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मा विद्विषावहै ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: गुरु और शिष्य जब आमने-सामने बैठे हैं देह रूप में तो है तो दोनों जीव हीं। बस एक जीव है जिसकी चेतना ऊँचाई पा चुकी है और उन ऊँचाइयों से अपने द्वारा पाए गए अमृत को बिखेरना चाहती है, नीचे वालों पर उड़ेलना चाहती है ताकि जो नीचे हो वो भी ऊपर आ सके। चेतना की ऊँचाई की एक अनिवार्य निशानी होती है सद्भावना, करुणा, प्रेम। जो ऊँचा उठ गया उसके पास कोई विकल्प ही नहीं रह जाता; उसे नीचे की ओर हाथ बढ़ाना ही पड़ता है- नीचे वाले को ऊपर खींचने के लिए यही ऊँचाई की पहचान है। जो ऊँचे पहुँच गया हो और निचाई को त्याग दे, निचाई से कोई मतलब ही न रखे उसकी ऊँचाई बड़ी निजी है, बड़ी व्यक्तिगत क़िस्म की है इसलिए बड़ी सीमित और बड़ी छुद्र है।

तो बैठे हैं गुरु और बैठे हैं शिष्य और दोनों एक साथ प्रार्थना कर रहे हैं क्योंकि जो ऊपर पहुँची हुई चेतना है वो भी अभी अपने आपको अभिव्यक्त तो किसी जीव के माध्यम से ही कर रही है। वो चेतना है तो किसी जीव की ही। ऊँची है पर है वो अभी भी इस पार्थिव दुनिया की ही। उसने अभिव्यक्ति के लिए जो माध्यम, जो करण चुना है वो देह ही है और देह दोषों का घर होती है। बात भले ही ऊँची से ऊँची कही जा रही हो लेकिन कही तो एक देहधारी मनुष्य के द्वारा ही जा रही है न? उसकी देह के ही माध्यम से। देह न हो तो उपनिषदों की भी अभिव्यक्ति हो नहीं पाएगी। एक दैहिक, पार्थिव गुरु चाहिए न जो बैठा हो आपसे बात करने के लिए। नहीं तो मौन से, और शून्य से, और निराकार से कैसे बात कर लोगे? आ रही है बात समझ में?

तो गुरु को पता है कि बहुत ऊँचे स्थान पर विराजता है वो लेकिन उसको ये भी पता है कि अभी वो जो चुनौती उठा रहा है, जो सहायता करने का बीड़ा उठा रहा है वो बहुत ख़तरों से भरा हुआ खेल है। क्योंकि नीचे वाले का हाथ थाम पाने के लिए ऊपर वाले को भी कई बार झुकना पड़ता है, पहली बात। जो नीचे है उसका हाथ थामना है तो ऊपर वाले को झुकना पड़ेगा और दूसरी बात जिसका आप हाथ थाम रहे हो उसे ऊपर उठाने के लिए, वो आसानी से तो राज़ी होता ही नहीं है ऊपर उठने के लिए। जब वो ऊपर उठने के लिए राजी नहीं होता तो जो झुका हुआ है, कई बार उसे और झुकना पड़ता है और जो नीचे वाला है चूँकि आप उसकी मदद करने के लिए झुक रहे हो इसीलिए ये संभावना होती है कि नीचे वाले के अड़ियलपने पर ज़िद्द पर और मूर्खता पर, गुरु को क्रोध भी आ जाए। बहुत सम्भावना है! कहानी पूरी समझ पा रहे हो?

देखो वेदों को कहते हैं अपौरुषेय माने वहाँ जो बात कही जा रही है वो पार्थिव नहीं है, वो किसी व्यक्ति माने पुरूष की अपनी निजी बात नहीं है, वो बात बहुत दूर की, बहुत आगे की, आसमानों की है, पृथा की, पृथ्वी की है ही नहीं। तो इसीलिए वेदों को कहते हैं अपौरुषेय कि वहाँ जो बात हो रही है वो किसी इंसान की अपनी बात नहीं हो रही है ये ऊपर से उतरी है बात। बात उतरी भले ही ऊपर से होगी लेकिन सामने जो शिष्य बैठा है वो तो बड़ा ज़मीनी है न? उससे बात करने के लिए कौन चाहिए? उससे बात करने के लिए चाहिए उसी के जैसा कोई पार्थिव व्यक्ति, ज़मीनी व्यक्ति। आसमानों से कोई आयी होगी बात,अमृततुल्य होगी लेकिन वो बात कही जाएगी इस मृत्तिका के पिंड द्वारा ही। ये एक अजब बात है कि अमृत बरस रहा है लेकिन किससे? मिट्टी के, मृत्तिका के पुतले से तो एक ओर तो जो बात है वो अमृततुल्य है, दूसरी ओर जो उस बात को कह रहा है वो अभी भी मिट्टी का ही पुतला है; मिट्टी का ही पुतला है पर ऊँची चेतना रखता। जिसको वो समझा रहा है उसको समझाने में बड़ा दम लगता है क्योंकि जो नीचे बैठा है वो यूँ ही नीचे नहीं बैठा है, जो नीचे बैठा है वो मिट्टी को, ज़मीन को, बिल्कुल ज़िद्द के साथ पकड़ के बैठा है। तो औपनैषदिक काल से आज तक गुरुओं का ये अनुभव रहा है कि शिष्यों को समझाना आसान नहीं है- टेढ़ी खीर है। बहुत दफ़े ऐसा हुआ है कि शिष्य को समझाने निकला है गुरु; शिष्य तो कुछ समझा नहीं, गुरु भी अपनी समझ भूल गया। शिष्य तो ऊपर ऊठा नहीं गुरु ऊपर से नीचे आ गिरा तो बहुत व्यवहारिक शान्ति पाठ है यहाँ पर।

शांति पाठ कहता है ओ परमात्मा! ओ आसमानी! ओ परमपिता! तेरी बात यहाँ होने जा रही है गुरु के माध्यम से और तेरी बात पहुँचने जा रही है शिष्य तक तो अब तेरे ही ऊपर दायित्व है कि अपने माध्यम की भी रक्षा कर, उसका माध्यम कौन है? गुरु। परमात्मा का माध्यम कौन है? गुरु। अपने माध्यम की भी रक्षा कर और अपने प्रार्थी की भी रक्षा कर। शिष्य की प्रार्थना है परमात्मा से तो परमात्मा सगुण रूप में गुरु बनकर प्रकट होता है। गुरु क्या हुआ? माध्यम। शिष्य क्या हुआ? प्रार्थी। लेकिन जो माध्यम है, भले ही वो परमात्मा का माध्यम है लेकिन है तो (ये अब तीसरी-चौथी बार कह रहा हूँ) वो पार्थिव ही न? ज़मीनी ही है? तो गुरु भी अपने-आपको किसी ग़लतफ़हमी में नहीं रख रहा है। गुरु भी शिष्य के साथ प्रार्थना कर रहा है परमात्मा से। कह रहा है- हम दोनों को ही बचाना क्योंकि अब यहाँ पर जो घटना घटने जा रही है वो दोनों के लिए ही बड़ी चुनौती-पूर्ण घटना है।

गुरु को अपनी ऊँचाई से नीचे झुकना है, और नीचे झुकना कभी भी प्रिय घटना नहीं होती। जो ऊपर आनंद की ऊँचाईयों पर बैठा है, जो अपने अकेलेपन, अपने कैवल्य को, अपने आनंद को, अपने अमृत को पा चुका है उसको ये बहुत सुहाता तो नहीं है कि जो नीचे बैठे हुए हैं- अज्ञानी लोग, उनकी ख़ातिर वो अपनी ऊँचाईयाँ छोड़कर नीचे आए, उनसे बात करे, उनके सामने बैठे, उनका हाथ थामे, उन्हें समझाए, उनकी नादान जिज्ञासाओं का बार-बार हल बताए, उसको बहुत अच्छा लगता नहीं है। जो ऊपर बैठा है उसको ये नहीं अच्छा लगना कि उसको नीचे आकर के क्यों अपनी शान्ति भंग करनी है? और जो नीचे बैठा है उसको ये नहीं अच्छा लगना कि क्यों उसको ऊपर खींचा जा रहा है।

जो नीचे बैठा है वो किसी वजह से नीचे बैठा है न? क्या वजह है? कि उसे नीचे ही मज़ा आने लगा है, उसने नीचे ही बसेरा कर लिया है। वो कहता है- यहाँ नीचे ही बढ़िया मामला हमारा अब तय हो गया है- भाँति-भाँति के राग-रंग हैं, सुख हैं-सुविधाएँ हैं, नशे हैं, अंधेरे हैं हमें उनकी आदत लग गयी है। तो वो नीचे ही प्रसन्न है। नीचे वाले को ऊपर उठाओ तो नीचे वाले की प्रसन्नता ख़राब होती है और ऊपर वाला जब नीचे वाले को उठाने के लिए नीचे आता है तो ऊपर वाले का भी आनंद टूटता है तो क्षोभ तो दोनों में ही आना है। बात समझ मे आ रही है?

गुरु को क्षोभ इस बात का लगना है कि अच्छा-खासा मैं ऊपर बैठा था, शिखर की ऊँचाइयों पर इन पगले शिष्यों के लिए मुझे बार-बार अपना आनंद खंडित करके नीचे आना होता है और नीचे आओ तो ये कैसे-कैसे तो सवाल पूछते हैं? कैसी-कैसी ज़िद्द करते हैं? कैसे-कैसे बहाने और झूठ बताते हैं? मुझे ही धोखा देते हैं। मैं इनकी ख़ातिर नीचे आता हूँ, प्रेमवश और ये मुझसे ही चालाकियाँ करते हैं, तो जो गुरु है उसको ये द्वेष पैदा हो सकता है। शिष्य को तो द्वेष पैदा होगा ही कि ये गुरु अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझता है, बार-बार हमारी ही खोट निकालता रहता है, ख़ुद तो न जाने कौन-से आसमान पर बैठा है, ज़मीन के व्यवहार का इसको कुछ पता ही नहीं और नीचे आकर के हमसे अजब-गजब बातें करता है कहता है, "तुम्हारा ये झूठा है, इस चीज़ की नेति-नेति करो, ये छोड़ो, मोह त्यागो, बंधन त्यागो, मुक्ति में बड़े आनंद हैं।" हमें ये बातें ही इसकी पसंद नहीं आती। तो शिष्य में भी द्वेष उठता है गुरु के ख़िलाफ़ तो आरंभ में ही प्रार्थना की जाती है कि हे परमात्मन! आप हम दोनों की ही रक्षा करें। गुरु की भी, शिष्य की भी। आप हम दोनों का ही पालन करें, आप हम दोनों को ही शक्ति दें क्योंकि दोनों को ही शक्ति की ज़रूरत पड़ने वाली है। गुरु को भी क्रोध आने वाला है और शिष्य में भी गुरु के प्रति दुर्भावना आने वाली है, हम दोनों की विद्या प्रखर हो और हम दोनों एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या और द्वेष न करें, हे शक्ति सम्पन्न! हमारे त्रिविध तापों का शमन हो। अक्षय शांति की स्थापना हो। बात समझ में आ रही है?

गुरु को अपनी गुरुता बचाए हए भी शिष्य के तल पर आना है और शिष्य को अपने तल के सुखों की परवाह न करते हुए गुरु के साथ ऊपर जाना है। चुनौती घनी है दोनों के लिए। गुरु अगर शिष्य के तल पर आ गया पूरी तरह से तो वो गुरु कहाँ रहा? और शिष्य के तल पर आना ज़रूरी है, अगर शिष्य से सम्वाद करना है, अगर शिष्य का हाथ थामना है तो गुरु की चुनौती समझो। गुरु का संकट समझो- उसको अपनी गुरुता भी बचानी है और शिष्य के आगे आ कर भी बैठ जाना है क्योंकि अगर वो ऊपर ही बैठा रह गया पहाड़ों पर, ऊँचाइयों पर तो शिष्य से उसकी बातचीत ही नहीं हो पाएगी, इतनी दूरी है, उसकी आवाज़ ही नहीं पहुँचेगी शिष्य तक। नीचे आना है फिर भी ऊपर का बने रहना है ये गुरु की चुनौती है और शिष्य की क्या चुनौती है? नीचे कितना भी रस-रंग रहा हो, अब गुरू सामने आकर बैठ गया है तो कुछ ध्यान से बात समझनी होगी और जो बात समझ में नहीं भी आए उसके प्रति थोड़ी श्रद्धा रखनी होगी, द्वेष कितना भी उठे संयम रखकर गुरु की बात पर भरसक अमल करने की कोशिश करनी होगी तो ये मनोविज्ञान हुआ गुरु और शिष्य के रिश्ते का जिसको शांति पाठ आरंभ में ही संबोधित कर देता है।

फिर आती है बात तापत्रय की। तीन तरह के ताप बताए गए हैं- आधिभौतिक, आधिदैविक, और अंततः आध्यात्मिक। इनके भाँति-भाँति के अर्थ किए जाते हैं। मेरी दृष्टि में इनका जो अर्थ है वो मैं कहे देता हूँ समझिएगा। जो तीन कष्ट हमें सताते हैं उनको उपनिषदों के ऋषियों ने इन तीन तरीकों से देखा था- वो कष्ट जिनका कारण आपको ज्ञात ही है माने वो कष्ट जिनका संबंध आपके चैतन्य जगत से है, ज्ञात जगत से है, उनको कहा गया आधिभौतिक कष्ट माने आपको पता है कि आपको तकलीफ़ हो रही है तो क्यों हो रही है। उदाहरण के लिए कोई आपका पैसा लेकर भाग गया, आपको कष्ट हो रहा है। समझ में आ रही है बात?

आपका अन्न का भंडार था, चूहे आकर आपका अन्न चट कर गए, आपको कष्ट हो रहा है। आप जानते हो कि आपको जो तकलीफ़ हो रही है वो क्यों हो रही है। जहाँ आपको ज्ञात कारणों से तकलीफ़ हो रही है, उस कष्ट को कहते हैं आदि भौतिक कष्ट। यहाँ पर कष्ट का कारण ज्ञात है। आप विचार कर सकते हो कष्ट के कारण के बारे में, चैतन्य रुप से आप अब विचार कर सकते हो, तो ज्ञात क्षेत्र में आता है कष्ट।

फिर कुछ कष्ट होते हैं जिनका कारण अज्ञात होता है। अज्ञात होता है क्योंकि आपके पास क्षमता नहीं है, आपकी इंद्रियों के पास, आपके विचार के पास, आपकी सामर्थ्य इतनी नहीं है कि आप कारण का ठीक-ठीक पता लगा सको हालांकि अगर आपकी क्षमता बढ़े तो आप पता लगा भी सकते हो पर आपको अभी नहीं पता ऐसे कारणों को कहते हैं आदिदैविक। उदाहरण के लिए कोरोना महामारी फैली हुई है, अभी आप ठीक-ठीक जानते नहीं हो वायरस के बारे में सबकुछ तो अभी इस वायरस के कारण आपको जो कष्ट हो रहा है ये कहलाएगा आदिदैविक। आप कहोगे ये जो हो रहा है ये दैव है। दैव माने संयोग। लेकिन साल भर बाद आप ये नहीं कहोगे कि ये आदिदैविक है। साल भर बाद आपको जो कष्ट हो रहा है वो क्या बन जाएगा? आदिभौतिक क्योंकि संभावना यही है कि साल भर बाद हम इतना शोध कर चुके होंगे कि हमें इस वायरस के बारे में, इसके प्रोटीन के बारे में, भीतर ये किस तरीके के एँजाइम पैदा कर देता है, क्या प्रतिक्रियाएँ करता है ये सब हम भलीभाँति जान चुके होंगें। लेकिन ऐसा नहीं है कि तब हमें कष्ट नहीं होगा कोरोना से। वायरस हो सकता है तब भी रहे, कम लोगों में रहे, कम घातक हो जाए, वैक्सीन आ जाए लेकिन वायरस तब भी रहेगा। तब अगर किसी को इस वायरस से कष्ट होता है तो उसको हम क्या बोलेंगे? वो आदिभौतिक कष्ट होगा। अभी वो क्या है? आदिदैविक कष्ट। इसी तरीके से साहब, अचानक वर्षा हो गई या सूखा पड़ गया। समझ में आ रही है बात? ये सब कौन से कट कहलाएँगे आदिदैविक क्योंकि इनके कारण अज्ञात हैं।

आदिभौतिक जो ज्ञात कारणों से होते हैं, आदिदैविक जो अज्ञात कारणों से कष्ट होते हैं फिर एक तीसरा कष्ट भी होता है जिसका कारण न ज्ञात है न अज्ञात है। अज्ञात कारण भी वो है जिसका हमें पता नहीं लेकिन जिसका पता चल सकता है सैद्धांतिक तौर पर। आज नहीं तो कल हम पता लगा लेंगे कि कारण क्या था। एक कष्ट ऐसा होता है जिसका कारण पता लगने की कोई संभावना ही नहीं होती, बड़ा अबूझ, बड़ा अपरिचित होता है वो कष्ट, अज्ञेय होता है वो कष्ट। उसके कारण में जो बैठा हुआ है उसके बारे में कुछ जाना ही नहीं जा सकता वो कहलाता है आध्यात्मिक कष्ट। वास्तव में अध्यात्म है ही बस उनके लिए जिन्हें आध्यात्मिक कष्ट की अनुभूति होनी शुरू हो गई हो।

भाई तुमको आदिभौतिक कष्ट अगर हो रहा है, सिर्फ आदिभौतिक तल पर तुम्हारा कष्ट है तो अध्यात्म तुम्हारी क्या सहायता कर लेगा? और तुम्हें अध्यात्म फिर चाहिए ही क्यों? यही वजह है कि दुनिया के ज़्तयादार लोग अध्यात्म की ओर उन्मुख नहीं होते क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक कष्ट होना अभी शुरू ही नहीं हुआ है। आध्यात्मिक कष्ट क्या है? एक अजीब-सा दर्द जो बना रहता है। कोई पूछे क्यों है तुम्हें ये दर्द? पैसा नहीं है? सुख नहीं है? खाना नहीं है? नींद कम मिल रही है? सहूलियतें कम हैं? तुम कहोगे, "नहीं ये सब तो वजह नहीं है; जितना ज़रूरी है उतना पैसा है, दोस्त-यार हैं, परिवार है, घर है ऐसी तो कोई चीज़ है नहीं जिसकी कमी हमें विशेषकर अखरती हो।" तो कहेंगे अगर सबकुछ है तुम्हारे पास, कोई तकलीफ़ है क्या? कोई बीमारी लग गई है? नहीं बीमारी तो हमें कुछ नहीं है, जवान आदमी हैं, बढ़िया मस्त। तो फिर क्यों तुम बेचैन-उदास रहते हो? नहीं पता नहीं; पर यूँ ही बस मन बुझा-बुझा-सा रहता है। ये आध्यात्मिक कष्ट है। बिल्कुल अकारण।

समझिएगा मैं उस कष्ट की बात नहीं कर रहा हूँ जिसका कारण आपको पता नहीं। वो तो होता है अज्ञात जो आपको पता नहीं। मैं उस कारण की बात कर रहा हूँ जो न सिर्फ आपको पता नहीं है बल्कि वो पता हो भी नहीं सकता क्योंकि वो कारण विचारणीय नहीं है क्योंकि वो कारण विचार की पकड़ में आएगा नहीं। वो कारण अंदरूनी नहीं है। आप कहे, "नहीं साहब! वो कारण अंदरूनी है इसलिए दिखाई नहीं दे रहा।" ना! वो कारण अंदरूनी नहीं है। अंदरूनी कारण भी हो तो, आप न पकड़ पा रहे हो, कोई और पकड़ लेगा, कोई बहुत होशियार आदमी होगा, वो आपसे बातचीत-छानबीन करेगा और बता देगा कि अंदर-अंदर आपके ये कारण है मैं उन कारणों की बात नहीं कर रहा। आध्यात्मिक कारण होता है जैसे कि कहीं कोई चोट नहीं है बिल्कुल फिर भी दर्द हो रहा हो। न बाहर चोट है न भीतर चोट है दर्द लेकिन फिर भी बना रहता है। दर्द को हम नाम क्या दें हमें ये भी नहीं पता है। चिकित्सकों को दिखाते हैं वो कहते हैं कहीं कोई चोट है ही नहीं, तुम्हें दर्द क्या बताएँ? ये होती है आध्यात्मिक पीड़ा। जिसको ये आध्यात्मिक पीड़ा उठने लगे मात्र उसके लिए अध्यात्म होता है।

आदिभौतिक के लिए अगर तुमको उपाय करना है तो जाकर पैसा वगैरह कमा लो भाई! आदिभौतिक कष्ट का मतलब होता है कि कोई भौतिक वस्तु नहीं है मेरे पास उसके कारण मुझे तकलीफ़ हो रही है। आदिदैविक कष्ट अगर तुमको हो रहा है तो थोड़ा ज्ञान का इस्तेमाल करो, खोजबीन करो, जानकार लोगों से मिलो, वैज्ञानिकों से मिलो, उनको बोलो कि ये-ये तकलीफ़ है, कारण अज्ञात है। वो अपने ज्ञान का इस्तेमाल करके कारण तुम्हारे लिए खोज देंगे। भाई जब तुम एक डॉक्टर के पास जाते हो तो यही तो बोलते हो- कि दर्द हो रहा है पेट में इधर लेकिन कारण अज्ञात है, वो चिकित्सक तुमको कहता है कि जाओ फलाने टेस्ट करा कर आओ। तुम उसकी रिपोर्ट लेकर आते हो, वो तुम्हें बता देता है कि आप के दर्द की ये वजह है साहब! लो! जो अज्ञात कारण था वो ज्ञात हो गया तो वहाँ भी तुमको अध्यात्म की कोई ज़रूरत नहीं है। वहाँ पर तो तुमको तुम्हारे क्षेत्र के किसी विशेषज्ञ की जरूरत है।

अध्यात्म और उपनिषद उनके लिए हैं- जिन्हें आध्यात्मिक दर्द उठता हो। जिन्हें जिंदगी में किसी चीज़ की कमी न हो लेकिन कमी फिर भी हो, अध्यात्म उनके लिए है। लेकिन अब हम फँस गए। हम फँस इसलिए गए क्योंकि उपनिषद तो कह रहा है अध्यात्म से त्रिविधतापों का नाश होता है, तीनों तापों का नाश होता है। अरे! अभी-अभी तो हम बता रहे थे कि अध्यात्म से नाश होता है- आध्यात्मिकत ताप का लेकिन उपनिषद ने क्या बोला है? उपनिषद ने कहा कि तापत्रय माने तीनों तरह के तापों का निवारण हो जाता है अध्यात्म से। तो ये क्या बात हुई? ये बात ये हुई कि बाकी दोनों दर्द महसूस होने ही बंद हो जाते हैं उसको जिसको आध्यात्मिक दर्द उठने लग गया। जिसको आध्यात्मिक ताप उठने लग गया उसको बाकी दोनों ताप मूल्यहीन लग जाते हैं क्योंकि आध्यात्मिकत ताप इतना प्रबल होता है कि उसके आगे बाकी सारे दर्द बिल्कुल हल्के-फीके, मूल्यहीन हो जाते हैं। आदमी उनको तवज्जों, मूल्य देना बिल्कुल बंद कर देता है। बात समझ में आ रही है?

आध्यात्मिक ताप में इतनी शक्ति होती है, वो इतना विकराल होता है। तो अगर आध्यात्म ने आपके आध्यात्मिक ताप का शमन कर दिया तो बाकी दोनों तापों को मूल्य देना तो आपने पहले ही, तब ही बंद कर दिया था जब आपको आध्यात्मिक ताप उठा था। ऐसे कह दो- जिसको आध्यात्मिक ताप उठ गया उसका आध्यात्मिक ताप ही उसके बाकी दोनों तापों को जला देता है माने आध्यात्मिक ताप उठा नहीं कि आदिभौतिक और आदिदैविक ताप अपने आप नष्ट हो गए। इसीलिए ये जो दर्द होता है परमात्मा का इसको हाथ पसार के, आंचल फैला के, रो-रो के, गा-गा के भीख में माँगा जाता है।

संतो ने यही करा है वो बोलते हैं तू मुझे अपना दर्द दे दे, तेरा वाला(ऊपर की ओर इशारा करते हुए) दर्द चाहिए क्योंकि जिसको वो दर्द मिल गया उसको बाकी सब दर्द महसूस होने बंद हो जाते हैं और वो दर्द विकराल ज़रूर है पर जिनको हो जाता है उनको बहुत मीठा भी लगने लगता है। वो कहते हैं दुनिया के सब सुख-सुविधाओं से अच्छा है ओ परमात्मा! तेरा दर्द। सब सुख-सुविधाएँ एक तरफ़, तेरा दर्द एक तरफ़। हम सबकुछ बेच करके तेरी वाली तकलीफ़ ख़रीद लेंगे। उसकी जो तकलीफ़ है वो दुनिया के सब दुखों का इलाज है, तो उसकी तकलीफ़ लगी नहीं कि बाकी दोनों ताप तो अपनेआप मिट गएँ और उसके ताप को कौन मिटाता है? आध्यात्मिक ताप को कौन मिटाता है? अध्यात्म और कौन मिटाएगा। अरे! आध्यात्मिक ताप है भाई, तो आध्यात्म ही तो मिटाएगा, उपनिषद ही मिटाएगा।

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