि तुमने उनके साथ अन्याय कर रखा है। बच्चे भी माँ-बाप के साथ बड़ा अन्याय करते हैं। बच्चे सोचते हैं कि माँ-बाप ख़ास हैं। अब ख़ास वो हैं नहीं। तुमने अपेक्षा कर ली कि वो ख़ास हैं। तुम ये क्यों नहीं मान सकते कि वो साधारण स्त्री-पुरुष हैं? बच्चे होंगे वो स्कूल-कालेज में – “नारा लगाएँगे कि ये है, वो है, आम-आदमी पार्टी, भ्रष्टाचार का विरोध करो! सब भ्रष्टाचारी हैं। भारत देश में निन्यानवे-प्रतिशत लोग घूस लेते हैं।” अब ये निन्यानवे-प्रतिशत लोग कौन हैं जो घूस लेते हैं? बच्चों ने ये पूछा नहीं! कौन हैं?

प्र३: मेरे माँ-बाप को छोड़कर!

आचार्य: हाँ! मेरे माँ-बाप छोड़ कर सारा भारत घूस लेता है। उसको दिखता ही नहीं कि उसका बाप तो घूसखोर है। और सबके बाप घूसखोर हैं। उसको ये दिखता ही नहीं कि उसकी माँ कितनी बड़ी धूर्त-स्त्री है। अब इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। मतलब पूरा समाज ही धूर्त है, तो माँ भी धूर्त है। उसमें क्या हो गया? कोई आरोप नहीं लग रहा है। माँ-बाप कोई समाज से हटकर हैं? जब पूरा समाज ही भ्रष्ट है तो माँ-बाप भी भ्रष्ट हैं। पर तुम ख़ास मान लेते हो। ये अन्याय है। तुम ये क्यों मान लेते हो कि माँ-बाप में कोई विशिष्टता है जब पूरा समाज ही बहका हुआ है, भटका हुआ है? माँ-बाप भी भटके हुए हैं। और उनको ऐसे ही देखोगे – “अरे! अरे! बेचारे, भटके हुए ही तो लोग हैं!” जैसे पड़ोसी भटके हैं, वैसे माँ-बाप भी भटके हैं। चाहते हो तो थोड़ी मदद कर दो। अगर वास्तव में एक उचित सम्बन्ध है तो माँ-बाप की मदद करो न! ये आरोप क्यों लगाते हो कि माँ-बाप होकर भी ये ऐसा कर रहे हैं?

प्र२: सर, उनपर आरोप नहीं है। मैं…

आचार्य: नहीं, मैं ये बात समझ रहा हूँ। पर हर बच्चे के मन में ये शिकायत होती है कि, "मेरे माँ-बाप ने मुझे कभी जाना नहीं! समझा नहीं! मेरे साथ ऐसा-वैसा!" मैं उस बच्चे से ये पूछना चाहता हूँ कि क्या उसके माँ-बाप ने कभी अपने आप को जाना? जब उन्होंने अपने आप को नहीं जाना तो बच्चों को कैसे जान लेंगे? बच्चे हैं ये हमारे; “माँ-बाप ने हमसे ये गलत निर्णय करवा दिया। हम इंजीनियरिंग नहीं करना चाहते थे, हमसे इंजीनियरिंग करवा दी।” मैं उस बच्चे से पूछ रहा हूँ कि उसके माँ-बाप ने क्या अपनी ज़िन्दगी में क्या अपने लिए कभी सही निर्णय लिए? अरे, जब उनमें क्षमता ही नहीं है सही निर्णय लेने की, जब वो अपनी ज़िन्दगी में अपने लिए सही निर्णय नहीं ले पाए, तो तुम्हारे लिए कैसे ले लेंगे?

बेवक़ूफ़ तुम हो कि तुमने उनके दिए हुए निर्णय मान लिए!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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