युवाशक्ति को ललकार

Acharya Prashant

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युवाशक्ति को ललकार
अगर मैं जानता हूं गीता, तो इतने इतने इतने हजार लोगों तक पहुंचा दी अगर आप जानते हो गीता में तो पांच लोगों तक भी पहुंचाई क्या? तो फिर आप कैसे जानते हो आप क्या जानते हो? प्यार जिम्मेदारी की बात होता है ना कि नहीं होता? जब प्यार आ जाता है तो जिम्मेदारी भी आ जाती है। यह कौन सा प्यार है जिसमें जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हो? देखो जो लोग मुझे जानते समझते नहीं या मुझे ठीक से कि जिन्होंने कभी देखा ही नहीं उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। पर आपके मैं पास आया हूं। सचमुच कह रहा हूं। आप अपने आप को माफ नहीं कर पाओगे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। आपने एक इंटरव्यू में हम लोगों के लिए कहा था वी आर बूट्स ऑन द ग्राउंड। मतलब यह काम आगे बढ़ना या बूट्स ऑन द ग्राउंड। तो इनमें से बहुत सारे लोग होंगे जो अपने-अपने राज्यों में, इलाकों में, जिलों में बुकस्टॉल की एक्टिविटी कर रहे हैं।

अभी तो काम के मामले में एक साझा बात हम सब में यह है कि हम अभी स्टॉल्स लगा रहे हैं। तो ये एक्टिविटी मतलब बहुत छोटा स्टेप है हम लोगों के लिए भी और जो शिक्षाएं मिली है वो लोगों तक पहुंचाने के लिए भी हमें एक माध्यम मिला है बुक स्टॉल। तो इसके बारे में आपके विचार जानने थे और क्योंकि…

आचार्य प्रशांत: तुम हर चीज में बेटा विचार क्यों पूछते हो? विचार का क्या करोगे? दिल चाहिए होता है ना। मैं सोचूं क्या? जो चीज मेरे सामने है, साफ है। उसमें अब सोचने को बचा क्या है मेरे लिए? मतलब 2016 में बुक स्टॉल लगते थे। उन दिनों में ये डेकेथलन की साइकिलें होती थी वो नई-नई आनी शुरू हुई थी। उसको लेकर मैं पूरे नोएडा का चक्कर लगाता था। एक बुक स्टॉल से दूसरे स्टॉल।

पता था कि एक नया और सच्चा काम हो रहा है। वही ऊर्जा दे देता था। बोलना क्या है? मेरे लिए यह एक उत्सव जैसी बात होती थी कि अभी शाम होगी। ये लोग जाके यहां वहां पांच सात जगहों पर स्टॉल लगाएंगे। ये लोग चले आते थे 4:00 बजे करीब। हमारी एक इको होती थी। तो उसमें सब माल भर के और या फिर टैक्सी बुला के उसमें चले आते थे। सेट वगैरह करते थे।

5:30 हो जाता था। और 6:30-7 बजते-बजते मैं साइकिल लेके निकल पड़ता था। हमेशा साइकिल नहीं कभी बाइक भी हो गई कभी कुछ। और सेलिब्रेशन है फेस्टिवल है और जा रहा हूं जहां जिसके पास जा रहा हूं उसके पास कुछ खाने के लिए ले गया कहीं कुछ हो रहा है कहीं कुछ हो रहा है कहीं किसी से बात हो रही है कहीं किसी को बुद्धू बना दिया ये सब चल रहा है अपना।

ये तो मौज की बात होती थी। इसमें प्लानिंग थोड़ी करता था कि आपका विचार कुछ भी नहीं है। विचार तो उसका जाता है जो अभी दूर होता है जो प्रत्यक्ष है उसको लपका जाता है अब विचार करने को क्या बचा है?

हो तो गया शुरू अब क्या इंतजार करना है?

प्रश्नकर्ता: मतलब जब आप हमारे पोस्ट देखते हो कम्युनिटी पे तो आपको कैसे लगता है? मतलब ये काम बढ़ रहे हैं आगे…..

आचार्य प्रशांत: कम्युनिटी पे तो मैं कोई पोस्ट देखता ही नहीं हूं।

प्रश्नकर्ता: सर आपने परसों सारे रिप्लाई आपने ही करे हैं शायद। जो पोस्ट शायरी वाला जो था आपने ही करे सारे।

आचार्य प्रशांत: एकदम भी नहीं

प्रश्नकर्ता: मतलब सर

आचार्य प्रशांत: मैंने तो आज तक कोई पोस्ट देखी ही नहीं मेरे पास तो अकाउंट भी नहीं है मैं कैसे करूंगा? इन लोगों ने मुझे अकाउंट ही नहीं दे रखा। किस-किस को लगता है मैं कम्युनिटी पे कभी कुछ लिखता हूं? ये देखो, ये अज्ञान।

बेटा मुझे कोई मिला होता ना मेरे जैसा अपने समय में मैं जान दे देता उसके लिए, तुम मुझसे क्या जवाब चाहती हो? मेरे 10 साल बच गए होते। मैंने बहुत ठोकर खा के, प्रयोग करके, परीक्षण करके, आजमा के कई दिशाओं में इधरउधर ऐसे घूम के भटक भटक के जाना है।

मेरे जैसा मेरे कोई सामने आ जाता मैं कॉलेज में होता। मैं शायद कॉलेज छोड़ के उसके साथ चल देता।

प्रश्नकर्ता: सर हम भी आ रहे हैं सब। हम सच में आ रहे हैं सर।

आचार्य प्रशांत: पूछ क्या रहे हो? विचार को क्या बचाया?

प्रश्नकर्ता: नहीं मतलब मुझे जानना ये था कि ये देखकर आपको कैसे लग रहा है? मतलब काम आगे बढ़ रहा है…

आचार्य प्रशांत: मैं क्यों बताऊं मुझे कैसा लग रहा है?

प्रश्नकर्ता: सर हाल ही में अभी ना पुणे में इंटरनेशनल बुक फेस्टिवल हुआ तो वहां पे जो हमने स्टॉल लगाया था तो सारे 700 स्टॉल्स थे। तो हम जब बाकी स्टॉल्स पे भी जाते थे ना तो लगा कि ये अकेला स्टॉल है जहां पर लोग मतलब रुकेंगे बात करेंगे।

आचार्य प्रशांत: तारीफ करूं

प्रश्नकर्ता: नहीं सर सुनिए तो एक मिनट। तो ऐसे अभी बाकी जिलों में भी आएंगे ऐसे स्टॉल्स, उत्सव तो हम सारे लोगों में साझा बात अभी बुक स्टॉल की एक्टिविटी करना एक है तो…

आचार्य प्रशांत: बेटा ये बुक स्टॉल जो आप शुरू कर रहे हो ना ये औरों से बहुत आगे की बात है और जहां तक आपको चले जाना चाहिए उससे अभी बहुत पीछे की बात है। जो लोग ऐसे हैं कि अभी उठ के एक बुक स्टॉल पर भी नहीं जा सकते और कुछ ना करें वहां जाके बस उत्साहवर्धन कर दें। हौसला अफजाई। ये आए हैं लोग खड़े हो गए हैं।

चार लोग गा रहे थे दो और साथ में गाने लग गए। या कुछ नहीं बस जाके खड़े हो गए। या पता है कि आपके शहर में आपके क्षेत्र में कहीं पर बुक स्टॉल है। कुछ मत करो यार। जो वहां पर लड़के लड़कियां खड़े हैं उनके लिए थोड़ी चाय ले चले जाओ। इतना तो कर दो। यह भी नहीं। जो यह भी नहीं कर सकते उनसे आप बहुत बहुत आगे हो। लेकिन आपको जहां जाना है वह जगह दूसरी है।

बार-बार कहा करता हूं तुम्हारी संस्था है तुम्हारी। मैं इसे कोई साथ लेकर थोड़ी मरूंगा। होना यह चाहिए। पूछ रहे हो ना? होना यह चाहिए कि जैसे हर एक के नाम के साथ लिखा रहता है कि इंडिविजुअल परसेंटेज परसेंटाइल कितना आया। हर एक के नाम के साथ यह लिखा होना चाहिए कि तुमने कितने लोगों को गीता में जोड़ा और अगर नहीं जोड़ रहे हो तो बोझ हो।

मैं बोलूंगा आईटी को कि यह मैट्रिक लाओ ना वहां पर। मुझे मिला तो मैंने बांटा है। तुम्हें मिला या नहीं यह तो इसी बात से प्रमाणित होगा ना कि तुम्हारे माध्यम से कितने लोग गीता से जुड़े। पर जोड़ेंगे क्या? यहां तो आधे लोग छुप-छुप के एक कंबल के नीचे छुप के सेशन देख रहे थे। बाथरूम में घुस के देख रहे थे। गाड़ी के भीतर घुसे हुए थे। जैसे किताबें पहले सब तक मात्र संस्था ही पहुंचाती थी। अब तुम लोग आगे आए हो। वैसे ही यह भी तो बताओ ना कि गीता सत्रों से जोड़ने का काम संस्था क्यों करें? क्यों करें? हम क्यों करें?

आज सुबह ही मैंने जिन 150 लोगों की बात करी कि वह यहां मौजूद भी नहीं है। वह अभी भी कॉलिंग कर रहे हैं। वह क्यों करें? उनका कोई निजी मसला है? आप क्यों नहीं करोगे? एक तर्क देकर बता दीजिए कि यह काम वो लोग क्यों कर रहे हैं और आप क्यों नहीं करोगे? आप में से कोई ऐसा नहीं होगा जो अपने आसपास के 50, 100, 200 लोगों को नहीं जानता। किस बात का आपको डर लग रहा है? आप 200 लोगों को जानते हो तो 200 लोग गीता में क्यों नहीं है? जवाब दीजिए। आप अगर 200 लोगों को जानते हो तो वह 200 लोग गीता में क्यों नहीं है?

प्रश्नकर्ता: क्योंकि हम स्वयं ही पूरे मन से नहीं जुड़े हुए हैं।

आचार्य प्रशांत: बस ठीक यही है। बिल्कुल यही है। तो तुमको अभी वहां तक जाना है। ठीक है? और जो नहीं जा रहे उनको छोड़ो। यह मत सोचो कि उनका क्या है। मुझसे भी मत पूछो कि मुझे कैसा लगता है। मैं कौन हूं? कह तो रहा हूं। कोई संस्था अपने साथ ले थोड़ी जाऊंगा। मुझे कैसा भी लगता है, उसकी परवाह मत करो। यह काम तुम मेरे लिए नहीं कर रहे हो। यह काम तुम उसके लिए कर रहे हो।

मैं सबसे ज्यादा वही पोस्ट देखता हूं तुम्हारी वाली। बाकी तो जबान तो कोई भी चला सकता है। कीबोर्ड पे टुक टुक टुक टुक टुक टुक टुक आचार्य जी आप जान हो ईमान हो कोई भी लिख सकता है। मुझे आदमी चाहिए जो सड़क पर उतरे। वरना मैं भी बहुत कुछ कर सकता था। जाके कहीं बैठ के कोने में मैं भी एक किताब प्रकाशित कर देता। बढ़िया एक कॉर्पोरेट जॉब करता रहता। पार्ट टाइम वीकेंड्स पे किताब लिख देता अध्यात्म पे।

कहता मैंने भी अपना काम कर दिया। जैसे आप हो कीबोर्ड वॉरियर। मैं भी कीबोर्ड वॉरियर हो सकता था। मैं मैदान में उतरा हुआ हूं ना। द मैन इन द एरीना। तो मैं इज्जत भी फिर उन्हीं को दे पाता हूं जो मैदान में उतरे हुए हैं। जब देखता हूं कि सड़क किनारे बैठ गए हैं और कुछ भी नहीं है। एक चादर बिछा रखी है। उस पे किताबें रखी हुई हैं बस 20। एक दो बार मैंने पूछा है, ‘इसमें से कोई आसपास है क्या? मैं खुद वहां जाना चाहता हूं।’

मैं खड़ा होऊंगा वहां पर। कहते हैं छोड़िए। ज्ञान कर्म नहीं बन रहा है तो क्या है? इसको बेवकूफ बना रहे हैं हम? किसको बेवकूफ बना रहे हैं? अरे आप कुछ नहीं कर सकते। समझ में आता है कि आप ज्यादा इज्जतदार आदमी हो आप बड़े लोग हो आप कैसे बुक स्टॉल पर खड़े हो जाओगे?

अरे ये लड़के लड़कियां हैं सब जवान लोग हैं जाकर के इनको एनकरेज भी नहीं कर सकते आप? मैं अपना बोल रहा हूं, मैं खुद खड़ा हुआ करता था। 2016, 17, 18 तक की बात है। आपसे रुपया पैसा नहीं मांगा जा रहा है। समर्थन ही कर दीजिए उनका। तब तो वो बेचारे लिखेंगे भी कि आज हम यहां पर गए। गलत जगह पर लगा दिया। यहां पे भीड़ ही नहीं थी। लोग आ जा नहीं रहे थे। कोई किसी का रिस्पांस नहीं। कोई साथ नहीं देना चाहता। ठीक है मत दो।

ये लोग भी अगर इस इस हिसाब में रहेंगे ना कि साथ मिलेगा तो करेंगे तो ये कर भी नहीं सकते। तुम्हें साथ मिले नहीं मिले जो तुम्हें सही लगता है करो। ठीक है? और उसमें किसी का साथ ना मिले। मैं कह रहा हूं मेरी भी क्या उसमें रजामंदी है, इसकी भी परवाह मत करो। यह क्या है?

हम कोई एडटेक कंपनी है कि आप एक ऑनलाइन कोर्स कर रहे हो जो आप अपने लिए कर रहे हो। बस आपको समझ में नहीं आ रहा हम कौन हैं? यह एक सामाजिक मिशन है। आप क्या बोल के कहोगे कि आप गीता प्रतिभागी हो। जब आप समाज में बाहर निकल के कुछ कर ही नहीं पा रहे। इतने ज्यादा डरे हुए हो कि बाहर आप किसी से बात भी नहीं कर सकते तो आप किस मुँह से कहोगे कि गीता प्रतिभागी हो भाई।

ये समाज सिर्फ मेरा है क्या तो इसे बदलने का ठेका मैंने उठाया है कोई? मेरा ना घर ना द्वार ना बीवी ना बच्चा। भविष्य तो आपका है आप बाहर निकल कर के देखो ना कि आपके बच्चों को क्या होने वाला है मैं क्यों उसके लिए अपनी जान देता फिरूं? मेरा क्या है? कुछ भी नहीं है। ये काम तभी ठीक से कर पाओगे जब परवाह करना छोड़ दोगे कि कौन साथ है, कौन नहीं। ठीक है? एकदम परवाह मत करना।

यह कोई हम वहां पर सेल्स एजेंट बन के थोड़ी खड़े हैं कि हम गिने कि आज कितनी हुई, क्या नहीं हुई। ठीक है? कोई बात नहीं। हम सही काम करने के लिए खड़े हुए। हुए हैं। उसमें कुछ परिणाम आ गया तो ठीक, नहीं आया तो ठीक। हमें डट के काम करना है। क्योंकि यह काम सही है। हम जितनी गहराई से देख सकते हैं, समझ सकते हैं, पूरी क्षमता से हमको दिखाई दे रहा है यह सही काम है। और सही है और मैं ना करूं तो मैं इंसान कहां हूं? फिर लगाओ भी। इसमें भी शौर्य है कि अकेला लगा रहे हो और बुलाओ भी सबको जोर से और मैं तुम्हें यह हक भी दे रहा हूं कि जो नहीं आए उनको बजाओ भी। देखो समझो।

इससे कुछ ऐसा नहीं हो जाएगा कि जो कि किताबें हैं उनकी रीच में कोई मल्टीप्लिकेटिव या एक्सपोनेंशियल वृद्धि हो जाएगी। नहीं होगा। पर इससे जो होगा वो और किसी तरीके से नहीं हो सकता। इससे यह होगा कि आप जिंदगी में पहली बार सच के लिए समाज के सामने खड़े होगे। भले ही वहां पे चार किताबें भी कोई ना लेके जाए। नहीं तो किताबों का क्या है?

Amazon है, Flipkart है। हमारी अपनी वेबसाइट पर किताबों का पूरा व्यवस्था और ई बुक्स है। सब कुछ है। किताबें तो वहां से भी ली जा सकती हैं। लोग पढ़ सकते हैं। इसका उद्देश्य मात्र किताबों का वितरण नहीं है। यह दूसरी बात है। इससे आपको संघर्ष का पहला स्वाद मिलता है। और जो आदमी इतना भी नहीं कर सकता वो फिर कुछ नहीं कर पाएगा जिंदगी में।

मैं कैसे कहूं कि और लोगों को गीता में जोड़ो अगर आप उनके हाथ में किताब भी नहीं थमा सकते हो। और जिन लोगों को यह गुमान होने लग गया हो कि हमें गीता अब आ रही है समझ में सत्य हम पर कुछ उतर रहा है वो थोड़ा जमीन पर आ जाए और अपने आप से यही सवाल पूछे कि कितने लोगों को उन्होंने अब तक गीता में जोड़ दिया।

अगर मैं जानता हूं गीता में तो इतने इतने इतने हजार लोगों तक पहुंचा दी अगर आप जानते हो गीता में तो पांच लोगों तक भी पहुंचाई क्या? तो फिर आप कैसे जानते हो आप क्या जानते हो? प्यार जिम्मेदारी की बात होता है ना कि नहीं होता? जब प्यार आ जाता है तो जिम्मेदारी भी आ जाती है। यह कौन सा प्यार है जिसमें जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हो? देखो जो लोग मुझे जानते समझते नहीं या मुझे ठीक से कि जिन्होंने कभी देखा ही नहीं उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा।

पर आपके मैं पास आया हूं। दबाव बनाने के लिए नहीं कह रहा। सचमुच कह रहा हूं। आप अपने आप को माफ नहीं कर पाओगे। जिन्हें कुछ पता ही नहीं। वो अनछुए रह गए। चलो कोई उन्हें पता ही नहीं। संयोग की बात होगी या कुछ और होगा उन्हें पता ही नहीं। पर आप यहां आके सामने बैठे हो। आपने सैकड़ों घंटे मुझे सुना है और उसके बाद भी आप हिले नहीं अगर बहुत बड़ा बोझ रह जाएगा आपके ऊपर।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आचार्य जी मेरा सवाल यह है कि मैं एक साल से आपको सुन रही हूं। तो अब यह तो समझ आ गया कि जैसे हम जी रहे हैं वैसे नहीं जीना। जो अब तक जी रहे थे बड़ा पशुता के लेवल का था कि अपने लिए सब कुछ कर रहे थे। तो अब सवाल यह है कि अब मैं अच्छे काम करने के लिए उतरती तो हूं बट ऐसा कोई ऐसा नहीं लगता कि एक फिक्स मैंने चूज़ किया है।

कभी विंटर क्लोथ डोनेशन ड्राइव था। कभी एक डॉग का रेस्क्यू कर लिया। बट उसके बाद अच्छे काम करके उस टाइम अच्छा लगा। घर आई तो मेरे दो बच्चे हैं। ऐसा लगा कि मैंने उनको टाइम नहीं दिया। घर पर वो कुछ और कर रहे थे। तो थोड़ा क्लियर नहीं है। फिर मैंने आपके जैसे बुक पढ़ी बच्चों की परवरिश के सूत्र तो उसमें लगा कि बच्चों के टाइम स्पेंड करना चाहिए। अब हम कहीं बाहर कुछ करने के लिए निकलते हैं तो टाइम उसमें इतना चला जाता है तो थोड़ा क्लियर नहीं हो रहा था।

आचार्य प्रशांत: देखिए आप एक गृहस्थ महिला हैं।

प्रश्नकर्ता: जी

आचार्य प्रशांत: आपके बच्चे हैं। आप बहुत कुछ पहले से कर रही हैं। वेदांत ये नहीं है कि बाहर निकल के डॉग रेस्क्यू कर दी। जो आप कर रही हैं पहले उसको रोकना होता है। जो कुछ पहले से चल रहा है। आपको पता है एक गृहस्थ महिला होने का मतलब क्या होता है? मतलब होता है कि आप न जाने कितने सारे सिस्टम्स में एक पार्टिसिपेंट हैं। आप प्रतिभागी हैं। न जाने कितनी व्यवस्थाएं आपके सहयोग से चल रही हैं। पहले वहां से अपना सहयोग हटाना पड़ेगा ना।

शुरुआत नेति नेति से होती है। कुछ कंबल बांट दिए। अच्छा बांट दीजिए ठंड है। पर आप नहीं समझ रहे हो। आप सोच रहे हो आई एम अ वूमन। आप एक वूमन नहीं हो। यू आर अ ब्रिक इन द वॉल। यू आर अ कॉग इन होल बिग सिस्टम, अ मशीन। पहले वहां से अपने आप को विथड्रॉ करिए ना। आप वो सब कंटिन्यू करते हुए कहेंगी अब ना कुछ अच्छे काम करना चाहती हैं। तो समाज सेवा हो गई है।

तो उसके लिए तो बहुत सारे हैं समाजसेवी दल। अभी वह कुछ और कर देंगे। कुछ कहीं खिचड़ी वितरण कर दिया। कहीं कुछ और कर दिया। हां और बहुत होता है यार। पता नहीं क्या कुछ और करने की बात नहीं है। आप शायद समझ नहीं रही हैं। अपने आप को देखेंगे तो आपको पता चलेगा आप ना जाने कितने सिस्टम्स में इनवॉल्वड हैं। सबसे पहले अपने आपको उन सिस्टम्स से विथड्रॉ करना है। शुरुआत वहां से होगी।

आप वहां से विड्रॉ नहीं करेंगे तो बच्चों के साथ टाइम स्पेंड करने का क्या मतलब है? बच्चों के साथ तो न जाने कितनी माँऍ टाइम स्पेंड करती हैं।

वो टाइम में क्या होता है? बच्चे और बर्बाद हो जाते हैं। जब पहले माँ की हस्ती में गुणवत्ता होगी तब वो बच्चे के साथ समय बिताएगी तो बच्चे को लाभ होगा ना। नहीं तो भारत में माँ बच्चों को इतना टाइम देती हैं, दुनिया भर में कहीं नहीं देती।

और भारत से ज्यादा नालायक बच्चे। तो बच्चे के साथ टाइम बिता के या किसी के साथ भी टाइम बिता के क्या होगा? जो लोग शुरुआत कर रहे हैं उनकी शुरुआत होनी चाहिए विथड्रॉल से। पहले अपने आप को अपनी व्यवस्थाओं से बाहर खींचना शुरू करो। उसके लिए पहले तो यह स्वीकार एकनॉलेज करना पड़ेगा कि कितनी ही व्यवस्थाएं हैं जिनमें तुम जाने अनजाने शामिल हो। और उन व्यवस्थाओं से कहो टाटा गुड बाय। मुझे तुम में कोई चेतना नहीं दिखाई दे रही।

मुझे तुम में बिल्कुल अंधेरा दिखाई दे रहा है और हिंसा दिखाई दे रही है। मैं अपने आप को तुमसे बाहर खींच रहा हूं। आई नो मोर पार्टिसिपेट। आई नो मोर बिलोंग। पहले कई रेिग्नेशंस देने पड़ेंगे। रिजाइन नहीं कर सकते तो कम से कम थोड़ा विथड्रॉ करिए अपने आपको।

यही अच्छा काम है। पुरानी आप जो व्यवस्था जैसी चला रही हैं वैसे चलाते-चलाते आप वीडियो देखें और फिर डॉग रेस्क्यू कर लें। उससे कुछ भी नहीं होने का। मुझे नहीं मालूम कि मैं आपको कितना समझा पाया हूं। मुझे लग रहा है कि मैं ज्यादा कुछ नहीं समझा पायाऊंगा। पर क्या बोलूं मैं मतलब?

प्रश्नकर्ता: नहीं तो मतलब मुझे यह क्लियर हुआ कि आप यह कह रहे हैं कि पहले तो वही जो घर में इतनी और एक्स्ट्रा चीजें उनमें से क्या इंपॉर्टेंट है सिर्फ उतना

आचार्य प्रशांत: घर के लोग भी

प्रश्नकर्ता: हां जी मतलब कि कहां समय देना है पहले…

आचार्य प्रशांत: बहुत ज्यादा आगे तक नहीं पूछना चाहिए।

प्रश्नकर्ता: हां जी मतलब कहां समय देना जरूरी है पहले वो…

आचार्य प्रशांत: आपने टोपी लगाई है आपने मफलर डाला है, इसमें ऊन है ना? ये रोके बिना आप डॉग रेस्क्यू करने जा रहे हो। मैं क्या तारीफ करूं?

प्रश्नकर्ता: ये मैंने वही ध्यान जैसे नहीं दिया। अदरवाइज मैं…

आचार्य प्रशांत: ये एक व्यवस्था चल रही है जिसमें आप शामिल हो। ये आपके घर में व्यवस्था चल रही है। आप उसमें शामिल हो। ऊन के कपड़े आते हैं? हां आते हैं। अभी भी आएंगे। आगे भी आएंगे। दूध की चाय आती है। आती है। आगे भी आएगी। कई तरह के अंधविश्वास चल रहे हैं।आगे भी चलेंगे। घर पे लड़की देखने आते हैं बहन को? अभी भी आते हैं आगे भी आएंगे, पहले इन चीजों को रोको ना।

बाहर निकल कर के कुछ डू गुड वाला। पहले जो चल रहा है उसको रोको उसको रोके बिना कुछ और करने जा रहे हो उससे कुछ नहीं होगा। नकार से शुरुआत होती है नेति नेति से शुरुआत होती है।

मैं कोई मोरल साइंस का टीचर थोड़ी हूं इममोरल हूं काफी ज्यादा। आज कौन सा निकला था? असुराचार्य। आप बात समझ रहे हो? आप कॉस्मेटिक्स यूज़ करते हो।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: लग रहा है मुझे।

(सब हँसते हैं) एक तो हंसा मत करो हर बात पर।

आपने उसमें देखा कि उसमें एनिमल क्रुएल्टी शामिल है कि नहीं?

प्रश्नकर्ता: आई गेस।

हां जी वही मैं बोल रही हूं। मैं तो उल्टा सबको ब्रांड्स जो कि बिल्कुल क्रुल्टी फ्री है। मैं करती हूं यह सभी….

आचार्य प्रशांत: ब्रांड जरूरी क्यों है?

प्रश्नकर्ता: नहीं उनके लिए

आचार्य प्रशांत: छोड़ ही दीजिए ना, क्या करना है लिप ग्लॉस का?

प्रश्नकर्ता: हमारे लिए नहीं मैं तो बहुत…

आचार्य प्रशांत: दूसरे जो करते हैं उनको भी रोकिए बोले क्या करोगे इसको क्या करना है बढ़िया होठ है अच्छे लाल

प्रश्नकर्ता: नहीं कोई नहीं रह सकता तो ऑप्शन बताना

आचार्य प्रशांत: कोई रह सकता नहीं यही समझाना है

प्रश्नकर्ता: हां जी

आचार्य प्रशांत: यही समझाना है। देखिए समस्या क्या होती है आप सब ना हमारी जो ट्रेनिंग हुई है, हमारी ट्रेनिंग हुई है टॉलरेंस और मीडियोक्रिटी में, खासकर महिलाओं की, पुरुषों की भी, सबकी एक औसत जीवन और उसको झेलते जाना है। टोलरेट द मीडियोक्रिटी और इसको हम बड़ी शान से बोलते हैं कि देखो बड़ा सब्र है, बड़ा धीरज है, बड़ी सहिष्णुता है। मैं चाहता हूं कि आप में अधीरज आए।

मैं कह रहा हूं विद्रोह आना चाहिए। आप अच्छे बच्चे बने बैठे हो। मैं कह रहा हूं गंदे बच्चे बनो। आपको नहीं समझ में आ रही बात? दो चार बार जाके कहीं कुछ राड़ा रंपट करो। कुछ कुछ तो कहीं पे धूल फांको। थोड़ा खून बहे गिरे कुछ हुआ। बाकायदा लिखित में देता हूं। लठबाजी जूतम पैजार। इशारा नहीं समझते। कुछ तो हो।

और सब अच्छे बच्चे हैं और यह मेरी बड़ी समस्या है। भारत भर के अच्छे बच्चे ही आते हैं मेरी ओर। और अच्छा बच्चा माने किसी का दिल नहीं दुखाऊंगा। जो चल रहा है चलूंगा, ये कर दूंगा, वो कर दूंगा। थोड़ी नालायकी करना सीखो। नहीं, कुछ नहीं। हस्बैंड चिकन खाते हैं तो। उनको कहती हूं आप खा लो मैं तो अब से नहीं खाऊंगी।

हां आप ज्यादा बोलोगे आपके लिए बना दूंगी। आपको बनाना नहीं आता। ये भी तो देखना होता है ना हस्बैंड का पेट ना खराब हो जाए। तो चिकन जब ले ही आते हैं तो मैं बना देती हूं। नहीं तो बाहर का खाएंगे ना फिर उनको कोलेस्ट्रॉल वाली हो जाती है। तो मैं बना देती हूं पर खुद नहीं खाती। बस चख लेती हूं।

ऐसे नहीं मेरा गला इसलिए उड़ा हुआ है क्योंकि आपके हिस्से की क्रांति मुझे करनी पड़ रही है। जहां आवाज आपको उठा देनी चाहिए थी वहां मुझे चिल्ला के पहुंचना पड़ रहा है।

प्रश्नकर्ता: सर मैं विशाल दिल्ली यूनिवर्सिटी का फिलॉसफी और पॉलिटिकल साइंस का स्टूडेंट हूं। सर मेरी एक ऑब्जरवेशन है शायद गलत भी हो सकती है। जब हम फिलॉसोफी आपसे पढ़ते हैं या संस्था से पढ़ते हैं। जैसे अध्यात्म और जो हम ट्रेडिशनली कॉलेज में पढ़ते हैं। एग्जांपल जैसे हम आत्मा के बारे में पढ़ते हैं। हम उसको एक संभावना की तरह या फिर अपने बंधनों को काटने के बाद जो है उस चीज के बारे में बात नहीं कर सकते।

पर करिकुलम में हम उसे पढ़ते हैं कोई ऐसी चीज जो एक शरीर से उठती है, दूसरे शरीर में जाती है और उसी को कभी बुद्ध ने नकारा या फिर आगे जाके। और वैसे यह भी मेनली सिर्फ इंडियन फ़िलोसफी के कॉन्टेक्स्ट में मैं बता रहा हूं। पुनर्जन्म हम पढ़ते हैं कि प्रकृति का होता है, अहम वृत्ति का होता है। उसमें है कि आप मरते हो और आप ही बार-बार आते रहते हो और मतलब ये सारी बातें और सर जब यही बातें हमें करिकुलम में भी पढ़ाई जाती हैं तो फिर सर जो मेरे बैचमेट्स हैं या फिर दोस्त हैं तो उनको ऐसे लगता है कि इन्हें कोई मनोहर कहानी की तरह पढ़ लेते हैं।

ठीक है पास हो जाएंगे और फिर जब मैं उनसे कभी अगर इन बातों के बारे में बात भी करने जाता हूं तो उन्हें लगता है कि इसका प्रैक्टिकल लाइफ में या नॉर्मल लाइफ में क्या यूज़ है? ये सिर्फ ठीक है पढ़ लिया। तो सर मेरे ख्याल से एक ऐसा भी है एकेडमिकली भी…

आचार्य प्रशांत: अच्छा अब जैसे तुमने पूछा है, मैं तुम्हें समझाऊंगा तुमने पूछा है तो मैं उत्तर दूंगा है ना?

प्रश्नकर्ता: जी

आचार्य प्रशांत: तो जैसे मैं तुम्हें समझाऊंगा और तुम शायद समझ जाओगे वैसे ही तुम अपने दोस्तों को क्यों नहीं समझा पाते? तो तुमने कहा कि दोस्त पढ़ते हैं मनोहर कहानियाँ की तरह या उसमें आत्मा के बारे में ये लिखा है वो लिखा है। ये सब बातें तुम्हारे दोस्त अभी यहां आके मुझसे पूछ रहे होते तो मैं उन्हें समझा देता ना?

हां तो तुमने भी तो समझा है। तुम क्यों नहीं उनको समझा पाते? इसका मतलब अभी समस्या दोस्तों में बाद में है।

प्रश्नकर्ता: यस सर।

आचार्य प्रशांत: है ना? हमारी ही समझ में कमी है। हम समझा नहीं पाते। हम समझा नहीं पा रहे। और समझ में कमी है। ये तब तक नहीं पता चलेगा जब तक समझाने की कोशिश नहीं करोगे। मैं 24 साल का था जब मैंने पढ़ाना शुरू करा था और जो मेरी पहली ही क्लास थी उसमें जो सबसे कम उम्र का मेरा स्टूडेंट था वो एग्जीक्यूटिव मैनेजमेंट बैच था आईएमटी गाजियाबाद में उसमें जो सबसे कम उम्र का मेरा छात्र था वो मुझसे 5 साल बड़ा था वो मेरा पहला बैच था।

ऐसा तो नहीं है कि मैं महाज्ञानी था। 24 की उम्र पर पढ़ा रहा था कोई पूछे क्यों पढ़ा रहे थे? अच्छी कॉर्पोरेट जॉब चल रही थी। टायर वन अहमदाबाद से निकले हो। जॉब करो। वीकेंड पर क्यों परेशान? मैं बोलता था मैं सीखना चाहता हूं। मैं इसलिए पढ़ा रहा हूं। वरना मुझे यही लगता रह जाएगा कि मैं समझ गया।

जब मेरे सामने कोई आएगा जिसको मैं समझाने की कोशिश कर रहा हूं। वो नहीं समझ पा रहा तो मुझे दिखेगा ना कि मुझ में खोट है। मेरे सामने कोई आएगा मुझे चुनौती देगा। मुझसे तर्क करेगा तो मुझे दिखाई देगा ना कि मैं अभी इसे नहीं समझा पा रहा।

आप में से जो लोग मैं कह रहा हूं बाहर निकल कर के समाज का सामना नहीं कर रहे उनकी लर्निंग भी अधूरी रह जाएगी। बात यह नहीं है कि दूसरों तक अपनी सीख पहुंचानी है। बात यह है कि दूसरों तक पहुंचाकर ही अपनी सीख भी गहरी होती है। दूसरों तक नहीं जो पहुंचा रहे वह स्वयं भी नहीं सीख पा रहे। दूसरे से जाकर बात करो तो पता चलेगा ना खुद कितना कम पता है। वरना इसी गुमान में रह जाओगे कि हमने तो सुन लिया। हमें तो पता है।

प्रश्नकर्ता: एंड सर यही होता है जब मैं अगर किसी से बात करने जाता हूं और फिर चार बातें वो बोलता है तो उस समय कहीं पे अटक जाता हूं कि..

आचार्य प्रशांत: हां जाओ जूझो। बाहर निकल के जूझना शुरू करिए। जो बात समझ में आ रही है उसका संघर्ष करिए। हम यहां पर लिटरेचर या फिलॉसफी का कोई सर्टिफिकेट कोर्स थोड़ी करने बैठे हैं। यह जिंदगी बदलने के लिए है।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में शिक्षण का कार्य करती हूं। तो मेरे साथ काफी सारे विद्यार्थी एसोसिएटेड रहते हैं। तो उसमें एक एकेडमिक मेंटरशिप का प्रोग्राम है जिसमें 50 बच्चे आपसे हर महीने में दो-तीन बार मिलेंगे और अपनी सब तरह की बात करेंगे।

तो उस पे जब मैंने स्टूडेंट से बात करना शुरू किया तो ये एक मेरा ऑब्जरवेशन रहा जैसे इकोनॉमिक डिस्पैरिटी की बात हुई कि उन स्टूडेंट्स में जो कि रिलेटिवली बेहतर जिनकी नौकरी लग गई है अदरवाइज भी जो सक्सेसफुल हैं उनका रुझान जीवन के मूलभूत प्रश्नों में बहुत कम है।

और जो कहना नहीं चाहिए जो थोड़े जीवन से बेजार हैं। नौकरी भी कम अच्छी लगी या अदरवाइज भी जैसे जो पीजी लेवल के स्टूडेंट हैं या रिसर्च स्कॉलर हैं उनका जीवन उस स्पीड से नहीं दौड़ता जितना एक बीटेक स्टूडेंट का रहता है। तो उनमें जीवन के इन प्रश्नों के नो योर सेल्फ और अदरवाइज जो आपकी टीचिंग्स हैं रुझान ज्यादा दिखता है। तो क्या हम यह मान लें कि जीवन के इन प्रश्नों को उठाने का भी जो सबसे बड़ी रिस्पांसिबिलिटी है वो उन्हीं के…

आचार्य प्रशांत: ये बड़ी गड़बड़ डिग्री है मैम बीटेक वाली ना…

प्रश्नकर्ता: हां वो बहुत..

आचार्य प्रशांत: गड़बड़ डिग्री है। 17 की उम्र में वो घुसता है 18…

प्रश्नकर्ता: बिल्कुल।

आचार्य प्रशांत: 21-22 में वो निकल जाता है। और पहले वो ये देख रहा होता है कि सीजीपीए फिर वो देख रहा होता है समर ट्रेनिंग फिर वो देख रखा होता है प्लेसमेंट उसको कहां मौका मिलता है कि वो कुछ और सोचे वो कुछ नहीं सोचता और गुमान उसको और हो जाता है मैं पढ़ा लिखा हूं जबकि बीटेक से ज्यादा अशिक्षित बंदा खोजना मुश्किल है उसको क्या आता है? आप बताइए।

प्रश्नकर्ता: बिल्कुल आप सही कह रहे हैं

आचार्य प्रशांत: उसने साइकोलॉजी, सोशियोलॉजी, फिलॉसोफी, इकोनॉमिक्स कुछ पढ़ा है? हिस्ट्री कुछ पढ़ा है? वो कुछ नहीं जानता। वो बस एक तरह का ट्रेंड मैकेनिक है। ऐसा मैकेनिक जिसको टेक्नोलॉजी के पीछे की साइंस का भी थोड़ा सा ज्ञान दे दिया गया है। ज्यादा नहीं पता थोड़ा सा।

और अब तो ऐसा है कि जॉब भी जिनकी लगती है सॉफ्टवेयर में ही लगती है। ज्यादा तो उन्होंने जो डिपार्टमेंट में पढ़ा होता है उसका ज्ञान भी उनके किसी काम का नहीं होता तो वह ज्ञान भी वो रखते नहीं है। तो ले जा दे के वो चौथे साल में जब निकलता है तो उसे कुछ नहीं पता होता। मैंने कहा साइंस मैंने कहा सोशियोलॉजी, एंथ्रोपोलॉजी, साइकोलॉजी, फिलॉसफी ये तो नहीं ही पता है। उसे अपनी इंजीनियरिंग भी नहीं पता है।

मैकेनिकल इंजीनियर को मैकेनिकल इंजीनियरिंग क्यों पता होगी जब उसको जॉब सॉफ्टवेयर में ही लगनी है। तो उसे कुछ भी नहीं पता है। वो क्या है? वो बस यह देख रहा है कि पैसा कहां मिल जाएगा? क्या हो जाएगा? उम्र क्या है कुल 21 साल।

21 की उम्र में क्या होते हो? बहुत छोटे होते हो। बहुत छोटे होते हो 21 में। आप कुछ नहीं जानते हो। लेकिन आपको ऐसे बीटेक है, इंजीनियर है, इंजीनियर है, कुछ नहीं है। प्रोफेशनल डिग्रीज जितनी है वो कम से कम होनी चाहिए सब 5 साल की।

और उसमें जो कोर्सेज हैं वो 50% टेक्नोलॉजी के होने चाहिए, 25% बेसिक साइंसेस होनी चाहिए और 25% ह्यूमैनिटी होना चाहिए। तब हम कह सकते हैं कि एक शिक्षित नौजवान निकला है। नहीं तो यह तो कुछ नहीं।

प्रश्नकर्ता: तो आचार्य जी ये जो टॉप रैंकर्स होते हैं या जो बेटर प्लेस्ड होते हैं इनको इनकी रिस्पांसिबिलिटी टुवर्ड्स दीज़ काइंड ऑफ टीचिंग्स कैसे इनके अंदर वो चीज लाई जाए कि क्योंकि ये बेटर इंपैक्ट कर सकते हैं। मुझे ऐसा लगता है।

आचार्य प्रशांत: सिस्टम में जबरदस्ती उनके साथ कर सकती हैं। तो करिए तो ही हो सकता है। नहीं तो नहीं।

प्रश्नकर्ता: सर जबरदस्ती करना बड़ा मुश्किल है उनके लिए।

आचार्य प्रशांत: जबरदस्ती ही करनी पड़ेगी। बिना जबरदस्ती के वो क्लास अटेंड करते हैं। अटेंडेंस कंपलसरी ना हो तो आ जाते हैं? नहीं आते। जब आप उनको कुछ भी पढ़ाने के लिए थर्मोडायनेमिक्स है, इलेक्ट्रिकल की लैब है। उसके लिए आप अटेंडेंस कंपलसरी कर सकते हो। और आप मानते हो कि लाइफ एजुकेशन सबसे जरूरी है। तो वो क्यों नहीं कंपलसरी होगी?

मैंने इतने कॉलेज में कोशिश की। 2006 से 2016 तक उसमें साहब इनसे सबसे बोलता था तो क्रेडिट कोर्स बना दो। दो चार अपवादों को छोड़ करके किसी ने इतना नहीं करा कि इसको क्रेडिट कोर्स बना ले। वो कहते थे देखिए अगर आपके कोर्स में और बात में दम है तो बच्चा खुद आएगा ना।

मैंने कहा तुम्हारी किसी भी क्लास में एक भी खुद आएगा अगर अटेंडेंस ना हो। और फिर भी आते थे जितने आते थे तो ठीक है तो बाकी नहीं आते तो नहीं तो आप चाहती हैं कि ये बात सब तक पहुंचे तो इसको कंपलसरी करिए और कोई तरीका नहीं है। सीधे-सीधे इसको क्रेडिट कोर्स बनाइए। ये नहीं पास करो तो डिग्री नहीं मिलेगी। बात खत्म। सब पढ़ेंगे तभी नहीं तो फिर जब जिंदगी पीट पाट देगी तब आएंगे जैसे….(श्रोतागण की ओर इशारा करते हुए)।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी। अपनी बात मैं खत्म करूंगी। 30 सेकंड और लूंगी कि जो आप कर रहे हैं वाकई में कोई नहीं कर रहा है और इस सब में कुछ जादू है तो हम सबकी तरफ से आप यह जादू जगाते रहिए। हम सबका जीवन बेहतर और बेहतर बनाते रहिए।

आपके बहुत अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना के साथ नमस्कार।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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