प्रश्नकर्ता: नमस्कार, बहुत ही महत्वपूर्ण विषय, एक ऐसा विषय जिसमें जितनी गहनता से, जितनी गहराई से उतरा जा सके, उतरना चाहिए। आज मैं कोशिश करूँगा और इसमें मदद करने के लिए उपनिषद् परंपरा वाले इस देश में जहाँ पर प्रश्नोत्तर सबसे महत्वपूर्ण तरीक़ा होता है, आचार्य प्रशांत मेरे साथ मौजूद हैं।
आचार्य जी, सबसे पहले मैं आपका बहुत-बहुत स्वागत करता हूँ। युवा बहुत पसंद करते हैं आपको। आचार्य जी ने कई विषयों पर बोला है। अवेकनिंग इंडिया, मेरा एक कार्यक्रम था, जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया। लेकिन मैं सही मायनों में आज अवेकनिंग इंडिया को कहीं देखता हूँ तो वो तब देखता हूँ जब आचार्य जी अपनी बातों को रखते हैं और युवा अपने कई क़िस्म के प्रश्न करते हैं।
मैं कोशिश करूँगा कि उपनिषद् की परंपरा में जिस तरीक़े से प्रश्न महत्वपूर्ण होते हैं वो इतने सारगर्भित हों कि उनसे वो उत्तर आ पाये जिनकी अपेक्षा आप (श्रोतागण) कर रहे हैं। तो आपकी ज़िम्मेदारी मुझ पर और जवाब की ज़िम्मेदारी तो आचार्य जी की है ही।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 'मुक्ति' (आचार्य जी की नयी पुस्तक जिसका विमोचन किया जा रहा है) बहुत ही सुन्दर है, ये जितनी दिखने में सुन्दर है न। मुझे बड़ा सौभाग्य मिला कि प्रथम पाठक मैं बना हूँ क्योंकि 'प्रभात प्रकाशन' ने इसको पब्लिश (प्रकाशित) किया है। प्रभात जी ने मुझसे कहा कि भाई आचार्य जी से बात करनी है इस पुस्तक पर, तो इस पुस्तक को पढ़िए। इसको पढ़ने के बाद सचमुच में मेरे पास तो कोई प्रश्न बचा नहीं, समस्या है। लेकिन जैसा मैंने कहा कि दर्शकों के प्रश्न ज़रूर होते हैं आपसे बहुत सारे प्रश्न होते हैं।
सबसे पहला प्रश्न तो यही कि उपनिषद् की इस परंपरा में जहाँ पर उपनिषद् या वेदांत जिसको आप ख़ुद भी रखते हैं और बहुत सहज और सरल भाव में रखते हैं उसके होने के बावजूद हमें इन पुस्तकों की, नयी पुस्तकों की आवश्यकता क्यों पड़ रही है? आपको इतना लेखन क्यों करना पड़ रहा है जबकि लेखन तो काफ़ी कुछ हो चुका है?
आचार्य: देखिए उपनिषद्, मुख्यतया आमने-सामने की गयी वार्ताओं का परिणाम और संकलन हैं। गुरु शिष्य का चेहरा देख रहा है, उसकी आँखें पढ़ रहा है और तब जाकर ज्ञान प्रभावी हो पाता है, तब जाकर ज्ञान जीवन में उतरकर उसको केंद्र से ही रूपांतरित कर पाता है। तो जो मूल ज्ञान है, उसके स्तम्भ भले ही पुराने रहे हैं, उसके सिद्धांत भले ही कालातीत रहे हैं लेकिन उसकी हर दौर में अभिव्यक्ति शिष्य के चेहरे को देखकर करनी पड़ती है।
एक उदाहरण देता हूँ, गीता को भी एक उपनिषद् ही माना जाता है, गीतोपनिषद् कहते हैं, सब उपनिषदों का सार गीता में है। पर जब अर्जुन विकल होते हैं और एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े हैं, 'नहीं लड़ना चाहता, एक ओर आप कुछ कह रहे हैं कृष्ण, दूसरी ओर सामने मेरे सब स्वजन हैं।' तो कृष्ण उनको ये नहीं कहते कि जाओ अर्जुन और जितने हमारे उपलब्ध उपनिषद् हैं उनको पढ़ लाओ। जबकि जब गीता घटित हुई थी तब तक कम-से-कम जितने मुख्य उपनिषद् हैं वो तो आ ही चुके थे। तो कृष्ण कह सकते थे कि तुम्हारी सारी समस्याओं का, जिज्ञासाओं का समाधान तो उपनिषदों में पहले ही मौजूद है। प्रतियाँ मँगवाते और कहते यहीं रथ पर बैठ जाओ और पढ़ डालो। लेकिन नहीं, अर्जुन की स्थिति के अनुसार उन्हीं उपनिषदों के मर्म को कृष्ण एक नयी अभिव्यक्ति देते हैं और उससे गीता प्रकट होती है।
तो हर समय में, हर स्थिति में चूँकि प्रश्न कम-से-कम ऊपरी तौर पर नये होते हैं इसीलिए भाषा नयी करनी पड़ती है। सत्य तो नहीं बदलता, पर संदर्भ तो बदलते रहते हैं न। तो संदर्भों के अनुसार सत्य सदा एक काल-सम्मत, क्षण-सम्मत अभिव्यक्ति माँगता है। और अगर उसको वो नहीं मिलती तो जो पुरानी बातें हैं वो बस पुरानी होकर रह जाती हैं, यद्यपि उनका जो मर्म है वो कभी पुराना नहीं हो सकता। उपनिषदों की बात वास्तव में कभी पुरानी नहीं होगी, आज से दस हज़ार साल बाद भी, अगर मानवता बची रही तो।
लेकिन उसको हर दौर में और हर नये दर्शक के सामने, श्रोता के सामने, शिष्य के सामने, जिज्ञासु के सामने एक नये तरीक़े से प्रस्तुत ज़रूर करना पड़ेगा। कुछ होंगे ऐसे मुमुक्षु जो कि जाएँगे और जो मूल पाठ है उसी से अपनी प्यास बुझा लेंगे, पर वैसी मुमुक्षा सब लोगों में नहीं होती। तो लोगों को फिर उनकी स्थिति अनुसार और कालानुसार बताना पड़ता है और इसलिए आपके हाथ में भी ये पुस्तक ('मुक्ति') है।
प्र: अब जिज्ञासा, यह (मुक्ति पुस्तक) कई जिज्ञासाओं का शमन करती है। जैसा मैंने आपको बताया कि मैंने ख़ुद जब इसको पढ़ा तो इसके बाद में बहुत सारे प्रश्न आपके पास रह नहीं जाते हैं।
इसकी वजह यह है कि शुरुआत में ही है कि 'बंधन को बंधन तो जानो।' तो कुछ बहुत बेसिक बातें सामने आती हैं। पहले तो ये कि पहले बंधन क्या है। हम कामकाज के बोझ में होते हैं, परिवार के टर्मोईल (उथल-पुथल) में होते हैं। बहुत सारी ऐसी चीज़ें होती हैं जिनसे हम बड़े परेशान हो जाते हैं और हम इसको बंधन समझते हैं।
बंधन हमारे भीतर है, ये भौतिक जगत में चल रहा है। क्या अर्जुन भी उस समय किसी तरह का बंधन महसूस कर रहा था जिस समय पर उपनिषद् का एक नया तरीक़ा या कृष्ण का ज्ञान आया और जो सौ उपनिषदों के बराबर माना जाता है यानी गीता।
तो बंधन क्या है? भीतर है, बाहर है? और लोगो का बड़ा कंफ्यूजन (उलझन) है कि मैं जॉब में हूँ तो एक ही कंपनी में काम कर रहा हूँ, कहीं यह बंधन तो नहीं? मैं परिवार की ज़िम्मेदारियों के साथ में चल रहा हूँ, कहीं ये बंधन तो नहीं है?
और दूसरा, इधर (मस्तिष्क की ओर इशारा करते हुए) साइकोलॉजी (मनोविज्ञान)। बहुत लोगों में मनोरोगों का जिस तरीक़े से उत्थान हुआ है उससे लगता है कि यह तो भीतर कहीं टर्मोईल चल रहा है। तो क्या है बंधन?
आचार्य: जो कुछ भी आप बने बैठे हैं, आपको उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। मैं जो कुछ हूँ या जो कुछ मेरे पास है जो मेरी हस्ती से जुड़ गया है, मेरी पहचान, परिभाषा बन गया है उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। सुरक्षा का ये दायित्व ही बंधन है।
दूसरे तरीक़े से कहता हूँ, जो अपनी अस्मिता के लिए इतना महत्वपूर्ण हो जाए कि विवश हो जाओ उसको सुरक्षित रखने के लिए, उसको पकड़े रहने के लिए, वो बंधन है। जिसको पकड़ने की विवशता बन जाए जीवन, उसको कहते हैं बंधन। बाक़ी अगर खेल-खेल में कुछ अपने पास है, किसी चीज़ से जुड़े हुए हो, कुछ पकड़ा है, कुछ छोड़ा है तो वो बंधन नहीं है। जो कुछ भी आपकी चेतना के मुक्त आकाश में आपके लिए बाड़ (सीमा) निर्धारित कर देता है कि इससे इधर नहीं जाना है, इससे उधर नहीं जाना है, दाएँ-बाएँ, वो बंधन है आपके लिए।
बंधनों का अनिवार्य सम्बन्ध सुरक्षा से होता है और सुरक्षा की माँग का सम्बन्ध अहंकार की अपूर्णता से होता है। अहंकार बहुत छोटी सी चीज़ होती है न। भीतर बैठा है, वो डरा रहता है लगातार। वो डरा रहता है, वो अपने डर, अपनी अपूर्णता के कारण इधर-उधर जाकर के चीज़ों से जुड़ता है। मैं डरा हूँ तो मैं बहुत ज्ञान अर्जित कर सकता हूँ, मैं डरा हूँ तो मैं पैसा अर्जित कर सकता हूँ, प्रतिष्ठा कहीं से मैं चाहूँगा कि मुझे मिले। इन सब चीज़ों से मुझे लगता है कि मैं भर गया, मुझे कुछ मिल गया। पर ये सब चीज़ें बाहरी हैं और अपनेआप को भरने के लिए इनको पकड़ना मेरी विवशता, मेरी मजबूरी बन जाता है।
मैंने यूँही खेल-खेल में ज्ञान नहीं अर्जित किया, मैंने अपने आनंद में ज्ञान नहीं अर्जित किया, मैंने ज्ञान अर्जित करा ताकि जो भीतर खोखलापन है उसकी अनुभूति थोड़ी कम हो, तो ये बंधन है। अब आपने जो कुछ भी पकड़ा, आप उसको छोड़ नहीं सकते, आप उसपर आश्रित हो गये। आप उस पर आश्रित हो गये हैं और वो जो चीज़ है वो सांयोगिक है, उसने आपको कोई वादा नहीं करा है कि आपके साथ रहूँगी। आपको प्रतिष्ठा मिली है, प्रतिष्ठा आपके हाथ की चीज़ नहीं होती। ज्ञान भी ऐसी चीज़ नहीं होती कि कभी सम्पूर्ण हो पाये। तो आप अगर ज्ञान पर आश्रित हैं तो हमेशा डरे हुए रहेंगे, ये बंधन होता है।
दुनिया पर टिक जाना बंधन है। आप एक ऐसी चीज़ पर टिक गये हो जिसका कोई भरोसा नहीं और जो आपके नियंत्रण में बिलकुल भी नहीं है। जैसे आप बालू की एक बड़ी भीत बनायें या घरौंदा बनायें और आप बालू के घरौंदे पर टिक कर खड़े हो जाएँ, क्यों टिक कर खड़े हो गये हैं? क्योंकि आपको लग रहा है आपकी टाँगों में दम नहीं है। क्यों टाँगों में दम नहीं हैं? क्योंकि आत्मज्ञान नहीं है। अपनी टाँगों को, स्वयं को कभी परखा ही नहीं, तो लगा कि अपनी टाँगों में दम नहीं है। तो उसमें फिर अवलंबन के लिए खड़ा कर लिया एक घरौंदा और उस पर ऐसे कोहनी रखकर टिके हुए हैं। कैसी हालत रहेगी हृदय की?
प्र: गिरेंगे।
आचार्य: नहीं भी गिर रहे, लेकिन भय तो रहेगी, लगातार भयग्रस्त रहोगे न। इसी भय को बंधन कहा गया है। यह बड़ी रोचक बात है — भय और बंधन का आपसी सम्बन्ध। क्योंकि विषय मुक्ति है। उपनिषद् दोनों बातें कहते हैं प्रमुखतया कि हमारा उद्देश्य है आपको बंधन मुक्त करना और साथ-ही-साथ वो ये भी कहते हैं कि सबसे बड़ा ताप जो है जीवन का वो भय ही है। तो दोनों बातों को मिला दें तो वो यही कह रहे हैं कि भय ही बंधन है। और भय उसी चीज़ के मिटने या छिनने का या खोने का हो सकता है जो आपसे बाहरी हो। तो जो बाहरी है, वही आपका भय है, वही आपका बंधन है।
प्र: मेरे ज़ेहन में हमेशा एक सवाल आता है कि हमारा मूल स्वरूप तो सत्य ही है, अभय ही है। ये जितना कुछ टांगा है, ये हमने बाद में टांगा है और समस्या यही है कि अब वो जो ज़बरदस्ती टांगा है, बड़े मोह से टांगा है, अब उसको उतरना है। मतलब मुक्त तो हम हैं ही लेकिन हमने बंधनों को पहले तो लाद लिया है अब उतारने के प्रयोजनों पर जा रहे हैं।
आचार्य: नहीं, मुक्ति कोई सिद्धांत नहीं होती है। मतलब अगर मैं बस यूँही जान लूँ, पढ़ लूँ कि मैं मुक्त हूँ तो उससे जो मेरा मुक्त स्वभाव है, मैं उसमें स्थापित नहीं हो गया। बंधन बाद में नहीं आते। यह पाश्चात्य सोच है कि "मैन ईज बोर्न फ्री" (मनुष्य मुक्त ही जन्म लेता है)। यह उन्होंने कहा।
भारत ने यह समझा कि "मैन ईज नौट बोर्न फ्री" (मनुष्य एक मुक्त जीव के रूप में जन्म नहीं लेता है)। बाद में नहीं आये हैं बंधन, जन्म से ही आये हैं बंधन। जन्म ही तो पहला बंधन है, जन्म ही तो मूल बंधन है। इसीलिए जो सत्य है, आत्मा है उसको अजात कहते हैं कि उसका जन्म नहीं हो सकता। जिसने अपनेआप को जन्मा हुआ मान लिया, जिसने ख़ुद को देहधारी घोषित कर दिया कि मैं यही देह तो हूँ, उसका बंधन शुरू हो गया।
ये मान्यता तो जो शिशु पैदा होता है उसमें गर्भ के दौरान भी होती है, पैदा होने की क्या बात करें। जब वो गर्भ में है तब भी वो अपनेआप को देह तो मान ही रहा है और अपना जो ये पिंड है इसकी सुरक्षा का वो पूरा प्रयास करता है। जब वो पैदा होता है तो वो बाहर गर्मी-सर्दी है उस हिसाब से प्रतिक्रिया करता है, गर्मी-सर्दी किसके लिए है? देह के लिए ही तो है। भूख लगी है तो भी वो रोएगा, भूख किसको लगी है? देह को ही तो लगी है।
तो देहभाव ही पैदा होता है, देह क्या पैदा होगी, देहभाव पैदा होता है। यह जो देहभाव है यही पहला बंधन है और उसके बाद इस पर और बंधन लदते जाते हैं। क्योंकि देहभाव का मतलब है क्षुद्रता का भाव। छोटी सी देह, इतना बड़ा ब्रह्माण्ड, मैं कहाँ फँस गया! मैं छोटा हूँ, मेरी देह भी छोटी है, मेरा सामर्थ्य भी छोटा है, मेरी बुद्धि छोटी है, मेरा ज्ञान छोटा है। हर व्यक्ति इसी के साथ पैदा होता है, मैं छोटा हूँ, मैं हर तरीक़े से छोटा हूँ और इतना बड़ा संसार है जो कभी भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता है।
साथ-ही-साथ, चूँकि मैं छोटा हूँ तो अपनेआप को बड़ा करने की मुझमें कामनाएँ हैं। उसी छुटपन के भाव से कामना उठती है और मेरी कामनाएँ भी सब कहाँ पूरी होंगी? इसी संसार में पूरी होंगी। तो यह संसार मेरे लिए बड़ी महत्वपूर्ण चीज़ बन जाता है। एक ओर तो यह भयानक है, मुझसे कुछ भी छीन सकता है। और दूसरी ओर ये मेरे लिए अवसर है कामना पूर्ति का। तो मैं इसकी ओर देखता हूँ ऐसे लालायित निगाहों से कि कुछ इधर मिल जाए, कुछ उधर मिल जाए।
और जैसे-जैसे मैं दुनिया की ओर ज़्यादा देखता जाता हूँ, वैसे-वैसे अपनी ओर देखने की मेरी कोई हसरत बचती नहीं। किसी तरह का मुझे कोई कारण लगता नहीं कि समझूँ तो कि यह देखने वाला कौन है। बस जो चीज़ें दिख रही होती हैं वही मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगने लग जाती हैं। यहाँ तक कि मैं शुद्ध-बुद्ध-संपूर्ण आत्मा हूँ यह ज्ञान भी मैं बाहर से ही ले आता हूँ। अब ये ज्ञान अगर मैंने कहीं किसी किताब में पढ़ लिया है तो मेरे लिए यह एक मानसिक सामग्री बन सकता है अधिक-से-अधिक, वो जीवन इतनी आसानी से नहीं बनेगा।
जीवन वो तब बनता है जब पहले मैं पूछूँ कि ये जो मेरे भीतर है, जो डरा रहता है, जो इतनी कामनाएँ करता है, जो कभी ईर्ष्या में जलता है, कभी सुख के पीछे भागता है, कभी दुख से डरता है; ये कौन है, कहाँ से आया और आज तक इसने जो करा है उससे इसने क्या पाया। और आज जो ये करने जा रहा है, ये इसने जो अतीत में करा है उससे कुछ भिन्न है क्या? ये कुछ बहुत मूलभूत मौलिक प्रश्न हैं जो मैं समझता हूँ हर समझदार इंसान को, हर ज़िम्मेदार इंसान को अपनेआप से प्रतिदिन पूछने ही चाहिए।
क्योंकि हम ज़िंदगी जीते जाते हैं, नये-नये निर्णय करते जाते हैं और उन निर्णयों के आधार का, मुझे खेद है कि, हमें बहुत कम पता होता है। हम सबको ही, हम सब एक जैसे हैं। हमें बहुत कम पता होता है कि हम वो निर्णय क्यों कर रहे हैं, वो निर्णय कहाँ से आ रहा हैं। तो वो निर्णय कुछ ख़ास लाभ दे नहीं पाते, नुक़सान ज़्यादा कर जाते हैं। छोटी सी ज़िंदगी होती है, समाप्त हो जाती है।
प्र: आपको बीच में रोककर अपना प्रश्न पूछने का मन नहीं करता है, ऐसा लगता है धारा प्रभाव आप जो बोल रहे हैं बोलते चले जाएँ। लेकिन फिर याद आता है कि दर्शकों के ज़ेहन में कुछ-न-कुछ सवाल आ रहे होंगे।
एक सवाल जो निश्चित तौर पर पूछेंगे, वो सबसे पहले यह कि ऐसे ही डिसीजन (निर्णय) आपने लिए होंगे लाइफ़ (जीवन) में, कई बार लिए होंगे, कंफ्यूजन भी बहुत मुमकिन हुए होंगे।
क्या आज आचार्य जी जो हैं वो मुक्त हो चुके हैं और ये जो मुक्ति की अवस्था है वो उनको प्राप्त हो गयी है। या ये स्वरूप होगा मुक्ति का? तो प्रश्न है कि क्या होता है मुक्ति का स्वरूप?
आचार्य: कुछ भी नहीं। यात्रा है मुक्ति, मुक्ति की कोई अवस्था नहीं होती। कोई आख़िरी बिंदु नहीं है, कोई डेस्टिनेशन (मंज़िल), कोई पड़ाव नहीं है। मुक्ति की ओर ही लगातार बढ़ते रहना मुक्ति के प्रेम में, बस यही मुक्ति है।
जो कह रहा है कि मैं मुक्त नहीं हूँ पर मुक्ति मेरा पहला प्रेम है, ईमानदारी से कह रहा है कि मुक्ति मेरा पहला प्रेम है और उसी की ओर तकता रहता हूँ, उसी की ओर बढ़ता रहता हूँ, उसको तो आप फिर भी किसी अर्थ में मुक्त कह सकते हैं। पर जो घोषित कर दे कि मैं मुक्त हो ही गया और मेरी यात्रा समाप्त हो गयी, उसको जान लीजिए कि शायद इसकी शुरू भी नहीं हुई यात्रा।
तो लगातार बढ़ते रहें, जीवन गति का ही नाम है। कृष्ण का भी यही संदेश है, उपनिषदों का भी यही सारामृत है। बढ़ते रहिए लगातार, 'चरैवेति-चरैवेति।' ऐसी कोई आख़िरी घड़ी नहीं आती कि आप कहते हैं कि मेरा तो निपट गया।
प्र: कोई अवस्था फिर भी आप देखते हैं कोई मनुष्य की कि वो सामाजिक सुधार के लिए निकल जाता है, आपकी तरह युवाओं को प्रेरित करता है। अवेकनिंग (जागरूकता) के लिए निकलता है और लोगों को बताता है देखो मुझे क्या मिला है, वो मैं तुमको बताता हूँ। तो कोई ऐसी अवस्था हर एक मुक्त पुरुष की आती है?
आपको लगता है विभिन्न कार्य क्षेत्रों में कोई मुक्त हो सकता है और वो अपने-अपने क्षेत्र में बढ़िया काम करता रहे, लेकिन फिर वहाँ बंधन और मुक्ति का कंफ्यूजन आ जाएगा?
आचार्य: हर क्षेत्र अपनेआप में एक सीमा है। क्षेत्र का क्या मतलब है?
प्र: कोई कार्य प्रणाली या कोई कार्य पद्धति जिसमें आप लिप्त हैं।
आचार्य: हाँ, जिसको सीमा से रेखांकित कर दिया हो, जिसके इर्द-गिर्द आप एक बाड़ खींच पायें, उसको ही तो क्षेत्र कहते हैं न। तो क्षेत्र अपनेआप में बंधन है। तो क्षेत्र में मुक्ति जैसा क्या होता है। क्षेत्र में उत्कृष्टता हो सकती है।
मुक्ति का मतलब होता है कि मैं सब क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ हूँ। मैं जान रहा हूँ ये सारे क्षेत्र क्या वस्तु हैं। मैं हो सकता है आज इस क्षेत्र में हूँ, कल उस क्षेत्र में हूँ, पर कोई क्षेत्र मेरी पहचान नहीं बन जाएगा।
जैसे उपनिषदों में पक्षी का उल्लेख आता है हमें कुछ सिखाने के लिए। कि पक्षी उड़ कर आया, एक डाल पर बैठ गया है। बैठ गया है, चिपक नहीं गया है। कल उड़ेगा दूसरी डाल पर बैठ जाएगा। स्वभाव उसका आकाश है। डालें प्राकृतिक और सांयोगिक हैं, आज ये डाल कभी वो डाल। पंख प्रेम है उसका और आकाश में उसको जाना है, पर कभी वो ये भी नहीं कह सकता कि अब तो मैं आकाशवत हो गया, क्योंकि अभी देह है तो रहेगा तो पक्षी ही। आकाश में उड़ना है, डालों पर बैठना है, किसी डाल पर अपना घोंसला नहीं बना लेना है। घोषित नहीं कर देना है कि यही तो मेरा घर है, क्योंकि घर तो आकाश है। ये वेदांत है।
प्र: एक ओर क्योंकि मैं पत्रकार हूँ, पत्रकारिता तो मेरा व्यवसाय रहा, लेकिन मनोविज्ञान का भी छात्र हूँ। आपके कुछ वीडियोज को मैंने सुना काफ़ी बारीकी से और बहुत प्रभावित भी हुआ। उसमें एक महत्वपूर्ण बात थी। आप शायद आईआईटी बॉम्बे में आप बात कर रहे थे। उस समय पर आपने कहा कि विज्ञान अंदर की चीज़ों को नहीं बताता या अंदर की चेतना को।
लेकिन क्या आपको लगता है कि मनोविज्ञान उस दिशा में आगे बढ़ रहा है?
और ये जितना भी हम कुछ सोच रहे हैं ये सिर्फ़ हमारे मस्तिष्क, हमारे चित्त का उत्पाद है। हम कहते हैं चित्तवृत्ति निरोधक, जैसे पतंजली ने पूरा सबकुछ डिफाइन कर दिया अस्टांगयोग में।
क्या आपको लगता है कि हम मनोविज्ञान पर जितना काम कर रहे हैं वही अवेकनिंग है या यही हमारी चिंता का विषय है? यहीं से मुक्ति निकलेगी या यही बंधन है?
आचार्य: मनोविज्ञान में अगर मुक्ति की अभीप्सा जुड़ जाए तो मनोविज्ञान अध्यात्म के बहुत निकट आ जाता है। मन को जानना अपनेआप में बहुत अच्छी और आवश्यक बात है। और मैं कहा भी करता हूँ कि जो लोग एक सच्चा, गहरा जीवन बिताना चाहते हों, तो जो चार-पाँच क्षेत्र हैं जिनका उन्हें ज्ञान अति आवश्यक है, उनमें एक मनोविज्ञान भी है। तो मनोविज्ञान है तो ज़रूरी, पर मन के व्यवहार को, ढर्रों को समझना एक बात है और मन के केंद्र में जो अहम् बैठा हुआ है उसकी मुक्ति का उद्देश्य लेकर के चलना, वो थोड़ी सी अलग बात हो जाती है।
तो सिर्फ़ ये कहना कि मन कैसे काम करता है ताकि मैं समझ सकूँ कि लोगों का व्यवहार किस प्रकार का होता है, और यही नहीं, उनके व्यवहार को मैं अपनी कामना अनुसार, अपनी सुविधा अनुसार बदल सकूँ, ये अध्यात्म नहीं हुआ। पर यह मनोविज्ञान हो गया। बहुत सारी साइकोलोजी इसीलिए होती है। उदाहरण के लिए, कोई कंपनी है, वो अपने सब जो कर्मचारी हैं, एम्प्लॉयज, उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करना चाहेगी, किसलिए? ताकि वो उनको और उत्पादक बना सके। और पता कर सके कि अच्छा कितना पैसा बढ़ा देने पर इनकी संतुष्टि का स्तर कितना बढ़ जाता है। ये सारा काम साइकोलॉजी कर सकती है।
प्र: औद्योगिक मनोविज्ञान अध्ययन पूरी एक धारा चल रही है।
आचार्य: यही चलता है। इसमें जो लक्ष्य है वो मुक्ति कहीं से नहीं है। इसमें तो जो लक्ष्य है वो कामना है। तो जब कामना पूर्ति लक्ष्य हो जाता है तो मनोविज्ञान अध्यात्म से बहुत दूर चला जाता है। अध्यात्म तब है जब उद्देश्य मुक्ति हो। आप कुछ भी जानने निकले हैं भीतर मुक्ति के प्रति प्रेम लेकर के, तो वो अध्यात्म है।
तो दर्शन भी है, जैसे मनोविज्ञान की बात करी वैसे दर्शन का क्षेत्र है। तो जो षडदर्शन है हमारा, उसमें हमारे सारे ही दर्शन, कम-से-कम उसमें से पाँच दर्शनों का जो उद्देश्य है वो मुक्ति है। और दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन है, उसका उद्देश्य ज्ञान है, मुक्ति वहाँ उद्देश्य नहीं है, लिब्रेशन वहाँ उद्देश्य नहीं है।
तो कैसे पहचानें कि कोई काम आध्यात्मिक है कि नहीं? कैसे पहचानें कि मेरी कोई कामना, मेरी कोई गतिविधि, मेरा कोई क़दम आध्यात्मिक है कि नहीं? सिर्फ़ उसकी एक कसौटी है — चाह क्या रहे हो? अगर अपने ऊपर और चीज़ें लादना चाह रहे हो, जैसे हो उसी को और सुरक्षित करना चाह रहे हो, तो जो कर रहे हो वो संसारी दलदल में और धँसने वाली बात है।
और अगर उद्देश्य है कि जहाँ मैं पहले ही फँसा हुआ हूँ, भीतरी जो भूल-भुलैया है, उससे आज़ाद हो पाऊँ तो जो भी कुछ कर रहे हो वो आध्यात्मिक काम है। फ़र्क नहीं पड़ता कि वो जो काम है वो औपचारिक तौर पर किस क्षेत्र में आता है। औपचारिक तौर पर कुछ भी हो सकता है, हो सकता है कि वो खेल के क्षेत्र में आ जाए, राजनीति के क्षेत्र में आ जाए, कोई भी क्षेत्र हो सकता है। अभिनय का क्षेत्र हो सकता है। लेकिन वो काम फिर भी आध्यात्मिक कहलाएगा अगर निगाह आज़ादी पर है, आंतरिक मुक्ति पर है।
प्र: बड़ी सुन्दर बात आपने कही। दरअसल ये बात मेरे दिमाग में चल भी रहा था कि वर्तमान राग की निवृत्ति हो जाए और नवीन राग उत्पन्न न हो, ऐसी कोई अवस्था हो। क्योंकि ये स्वामी शरणानंद थे, मानव सेवा संघ चलाया, काफ़ी कहा करते थे वो, बड़ी सुंदर बात थी उनकी। आपको लगता है कि यह वर्तमान राग की निवृत्ति ये एक विषय है?
हालाँकि मैं आपको बता दूँ कि ये जो 'मुक्ति' पुस्तक है, इस पुस्तक में आपको सारे प्रश्नों के बड़े विस्तृत जवाब मिल जाएँगे बहुत ही सुंदरता से। मैंने भी इसको पढ़ा है और पढ़ता रहूँगा क्योंकि एक बार पढ़ने वाली चीज़ नहीं है (श्रोतागण से कहते हैं)।
लेकिन फिर भी ये विद्यमान राग जो हैं। मान लीजिए, अभी शादीशुदा लोग आपको सुन रहे हैं। मान लीजिए, कोई कंपनी का सीईओ आपको सुन रहा है, उसने और सपने देख रखे हैं, अपनी कंपनी बनाने के सपने। तो बोलेगा कि आचार्य जी कहीं यह तो नहीं बोल रहे हैं कि भाई अब उठाओ झोला और निकलो। मुक्ति का मतलब यह तो नहीं है?
आचार्य: देखिए, चिड़िया को डाल पर बैठने की तो कभी कोई मनाही हो नहीं सकती। ठीक है? चिड़िया डाल पर नहीं बैठेगी तो क्या ताल (सरोवर) पर बैठेगी? डूब जाएगी।
बात यह है कि आप जिससे सम्बन्ध बना रहे हो उससे सम्बन्ध क्यों बना रहे हो? भीतर कौन है रागी? जब हम कहते हैं कि राग का परित्याग, तो ऐसा लगता है जैसे दोष राग के विषय में हो। तो फिर हम विषय का परित्याग करने की बात करते रहते हैं।
उपनिषद् ऐसा नहीं कहते हैं, उपनिषद् कहते हैं विषय तो खेल है, मुक्त हो जाना फिर जितना खेलना हो, खेलना इनसे। सब विषय तुम्हारे हैं, सबकुछ तुम्हारा है। समस्या विषयों की नहीं है जिनसे राग पैदा हो जाता है, समस्या भीतर रागी है जो न जाने किसके वैराग्य में है कि इधर अब जो कुछ भी छोटा-मोटा दिखता है उससे राग बैठा लेता है। रागी पर ध्यान देना है, रागी पर। राग पर ध्यान देकर के तो जो बहुत सतही क़िस्म का अध्यात्म है वो खड़ा होता है और वो अक्सर मिथ्याचार, पाखंड जैसा बन जाता है कि राग का अर्थ है ये फ़लानी चीज़ें मैंने पकड़ रखी हैं इनको हटा दो तो राग से निवृत्ति हो गयी।
कृष्ण साफ़ कहते हैं कि एसों से तो अर्जुन तुम थोड़ा सतर्क ही रहो जो बाहर से इंद्रिय संयम रखते हैं पर भीतर-भीतर उनके उन्हीं विषयों की कल्पना चलती रहती है, कामना।
तो रागी कौन है? वेदांत का प्रतिपाद्य विषय अहंकार है, संसार नहीं। अगर हम कहेंगे कि मुझे राग के बारे में ज़्यादा बात करनी है, तो हमें संसार के बारे में बहुत बात करनी पड़ेगी क्योंकि राग के सारे विषय तो संसार में ही फैले हुए हैं। तो रागी पर ध्यान देना है। मुझे स्वयं को देखना है, मैं क्यों हूँ ऐसा कि यहाँ सामने पानी रखा है तो पानी पकड़ लो, चाय रखी है तो चाय पकड़ लो, बिस्किट रखा है तो बिस्किट पकड़ लो, फल रखे हैं फल पकड़ लो और कोई नहीं मिला तो किसी का गला पकड़ लो। मैं हूँ क्यों ऐसा?
इन हाथों में ऐसा क्या है कि ये कुछ-न-कुछ पकड़ने को इतने आतुर हैं? मेरी आंतरिक व्यवस्था ऐसी क्यों है? तो वेदांत उसमें जाता है। मैं भीतर से इतना दरिद्र क्यों हूँ और मेरी उस दरिद्रता में कोई सच्चाई है कि नहीं? ऐसा क्यों हुआ, कब हुआ, मैं समझना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं को घोषित क्यों कर दिया के मैं बड़ा भिखमंगा हूँ अन्दर-ही-अन्दर। और जिस दिन मैंने अपनेआप को घोषित किया था उसी दिन मैं याचक बन गया पूरे संसार के आगे और कटोरा लेकर खड़ा हो गया। और जो याचक है उसको राग-द्वेष दोनों में उलझना पड़ेगा उसके लिए सुख-दुख दोनों अर्थवान हो गये अब।
उनकी बात करें या उसकी बात करें जहाँ से समस्या उत्पन ही होती है? समस्या उत्पन्न होती है मेरी मूल पहचान से। अहम् अपनेआप को क्या बोलता है, मैं छोटा हूँ, मैं कमज़ोर हूँ, मैं बड़ा बनूँगा। बड़ा बनने का भाव क्यों आ रहा है? क्योंकि सबसे पहले तुमने माना है कि तुममें कुछ क्षुद्रता है। वो सब कहाँ से आ गया, मुझे किसने सिखा दिया? जब ऐसी जाँच-पड़ताल होती है।
वैसे तो नतीजा जाँच-पड़ताल के बाद आना चाहिए, पर मैं थोड़ा अग्रिम में बता दूँ, जब ऐसी जाँच-पड़ताल होती है तो नतीजा कुछ-कुछ ऐसा आता है कि भाई आधी तो जो मूर्खता है वो देह के साथ ही पैदा हो जाती है और बाक़ी आधा जो भ्रम है वो हमारी परवरिश, हमारी शिक्षा, हमारे संस्कार हममें डाल देते हैं। तो ये दोनों मिलकर के, देह की उत्पत्ति का तथ्य और उसके बाद जो हमारी पूरी सामाजिक परवरिश हुई है, ये दोनों मिलकर के हमें भीतर से इतना छोटा सा और संकीर्ण बना देते हैं। और जिसका स्वभाव आकाश है उसको आप इतना छोटा सा बना दो तो छटपटाएगा न।
प्र: इस पर एक सवाल है कि दोषी कौन है इस बंधन का। अगर बाल बुद्धि आया, देह का सिर्फ़ ज्ञान है, उस समय पर बुद्धि का विकास नहीं है। फिर हम साइकोलॉजी में देखते भी हैं कि छः-सात वर्ष की उम्र तक ब्रेन (दिमाग) का डेवलपमेंट (विकास) होता है, जो कि बहुत महत्वपूर्ण समय होता है और वो महत्वपूर्ण समय के गुज़र जाने के बाद में फिर हम देखते हैं कि किस तरीक़े से बुद्धि आगे अपना रूप लेती है। जैसा कहा जाता है नेचर वर्सेस नर्चर (प्रकृति बनाम पालन-पोषण) हमेशा से ये थ्योरी (सिद्धांत) जो है बहुत महत्वपूर्ण रही है कि हमको प्रकृति पाल रही है, कि भीतर से हम ऐसे हैं। दोषी कौन है फिर बंधन का?
आचार्य: यह लगभग यही प्रश्न है कि माया की उत्पत्ति कहाँ से होती है।
प्र: जी।
आचार्य: हाँ, तो माया को अनादि कहा गया है। वो माया कहाँ से आयी जिसने मुझे इतना संतप्त किया, यह प्रश्न है आपका।
तो जब ये प्रश्न करा जाता है तो ज्ञानी लोग कहते हैं कि वो इस प्रश्न से आयी। जहाँ से ये प्रश्नकर्ता आया, वहीं से माया आयी।
प्र: जी, जी मैं समझ गया। मुझे पूरी उम्मीद है कि दर्शक भी समझ रहे होंगे।
आचार्य: ये जो प्रश्न है यही अपनेआप में माया है, क्योंकि आपने प्रश्न में एक बड़ी मान्यता रखी है कि माया है। तभी तो आपने पूछा न कहाँ से आयी। आपने माना कि है, होती है तभी तो आती है। जो मान ले कि माया है उसी के लिए तो माया है। नहीं तो नहीं है माया। तो जैसे ही आपने कहा माया कहाँ से आयी, आपने मान लिया कि माया है। तो आपने माया पैदा कर दी। जो मान ले कि माया में कुछ वज़न है, कुछ तत्व है, उसी के लिए माया है। अन्यथा माया अनादि मानी गयी है। हाँ, अनंत नहीं मानी गयी है, उसका अंत हो सकता है।
अंत कब होता है? आत्मज्ञान से। जितना आप अपनेआप को देखते हैं और अपने इरादों को पढ़ने की कोशिश करते हैं और जो भीतर कार्य-कारण का उल्टा-पुल्टा कुतर्क चलता है उसको पढ़ने की कोशिश करते हैं वैसे-वैसे माया का अंत होता जाता है।
लेकिन माया का जो अंत है वो थोड़ा सा भीतर डरावना हो जाता है क्योंकि माया कोई वस्तु तो है नहीं, माया बाहर रखा कोई प्याला तो है नहीं। जो हमारा अहम् भाव है वही मूल माया है। दोनों मिथ्या होते हैं, माया भी मिथ्या होती है, अहम् भी मिथ्या होता है। तो यही दोनों हैं, मिथ्या बराबर मिथ्या। तो वही है।
तो माया के मिथ्यात्व को देखना माने अपने ही न होने को, अनस्तित्व को जान लेना। वो बात थोड़ी डरा देती है, अस्मिता ही हिल जाती है न, 'मैं हूँ ही नहीं क्या? मैं हूँ ही नहीं क्या?'
लेकिन वो वैसे ही है जैसे कि वो जो पक्षी है उसका पिंजड़ा हटाया जाए तो वो भयाक्रांत हो जाए, क्योंकि उसने समझ रखा था कि पिंजड़ा भी उसकी हस्ती का हिस्सा है या पिंजड़ा उसकी हस्ती का एक व्यापक रूप है, एक कवच जैसा है जो सुरक्षा देता है। तो पिंजड़ा हटा तो लगा कि अरे यह क्या हो गया! वो नहीं समझ रहा है कि दो ही चीज़ हैं तुम्हारे पास जो तुम्हारे लिए असली हैं — एक पंख और एक आकाश। बाक़ी सब जो है व्यर्थ है।
प्र: फिर देहातीत की व्याख्या होती है कि फिर देह से भी ऊपर जाना है। आप मुक्ति को क्या देह से भी ऊपर जाने को मानते हैं? शरीर को भी पिंजरा फिर कबीर कहते हैं तो क्या हम इस पिंजरे से भी ऊपर जाने की बात करें?
आचार्य: नहीं, नहीं, पिंजरा तभी है न जब पिंजरे के अन्दर कोई हो। पिंजरा रखा है, पंछी उड़ गया, अब कौन बंधन में है? पिंजरा रहा आये, पिंजरे दो (आचार्य जी ख़ुद को और प्रश्नकर्ता को पिंजरा कह रहे हैं) आपस में बात कर रहे हैं, अच्छी बात है। पक्षी को कोई बाध्यता नहीं है कि पिंजरे में बैठे। या ऐसे कह लीजिए पिंजरे का द्वार खुला हुआ है, अब पक्षी का जब मन करता है उन्मुक्तता से कभी आ जाता है, बैठ जाता है पिंजरे में, विवशता नहीं रहा। विवश नहीं रहा।
प्र: आदर्श स्थिति क्या है वो बाहर उड़ता रहे, या आता-जाता रहे?
आचार्य: मौज! मौज! आदर्श बंधन होते हैं। कोई भी आदर्श स्थिति अपनेआप में एक बंधन होती है। कोई आदर्श स्थिति नहीं है, मौज है। मन करेगा आकाश में रहेंगे, मन करेगा डाल पर बैठेंगे, मन करेगा पिजड़े में भी घुस जाएँगे। हमारी मौज है।
प्र: आपकी मौज थोड़ा सा समझना चाहूँगा। क्योंकि क्या है कि आपको जितने लोग सुनते हैं, इतने फॉलोवर्स हैं, वो दरअसल मौज के मायने भी आपकी मौज से ही समझना चाहेंगे कि भाई देखिए जो आचार्य जी की मौज है वही असली मौज होगी, वही मौज की असली परिभाषा है।
आप युवाओं के बीच में जाना, उनको बताना कि वेदान्त क्या कहते हैं, इसकी आवश्यकता क्यों महसूस करते हैं?
आचार्य: उनको भी मौज मिले। देखिए, मेरे भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो सभी के जैसा है, जैसे सब वैसा मैं। तो सबके जो दुख हैं वो मैं समझता हूँ क्योंकि वो मेरे भी दुख हैं मैं उनसे गुज़र चुका हूँ, गुज़रता भी हूँ। सबकी जो कामनाएँ, अभिलाषाएँ हैं, उत्तेजनाएँ हैं, सुख हैं, उपलब्धियाँ हैं मैं वो सब जानता हूँ। जैसे एक आम संसारी होता है, मैं वैसा ही हूँ बिलकुल।
लेकिन साथ में शायद मैं थोड़ा सा कुछ और भी जानता हूँ, थोड़ा सा, बहुत थोड़ा सा। वो ये है कि ये सब जो हम करते रहते हैं, उसमें तो हमारा काम चलता रहता है। पर ज़िंदगी कामचलाऊ ही हो, यह आवश्यक नहीं है। ज़िंदगी उससे थोड़ा आगे की भी हो सकती है। और चूँकि मैं दोनों चीज़ें जानता हूँ, मैं पुल के दोनों छोर देख चुका हूँ, तो इसलिए मैं कई बार काम करने लग जाता हूँ लोगों को पुल पार कराने का।
तुम उधर क्यों हो, मुझे पता है। और तुम्हें उधर क्या लाभ हो रहे हैं, मैं वो भी जानता हूँ और मैं इनकार नहीं करूँगा की जिधर तुम खड़े हो, उस दूसरे छोर पर, वहाँ लाभ है। मैं इनकार नहीं करूँगा, क्योंकि मैं स्वयं भी वो लाभ लेता रहा हूँ, लाभार्थी रहा हूँ। तो उस छोर पर तुम्हारे लिए क्या है, वो मैं जानता हूँ।
लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि बेटा इस तरफ़ आओ, इस पार थोड़ा सा आओ, पुल पार करो और इधर जो है वो अपूर्व है, वो उधर नहीं मिलेगा। मैं उधर जो है उसकी भर्त्सना नहीं कर रहा, उधर जो है वो ठीक है। इतना तो कर लो कम-से-कम कि पुल का अनुभव ले लो। एक बार पार करके इधर की थोड़ी हवा ले लो, इतना तो कर लो। बस यही है मेरा काम।
प्र: हालाँकि आपने सुना भी होगा लेकिन मेरी अपनी जिज्ञासा है, मुझे यह अवसर मिला है कि मैं आचार्य जी से सीधे प्रश्न करूँ तो मैं थोड़ा सा इसको अपने स्तर पर भी समझना चाहूँगा। आईआईटी, आईआईएम और फिर सिविल सर्विसेज की परीक्षा ये सबकुछ क्रैक कर देना, यह अपनेआप में एक बहुत ही विलक्षण प्रतिभा को दिखाता है। और आपने नाटक और अभिनय के क्षेत्र में भी कार्य किया है। आपको ये सब मिल गया क्योंकि आप अत्यंत प्रतिभाशाली हैं, आपके ब्रेन की कुछ बनावट ऐसी रही है। या आपने ये प्रतिभाएँ जो हैं बहुत छोटी उम्र में विकसित कर लिए, इनको पा लिया, इसलिए आपको विरक्ति का भाव, मुक्ति का भाव जल्दी मिला?
आचार्य: चलिए, इसका थोड़ा सा विश्लेषण करते हैं। होगी किसी में बहुत प्रतिभा, उस प्रतिभा से वो जो अर्जित करता है उसके प्रति तो उसमें लोभ और कामना और आसक्ति ही रहती है न। एक भिखारी है, भिखारी के पास दस रुपया है वो उस दस रुपये को छाती से बाँध कर रखता है। और होगा कोई राजा, उसके पास दस करोड़ है, वो दस करोड़ को छाती से बाँध कर रखता है।
आपके पास कितना है इससे आपकी जो वृत्ति है भीतरी, वो तो नहीं बदल गयी न। उसके पास दस है, उसके पास दस करोड़ है, लेकिन जिसके पास जितना है उसको छाती से चिपका कर रखा है। अब भिखारी को कह दो दस छोड़ो, तो उसको बड़ा दुख उठेगा। उसका दस छीन लीजिए आप, तो उसको बड़ा बुरा लगेगा, सबकुछ छीन गया। और राजा का दस करोड़ छीन लीजिए तो उसको बराबर का दुख उठेगा। इस मामले में राजा और भिखारी एक बराबर हैं।
तो जब कोई ऐसा तर्क दे कि मस्तिष्क की संरचना थी या जन्मगत प्रतिभा थी, तो फिर छोड़ना भी तो उतना ही मुश्किल रहा होगा न। उस प्रतिभा से लोग क्या करते हैं? प्रतिभाशाली सब होते हैं। चलिए ठीक है, उच्च शिक्षा जिसको मिल रही है या प्रवेश परीक्षा जो पास कर रहा है, उसमें प्रतिभा होगी, माना। पर उस प्रतिभा का लोग उपयोग क्या करते हैं? पैसे कमाने के लिए ही तो उस प्रतिभा का उपयोग होता है न।
तो उस प्रतिभा से पैसा आ गया, पैसा आ गया दस करोड़। तो दस करोड़ जब छोड़ना पड़ता है तो दर्द तो बराबर का ही होता है न। चाहे भिखारी को दस रुपया छोड़ना पड़े, बात तो बराबर की ही होती है न।
तो ये तो ठीक है, अच्छा इनके पास प्रतिभा थी तो इन्होंने आईआईटी कर लिया, आईआईएम कर लिया, यूपीएससी हो गया, ये हो गया, वो हो गया। ठीक है, प्रतिभा थी। तो फिर भीतर लोभ भी तो रहना चाहिए न कि उस प्रतिभा के माध्यम से जो मैं अर्जित कर सकता था उसका (भोग भी करूँ)।
प्र: और ज़्यादा होना चाहिए।
आचार्य: और ज़्यादा होना चाहिए।
सवाल ये भी तो आना चाहिए न कि किसी के पास दस रुपया हो तो उसको दस रुपया छोड़ते हुए भी तकलीफ़ होती है और अगर किसी के पास दस अरब की संभावना हो तो उसने दस अरब कैसे छोड़ दिया होगा। तो उसमें बात मस्तिष्क की संरचना की नहीं होती है, उसमें बात अपने चुनाव की होती है, अपने प्रेम की होती है।
जब लोग कहते हैं अरे ये तो बोर्न विथ सिल्वर स्पून (चाँदी के चम्मच के साथ पैदा हुए हैं) हैं, और इस तरह की बातें करते हैं। तो भाई आम आदमी से तो एल्यूमिनियम का चम्मच नहीं छोड़ा जाता और अगर किसी के पास सिल्वर स्पून है तो उसके लिए तो और मुश्किल है न छोड़ना?
प्र: ज़्यादा मुश्किल है।
आचार्य: जिसके हाथ में सबकुछ है, जिसको मिला ही हुआ है, अगर वो छोड़ रहा है तो मुश्किल सोचिए कितनी रही होगी। वो मुश्किल सबके लिए रहती है, वो मुश्किल मेरे लिए भी है, आपके लिए भी है, राजा के लिए भी है, भिखारी के लिए भी है, सब के लिए है। क्योंकि प्रतिभा कितनी भी हो, भीतर जो लोभ की वृत्ति है वो तो रही ही आती है न। और इसीलिए प्रतिभा भी बस लोभ को खिलाने-पिलाने की ही तो काम आती है।
दुनिया के प्रतिभाशाली लोगों के पास आप क्या पाते हो? पैसा। अभिनय में प्रतिभा है, उन्होंने उससे पैसा कमा लिया। राजनीति में प्रतिभा है, उससे वो राजा बन गये। किसी और क्षेत्र में प्रतिभा है, उससे भी वो अपने ही कुछ स्वार्थ के लिए कमा ही रहे होते हैं। प्रतिभा का यही तो इस्तेमाल होता है न।
तो मूल बात होती है कि किसी चीज़ से ऐसा प्रेम हो जाए कि अपना स्वार्थ छोटा नज़र आये। हालाँकि प्रेम भी स्वार्थ ही होता है अपना। कह लीजिए कि एक ऐसा बड़ा स्वार्थ मिल जाए कि ये सब जो बाक़ी चीज़ें होती हैं जिनको हम कमाने की तरफ़ इतना दौड़ते रहते हैं — और मैं भी दौड़ रहा हूँ, मैं एक क्षण को भी ये दावा नहीं करना चाहता कि मैं किसी भी तरीक़े से बहुत विलक्षण हूँ, विशेष हूँ, एकदम ही नहीं करना चाहता। और सब चीज़ें भले ही चल जाएँ, मुझे बेईमानी बिलकुल नहीं पसंद है। और ऐसा कुछ कहना जिसको मुझे फिर ढोना पड़े और जिसको फिर मुझे बाद में सच साबित करना पड़े क्योंकि वो चीज़ है ही झूठ, वो मुझे नहीं पसंद है।
हल्का चलना मुझे बड़ा अच्छा लगता है। तो व्यर्थ के दावे करना या अपनेआप को दूसरों से श्रेष्ठ बताना या जैसे चलता है कि एनलाइटेंड (प्रबुद्ध) बोल दो अपनेआप को, इन सब से मैं हमेशा बचता रहा हूँ। और मैंने वादा कर रखा है कि मैं कभी भविष्य में बोलने भी नहीं वाला इन सब चीज़ों को। क्योंकि ये हैं ही मूल रूप से फर्ज़ी बातें, ईनमें क्यों फँसना!
ज़िंदगी में थोड़ी आग होनी चाहिए, भीतर धड़कन होनी चाहिए। ये नहीं कि बस खाने के लिए पैदा हुए हैं। इतना मिल रहा है तो इतना खा लिया और स्थितियाँ बनी, संयोग बनी — प्रतिभा भी तो संयोग ही होती है न। जिसको आप आईक्यू बोलते हैं उसका कितना तो सम्बन्ध इस ग्रे मैटर (मस्तिष्क) से हैं। जन्म से ही निर्धारित हो जाता है बहुत हद तक कि कौन कितना प्रतिभाशाली होगा। कुछ हद तक प्रतिभा को धार दी जा सकती है, पर बहुत बातें तो आपकी शारीरिक संरचना और जो मस्तिष्क की सामग्री है उसी से तय हो जाती है, तो वो भी एक संयोग ही है।
तो संयोगों का हमें थोड़े ही खाना है! जो संयोगों का खाये, उसमें फिर चेतना कितनी है! चेतना संयोग पर नहीं चलती, चेतना प्रेम पर चलती है।
ज़िंदगी में कुछ ऐसा होना चाहिए जिसको जब आवश्यक देख लो तो उसके आगे नमित हो जाओ। फिर कहो, मेरे सरोकार और मेरी सुविधाएँ, मेरा स्वार्थ अब इसके लिए छोटी चीज़ हो गयी। कुछ है इतना आवश्यक और इतना सुन्दर दिखायी दे रहा है कि इनकार कर ही नहीं पाएँगे। प्यार हो गया है। वो करना पड़ेगा। अब उसका नतीजा क्या निकलेगा, राम जाने, हमें क्या करना है। कृष्ण बोल गये हैं कि भई निष्कामता से बड़ा कुछ नहीं, तुम मौज में बस लग जाओ। अगर जान गये हो कि कोई चीज़ सही है, तो उसमें तुम जुट जाओ, डूब जाओ। आगे की आगे देखा जाएगा, उससे तुम्हें कोई बहुत फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। बस वही है और कुछ भी नहीं है।
प्र: इसमें जो रिस्पांस (प्रतिक्रिया) होता है वो कितना इनकरेजमेंट (साहस) आपको देता है? जैसे युवा आपको आजकल बहुत पसंद कर रहे हैं, बहुत सुनना चाहते हैं। और दूसरा आपने कहा आप कितने भी बचते रहें लेकिन पकड़-पकड़कर कंट्रोवर्सी (विवाद) में लाने वाले भी बहुत सारे लोग हैं।
हो सकता है कि वो आपका नाम लेने से, चूँकि आजकल आप ट्रेंड (चलन) में हैं, मीडिया का आदमी हूँ, समझता हूँ, आप ट्रेंड कर रहे हैं, तो आपके ख़िलाफ़ जो भी बोलेगा, उसको भी थोड़ा सा माल-मसाला मिल जाता है। ये दोनो चीज़ों को आप कैसे देखते हैं?
एक तो युवाओं का इनकरेजमेंट आपको कितना एनकरेज करता है और दूसरा जो कॉन्ट्रवर्सीज आपके ख़िलाफ़ होती हैं उस पर आप अगर कुछ कहना चाहें?
आचार्य: देखिए, मैं पैंतालीस का हो रहा हूँ। यह काम शुरू हुआ था जब मैं पचीस का था। और जब मैं चालीस का भी था तो बमुश्किल कुछ हज़ार लोग मुझे जानते होंगे। ये जिस प्रसिद्धि, लोकप्रियता की आप बात कर रहे हैं, ये पिछले चंद वर्षों की है। तो जैसे मैं पंद्रह साल तक गुमनामी में काम करता रहा, वैसे आज भी काम कर रहा हूँ।
मैं ये देख कर नहीं काम करता कि लोग मेरी वाहवाही कर रहे हैं या लोग गालियाँ दे रहे हैं, ये सब। हाँ, मैं उन सब चीज़ों पर नज़र ज़रूर रखता हूँ। पर मैं नज़र वैसे ही रखता हूँ जैसे एक चिकित्सक अपने मरीज़ पर रखता है कि भाई वो किस दिशा में जा रहा है, उसका क्या हाल हो रहा है, बस इतना ही।
मेरी अपनी मूल आंतरिक स्थिति पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि संसार से मुझे क्या मिल रहा है। अगर संसार से जो चीज़ मिल सकती है, मुझको उसको ही देखना होता तो मैं यह काम कर ही नहीं पाता न। फिर तो बहुत सारे दूसरे काम हैं जो मेरे लिए बीस-पचीस की उम्र में ही एकदम तैयार बैठे हुए थे, मैं वही काम करता रहता। उन कामों में संसार से सबकुछ मिल जाता है। संसार अपनी सारी सुविधा और सम्पत्ति और सम्मान आपके ऊपर लुटा देता है, अगर आप उन कामों में चले जाएँ तो। तो वो सब चीज़ें नहीं देखनी हैं। और अनाम होकर के, गुमनाम होकर के काम करने का मेरा डेढ़ दशक का अनुभव रहा है।
सन् २०१९ की बात होगी, मैं याद करता हूँ और बड़ा मज़ा आता है याद करके। जो यूट्यूब चैनल था हमारा, उस पर तब लगभग तीन हज़ार वीडियो थे, २०१९ में। आज दस हज़ार से ज़्यादा हैं, बल्कि बारह-चौदह हज़ार होंगे सब चैनल वग़ैरा मिलाकर। तीन हज़ार तब भी थे और उसके सब्स्क्राइबर थे दो हज़ार। तीन हज़ार वीडियो और दो हज़ार सब्स्क्राइबर। कोई बात नहीं, हम अपना काम लगातार करते रहते थे।
ये आज पुस्तक आपके हाथ में है। ये कोई अचानक से ही बेस्ट सेलर्स नहीं पैदा होने लग गयी हैं। जो पहली आया थी, वो २०१४ में आयी थी, कोई नहीं जानता उसको, 'बोध बिंदु' उसका नाम था। हम स्वयं ही उसके प्रकाशक थे, कोई उसको जानता नहीं। लेकिन उससे कुछ ऐसा थोड़ी हुआ कि हतोत्साहित हो गये या बुरा लग गया, सोचने लग गये कि यार ग़लत फील्ड (क्षेत्र) में आ गया क्या! क्योंकि वो काम ही इतना प्यारा है कि वो नहीं करूँगा तो क्या करूँगा!
मेरे पास कोई प्लान बी (दूसरा विकल्प) है नहीं। न आज है, न कल था, न कल होगा। मैं कहीं भी रहूँगा, मैं यही कर रहा होऊँगा। मैं अस्पताल में भी रहूँगा तो मैं यही कर रहा होऊँगा। इसके अलावा और कुछ है नहीं करने को। उसका आशय यह नहीं है कि मैं कहीं भी रहूँगा तो बस बोल रहा होऊँगा। मेरा आशय है कि मैं कहीं भी रहूँगा तो चूँकि जान चुका हूँ कि इंसान का जन्म मुक्ति के आनंद के लिए होता है तो सबको उसी ओर ले जा रहा होऊँगा। और अपने भीतर भी जहाँ बंधन खड़े हो रहे होंगे, उन पर नज़र रख रहा होऊँगा, उनको काट रहा होऊँगा, यही काम है।
प्र: ये तो सकारात्मक वाला हो गया।
आचार्य: अच्छा, नकारात्मक कि लोग ये सब जो करते हैं, उनका क्या?
वो अच्छा है, करने दीजिए। देखिए, किसी भी तरीक़े से वो निकट तो आ रहे हैं।
प्र: वो लोग भी ऑब्जर्व कर रहे हैं, मॉनिटर (निगरानी) कर रहे हैं।
आचार्य: हाँ। मैं तो कहता हूँ कई बार, संस्था के लोगों से कहता हूँ कि जितना तुम मुझे नहीं जानते उससे ज़्यादा वो मुझे जानते हैं जो खोट निकालते हैं, निंदा करते हैं।
प्र: उनको मेहनत ज़्यादा करनी पड़ती होगी, बारीकी से सुनना पड़ता होगा।
आचार्य: उनको बहुत मेहनत करनी पड़ती है। वो सौ बातें सुनते हैं, तब जाकर एक बात उनको कहीं ऐसी मिलती है कि इसको लेकर के अब गुब्बारा फुलाया जा सकता है। तो उनको करने दो, वो सब वही लोग हैं जो मेरी बात को महत्व तो दे ही रहे हैं। महत्व न दिया होता तो फिर उनको विरोध करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। तो कोई शुरुआत कैसे करता है, कोई शुरुआत कैसे करता है। आप चाकू लेकर मारने भी आ रहे हो तो निकट तो आ रहे हो न। आओ, पास आओ, फिर देखते हैं आगे क्या होगा।
प्र: एक महत्वपूर्ण बिंदु पर मैं बातचीत को लाना चाहता हूँ। आपने जिस पुल का ज़िक्र किया, अभी मैं उस पुल पर ही टहल रहा हूँ। अभी भी देख रहा हूँ कि उधर लोग खड़े हैं, इधर आप खड़े हैं या वो लोग खड़े हैं जो मुक्ति की बात करते हैं। और बीच में एक सफ़र तय किया जा सकता है। पुल के इस तरफ़ ज्ञानार्जन के बाद ज्ञान का वितरण ही एकमात्र उद्देश्य रह जाता है जीवन का, या स्वरूप रह जाता है ऐसे लोगों का जो ज्ञानी होते हैं या जिनको मुक्ति की अभिलाषा है? मुक्ति की यात्रा आपने जैसी भाषा में कहा कि कोई अवस्था तो है नहीं, एक यात्रा है। उस मौज में आ गये तो अब आपके पास मुख्य काम यही रह गया है कि बाक़ी लोगों को भी उस जगह पर लायें?
आचार्य: पर अंतर है एक। ज्ञान आवश्यक रूप से मौखिक नहीं होता है। पुल के उस तरफ़ निश्चित रूप से ज्ञान का वितरण, जो आपने कहा, वही काम बचता है। पर ज्ञान का वितरण माने ज़बान चलाना ही नहीं होता, हाथ चलाना भी होता है। दूसरे को ज्ञान ऐसे ही नहीं दिया जाता कि सामने बैठ करके मैं उससे इतनी बातचीत कर रहा हूँ।
यहाँ पर संस्था में जो लोग हैं, तीन-चौथाई ऐसे होंगे मैंने जिनसे कभी एक शब्द नहीं बात करी। आपको ताज्जुब होगा कि अपनी ही संस्था के लोगों से कभी बातचीत नहीं करी! हाँ, तीन-चौथाई ऐसे होंगे जिनसे एक शब्द नहीं बात करी। एकाध ही कोई ऐसा होता होगा जिससे हफ़्ते में कभी घंटेभर कुछ ज्ञानचर्चा होती होगी, कि आओ बेटा बैठो, तत्वचर्चा करते हैं।
हफ़्ते में भी एक बार नहीं होता होगा। या तो महीने में एक बार होता होगा, वो भी संयोग से। जैसे गाड़ी में बैठे हैं, दो लोग जा रहे हैं और उसमें बात छिड़ गयी तो उसमें फिर बात आगे बढ़ गयी। तो फिर इनको ज्ञान कैसे मिलता है या ये यहाँ क्या कर रहे हैं अगर इनको ज्ञान ही नहीं मिल रहा है? इनका उत्थान कैसे होता है? इन्हें लाभ क्या हो रहा है? इन्हें लाभ होता है कर्म से, ज्ञान का माध्यम सिर्फ़ शब्द ही थोड़े होते हैं। उनके साथ लग कर काम कर रहा हूँ, इससे भी तो वो सीख रहे हैं न।
तो पुल के उस तरफ़ ऐसा नहीं है कि उधर जा करके एक प्रचारक या प्रीचर (उपदेशक) बैठ गया है। क्योंकि ज्ञानी की जो छवि बन जाती है वो कुछ-कुछ ऐसी हो जाती है आम जनता में कि बतौला हैं, ये काम नहीं करते हैं, ये बस ज़बान चलाते हैं। ज्ञान का प्रसार अच्छी, सबसे ऊँची बात है।
प्र: और मेहनत भी बहुत है इसमें।
आचार्य: हाँ। ज्ञान बड़ी मेहनत की चीज़ है सचमुच। नहीं तो आप सिर्फ़ बोल-बोलकर के किसी को थोड़ा प्रभावित तो कर सकते हो, परिवर्तित नहीं कर सकते। परिवर्तित तो वो तभी होता है जब वो आपकी ज़िंदगी भी देखता है। जब देखता है कि आपने अपनेआप को कितना उड़ेल दिया है एक सही, सुन्दर और प्रेमपूर्ण ज़िंदगी जीने में, मुक्त ज़िंदगी जीने में। तब वो कहता है कि हाँ मैं भी क्यों न करूँ। आपको सामने वाले को सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी ही नहीं दर्शानी होती, कई बार उसको धक्का भी देना होता है।
ज्ञान इसमें नहीं होता कि मैंने उसको बता दिया, ज्ञान इसमें भी हो सकता है कि मैंने उसको कहा चलो बहुत बातचीत कर ली, अब खड़े हो जाओ और काम पर लग जाओ। ये बड़ा ज्ञान दे दिया कि यह बातचीत बहुत छोटी चीज़ है, वहाँ काम है। और काम पर नहीं लगोगे तो डाँट और खाओगे, दंड भी मिलेगा, ये ज्ञान है। तो ज्ञान में श्रम समाहित है।
देखिए, गीता के आप कुछ आरंभिक अगर अध्यायों को ही लें तो दो बातें निकलकर आती हैं। सांख्य योग में कहते हैं अर्जुन से कि आत्मज्ञान से ऊँचा कुछ नहीं और तुरंत आगे आकर के कहते हैं अगले अध्याय में कि निष्काम कर्म से ऊँचा कुछ नहीं। तो ये दो कैसे हो सकते हैं जिनसे ऊँचा कुछ नहीं? तो इसका मतलब जो कर्म है, जो निष्काम कर्म है, अच्छा, बड़ा कर्म होता है वो आत्मज्ञान के बिना आ ही नहीं सकता। माने आत्मज्ञान और निष्काम कर्म एक ही बात हैं।
माने अगर किसी को ज्ञान भी देना हो तो कर्म के माध्यम से देना एक बहुत अच्छा तरीक़ा है। वो सीखता जाएगा न। वो आपको देख करके ज़िंदगी के बारे में न जाने क्या जान जाएगा, जो कि शब्द उसे कभी बता भी नहीं पाते।
प्र: अनासक्ति का भाव उसके भीतर आप डाल सकते हैं अपने कर्म से, अपने व्यक्तित्व से?
आचार्य: देखिए, अनासक्ति छोटी चीज़ होती है, प्रेम बड़ी चीज़ होती है। बड़े से अगर प्रीत जुड़ जाए तो छोटी के प्रति एक वैराग्य, अनासक्ति अपनेआप आ ही जाएँगे न। इस समय आपके पीछे कहीं कोई छोटा-मोटा कीड़ा है, वो झुन-झुन कुछ कर रहा है। आपको उसकी आवाज़ सुनाई भी नहीं देगी, ये अनासक्ति है। क्योंकि आपके लिए इस क्षण में कुछ और है जो बहुत महत्वपूर्ण है।
प्र: जी।
आचार्य: अभी यहाँ पर ये कोई उपकरण है पीछे जो चल रहा है। उसकी आवाज़ तो, देखिए, आ ही रही है। अब ध्यान देंगे तो सुनाई देगी। लेकिन क्या अभी तक आपको सुनाई दे रही थी?
प्र: नहीं।
आचार्य: ये अनाशक्ति है। तो वो सब तो रहेगा, मेरे लिए नहीं रहेगा। वो सब है, पर मेरे लिए अर्थपूर्ण नहीं है। और ये सब रहते हुए भी मेरे लिए अर्थपूर्ण न हो क्योंकि एक ऊँचा, सुंदर, प्यारा अर्थ मुझे मिल गया है। तो फिर ज़िंदगी स्वर्ग हो गयी।
प्र: 'मैं', 'अहम्', ये तो हम आपको सुनते भी हैं और कुछ लोग समझने का दावा भी करते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात है वह, वो, मुक्ति, सत्य, परमात्मा, परमपिता जो भी कह लें। इसका क्या स्वरूप आप देखते हैं? क्योंकि आपको कई लोग देखते होंगे तो वो सोचते होंगे कि क्या स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) का मतलब यही होता है जो अभी बहुत सारे पंडालों में देखने को मिल रहा है या इनका कुछ अलग है। और भगवान भी कुछ अलग होंगे।
आचार्य: विशुद्ध 'मैं' ही परमसत्य है। उसी को आत्मा कहा गया है। पर चूँकि लोगों ने आत्मा को ही अहंकार बना दिया, वो बोलने लग गये 'मेरी आत्मा' और इस तरह की बातें। तो इसलिए विशुद्ध आत्मा को अलग से इंगित करने के लिए बोल दिया गया परम-आत्मा। आत्मा ही परम सत्य है, ठीक है? पर अगर कोई अहम् को ही आत्मा बोलना शुरू कर दे, तो अब क्या करें, बड़ी गड़बड़ हो गयी। तो फिर शुद्ध आत्मा को संकेत करने के लिए कहा गया परम-आत्मा, परमात्मा। नहीं तो परमात्मा जैसा कोई शब्द वास्तव में अनावश्यक है, आत्मा ही पर्याप्त है।
अहम् की शुद्धि, अहम् का विलोप आत्मा कहलाता है। वो आत्मा ही वेदान्त का आख़िरी सत्य है, उसी आत्मा को ब्रह्म भी कहते हैं। उससे आगे कुछ नहीं होता। अब आप ब्रह्म को परम-ब्रह्म कहें और आत्मा को परम-आत्मा कहें, यह बात क़तई अनावश्यक है, इसकी जरूरत नहीं है। और यह अज्ञान का ही द्योतक है।
प्र: एक समय था जब ओशो, जे कृष्णमूर्ति, स्वामी चिन्मयानंदजी थोड़ा बाद में और उससे पहले हम जिस भक्ति मार्ग की बात करते हैं उसमें तुलसीदास जी, सूरदास जी, ऐसा-ऐसा एक दौर आता है। अभी आध्यात्मिक चेतना के लिहाज़ से आप इस दौर को कहाँ पाते हैं?
क्योंकि हम देख रहे हैं बेशक, इंटरनेट के ज़रिये हो या जैसे भी हो, लोगों के बीच ऐसी चीज़ों की बड़ी लोकप्रियता है। आपके व्याख्यान भी काफ़ी युवाओं के बीच में जाते हैं। वर्तमान दौर को आप आध्यात्मिक चेतना के लिहाज़ से कहाँ खड़ा पाते हैं?
आचार्य: संक्रमण काल है। समस्या है, बहुत समस्या है। एक घटना घटी है जो है तो सांयोगिक ही, पर उसने मनुष्य की चेतना पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला है। वो घटना है औद्योगिक क्रांति और उसके बाद इंटरनेट का प्रादुर्भाव। इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन फॉलोड बाई द डिजिटल रेवोलूशन।
तो इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन ने आपके हाथ में बहुत सारी चीज़ें रख दी हैं और डिजिटल रिवोल्यूशन ने आपके मन में बहुत सारी चीज़ें रख दी हैं। तो ये जो भीतर अहम् है न इसको आशान्वित रहने के लिए अनंत विषय पैदा हो गये हैं पिछले लगभग तीन से पाँच दशकों में, जो पहले नहीं थे। आप तीन दशक लें तो इन्टरनेट और पाँच दशक लें तो (औद्योगिकरण), विशेषकर भारत के संदर्भ में।
तो ये जो बाज़ारों का माल से पट जाना है और नये-नये तरीक़े के उत्पादों का छा जाना है विज्ञापनों के साथ। तो आशा बची रह जाती है भीतर कि इस माल से बात नहीं बनी तो उस माल से बात बन जाएगी। दुख अगर बहुत गहरा भी है तो हाथ में इंस्टाग्राम है उसको स्क्रॉल कर रहे हैं, मनोरंजन चल रहा है, अपने दुख की ओर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
दिन भर ज़िंदगी धक्का देती है, तोड़ती है, अपमानित करती है। किसी बहुत व्यर्थ काम में जी रहे हो, बहुत व्यर्थ सम्बन्धों, रिश्तों में जी रहे हो, कोई बात नहीं। सारा अपना अपमान लेकर, अपनी गरिमाहीनता लेकर रात में बिस्तर पर लेट गये और मनोरंजन कर लिया, बात बन गयी। ग़लत नौकरी कर रहे हो, ग़लत मान्यताओं को पकड़े हुए हो, कोई बात नहीं। वीकेंड पर चले गये और मॉल में शॉपिंग कर ली। और इतनी बड़ी शॉपिंग मॉल है कि दस दिन भी उसमें घूमते रहो तो भी सारा माल नहीं देख पाओगे, दस दिन कम बोल रहा हूँ, शायद चार महीने में भी वहाँ का सारा माल नहीं परख पाओगे।
तो आदमी कभी फिर निराश नहीं होने पाता और वो निराशा बहुत ज़रूरी है। आदमी को लगातार ये भाव बना रहता है कि मैं ग़लत नहीं था मैं सिर्फ़ अभागा था।
प्र: जी।
आचार्य: मैं ग़लत नहीं था, बस आज तक सही संयोग नहीं पड़ा मेरा, मैं अभागा था मैं अगले प्रयत्न में ज़रूर सफल हो जाऊँगा और अगले प्रयत्न के लिए देखो अभी कितने विकल्प बाक़ी हैं। वो देखो अभी पाँच और वहाँ पर हैं चीज़ें, मैं जाकर उनको आज़मा सकता हूँ। जबकि तथ्य यह है कि आप आज भी वही कर रहे हो और आगे भी वही करने जा रहे हो जो आपने अतीत में करा है। आप बदल नहीं गये हो। बदलना बड़े सूरमाओं का काम होता है। आम आदमी की हिम्मत नहीं होती की बदल पाये वो।
आप आज भी वही कर रहे हो, आगे भी वही करोगे जो आपने अतीत में करा है। पर आज जो माल है, जो विषय है, सामने जो ऑब्जेक्ट्स हैं वो आपके सामने एक नयी शक्ल लेकर आ गये हैं। और जो नयी शक्ल है वो आपके लिए नयी आशा बन जाती है। आप कहते हो अतीत में विफलता मिली, अतीत में चोट मिली, अपमान मिला, जो भी मिला, अब नहीं मिलेगा। क्योंकि अब जो विषय सामने आया है वो नया है न, पहले जैसा थोड़ी है। वो पहले वाली चीज़ गड़बड़ हो गयी थी, वो दुर्भाग्य की बात थी। मैं ग़लत नहीं था, बस मेरा दुर्भाग्य था कि पहले मुझे लोग ठीक नहीं मिलें या अवसर ठीक नहीं मिला, अब देखो नया अवसर आया है।
और अवसर इतने हैं कि आपको पाँच हज़ार साल की उम्र भी दे दी जाए तो भी आप उन अवसरों का पूरी तरह भोग नहीं कर पाएँगे, प्रयोग नहीं कर पाएँगे और कभी परख नहीं पाएँगे। तो ले-देकर के आपके पास एक झूठी आशा शेष रह जाएगी कि अभी तो चीज़ें बाक़ी हैं जाऊँ इन्हें और आज़माऊँ। तो ये चीज़ पिछले तीस से पचास साल में हुई है।
उसका नतीजा क्या है अध्यात्म के क्षेत्र में? उसका नतीजा यह है कि अध्यात्म भी पूरा-का-पूरा भौतिक हो गया है, एकदम भौतिक हो गया है। मतलब बाज़ार से ज़्यादा आज अध्यात्म भौतिक है अध्यात्म बिलकुल बाज़ार की बाज़ार बन गया है।
प्र: थोड़ा समझाइए इसे विस्तार में।
आचार्य: गुरु लोग चीज़ें बेच रहे हैं और क्या कर रहे हैं! और चीज़ से आशय मेरा स्थूल-सूक्ष्म दोनों से है। सूक्ष्म वस्तु क्या होती है? प्रसन्नता, उथली शांति, ये सब वस्तुएँ हैं। अहंकार को कोई चुनौती नहीं मिल रही, न उसकी ओर ध्यान दिलाया जा रहा है।
आप बहुत परेशान होते हो, क्योंकि आप ज़िंदगी ग़लत जी रहे हो। तो आप रविवार को आ जाइए, आपको थोड़ा ध्यान करा देंगे और थोड़ा ध्यान करा देंगे तो उससे आपका थोड़ा सा बढ़िया हो जाओगे, शांत हो जाओगे ताकि आप आने वाले छह दिन अगले हफ़्ते फिर से गधे की तरह जुटकर के वही अपना पुराना काम कर सकें।
प्र: यह तो हैंगआउट जैसा हो गया।
आचार्य: हाँ, हैंगआउट ज़्यादा हो गया। वहाँ फील गुड (अच्छी अनुभूति) मिलता है। तो सारा जो अध्यात्म है वो फील गुड (अच्छे अनुभव का बाज़ार) हो चुका है। तो सूक्ष्म चीज़ें भी बेची जा रही हैं, स्थूल चीज़ें भी बेची जा रही हैं। स्थूल चीज़ें क्या बेची जा रही हैं? कि आओ हमारे पास से ये कपड़े खरीद लो, यह माला खरीद लो, यह अँगूठी खरीद लो, डोसा खरीद लो, इडली खरीद लो, तेल खरीद लो। अध्यात्म बिलकुल ही बाज़ार की चीज़ बन चुका है। जैसे अध्यात्म का हौंसला टूट गया हो अज्ञान को चुनौती देने का। जैसे अध्यात्म ने कह दिया हो कि मेरा भी स्वार्थ इसी में है कि ये जो अब बाज़ार की गंगा बह रही है मैं भी इसी में नहाये लेता हूँ।
तो इन दोनों चीज़ों ने मिलकर के इंसान को कहीं का नहीं छोड़ा — ज़बरदस्त कंज्यूमरिज्म (भोगवाद ) जो इंडस्ट्री से आ रहा है और इन्टरनेट से आ रहा है और सच्ची आध्यात्मिकता का लोप। और एक बिलकुल बाज़ारू, भौतिक आध्यात्मिकता का उदय। इन दोनों चीज़ों ने मिलकर के इंसान को मानसिक गर्त में आज धकेल दिया है। हम जितने बीमार आज हैं यहाँ से(दिमागी तौर पर) उतने हम कभी भी नहीं थे। हम जितने हिंसक, जितने भोगी आज हैं उतने हम शायद कभी न रहे हों।
आज आप लोगों को पशु हिंसा, पशु हत्या, क्रूरता के ख़िलाफ़ समझाइए, तो वो ऐसे-ऐसे तर्क लेकर आते हैं कि आपको सोचना पड़ता है कि इस आदमी के भीतर कितना अंधेरा ठूँस-ठूँसकर भरा है और कौन ज़िम्मेदार है, किसने इसको ऐसा कर दिया कि ऐसे कुतर्क दे पा रहा है। किसने ऐसा कर दिया? किसी ने नहीं कर दिया, बाज़ार की चकाचौंध ने और अध्यात्म की धोखाधड़ी ने, इन दोनों ने मिलकर के इंसान को ऐसा कर दिया है कि आज पृथ्वी पूरी विनाश के कगार पर खड़ी हुई है।
क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) आप जानते ही हो। ये जो एक-एक करके सब देश आणविक ज़ख़ीरा इकट्ठा करते जा रहे हैं, वो आप समझ रहे हो। आतंकवाद आप देख रहे हो। जो दिन-प्रति-दिन लगभग सौ से एक हज़ार प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं वो आप देख रहे हो। जंगल किस दर से कट रहे हैं, फोरेस्ट कवर (वन आच्छादन) कितना बचा है, वो आप देख रहे हैं। घुस-घुसकर जंगलों में वहाँ से हम वायरस निकालकर ला रहे हैं और अपने स्वार्थ के लिए हम उनको फैलने से रोक भी नहीं रहे हैं पूरे तरह से, ये भी आप देख रहे हो। और ये सब होते हुए भी बहुत सारे लोग बाहर से एक हैप्पी (खुश) चेहरा लेकर घूम रहे हैं, हैप्पी फेस, हैप्पी।
हम पागल हो गये हैं, पूरी पृथ्वी एक पागलख़ाना बन चुकी है। हमें दिख ही नहीं रहा है कि शायद हमारे पास अधिक-से-अधिक अब कुछ दशक शेष हैं। और हमारी इन बदतमीज़ियों का, मूर्खताओं का जो सबसे बड़ा ख़म्याज़ा भुगत रहे हैं वो कौन हैं? वो हैं ग़रीब लोग। जलवायु परिवर्तन होता है तो अमीर आदमी क्या करता है, वो अपना एसी सेट कर लेता है कि भाई गर्मी ज़्यादा बढ़ गयी है टेम्प्रेचर (तापमान) इधर और थोड़ा सा कम करो, ब्लोअर तेज कर दो, कुछ कर दो। ग़रीब क्या करेगा?
अतिवृष्टि हो रही है, अभी आपने बारिशें देखी हैं पूरे भारत में। उससे तो ग़रीब मारा जा रहा है, किसान मारा जा रहा है। जो उसके ज़िम्मेदार हैं वो नहीं मारे जा रहे हैं। अंज़ाम भुगतना पड़ रहा है उसको जिसने इतना कुछ दोष करा ही नहीं है।
और कौन मारा जा रहा है? पशु हत्या हो रही है, जीव हत्या हो रही है, पूरी-की-पूरी समूची प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, वन कट रहे हैं। आप इस बात को अपने भीतर थोड़ा उतरने दीजिए। प्रतिदिन सौ से एक हज़ार जीवों की प्रजातियाँ सदा के लिए विलुप्त होती जा रही हैं और ये विलुप्ति की प्राकृतिक दर से सौ गुना ज़्यादा है। अगर प्राकृतिक दर पर चले, जो कि आज से सौ साल पहले तक चलती थी प्राकृतिक दर पर, तो वो दर होनी चाहिए दस प्रजातियों की। दस की जगह एक हज़ार विलुप्त हो रही हैं। और उसमें जो न्यूनतम भी अनुमान है वो सौ का है कि सौ तो कम-से-कम विलुप्त हो ही रही हैं। ये इंसान ने करा है।
और इंसान ने क्यों करा है? यही दो कारण फैक्ट्री है जो प्रोड्यूस कर सकती है। जितना आप खा नहीं सकते उससे ज़्यादा वो पैदा कर सकती है। जितना हम भोग नहीं कर सकते उससे ज़्यादा इंडस्ट्री पैदा कर सकती है। जब इंडस्ट्री पैदा करेगी तो ज़रूरी हो जाएगा न उसके मुनाफे के लिए कि आप उसको खरीदें भी, उसका भोग भी करें। भई, माल बाज़ार में आ गया, इससे उसका मुनाफा तो नहीं हो गया न।
प्र: बिकना भी चाहिए।
आचार्य: बिकना भी चाहिए। बिकेगा तब जब आपका दिमाग भ्रष्ट किया जाएगा। आपके भीतर एक कृत्रिम माँग खड़ी करी जाएगी। उस कृत्रिम माँग के ख़िलाफ़ आपको सतर्क करता रहा था अध्यात्म। तो अध्यात्म को पूरी तरह से गिरा दिया गया है, क्योंकि अगर अध्यात्म खड़ा रह गया तो इतना भोगवाद आगे बढ़ नहीं पाएगा।
प्र: मेरा प्रश्न इस पर बार-बार यही आ रहा था कि अध्यात्म इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है कि भौतिकवाद उसको हरा पा रहा है?
आचार्य: अध्यात्म अपनेआप में कोई चीज़ थोड़े ही है, अध्यात्म कोई इंसान थोड़े ही है? हमारे ही भीतर सच्चाई की तरफ़ जो प्रेम होता है उसको अध्यात्म बोलते हैं। मैं स्वयं को जानना चाहता हूँ और ज़्यादा, इसी को तो कहते हैं न अधि-आत्म, मैं स्वयं को ही और अधिक जानना चाहता हूँ। मुझे प्रेम है ख़ुद को जानने से। मुझमें जिज्ञासा है कि मैं चीज़ क्या हूँ मैं समझूँ तो। तो वो हम ही हैं। हम अगर चुनाव करें कि समझूँ तो कि ये सब चल क्या रहा है, तो हम अध्यात्मिक हो गये।
अगर हम कहें, 'अरे जानना-समझना क्या है, मज़े मारो न यार। एक दुकान वो है, वहाँ मज़े लो। उधर जाओ, उससे सम्बन्ध बनाओ। वहाँ जाओ वहाँ नौकरी मिलेगी। वो एक नयी स्त्री मिल गयी है उधर। उधर नया घर आ गया है। अरे वो क्या है, देखो नयी गाड़ी आ गयी है, नया लैपटॉप आ गया।' तो वो मेरा फैसला है, मैं चुन सकता हूँ, मेरे चुनने पर है।
तो ज़्यादातर लोग परिस्थितियों पर चलते हैं। ज़्यादातर लोगों का जो चुनाव होता है वो परिस्थिति आश्रित होता है और परिस्थितियाँ ऐसी बन गयी हैं कि सही चुनाव आम आदमी के लिए बड़ा मुश्किल होता जा रहा है।
इससे आपको ये भी समझ में आएगा कि वो सबकुछ छोड़कर के जो मुझे तेईस-पचीस की उम्र में उपलब्ध हो गया था, मैंने यह काम क्यों चुना। क्योंकि इस काम को करने वाला मुझे दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं देता।
वो काम तो कोई भी कर लेगा। सरकारी नौकरी करने वाले बहुत लोग आतुर हैं और अच्छी प्रतिभा के लोग हैं, वो कर लें। इंजीनियरिंग का काम भी वो कर सकते हैं, मैनेजमेंट का काम भी वो कर सकते हैं, वो काम बहुत लोग कर सकते थे। पर ये जो काम है, ये कोई कर नहीं रहा और ये दुनिया का सबसे ज़रूरी काम है। तो ये काम फिर मुझे उठाना पड़ा।
प्र: आपके भीतर यह चीज़ जाग्रत हुई थी तो बाक़ी लोगों में अपनेआप क्यों नहीं जाग्रत होती? फिर मैं शुरुआत में आ जाता हूँ, आपने कहा था कि ऐसा प्रतिभा का कोई लेना-देना नहीं होता। लेकिन आपकी मेकिंग, आपकी परवरिश, आपका नेचर, आपका नर्चर क्या रहा, वो बहुत सारी चीज़ें इम्पैक्ट (प्रभाव) करती हैं। क्या आपको लगता है कि ज़्यादातर लोगों के लिए नकारात्मक जा रहा है इसलिए भौतिकतावाद हावी है और अध्यात्म वो नहीं कर पा रहे हैं या उसको कमज़ोर करने के प्रयास सारे हो रहे हैं?
आचार्य: देखिए, प्रतिभा की बात नहीं है। मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ भी नहीं।
प्र: नहीं, आपके भीतर, क्योंकि आपने स्वयं से ये सारी चीज़ें शुरू करी एक उम्र में और उसके बाद में आज आपको आवश्यकता पड़ रही है कि आप युवाओं के बीच में जाएँ। और आपको लगता है कि प्रयास और कंसोलीडेटेड , और ज़्यादा मज़बूती से कई लोगों को करने चाहिए। ये गैप आप कैसे देखते हैं कि स्वयं से युवा क्यों नहीं जाग्रत हो पा रहा?
आचार्य: प्रेम की बात होती है। प्रेम की बात होती है और अपने आसपास से थोड़े अगर इशारे मिल जाएँ, थोड़ा सहारा मिल जाए तो अच्छा रहता है। मेरा सौभाग्य था कि मुझे मिले थे कुछ ऐसे इशारे और कुछ ये कि मेरे लिए जो सही काम है, वो दूसरी चीज़ों से थोड़ा ज़्यादा महत्व का रहा है। मेरे लिए शायद प्रेम बहुत मूल्य रखता है उसके लिए मैं नुक़सान झेलने को तैयार हो जाता हूँ। ये अंतर हो सकता है अधिक-से-अधिक।
बाक़ी ये है कि मुझे किताबें बहुत मिल गयी थीं बचपन से ही। मेरे पिताजी थे, उन्होंने जितना अच्छे-से-अच्छा साहित्य हो सकता है, सब दिशाओं से, दोनों भाषाओं में हिंदी और अंग्रेज़ी, मुझे बचपन से ही उपलब्ध करा दिया था। तो मैं बहुत ही छोटा था, मतलब पाँच-सात साल की उम्र से ही तभी से मैंने अच्छी किताबें पढ़ना शुरू कर दिया था और वही मेरा आनंद था। ख़ूब पढ़ता रहता था। तो वो था।
और दूसरी बात ये कि मुझे यह समझ में नहीं आता—इस मामले में आप कह सकते हैं कि मुझमें शायद कोई कमी है, कोई खोट है, यह नहीं कि मुझमें कुछ अतिरिक्त है, ज़्यादा है—मुझे ये समझ में नहीं आता कि अगर कहीं किसी का नुक़सान हो रहा है तो उसको बचाने से ज़्यादा ज़रूरी यह कैसे हो सकता है कि मैं कहीं पर अपना सुख भोगूँ। वो मुझमें इंद्रिय ही नहीं है, मेरे पास वो तर्क ही नहीं है, वो क्षमता ही नहीं है। मेरी बुद्धि शायद उस हिसाब से विकसित ही नहीं हो पायी है कि मैं वो तर्क पैदा कर पाऊँ कि उसको दुखी करके या परेशान करके कैसे कोई दूसरा काम करा जा सकता है। बस यही है और कुछ नहीं।
प्र: तो देखिए, बहुत सारी किताबें आपने पढ़ी हैं, अभी प्रभात प्रकाशन की यह किताब है 'मुक्ति', इसको अवश्य पढ़िएगा क्योंकि सभी प्लेटफार्म्स पर आपको उपलब्ध होगी, बहुत अद्भुत पुस्तक है। (श्रोतागण से कहते हैं)
अब मैं चर्चा को अंतिम चरण में लेकर आता हूँ और मैं आपसे कुछ एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पूछना चाहूँगा। क्योंकि आपसे बात करते-करते, धीरे-धीरे ऐसा लगता है कि आप इसका ये जवाब देने वाले हैं।
आप ख़ुद जब कई बार प्रवचन देते हैं या व्याख्यान देते हैं स्टूडेंट्स के बीच में जाते हैं तो बोलते-बोलते आपको लगता है कि बातें तो बहुत छोटी हैं लेकिन बड़े विस्तारित रूप से बोलने पड़ रही हैं। यह आपको कभी बोझिल करती है या आपको आनंद हमेशा देती रहती है या कुछ नये विचार आ जाते हैं? सवाल भी मैं देखता हूँ घूम-फिरकर अलग-अलग भाषा में वही आ जाते हैं। इसको कैसे मैनेज करते हैं?
आचार्य: बहुत पुरानी लड़ाई है। कोई नया सवाल नहीं आता सामने। कोई नया सवाल नहीं होता। जितने सवाल थे वो बीस साल पहले ही शायद समाप्त हो चुके हैं। सवाल नये नहीं होते, वो इंसान तो नया है न। तो पुराने सवालों का जवाब भी ऐसे देना पड़ता है जैसे आपके सामने पहली बार आ रहा हो। और बोझिल मैं इसलिए नहीं होता क्योंकि कभी मैं अपना जवाब दोहराता नहीं हूँ। अगर मैं जवाब स्मृति से देना शुरू कर दूँ तो मैं ऊब जाऊँगा, आगे मैं बोल ही नहीं पाऊँगा।
मैं जब आपसे बात कर रहा हूँ तो मुझे बिलकुल याद नहीं है कि मैंने इन्हीं प्रश्नों पर पहले कभी किसी से कुछ बोला है और यदि बोला है तो क्या बोला है। आप मुझे मेरी ही ये पुस्तक देंगे तो मुझे ऐसा लगेगा कि जैसे किसी और की है। मुझे एकदम नहीं पता मैंने कब बोला था, क्या बोला था।
कई बार ऐसा होता है कि संस्था के लोग या बाहर से कुछ और मित्र कुछ लिख करके भेज देते हैं और नीचे मान लीजिए वो लिखना भूल गये कि यह किसने कहा है। मैं पढ़ता हूँ, मैं कहता हूँ बहुत शानदार बात है, ज़बरदस्त, एकदम प्रसन्न हो जाता हूँ। पूछता हूँ किसने कही है। तो वहाँ से वो इमोजी आता है हँसता हुआ ज़ोर से, वो कहते हैं तूने कही है। और फिर मेरे लिए वो बड़ा ऑकवर्ड (अजीब) हो जाता है, मैं लजा जाता हूँ, मुझे नहीं पता वो मैंने कहा है।
प्र: तो आपको अच्छा लगता है कि अरे वाह! यह मैंने कही है?
आचार्य: नहीं-नहीं, वो बात अच्छी है यह अच्छा लगता है। वो बात अच्छी है। उसका आप श्रेय लो, ये बात तो बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। तो काम तो पुराना ही है लेकिन अगर पुराने केंद्र से न किया जाए, माने स्मृति से न किया जाए तो बहुत आनंद देता है।
अब अभी आपके साथ बात करते हुए हमने कुछ उदाहरण लिए होंगे, वो उदाहरण मुझे नहीं लगता कि हमने पहले ले रखे हैं। और सबसे मैं यही कहता हूँ कि अगर तुम जो करने जा रहे हो वो पहले से ही तय है, पूर्व नियोजित है तो तुम उसको बिना ऊबे कर कैसे लेते हो!
अध्यात्म को जो परिभाषित किया जाता है तो उसमें से एक रोचक परिभाषा यह भी हो सकती है — ऊब से मुक्ति का नाम अध्यात्म है। आम जीवन एक ऊबा हुआ जीवन होता है, बोर्ड। तो बोरियत से मुक्ति का नाम ही अध्यात्म है।
आध्यात्मिक जीवन का अर्थ होता है जिसमें एक नवीनता हो, अभिनव जीवन, उसे अध्यात्म कहते हैं। जो प्रतिपल नया है, जिसमें आप अतीत पर आश्रित नहीं हो। जिसमें आप ये नहीं कह रहे हैं कि पहले मैंने ऐसा करा था तो अब उसी को दोहराना होगा क्योंकि पहले जो करा था वो चीज़ सफल गयी थी, पहले जो करा था उसके परिणाम बढ़िया आये थे तो मैं आज फिर दोहराऊँगा। जिसमें आप कहते हो आज मैं कुछ नया करूँगा, अंज़ाम चाहे जो आये। जो सही है आज वो करूँगा, अतीत में जो किया अतीत में किया होऊँगा, मुझे उसकी ओर बहुत देखना नहीं है।
प्र: मैं ऐक्चुवली (वस्तुतः) एक ज़्यादा बड़े प्रश्न की तरफ़ इसको ले जाना चाह रहा था जहाँ पर आपका यह उत्तर लेकर आया है। अतीत में आदि शंकराचार्य निकलें, उपनिषदों की यही स्थिति हो गयी थी।
हम वेद-वेद, वैदिक-वैदिक करते हैं, हमें वेद पता नहीं है, हमें उपनिषद् और वेदांत पता नहीं है, ईमानदारी से कहें तो। मैं भी कई बार चर्चा करता हूँ कहीं पर, मैं कहता हूँ कि उपनिषद् पढ़ा है कोई? और मुझे भी तब लज्जा हुई कि यार ये प्रश्न पूछने से पहले ख़ुद भी पढ़ना आवश्यक है। और जब पढ़ा तो लगा कि इससे ज़्यादा साइकोलॉजिकल कोई किताब नहीं हो सकती। इसमें कहीं वो बातें नहीं हैं, कहीं वो ढकोसला नहीं है जिसको लेकर लोग सिर पर ताने-ताने घूम रहे हैं।
तो शंकराचार्य अतीत में प्रयास कर चुके हैं, और भी हुए होंगे उससे पहले। स्वामी विवेकानंद ने हाल के समय में बड़ा सुन्दर प्रयास किया कि वो वेदांत को लेकर निकलें। अभी आप भी ऐसा एक प्रयास कर रहे हैं। अतीत में हो चुका है। आप देखिए, क्योंकि आप अपने निजी जीवन की बात कर रहे थे। लेकिन अतीत में इस देश के प्रति कर्तव्य को महसूस करते हुए जो चीज़ें हो चुकी हैं उनकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता क्या और ज़्यादा ज़ोरदार तरीक़े से है? या आपको लगता है वही फार्मूला काम कर जाएगा?
आचार्य: कौनसा फार्मूला)?
प्र: जो शंकराचार्य जी का था कि वो पूरा देश भर में निकल गये वेदांत को लेकर। या स्वामी विवेकानंद जी विदेश की ओर से फिर देश में लेकर आये कि वेदांत को समझो।
आचार्य: जो वो जो मूल बात कह रहे थे और कर रहे थे वो तो सदा वैध रहेगी। वो क्या कर रहे थे? वो कह रहे थे कि तुम तक तो तुम्हारी इंद्रियों के माध्यम से ही पहुँचूँगा न। अगर मैं तुम्हारे सामने खड़ा ही नहीं हो रहा, अगर तुम्हारे कान में मेरे शब्द ही नहीं पड़ रहे, तो तुम्हें क्या पता चलेगा। और ऐसे तो तुम हो नहीं कि ख़ुद जाकर के कहीं कोई पुस्तकालय खंगालोगे और किताबें ले आ लोगे। तो वो पदयात्रा कर रहे हैं शंकराचार्य पूरे देश की।
वही काम गुरु नानक ने भी करा था, कबीर साहब भी घूमते थे बीच में इधर काफ़ी। ये घूम रहे थे ताकि बात लोगो तक पहुँच सके। हम भी वही कर रहे हैं। हम जो काम करते हैं, संस्था को जो अनुदान आता है उसका लगभग अस्सी प्रतिशत प्रचार में ही तो ख़र्च हो जाता है। वही काम तो कर रहे हैं। बस उस समय उनको ऑनलाइन कुछ ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो उनको पाँव-पाँव घूमना पड़ा।
आज हमको डिजिटल टेक्नोलॉजी उपलब्ध है तो हमें पाँव से नहीं घूमना पड़ता। वो काम जो है प्रचार का, मिशनरी वर्क जो है, वो हमारा ऑनलाइन हो जाता है। तो लोगों तक तो पहुँचना ही पड़ेगा। बिना पहुँचे और क्या तरीक़ा है। पर आप कुछ और भी पूछना चाह रहे थे।
प्र: जी। मैं यही पूछना चाह रहा था कि उस समय खेतड़ी महाराज के पास जाकर वो टिकट की व्यवस्था करवाते हैं स्वामी विवेकानंद, वो कुछ मजबूरियाँ होती हैं। उस समय एक सबसे बड़ा चैलेंज (चुनौती) ये भी था कि वो एकमात्र थे जो इनवाइटेड नहीं थे और उन्हीं की वजह से 'शिकागो सम्मलेन' जाना जाता है। वो इनवाइटेड इसलिए नहीं थे क्योंकि धर्म की पदवी पर बैठे हुए या चिन्हित और चुने हुए लोग कुछ और थे, जो वहाँ पर उनका विरोध कर रहे थे। आदि शंकराचार्य को भी शास्त्रार्थ करने पड़े थे, यहाँ से वहाँ तक एक-से-एक ज्ञानी बैठे थे।
तो समस्या जो है वो ये नहीं है कि लोग ज्ञान नहीं समझ पा रहे हैं। उनके पास ज्ञान के लिए इतने ज़्यादा ऑप्शन्स (विकल्प) हैं और ग़लत-सही का इतना कंफ्यूजन है कि वो समझ नहीं पा रहे हैं कि मैं किससे लूँ। आपको भी सही मानूँ या नहीं।
आचार्य: हाँ, बिलकुल ठीक बात है। और देखिए, बुद्ध को कोई अशोक चाहिए होता है। अशोक बुद्ध के बाद आये और अशोक न होते तो बौद्ध मत वहाँ तक और उतना नहीं फैल पाता जितना फैला था, उत्तर भारत में थोड़ा सा होकर रह जाता, संभावना है। विवेकानंद अमेरिका कभी पहुँच ही नहीं पाते, उनके अपने पास तो शायद दस रुपये न हो। तो उनको भी लोग ऐसे मिलें, जिन्होंने देशभर में जा-जाकर के समर्थन इकट्ठा करा और संसाधन इकट्ठा करे और उनसे उनको वहाँ भेजा।
तो संयोग की भी बात होती है कुछ हद तक कि अज्ञान को कितना संयोग मिल रहा है व्यवस्था से और ज्ञान को कितना समर्थन मिल रहा है व्यवस्था से। वो जो व्यवस्था होती है वो सामाजिक भी होती है, आर्थिक भी होती है, राजनीतिक भी होती है।
अब अगर ये जो व्यवस्थाएँ हैं, यही तुली हुई हों कि हमें अज्ञान को ही आगे बढ़ाना है, सारे संसाधन झोंक दो अज्ञान को आगे बढ़ाने में तो समस्या तो खड़ी होगी ही। और वैसी समस्या आज खड़ी भी है। पर जितना हम कर सकते हैं अपने सीमित, भौतिक सामर्थ्य और संसाधन के साथ उतना कर रहे हैं।
ये जो बाहुबल होता है ये सीमित होता है और संसाधन सीमित होता है, आत्मबल लेकिन अनंत हो सकता है। तो उसी आत्मबल के साथ काम कर रहे हैं।
लेकिन इशारा आपका बिलकुल सही है, परिस्थितियाँ बहुत प्रतिकूल हैं और जिनको समर्थन नहीं मिलना चाहिए उन्हें समर्थन मिल रहा है। आम आदमी के पास, देखिए, अपनी चेतना नहीं होती। आम आदमी खेद की बात है भेड़ की तरह होता है। वो जिसको बड़े मंच पर बैठा पाता है और जिसको बार-बार टीवी पर देख लेता है और जिसका ख़ूब प्रचार और नाम सुन लेता है, वो उसी को बड़ा मान लेता है।
तो आप किसी को भी बड़ा बना सकते हो, उसको बड़ा मंच दे दो, उसे बड़ी पदवी दे दो, कुछ उसको आप पदक दे दो और जगह-जगह पर आप उसको खड़ा कर दो। उसके पीछे भीड़ तैनात कर दो। वो बड़ा हो जाएगा। आप उसको बड़ा कर दोगे, उसके पीछे और लोग चलने लगेंगे। और जो उसकी बातें हैं अगर वो विषैली हैं, अगर वो ज्ञान से भरी हुई नहीं हैं, अगर उनका उद्देश्य ही है लोगों को और भ्रमित करना, हिंसक बनाना, मूर्ख बनाना, तो सोचिए फिर क्या होगा! सोचने की ज़रूरत क्या है कि क्या होगा, देख लीजिए क्या हो रहा है।
प्र: यह मेरा व्यक्तिगत ऑब्जर्वेशन (अवलोकन) आप कह सकते हैं, लेकिन मैं आपकी बातचीत को, आपके विचारों को रेशनलिजम और स्पीरिचुअलिजम (तर्कवाद और अध्यात्म) के बहुत बीच में पाता हूँ, बहुत बैलेंस जगह पर पाता हूँ। कुछ-कुछ जैसा जे. कृष्णमूर्ति का व्यवहार था।
क्या आपको लगता है कि हमारे यहाँ स्पीरिचुअलज्म को लेकर जो प्रैक्टिसेज (कार्यप्रणाली) हैं उसमें आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है? और क्या वो संभव हो पाएगा? या फिर आप एक सलेक्टेड ऑडियंस (चुनिंदा दर्शक या सुनने वाले) के लिए जा रहे हैं, आप भीड़ को नहीं देख कर आप उन लोगों को देख रहे हैं जो ज़्यादा संभावनाशील हैं?
आचार्य: देखिए, दो ही चीज़ें होती हैं, या तो जिज्ञासा होती है या अंधविश्वास होता है। हम कैसे कह देते हैं कि तार्किकता एक चीज़ है और आध्यात्मिकता दूसरी चीज़ है? इन दो को हमने अलग-अलग कैसे बना दिया? रेशनालिटी, स्पिरिचुअलिटी इनको हम अलग कैसे बना रहे हैं?
भई, तर्क क्या है? तर्क तो कार्य-कारण में सम्बन्ध को देखने का एक विवेकी तरीक़ा है। इसी को लॉजिक कहते हैं न। तो तर्क में अपने तो कोई प्राण होते नहीं, तर्क तो अहम् वृत्ति का अनुगामी होता है। आप जो करना चाहते हो आप उसके लिए तर्क खोजते हो। जब कहते हो कि इनकी बात तर्क सम्मत है तो बात पहले आती है, तर्क बाद में आता है।
तो तार्किकता जैसी कोई चीज़ नहीं होती है, सवाल ये होता है कि जो तार्किक आदमी है उसका अहम् झुका किधर को हुआ है। मैं अगर कोई पहले से ही तय कामना लेकर चल रहा हूँ, उद्देश्य लेकर चल रहा हूँ एजेंडा लेकर चल रहा हूँ तो उसके पक्ष में मैं कितने भी तर्क खड़े कर सकता हूँ और मैं कह सकता हूँ मैं रेशनलिस्ट हूँ, मैं तो तार्किक हूँ, मैं रेशनल आदमी हूँ।
तो तार्किकता क्या चीज़ होती है? दो ही तरह के लोग हो सकते हैं। या तो वो जिज्ञासु हो, जो जिज्ञासु है वो जानना चाहता है सचमुच क्या हो रहा है। या वो अंधविश्वासी होगा, जो अपने भीतर नहीं जानना चाहता और दुनिया में नहीं जानना चाहता चल क्या रहा है। वो बस अपनी जो स्वार्थ जनित मान्यताएँ हैं उन्हीं को पकड़कर बैठना चाहता है।
अध्यात्म तर्क के बिना चल ही नहीं सकता। भारत में अध्यात्म सारा दर्शन से उठा है न। वेदान्त क्या है, सांख्य क्या है, न्याय, वैशेषिक क्या है?
प्र: चर्चा है, तार्किक विचार है।
आचार्य: ये दर्शन हैं और दर्शन तो तर्क पर ही चलता है। तो अध्यात्म और तर्क अलग-अलग कैसे हो गये? वेदान्त को हम कहते हैं अध्यात्म है। वेदान्त अध्यात्म से पहले दर्शन है। दर्शन तर्क पर ही चलता है। तो तर्क और अध्यात्म को हम अलग-अलग बोल कैसे देते हैं?
पर जिन लोगों को अध्यात्म की ओर नहीं बढ़ना, उनके लिए यह बड़ी सुविधा की बात हो जाती है, कहते हैं, 'नहीं, हमें अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। हम तो तार्किक आदमी हैं।' तुम तार्किक आदमी नहीं हो, तुम गड़बड़ आदमी हो। तुम चूँकि अपने भीतर नहीं देखना चाहते इसीलिए तुम कह रहे हो कि मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ, मैं तार्किक हूँ।
बात इसकी उल्टी है, जो आध्यात्मिक होगा उसे तार्किक होना ही पड़ेगा। लेकिन जो तार्किक होगा वो आध्यात्मिक हो, आवश्यक नहीं है। तो आध्यात्मिक ही हो जाइए, तार्किक आप अपनेआप हो जाएँगे और तर्क से आगे का भी कुछ आपको मिलेगा, तर्क की सीमाओं को भी जान जाएँगे। तर्क का उपयोग किस दिशा में करना है, यह भी जान जाएँगे। भीतर तर्क क्यों उठ रहा है, यह भी समझ में आएगा, क्योंकि आप जो करना चाहते हो न उसके लिए आपको तर्क खोजना नहीं पड़ता, भीतर से अपनेआप तर्क खड़ा हो जाता है।
उदाहरण के लिए, कोई माँसाहारी आदमी है, उसको आप बोलो कि यार क्या ये हर समय तुम जीवहत्या कर रहे हो, दिख नहीं रहा है उस पक्षी को मारकर खा रहे हो। तो कहते हैं नहीं खाएँगे तो पूरी दुनिया में मुर्गे-ही-मुर्गे हो जाएँगे। और ये उसको तर्क सोचना नहीं पड़ा, ये उसके भीतर से ही स्वत: स्फूर्त, तत्काल उठा है।
अब तार्किक आदमी को यह पता ही नहीं होता कि उसके सारे तर्क उसकी कामना, उसकी वासना से ही तो आ रहे हैं, उसको नहीं पता है। और आप उससे पूछिए कि तुम कौएँ नहीं खाते तो पूरी दुनिया में कौएँ ही फैल गये। तो वो इधर-उधर करेगा और आपसे नाराज़ हो जाएगा और चला जाएगा और आपको कुर्तकी बोल देगा।
प्र: एक बहुत महत्वपूर्ण बात। मैंने आपकी बातों से दो-तीन शब्द पकड़े हैं। मैं बिलकुल चर्चा को विराम की तरफ़ ले जाऊँगा बहुत जल्दी। लेकिन बड़े दो महत्वपूर्ण शब्द हैं ये। बड़ी देर से मैं इंतज़ार कर रहा था और ये क्योंकि एक इंटरव्यूअर के नाते मुझे ये शब्द मिलें तो मैं ज़रूर आपका इसपर प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा।
संयोग, सौभाग्य और तर्क। संयोग और सौभाग्य को आप प्रतिपादित करते अभी बातचीत में दिखायी दिए हैं, आपने माना कि संयोग भी था, सौभाग्य भी था। फिर एक तर्क भी है। क्या आप जीवन में संयोग, सौभाग्य इनको मानते हैं और फिर बहुत सारे लोग जो इसी वजह से अंधविश्वास के दायरे में आ जाते हैं उनका क्या होगा?
आचार्य: संयोग और सौभाग्य ये दोनों प्रकृति के पर्याय हैं।
प्र: क्योंकि ये तर्क से परे हैं।
आचार्य: ये तर्क पर नहीं चलते। ये रैंडम (यादृच्छिक) हैं। तो जो पूरी प्रकृति होती है वो यादृच्छिक होती है, माने रैंडम होती है, अनायास होती है। उसका कोई आप अनुमान नहीं लगा सकते। तो इसीलिए जो विवेकी आदमी होता है वो प्रकृति में सहारा नहीं खोजता, बहुत बड़ा वहाँ पर अपना घर नहीं बनाता। उसको पता है कि यहाँ तो बस ऐसे ही है जैसे समुद्र में लहर उठती है, लहर गिर जाती है। इतनी लहरें उठ रही हैं, गिर रही हैं, इनका कौन हिसाब रखे और कौन भरोसा रखे इनका! कभी कुछ होता है, कभी कुछ हो जाता है। नदी-नाव संयोग। कभी आया, कभी गया, ये सब चलता रहता है।
तो संयोग, सौभाग्य इनका सम्बन्ध प्रकृति से है। हम कौन हैं? यहाँ से प्रकृति हैं हम, शरीर से। और भीतर से चेतना हैं हम। प्रकृति का सम्बन्ध है सौभाग्य, संयोग या कि आप अभाग और कुसंयोग ऐसे कह सकते हैं या दुर्योग बोल दीजिए। चेतना का सम्बन्ध किससे है? अगर वहाँ पर बात संयोग की है तो चेतना में बात चुनाव की है।
तो जो व्यक्ति आत्मस्थ होकर नहीं जी रहा है वो आपकी संयोगों की बहुत बात करता नज़र आएगा। क्योंकि वो जी रहा है प्रकृति के क्षेत्र में। और प्रकृति में जीते हैं सब पशु, वो पूरी तरह प्राकृतिक होते हैं। इंसान प्रकृति में पैदा ज़रूर होता है पर उसको जीना अपनी चेतना में होता है। मुक्ति आप अपने शरीर को नहीं देते, मुक्ति आप अपनी चेतना को देते हैं न। और चेतना संयोगों पर नहीं चल सकती, चेतना को चुनाव पर चलना होता है, यही तो मुक्ति का साधन है — चुनाव।
अगर आपके पास चुनाव की शक्ति न हो तो आपको मुक्ति का भी कहाँ कोई अवसर है। तो हमें न संयोगों पर आश्रित रहना है, न सौभाग्य पर।
प्र: सौभाग्य पर भी मैं चाहूँगा कि थोड़ा सा आप बोलें क्योंकि भाग्य भी इसमें आ जाता है और भाग्य भी तर्कातीत है।
आचार्य: अभी आकाशवाणी पर हुआ था, उन्होंने इंटरव्यू लिया मेरा, अभी दो ही चार दिन पहले। तो उन्होंने कहा कि अपनी पसंद का गाना बताइए। तो प्रहार फ़िल्म का एक गाना है 'हमारी मुट्ठी में आकाश तारा, जब भी खुलेगी चमकेगा तारा'। उसमें आगे है 'हथेली पर रेखाएँ हैं सब अधूरी, किसने लिखी है नहीं जानना है।'
संयोग है, मुझे क्या करना है! मैं सौभाग्य की बाट नहीं जोह सकता। मेरी हथेली पर क्या लिखा है, न मैं उसको पढ़ सकता हूँ, न मुझे उसको पढ़ने से कोई मतलब है। मुझे यह पता है कि काम असंभव भी हो तो मुझे करना है।
आपका कोई स्वजन होता है या हमारा प्रिय मित्र है कोई, वो बहुत बीमार है, बहुत बीमार है और चिकित्सक मान लीजिए ये भी कह रहे हैं कि इसके बचने की बहुत कम ही संभावना है। तो क्या हम उसे बचाने का यत्न छोड़ देते हैं? एक प्रतिशत भी कह दिया कि संभावना है, शून्य दशमलव एक प्रतिशत भी, हम तो भी लगे रहते हैं कि बचा दें, कोशिश करते रहते हैं।
वहाँ हम ये तो नहीं कहते हैं न कि अब तो जो इसमें संभावना है वो बहुत कम हो गयी है? न तो वहाँ पर हम प्रारब्ध की बात करते हैं, न प्रॉबेबिलिटी की। वहाँ हम बात करते हैं प्रेम की। वहाँ हम कहते हैं मेरा चुनाव है कि डटा रहूँगा, भले ही इसमें मुझे असफलता मिल जाए।
और निष्कामता यही होती है कि असफलता की पूरी संभावना है लेकिन मुझे फ़र्क नहीं पड़ता, काम इतना ज़रूरी है कि मैं करूँगा ज़रूर। तो जिसको ज़िंदगी सार्थक जीनी हो उसको सौभाग्य और संयोग दोनों को कम-से-कम महत्व देना होगा। उसको ये नहीं देखना होगा कि दुर्योग बन रहा है कि दुर्भाग्य खड़ा हो रहा है, उसको तो ये कहना होगा कि अब जैसा भी है, जो भी है, मेरा आनंद तो सही ज़िंदगी जीने में है। उससे मुझे क्या मिलता है, क्या परिणाम होगा, वो सब छोड़ो।
प्र: आप अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ एक चेतना का जागरण भी करने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए सवाल महत्वपूर्ण है। ये होता है कि नहीं होता है, पहले तो इसी पर अटक कर रह जाते हैं कि कुछ अदृश्य, कुछ अननोन (अज्ञात), कुछ ऐसा सौभाग्य, कुछ संयोग, कुछ दुर्योग, यह किस्मत का खेल और फिर उस पर जो दुकानें सजती हैं वो एक अलग बात है। लेकिन ये होता है कि नहीं होता है, इस पर अटक कर रह जाते हैं।
और आपके दर्शक में से कुछ के सवाल हो सकते हैं?
आचार्य: वो होता भी है तो मुझे ही लग रहा है न कि होता है। मान लीजिए, मैं कह रहा हूँ होता है, चार भूत नाच रहे हैं वहाँ बरगद के पेड़ पर और डायन वहाँ बैठी है। वो है भी तो किसको लग रहा है कि है?
प्र: मुझे ही।
आचार्य: मुझे ही लग रहा है। और मैं हूँ वो जो ज़िंदगी के हर क्षेत्र में भ्रमित है। मैं जो हूँ उसको यह नहीं पता कि इसमें (कप में) चाय रखी है कि कॉफी। उसको ये नहीं पता कि उसे यही शर्ट पहननी चाहिए थी कि टी-शर्ट पहननी चाहिए थी। उसे ये नहीं पता उसे साइंस लेना चाहिए था कि कॉमर्स लेना चाहिए था। उसने किस लड़की से ब्याह कर लिया, वो दो साल बाद पछता रहा है, आज तक पछता रहा है।
वो ज़िंदगी में कुछ नहीं जानता, किसी चीज़ के बारे में नहीं जानता। न वो बाहर के बारे में जानता है न वो भीतर के बारे में जानता है। तो फिर वो भूत के बारे में इतना ज़्यादा कैसे जानता है? वो भूत है कि नहीं है, इसका निर्धाता तो मैं ही बन रहा हूँ न। तो मैं भूत की बात ही छोड़ता हूँ, मैं अपनी बात करूँगा। अगर मेरी आँखें ही ख़राब हैं तो मुझे जो कुछ भी दिख रहा है, वो ग़लत ही होगा।
भूत-प्रेत की बात करने वाला मैं हूँ। ये जो बात करने वाला है, क्या ये कोई स्पष्टता रखता है आंतरिक? अगर ये स्पष्टता रख कर बोले कि हाँ सचमुच भूत-प्रेत होते हैं तो मैं नमन कर लूँगा। पर ये जो बोल रहा है यह भीतर से कितना उलझा हुआ है, इसके कोहरा-ही-कोहरा है भीतर, एकदम अंधकार है भीतर। और उसके बाद यह पूरे दावे के साथ कह रहा है, पूरे यकीन के साथ कह रहा है, 'होता है।'
अब कोई पागल आदमी आये और वो पूरा दावा ठोक करके कहे सात उँगलियाँ होती हैं, तो मैं क्या करूँगा, मुस्कराऊँगा। इसलिए नहीं कि सात उँगलियाँ नहीं होती हैं, इसलिए कि तू अगर यह भी बोलता कि पाँच होती हैं तो भी मुस्कुराता। ये तो छोड़ दे कि तुझे सात का नहीं पता, तुझे पाँच का भी कैसे पता, तू तो पागल है।
प्र: आचार्य जी, ये एक यात्रा की तरह चल रहा है, पर टाइम का बाधा है। आपकी टीम फिर बाद में मुझसे प्रश्न पूछेगी। तो समय अवधि में क्योंकि मुझे बिलकुल ध्यान नहीं रहा कि आपके साथ कैसे समय बीता है और सचमुच में यह मेरे अपने अंतर्मन के लिए, मेरे अपने अंतर विकास के लिए जो ये यात्रा रही, जो बातचीत रही बहुत ही सकारात्मक है। इसके लिए मैं आपको नमन करता हूँ, प्रणाम करता हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद!
पुस्तक इसी तरह से आप लिखते रहें, इसके लिए क्या शुभकामनाएँ दूँ, क्योंकि ये तो सतत चलता रहेगा।
(आगे श्रोतागण से कहते हैं)
लेकिन प्रभात प्रकाशन ने पुस्तक प्रकाशित की है, आप इसको तमाम प्लेटफार्म पर हासिल कर सकते हैं। मैं रेकमेंड करूँगा कि आप इसको अवश्य पढ़ें। और जितनी बातचीत हमने की है ऐसे कई प्रश्नों के उत्तर इसमें मिल पाएँगे, इसे अवश्य पढ़िएगा।