Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
लम्बा जीवन क्यों जिएँ?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
11 min
122 reads

इस संसार में कर्म करते हुए ही (मनुष्य को) सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिए। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है। इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता।

~ ईशावास्य उपनिषद्, श्लोक 2

आचार्य प्रशांत (प्रश्न पढ़ते हुए): "प्रणाम सर , उपनिषद् के ऋषि सौ वर्ष जीने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, पर कई महापुरुष जैसे स्वामी विवेकानंद, आचार्य शंकर आदि बहुत कम आयु में ही गुज़र गए। स्वामी विवेकानन्द, जिनसे मैं बहुत प्रेरित हूँ, उनके बारे में कहा जाता है कि वो समाधि के समय कई व्याधियों से भी ग्रस्त थे। तो मेरा प्रश्न यह है कि महापुरुष, उपनिषद् की इस ऋचा का अनुपालन करते क्यों नहीं दिखते? मान लिया जाए कि वो मुक्ति को प्राप्त भी हो चुके थे, फिर भी अपने मिशन (अभियान) के फैलाव हेतु ही सही उन्हें और जीने की इच्छा क्यों नहीं थी?"

उपनिषद् के ऋषि कह रहे हैं कि संसार में कर्म करते हुए और कर्मफल की इच्छा से लिप्त हुए बिना सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करो।

अब सौ वर्ष तक क्यों जीना है? सौ वर्ष तक जीना मात्र जीने के लिए तो नहीं हो सकता, अन्यथा तो आयु एक संख्या मात्र होती है, कोई बीस वर्ष जिया, कोई पचास, कोई सौ। अमर तो सौ वर्ष जीने वाला भी नहीं हो गया। सौ हो, या बीस हो, या पचास, सत्तर, ये सब तो संख्याएँ, आंकड़ें मात्र हैं। तो सौ वर्ष जीने के लिए प्रेरित क्यों कर रहे हैं ऋषि? इसलिए कर रहे हैं क्योंकि सामान्य आदमी को लम्बा समय चाहिए मुक्ति को पाने के लिए।

जीवन का जो उद्देश्य है, एक ही उद्देश्य, कि अहं-वृत्ति से, प्रकृति से छुटकारा मिल जाए, या कि अहं-वृत्ति पूर्णता को प्राप्त हो करके ब्रह्मलीन हो जाए। वो उद्देश्य आसान नहीं है ज़्यादातर लोगों के लिए, बहुत कठिन है। क्योंकि अहं को घेरे हुए माया के सारे आकर्षण, सारे विकर्षण, राग, द्वेष, प्रकृति के तीनों गुण, ये सब जीवन-पर्यन्त खड़े रहते हैं। और अब, जब ये खड़े हुए हैं तो अहं कैसे इनसे मुँह मोड़ करके, कैसे इनसे पीछा छुड़ाकर के मुक्ति के आकाश में उड़ भागेगा? बड़ा मुश्किल होता है। तो इसलिए लम्बी आयु चाहिए होती है।

लम्बी आयु इसलिए नहीं चाहिए कि लम्बा जियोगे तो सुख भोगोगे। वो तो ऋषि खुद ही चेता रहे हैं कि सौ वर्ष तक जीना है और कर्म में, कर्मफल में लिप्त नहीं होना है। ये थोड़ी कह रहे हैं कि लम्बी आयु जियोगे तो लम्बी आयु का सुख भोगोगे। वो कह रहे हैं, “लम्बी आयु जियो ताकि जो तुम्हें अवसर मिल रहा है जीवन के उद्देश्य को पूरा करने का, वो अवसर लम्बा हो जाए।“

भई! आपको कोई बहुत ज़रूरी काम करना है, आप क्या चाहेंगे? वो काम करने के लिए आपको दो घंटे मिलें या दो दिन मिलें? आप यही कहोगे न, कि काम ज़रूरी है तो मुझे लम्बा समय दीजिए ताकि मैं इस काम को ठीक से पूरा कर सकूँ? तो इसी तरीके से ऋषियों ने कहा है कि लम्बी आयु जियो, ताकि इस बात की संभावना बढ़ जाए कि अपनी आयु के किसी बिंदु पर आकर के तुम पूर्णतया मुक्त हो पाओ।

अब बात आती है कि आचार्य शंकर हों, स्वामी विवेकानन्द हों, या कई अन्य मनीषी हों, जो कि बहुत जी-जान से अपने किसी मिशन , किसी अभियान में लगे हुए थे, उनकी, हम पाते हैं कि मृत्यु या समाधि बहुत कम अवस्था में ही हो गई। तो वहीं से प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा निकल रही है, वो कह रहे हैं कि जब ऋषियों ने कहा था सौ साल जीने को, तो स्वामी विवेकानन्द इत्यादि इतना लम्बा क्यों नहीं जिए?

वजह स्पष्ट है। जिस कारण से लम्बा जीने को कहा जा रहा है वो ‘कारण’ प्रमुख है न? उद्देश्य प्रमुख होता है, माध्यम नहीं, साध्य प्रमुख होता है, साधन नहीं। है न? साध्य क्या है? मुक्ति। साधन क्या है? समय। तो मुक्ति चूँकि बहुत बड़ा साध्य है, इसीलिए हमें प्रेरित किया जाता है कि 'साधन' की हमें प्रचुरता रहे। साधन कितना रहे, सौ वर्ष का साधन रहे, समय सौ वर्ष का मिले।

पर साधन से बड़ा तो साध्य होता है न? 'मुक्ति' उम्र से बड़ी चीज़ है। मुक्ति क्या है? साध्य, लक्ष्य जो पाना है। और उम्र क्या है? साधन, जिसका इस्तेमाल करके उस साध्य तक, मुक्ति तक पहुँचना है।

तो अगर कभी ऐसा हो जाए किसी के जीवन में कि साध्य और साधन में से एक को चुनने की विवशता या अनिवार्यता आ जाए तो बताओ किसको चुनना चाहिए? साध्य है और साधन है और साध्य की खातिर है साधन। साधन इसलिए है ताकि साध्य तक पहुँचा जा सके। अब अगर स्थिति ऐसी पैदा हो गई कि साधन और साध्य में से किसी एक को ही चुनना है तो बोलो किसको चुना जाए? तो फिर तो तुम्हें साध्य को ही चुनना होगा न?

नहीं, ईश्वर न करे कि ऐसी स्थिति पैदा हो, पर कई बार हो जाता है। ये स्थिति, इस तरह का भीषण चुनाव सबके जीवन में नहीं आता, पर कई बार महापुरुषों के जीवन में आ जाता है। और चुनाव ये होता है कि अगर मुक्ति चाहिए तो इस तरह का जीवन जीना पड़ेगा कि उसमें फिर लम्बी उम्र या आयु नहीं मिलने वाली।

अब, स्वामी विवेकानंद के सामने तुम जाकर के ये स्थिति रख देते। और स्थिति होती कि आपका जो साध्य है, अपनी मुक्ति और दूसरों का कल्याण, यही उनका साध्य था, अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण, ये उनका साध्य था। आप उनके सामने कहते, “ये जो साध्य है इसकी प्राप्ति तभी होगी जब तुम साधन को तेज़ी से जला डालो”। साधन क्या है? आयु। और आयु किसकी होती है? शरीर की। तो साध्य है उनका जो मिशन है और साधन है जो उनका शरीर है। वो तुरंत चुन लेंगे, वो कहेंगे कि, "मुझे मिशन , मेरा अभियान प्यारा है। उसकी खातिर अगर मुझे अपने शरीर की और अपनी आयु की बलि देनी पड़े तो मुझे कोई समस्या नहीं है।" यही उन्होंने किया, यही आचार्य शंकर ने भी किया।

दोनों ने ही घोर शारीरिक श्रम भी किया था। आचार्य शंकर आज से करीब चौदह-सौ, डेढ़-हज़ार साल पहले केरल से शुरू करके पूरे भारत का भ्रमण कर रहे थे, बिना यातायात के किसी साधन के। लगातार बहस, विवाद, शास्त्रार्थ में वो संलग्न रहते थे। उनका विरोध भी घोर हो रहा था। और साथ-ही-साथ उनका कृतित्व अबाध जारी था। पुस्तकें रचते जा रहे थे, और पीठों की स्थापना करते जा रहे थे, और एक प्रकार का संगठन भी तैयार करते जा रहे थे। ये सब चीज़ें शरीर पर तो भारी पड़ती ही हैं न।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने माँगा था कि उनको अल्पायु में ही मृत्यु प्राप्त हो जाए, ऐसा नहीं है कि वो जीने के इच्छुक नहीं थे। कोई अगर जीने का इच्छुक नहीं है और वो मृत्यु पा ले, तो उसको तो लगभग आत्महत्या माना जाएगा। हम ये थोड़े ही कह सकते हैं कि महापुरुषों ने आत्महत्या करी है। नहीं, वो आत्महत्या नहीं है, उसको समर्पण कहते हैं, त्याग कहते हैं, उसको सही चुनाव कहते हैं।

स्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि व्यक्ति को कहना पड़ता है कि, "चाहता तो मैं भी हूँ कि मैं लम्बा जीऊँ, मुझे जीवन से कोई परहेज़ नहीं है, अगर अस्सी वर्ष की आयु मिलती हो बहुत बढ़िया बात। लेकिन हम अपने उद्देश्य की कीमत पर लम्बा नहीं जिएँगे। उद्देश्य की पूर्ति के साथ-साथ अगर लम्बा जीवन मिल जाए, बहुत अच्छी बात, जी लेंगे। लेकिन अगर ऐसी विकट बन गई है स्थिति, कि या तो लम्बा जी लो या अपने उद्देश्य को, अभियान को, प्रयोजन को पूर्ण कर लो। तो फिर हम जानते हैं हमें क्या चुनना है, हमें अपने उद्देश्य को चुनना है।"

तो तुमने लिखा है कि, कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद की जब मृत्यु हुई तब वो अनेक बीमारियों से ग्रस्त थे। हाँ, बिलकुल ऐसा कहा जाता है, ऐसा हो भी सकता है। लेकिन अगर ऐसा था भी, तो इसको उनकी महानता ही मानना। एक साधारण आदमी को तो मुँह का छाला हो जाए तो भी वो कहता है कि, "आज बड़ा दर्द है, आज काम नहीं करेंगे।" एक साधारण आदमी को तो सर में ज़रा सा दर्द हो जाए या एड़ी में मोच आ जाए तो वो काम रोक देता है अपना। बड़ा निश्छल, पूर्ण और हार्दिक समर्पण चाहिए किसी बहुत ऊँचे लक्ष्य के लिए, कि आदमी कहे कि मैं बीमार हूँ तब भी मैं काम करता चलूँ।

और बहुत स्वस्थ नौजवान हुआ करते थे विवेकानन्द, शरीर से बलिष्ठ। कोई तो बात रही होगी न कि जो व्यक्ति पच्चीस की आयु में शरीर से बलवान था, हट्टा-कट्टा, लम्बा-चौड़ा, वो आदमी अड़तीस की उम्र तक आते-आते न जाने कितनी बीमारियों से ग्रस्त हो गया? और स्वास्थ्य-लाभ वो व्यक्ति कर सकता था। वो अगर चाहते तो सारा काम एक किनारे रखकर बोलते, "मैं अब दो साल के लिए स्वास्थ्य-लाभ करने के लिए पहाड़ों पर जा रहा हूँ, अल्मोड़ा पर जा रहा हूँ, कोई काम नहीं करूँगा, सिर्फ़ आराम करूँगा।" बहुत आसान था उनके लिए ऐसा कह देना। और उन्होंने पहले ही इतना काम कर रखा था कि अगर वो दो साल का बीच में अंतराल कर देते, विश्राम ले लेते तो कोई उन पर अभियोग या आपत्ति नहीं कर सकता था। उनका हक था, अधिकार था, आराम करने का।

अपना काम उन्हें इतना प्यारा था और अपने काम की वो इतनी आवश्यकता देख रहे थे, इतनी अनिवार्यता देख रहे थे, इस परेशान, बदहाल, गुलाम देश में, कि उन्हें ये बात बर्दाश्त ही नहीं थी, स्वीकार ही नहीं थी कि वो अपने महत अभियान से दो दिन का भी विश्राम लें। तो वो काम करते गए, करते गए, करते गए। अब शरीर तो शरीर है, शरीर तो प्रकृति का उपकरण है, एक यंत्र है, मशीन-जैसा। जब इतना काम उससे लिया जाएगा, अथक, दिन-रात, निरंतर, तो शरीर तो टूटेगा ही, भले ही वो कुछ वर्ष पहले जवानी में कितना भी मज़बूत क्यों न रहा हो।

तो ये सब बातें मन से हटा देनी चाहिए कि जो ब्रह्मज्ञानी होता है वो तो शरीर से सदा स्वस्थ ही होता है। इस तरह का बड़ा मिथ्या प्रचार है और लोगों में इस तरह की बड़ी झूठी धारणा फैली हुई है कि, "ये जो ज्ञानी होता है, वो तो शरीर से बड़ा स्वस्थ होगा, ज़बरदस्त होगा, उसे कोई बीमारी लग ही नहीं सकती। उसके तो साठ-सत्तर की उम्र में भी बाल काले होंगे, चेहरे पर एक ज़बरदस्त आभा होगी, दीप्ति होगी।" नहीं, ऐसा नहीं होता।

जब आप उस महत, परम लक्ष्य के लिए अपना सब कुछ समर्पित करते हो तो साथ-ही-साथ, ज़ाहिर सी बात है, अपना शरीर भी समर्पित कर देते हो।

अब आप इसलिए थोड़े ही जी रहे हो कि आपका शरीर हट्टा-कट्टा रहे। हाँ, शरीर की कुछ माँगों की आपूर्ति आप करते जाते हो क्योंकि शरीर रहेगा तभी तो आप काम को आगे बढ़ाओगे। लेकिन जहाँ कहीं ऐसी स्थिति आती है कि या तो शरीर को बचा लो या अपने मिशन को बचा लो, वहाँ पर आपको स्पष्ट रहता है कि ये शरीर पीछे रहेगा, मिशन आगे रहेगा।

तो इस तरह की बातें सोचना छोड़ो कि अगर स्वामी जी वास्तव में मुक्त पुरुष थे तो उन्हें इतनी बीमारियाँ क्यों लगीं, या यदि आचार्य शंकर वास्तव में ब्रह्मज्ञानी थे तो वो इतनी कम उम्र में ही समाधिस्थ क्यों हो गए। जो व्यावहारिक पक्ष है किसी महापुरुष के जीवन का, उस पर ज़रा सद्भावना के साथ ध्यान दो तो कुछ राज़ खुलेंगे।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles