Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
लड़का-लड़की के खेल में जवानी की बर्बादी || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
9 min
146 reads

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज से छह साल पहले एक लड़की की ओर आकर्षित हुआ। मेरे प्रेम की गुणवत्ता वही थी जो सामान्यतया मेरी उम्र के किसी भी लड़के की होती है। किन्तु उसी लड़की का पिछले वर्ष किसी दूसरे लड़के से प्रेम-सम्बन्ध हो गया। मैं पिछले पाँच वर्षों से सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा की तैयारी कर रहा हूँ, और लगातार असफल हो रहा हूँ।

मैं इससे कैसे बाहर आऊँ? कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: सब काम करोगे, मेहनत भी कर लोगे, अगर मज़े में बैठकर खाने का आसरा न हो तो।

सवाल बहुत हैं आज और समय भी कम है, तो मुझे ज़रा बात कम शब्दों में चोट देकर बोलनी पड़ेगी।

कोई नहीं अपनी जवानी के पाँच साल ख़राब करे, अगर उसके पीछे लोग न हों जो उसको बैठाकर खिला रहे हों। हिम्मत ही नहीं पड़ेगी। ये बात न प्रेम की है, न भावनाओं की है, न प्रतियोगी परीक्षा में असफलता की है। बात सीधी-सीधी ये है कि अधिकांश ऐसे मामलों में पीछे माँ-बाप बैठे होते हैं, जो लड़के को घर में बैठाकर आसरा देने तैयार होते हैं।

और इसीलिए हिन्दुस्तान में ऐसे मामलों में जो प्रतिभागी होता है वो लड़का ही होता है। अभी भी लड़कियों को तो पाँच-पाँच दस-दस साल घर पर बैठाया नहीं जाता, कि तुम बैठकर सिविल सर्विसेज़ की परीक्षा की तैयारी करो। लड़के को कह दिया जाता है, “हाँ लाल, आओ बैठ जाओ, सुबह पराँठा भी मिल जाएगा, दोपहर का बढ़िया खाना, और रात को घी लगी रोटी। और बताओ क्या चाहिए?”

फ़िर ये खेल ऐसा है जिसमें परिणाम साल में एक बार आता है, और पूरे ज़माने को पहले ही पता है कि परिणाम में असफलता की सम्भावना ज़्यादा है। तो तुम असफल हो भी गए तो कोई लानतें नहीं भेजता, उँगली नहीं उठाता, क्योंकि इन परीक्षाओं में बैठने वाले लोगों में निन्यानवे-दशमलव-नौ प्रतिशत लोगों को असफल होना ही है।

दस-बीस लाख लोग बैठ रहे हैं, रिक्त पद होंगे आठ-सौ, हज़ार, तो लगा लो प्रतिशत। तो सब को पहले ही पता है कि सम्भावना पूरी-पूरी इसी की है कि लाल का चयन होगा नहीं। अब चयन न होने पर तुम दस लाख लोगों में दो हज़ारवाँ स्थान रखते हो, चाहे नौ लाखवाँ स्थान रखते हो, परीक्षा परिणाम तुम्हें बस इतना ही बता देगा कि, “नहीं श्रीमान, खेद की बात है कि आपका चयन नहीं हुआ।”

फ़िर इस आधार पर तो आपसे उत्तर माँगे नहीं जाएँगे कि, “तू सालभर घर पर बैठा था, दस-लाख लोगों में तेरा नौ-लाखवाँ स्थान क्यों आया है?” वहाँ तो फिर अचयनित-अचयनित, सब बराबर। अगर हज़ार रिक्तताएँ हैं, जिसकी स्थिति या श्रेणी दो-हज़ार है, और जिसकी श्रेणी नौ-लाख है, वो सब एक बराबर हो गए न। दोनों को ही कुछ नहीं मिला। यहाँ तो ये है कि या तो अन्दर हो, या बाहर हो। बीच वाले की तो कोई जगह नहीं।

तो ठीक है, आपको भी पता है कि सालभर घर पर बैठो, जब परीक्षा परिणाम आएगा तो कह देना, “गिरते हैं शह सवार ही मैदान-ए-जंग में। अरे हमने यू.पी.एस.सी. की तैयारी करी थी। उसमें तो बड़े-बड़े असफल हो जाते हैं। तो हम असफल हो गए, ये कोई लानत की बात है? इतने लोग बैठे थे, वो भी तो असफल रहे। हम भी असफल हो गए।”

कोई रोज़ तो रिपोर्टिंग करनी नहीं पड़ती कि, “बेटा, आज कितनी दूरी तय की है? आज कितनी पढ़ाई, कितना काम किया?” सालभर के बाद एक दिन के बाद आता है परिणाम, वो एक दिन झेल जाना। वो एक दिन घर में मातम मन लेगा, रौशनी नहीं जलेगी, रोटी नहीं बनेगी। एक ही दिन की बात है।

यही रोज़-रोज़ परिणाम आते तो दिक्कत हो जाती। सिविल सर्विसेज़ परीक्षा का प्रारूप कुछ ऐसा होता कि हर दस दिन में एक परीक्षा होगी, और हर दस दिन में उसका परिणाम निकलेगा, तो परीक्षार्थी ही दस प्रतिशत रह जाएँ। मैं बता रहा हूँ। क्योंकि हर दस दिन में पोल खुलने लगेगी। हर दस दिन में पोल खुलने लगेगी कि साहब कितने पानी में हैं। अभी तो सालभर आराम करने का लाइसेंस मिल जाता है।

मुझे माफ़ करना, तुमने बड़ी आस्था से मुझसे प्रश्न पूछा, और मैं बड़े कड़वे शब्दों में बोल रहा हूँ। पर तुम्हारे हित के लिए ही बोल रहा हूँ।

अब उसमें वो सब जो लड़की-लड़के के खेल हैं, ये बहुत समय माँगते हैं भाई। जिसके जीवन में ये सब खेल चल रहे हैं, समझ लेना कि शहंशाह है, नवाब है। जो कोई किसी सार्थक लक्ष्य की ओर लगा हो, उसको समय कैसे मिल जाएगा ये सब करने का? कौन-सी लड़की तुम्हारे साथ रह लेगी, अगर तुम दिन का एक घण्टा-दो घण्टा उसको नहीं दे रहे हो तो? भाग जाएगी तुरन्त।

गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड इत्यादि का जीवन में आने का अर्थ ही है कि जो तुम्हारे दिन के दस-बारह घण्टे जागृति के होते हैं, उसमें दो-चार घण्टे तो उसके नाम हो गए। मुझे दिखा दो ऐसी गर्लफ्रेंड बनाकर जिससे तुम पन्द्रह दिन में पन्द्रह मिनट बात करते हो। दिखा दो।

‘गर्लफ्रेंड’ का मतलब ही यही होता है—“मैंने समय तुझको दिया।”

“दिल तुझको दिया” नहीं, “समय तुझको दिया।”

और जब समय इधर दिया, तो समय उधर कैसे दोगे बेटा? यही करना है तो यही कर लो। फिर अफ़सोस क्यों मना रहे हो कि वो किसी और के साथ चली गई? तुम भी चले जाओ किसी और के साथ।

ये खेल खेलने के लिए तो जितने जिस्म हैं सब बेताब हैं। कौन है जिसको नहीं मिलेगा? एक नहीं मिला, दूसरा मिलेगा। जो नहीं मिल रहा, उससे बेहतर मिलेगा। दुनिया में जिस्मों की क्या कमी है? यही खेल खेलना है तो फ़िर यही खेल खेलो। फिर क्यों पूछ रहे हो, “आचार्य जी, लक्ष्य बनाया है, लक्ष्य बनाया है मिल नहीं रहा”?

लक्ष्य तो तुम्हारा कुछ और है, वो कहीं चली गई है तो जाने दो न। जो भी कर रही है करने दो।

ये सब खेल तो ऐसे ही हैं। सुई, टायर, रिम, आलू — जो मिल जाए वही सही। मुझे क्या पता कि ये (अपना नारियल पानी का गिलास उठाते हुए) नारियल पानी किस ब्राण्ड का है। मुझे क्या पता कि ये जिस डब्बे से आ रहा है, उसका सीरियल नम्बर (क्रमांक) क्या था। ये डब्बा नहीं, तो बगल वाला डब्बा सही। मैं रोने थोड़े ही बैठूँगा कि, “ये वाला डब्बा नहीं मिला, तो ये वाला डब्बा क्यों?”

किसी चीज़ में ज़रा विशिष्टता हो, अद्वितीयता हो, सच्चाई हो, तो उसके लिए रोया जाए। ब्लड बैंक में ख़ून होता है, ख़ून-ख़ून एक बराबर। इसी तरह से शरीर के बाक़ी सब पदार्थ भी, रसायन, हॉर्मोन्स सब बराबर। जब खेल ही हॉर्मोन्स का हो तो उसमें रोना क्या?

या ब्लड-बैंक में जाकर रोते हो कि, “मुझे तो मेरी मेहबूबा वाला ही ख़ून चाहिए क्योंकि वो मेरे दिल में बैठी है”? रोते हो क्या? रोते हो? मर रहे होओगे, तो क्या ब्लड-बैंक में जाकर भाव खाओगे कि, “नहीं, सुन्दर लड़की का खून दो, दिल में जाएगा। दिल में तो मेरे हूर ही बैठनी चाहिए”?

ये सब खेल चला करते हैं, और इनमें भारत की जवानी बर्बाद हो रही है। अब तो परीक्षा लिखने की उम्र भी बढ़ा दी है। पहले शायद अठ्ठाईस पर रोक देते थे, आज से बीस साल पहले। अब शायद बढ़ाकर बत्तीस-पैंतीस, या चालीस साल भी कर दी है। जवानी जलाने का इंतज़ाम अब पूरा और पक्का है, बस घर पर माँ-बाप होने चाहिए आलू-गोभी खिलाने वाले।

जो उम्र ऊँचे-से-ऊँचे काम करने में, चुनौतियाँ स्वीकार करने में, जीवन की प्रतिमा को रूप और सौन्दर्य देने में जानी चाहिए, वो जा रही है सरकारी नौकरियों की कोचिंग के दरवाज़े खटखटाते हुए।

“सरकारी नौकरी मिल जाए, सरकारी नौकरी मिल जाए।”

अगर कोई गणना करे कि इस पूरी चीज़ की आर्थिक कीमत कितनी है, ये जो नुकसान है इसको कोई मोनेटाइज (मुद्रीकरण) करके देखे, तो जो नुकसान है वो न जाने कितने अरबों का आएगा। हम छोटी-से-छोटी बात पर गणना कर लेते हैं कि इस चीज़ से जी.डी.पी. (सकल घरेलू उत्पाद) कितना पीछे हो गया। अगर इस चीज़ की गणना की जाए कि सरकारी नौकरी की बीमारी से भारत कितनी मात खा रहा है, तो हम चौंक जाएँगे।

मैं कोई जी.डी.पी. का कायल नहीं हूँ कि जी.डी.पी. बढ़ना चाहिए बहुत। पर मैं जीवन में सौन्दर्य और ऊर्जा का तो कायल हूँ न। मैं इस बात की अवहेलना कैसे कर दूँ कि बीस साल वाले, पच्चीस साल वाले, छोटे-छोटे घुटन भरे कमरों में घुसे हुए पाँच-पाँच साल तक और “कम्पटीसन” की तैयारी कर रहे हैं।

“क्या शुक्ला जी, क्या करता है लड़का?”

“कम्पटीसन की तैयारी करता है।”

आधा कैरियर तो तुमने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने में गुज़ार दिया। चालीस साल की उम्र तक अगर तुम कम्पटीसन कर रहे हो, तो आजकल पैंतालीस-पचास में तो लोग सेवानिवृत्त होने की सोचने लगते हैं।

परीक्षा देनी है, तो समय बाँधो अपने लिए — एक साल, या दो साल। एक प्रयास, या दो प्रयास, उससे ज़्यादा नहीं। बिलकुल अपने ऊपर प्रतिबन्ध रख दो कि ठीक है सिविल सर्विसेज़ देना है, तो अधिक-से-अधिक दो प्रयास, उससे आगे नहीं। और दो बार में न हो चयन, तो ईमानदारी से झोला उठाओ, कमरा खाली करो, बाहर निकलो। कोई काम-धन्धा ढूँढो अपने लिए। ये घर की रोटी तोड़ना बिलकुल ठीक नहीं है।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles