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लिव-इन संबंध, और माँ-बाप को सदमा || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! मेरा प्रश्न आज की जवान पीढ़ी के बारे में है। आज के बच्चों में प्री वेडिंग शूट और लिव इन रिलेशनशिप बहुत आम है। मुझे ज़्यादा ज्ञान नहीं है इन चीज़ों का लेकिन सुनते हैं कि ऐसा करते हैं। मन में कुछ दुविधाएँ और विचार हैं कि पता नहीं पीढ़ी किस स्तर पर जा रही है। ऐसा लगता है कि अध्यात्म काफ़ी कमज़ोर है इन चीज़ों को रोकने में। तो आपका इसके बारे में थोड़ा मार्गदर्शन चाहिए।

आचार्य प्रशांत: नहीं, अध्यात्म कमज़ोर होता तो ये सब नहीं करते न।

प्र: मतलब बच्चों को वो मिल नहीं पा रहा।

आचार्य: समझिए तो। वो जो ये कर रहे हैं वो भी एक आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही कर रहे हैं। आपने जो दोनों बातें बोली, इसमें लड़के-लड़कियों के परस्पर सम्बन्ध की बात है, चाहे लिव इन हो चाहे प्री वेडिंग हो। लड़का-लड़की जो एक-दूसरे की तरफ़ आकर्षित होते हैं न इतना, अन्धा, वो भी चाहत एक आध्यात्मिक लक्ष्य को पाने की ही है। बस उसका मार्ग ग़लत चुन लिया गया है इसलिए वो लक्ष्य मिलेगा नहीं।

मनुष्य प्रजाति में स्त्री-पुरुष, लड़का-लड़की जितना एक-दूसरे की तरफ़ हवसी होकर के भागते हैं उतना किसी और प्रजाति में होता है? तो फिर ये हवस प्राकृतिक तो नहीं हो सकती।

समझना चाहते हैं हम।

आप इतनी प्रजातियों को देखते होंगे अपने आस-पास। गाय को देखते हैं, कुत्ते को देखते हैं, सब शहर में ही दिख जाते हैं, इतने पक्षियों को देखते हैं। जंगल के भी पशु हैं उनका भी पता ही रहता है। किसी भी पशु में, पक्षी में, प्रजाति में उतनी बहकी हुई, उतनी विक्षिप्त कामवासना आप देखते हैं जितनी मनुष्य में पायी जाती है? देखते हैं क्या?

उनके अपने पीरियड्स (दौर) होते हैं। उनका मेटिंग टाइम (मिलन का समय) होता है, वो उस समय पर समागम कर लेते हैं और बस हो गया। उसके बाद अपना वो एक-दूसरे के प्रति लगभग उदासीन रहते हैं, उन्हें बहुत फ़र्क नहीं पड़ता। एकदम उनका एक निश्चित समय होता है। और उस निश्चित समय में भी एक निश्चित तीव्रता के क्रियाकलाप होते हैं, उतना ही करेंगे। उससे न उनको आगे जाना है न पीछे जाना है। उनका जो कुछ है वो सीमित भी है और सावधिक भी है। सावधिक माने उसकी अवधि निश्चित होती है और सीमित माने उस अवधि में भी वो कितनी क्रिया करेंगे उस पर भी सीमा लगी होती है।

तो ये प्रकृति-प्रदत्त कामवासना है, जो सावधिक भी है और सीमित भी। प्रकृति आपको इतनी ही कामवासना देती है, इससे ज़्यादा नहीं देती। हम सोचते हैं कि अगर हम बन्दिशें वगैरह हटा देंगे और इंसान बिलकुल प्राकृतिक हो गया तो वो पूरा समय, पूरे दिन, पूरे साल सेक्स ही करता रहेगा। नहीं, ऐसा नहीं है, ऐसा कोई जानवर नहीं करता। आदमी भी नहीं करेगा अगर वो पूर्णतः प्राकृतिक हो।

तो ये जो इतनी विक्षिप्त वासना है फिर ये कहाँ से आ रही है? प्रकृति से नहीं आ रही है। अगर ये प्रकृति से आयी होती तो ये सीमित होती। ये मन से आ रही है। मन को चाहिए आध्यात्मिक शान्ति, मन को वो मिल नहीं रही है। तो मन वो शान्ति फिर कहाँ खोज रहा है? मन वो शान्ति खोज रहा है विपरीत लिंगी में। लड़की कह रही है लड़का मिल जाए तो शान्ति मिल जाएगी। लड़का सोच रहा है कि लड़की मिल जाए तो शान्ति मिल जाएगी। ऐसा नहीं है कि उनको ये बात पता है। कोई बिलकुल बहका हुआ लड़का भाग रहा हो लड़कियों के पीछे और आप उससे कहो कि देख, तुझे लड़की नहीं, तुझे शान्ति चाहिए। तो वो कहेगा, ‘हटो! हम जानते हैं न हमें क्या चाहिए’, या वो पूछेगा, ‘शान्ति कौनसी लड़की का नाम है?’

तो ऐसा नहीं कि उसको पता है, पर हमारे पास प्रमाण है। अगर कामवासना मनुष्यों में मात्र प्राकृतिक होती तो सीमित होती, जैसे कि सब प्रजातियों में सीमित होती है, हमारी असीमित है। हमारी कामुकता की प्यास बुझने नहीं पाती। माने कोई और बात है और बात ये है कि मनुष्य अकेला प्राणी है जिसकी प्यास आध्यात्मिक होती है। लेकिन उसके पास अज्ञान भी होता है। अब प्यास आध्यात्मिक है, लेकिन जानते नहीं कि प्यास किस चीज़ की है क्योंकि अज्ञान है, जानते नहीं।

तो फिर हम क्या करते हैं? हम कहीं भी, कुछ भी पीकर के उस प्यास को बुझाने की कोशिश करते हैं। मिट्टी का तेल याद है न, कि लगी है प्यास और जानते नहीं किसकी प्यास लगी है तो मिट्टी का तेल पिये जा रहे हैं। लड़की पीती है मिट्टी का तेल लड़के के रूप में। लड़का पीता है मिट्टी का तेल लड़की के रूप में, और दनादन पिये जा रहे हैं। और मिट्टी के तेल का गुण ये कि जितना पियोगे, प्यास उतनी बढ़ेगी। तो जितना पीते हो, प्यास बढ़ती है, तो और मिट्टी का तेल पीते हो फिर। होश इतना है नहीं कि समझो कि जो पी रहे हो उससे प्यास मिटेगी नहीं, बढ़ेगी। तुम जो चाहते हो वो तुम्हें लड़की से मिलने का ही नहीं, दौड़ते रहो उसके पीछे ज़िन्दगी भर।

आप लिव इन कह रहे हैं, मैं कह रहा हूँ मत करो लिव इन , बड़े संस्कारी हो, शादी कर लो। उससे भी क्या प्यास मिट जाएगी? आप कह रहे हो एक लड़का पाँच लड़की लेकर घूम रहा है या एक लड़की पाँच लड़के। मैं कह रहा हूँ पाँच लेकर नहीं घूमो, एक ही लेकर घूमो, उससे भी क्या प्यास मिट जाएगी? लोग आपत्ति करते हैं, कहते हैं, ’होमोसेक्शुएलिटी बढ़ रही है आजकल।’ मैं कहता हूँ, ‘मत करो होमोसेक्शुएलिटी। तुम हिट्रोसेक्शुएलिटी कर लो, उससे क्या प्यास मिट जाएगी?’

बात इसकी नहीं है कि आप सेक्स पर नियम-क़ायदे लगा दो या बन्दिशें और वर्जनाएँ लगा दो, उससे मामला ठीक हो जाएगा। मामला ऐसे नहीं ठीक होगा कि एक प्रकार से, संस्कारी सेक्स करो तो ठीक है, ऐसा नहीं होगा। मामला इससे ठीक होगा कि आप पहले समझो कि आप कौन हो और आपको क्या चाहिए। आप कौन हो और आपको क्या चाहिए।

आज की पीढ़ी कोई विशेष रूप से भ्रष्ट नहीं हो गयी, जो अज्ञानी है वो सदैव ही भ्रष्ट रहा है। पिछली पीढ़ी भी भ्रष्ट थी, उनके माँ-बाप भी भ्रष्ट हैं। बस आज की पीढ़ी जो करती है, वो थोड़ा खुल्लम-खुल्ला करती हैं। माँ-बाप में इतनी हिम्मत नहीं थी, वो छुप-छुपकर करते थे।

एक को पकड़ा था मैंने, वो इधर-उधर अपना गाली देता घूम रहा था माँ-बहन की। मैंने कहा, ‘इधर आ’, और पूछा, 'माँ-बाप ने यही सिखाया है?' बोला, ‘ये माँ-बाप ने ही तो सिखाया है।’ बोला, ‘वो एक-दूसरे को गाली देते हैं घर में। घर के बाहर नहीं देते, क्योंकि घर के बाहर उनकी संस्कारी छवि है। पर बाप माँ को घर में गाली देता है — माँ की गाली। माँ बाप को गाली देती है — बाप की गाली। घर में ही ये चलता रहता है, वहीं से तो सीखा हूँ। और कहाँ से!’ तो आज नहीं ये भ्रष्ट हो गये।

मनुष्य की संरचना कुछ ऐसी है कि वो पैदा ही भ्रष्ट होता है। मनुष्य सब प्रजातियों में सबसे अभागी प्रजाति है। हम जितना आन्तरिक कष्ट झेलते हैं, कोई मुर्गा, कोई मछली, कोई बत्तख, कोई पक्षी, कोई जानवर कभी नहीं झेलता, वो सब अपेक्षतया शान्ति से जीते हैं। आप कभी किसी गाय को देखना जिसका पेट भरा हुआ हो, चुपचाप अपना बैठी हुई है, उसे कोई लेना-देना नहीं दुनिया से। आपको कोई आदमी वैसा नहीं मिलेगा।

आप इनको छोड़ो, जिनको आप कहते हो कि हिंसक पशु हैं, तेंदुआ, चीता, भालू इनको देख लो, शेर को देख लो, उसका भी अगर पेट भरा हुआ है तो चुपचाप बैठा रहेगा। आप उसके आगे से निकल जाइए, हो सकता है वो उठे भी नहीं, उसे कोई लेना-देना नहीं। कोई लेना-देना नहीं।

उनको इतनी बेचैनी है ही नहीं जितनी हम अभागों को है। हम अभिशप्त हैं इसलिए पैदा हुए हैं मनुष्य होकर। ये शाप है और उसी शाप की अभिव्यक्ति होती है जो इस प्रजाति के दो लिंग एक-दूसरे के चक्कर काटते रहते हैं, आदमी औरत का, औरत आदमी का। ये शाप का प्रभाव है। आपको ये शाप मिला है कि तुम मनुष्य पैदा होगे और मनुष्यों में ही जो दूसरा लिंग है उसका चक्कर काटोगे। और चक्कर काटकर भी कुछ पाओगे नहीं। हाँ, औलादें हो सकता है पैदा हो जाएँ, क्या करने को? वो भी चक्कर काटेंगी। (श्रोतागण हँसते हुए)

समझ में आ रही है बात?

तो ये सब चीज़ें ठीक हैं। शादी किये बिना दोनों साथ रह रहे हैं, उनको भी क्या मिल जाएगा? वो भी एक-दूसरे के सिर फोड़ेंगे, उनमें विशेष क्या है! असल में शादीशुदा वालों को लिव इन वालों से थोड़ी ईर्ष्या हो जाती है। (श्रोतागण हँसते हैं)

मैं कह रहा हूँ कि ईर्ष्या की कोई वजह ही नहीं है। ये लिव इन वाले भी उतना ही कलह, उतनी ही क्लेश, उतनी ही बर्बादी झेल रहे हैं। ये भी डिफ़ैक्टो (वास्तव में) मियाँ-बीवी ही हो जाते हैं। अब तो कोर्ट ने भी मान लिया। न्यायालय ने भी कह दिया है कि अगर आदमी-औरत साथ-साथ रह रहे हैं और बहुत समय से साथ-साथ रह रहे हैं तो उनको कानूनी तौर पर पति-पत्नी ही माना जाना चाहिए, भले ही विवाह किया चाहे नहीं किया। क्योंकि उनके सब लक्षण तो मियाँ-बीवी जैसे हो जाते हैं, उसमें बचा क्या है? वो भी एक-दूसरे पर नज़र रखते हैं। मियाँ-बीवी माने क्या? एक-दूसरे की जान खाना। वो खाते हैं, बराबर की जान खाते हैं। तो जब बराबर की जान खा ही रहे हो तो तुम हो ही मियाँ-बीवी फिर।

क्यों जान खा रहे हो? मज़ाक की बात नहीं है। तुम्हें उस स्त्री में कुछ और चाहिए था, जो भी बोल लो, देवी चाहिए थी, परमात्मा चाहिए था, परम शान्ति चाहिए थी। वो जो तुमको परम चाहिए वो तुमको नहीं मिलेगा उस देवी में, माने उस स्त्री में। जब नहीं मिलेगा तो तुम खिसियाओगे, जब खिसियाओगे तो उसका खोपड़ा खाओगे। क्योंकि तुम न जाने क्या सोचकर उसको घर लाये थे। तुम जो भी सोचकर उसको घर लाये थे, वो तुम्हें उससे नहीं मिल सकता। यही हालत औरत की रहती है। उसको लगता है इसमें (आदमी में) बहुत कोई रब मिल जाएगा, परमात्मा मिल जाएगा, कोई बहुत आख़िरी चीज़ मिल जाएगी, अन्तिम शान्ति इसी पुरुष में मिल जानी है। वो पुरुष क्या है, वो नमूना है, उसमें क्या मिल जाएगा तुमको! घोंचूलाल है और तुम कह रहे हो ‘परमात्मा’!

फिर जब दिख जाता है शादी के छः महीने, साल भर बाद कि ये तो धोखा हो गया, घोंचू निकला। तो अब क्या करोगे? “खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे”, खिसियानी बीवी मियाँ जी को नोचे। वो नोचती है उसे, ज़िन्दगी भर नोचती है।

ये जो नोचा-नोची है ये हमारे अज्ञान से निकल रही है। और इसमें ग़लती दूसरे की नहीं है। अगर तुम्हें दूसरा फूटी आँख नहीं सुहाता तो उसमें उसकी कोई ग़लती नहीं है। उसने थोड़े ही कहा था कि मैं तुम्हारा परमात्मा बनूँगा, तुम ही ने सपने सजा लिये।

समझ में आ रही है बात?

ये प्री वेडिंग शूट भी वही है। तुम्हें बता दिया है पिक्चरों ने कि ये सब कर लोगे तो खुशी आ जाएगी। तो तुम करते हो, तुम्हें लगता है क्या पता आ ही जाए! कर लेते हैं ये भी। आप देहरादून के हैं (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए), तो उधर ऋषिकेश वगैरह में खूब होता है ये।

मनुष्य की जो आदिम प्यास है, वही इन विकृत रूपों में अभिव्यक्त हो रही है। ये विकृतियाँ हैं। सबको परम चाहिए, जो आख़िरी है सबको वो चाहिए। लेकिन चूँकि ज्ञान का अभाव है तो इसीलिए हम सब उस चीज़ को कभी प्री वेडिंग फ़ोटोशूट में, कभी इसमें, कभी डेस्टिनेशन वेडिंग में, कभी वही कि जाकर के साइबेरिया में हनीमून मनाएँगे, जितनी ठंड हो उतना अच्छा रहता है न। तो ये सबकुछ होता है फिर।

समझ में आ रही है बात?

ये लेकिन समझाना बड़ा मुश्किल है। जवान आदमी को छोड़ दो, प्रौढ़ लोगों को भी छोड़ दो, एकदम मरने को तैयार बूढ़ा बैठा हो उसको भी ये समझना बड़ा मुश्किल है कि तुझे औरत में नहीं मिलेगा वो। और यही हालत स्त्रियों की है, उनको समझाना और मुश्किल है। भाई, उसमें नहीं है। ‘नहीं, पर वो तो परमेश्वर है।’ नहीं है, नहीं है। वो मानने को ही नहीं राज़ी होती। उसको लगता है कि है उसी के अन्दर, छुपा हुआ है।

एक देवी जी मुझसे बोली, ‘जब सबमें भगवान होते हैं तो मेरे पति में क्यों नहीं है? आप क्यों बार-बार बोल रहे हैं, उसमें नहीं है? कण-कण में नारायण होता है, मेरे पति में ही नहीं होगा?’ मैंने कहा है, ‘है, तू रख ले’, मेरा क्या लेना-देना! (श्रोतागण हँसते हैं)

हमने देवताओं का पूरा कुनबा तो गृहस्थी में ही इकट्ठा कर लिया है न। ये नन्हे-मुन्ने क्या हैं? बाल-गोपाल हैं, पत्नी साक्षात् देवी है, पति साक्षात् परमेश्वर है, माँ-बाप तो भगवान होते ही हैं। अब आपको अध्यात्म की ज़रूरत क्या है? जब घर के भीतर ही देवताओं का पूरा खानदान इकट्ठा है, तो आप क्या करोगे अध्यात्म पढ़कर, गीता जानकर, उपनिषद् जानकर? ज़रूरत क्या बची? घर ही काफ़ी है!

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