क्यों प्यार में दिल टूटता है?

Acharya Prashant

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क्यों प्यार में दिल टूटता है?
दिल उन्हीं का टूटता है जो सबसे ज़्यादा दिल पर चलते हैं। और अच्छा है कि टूट जाए, ज़िन्दगी तुम्हें कुछ सबक दे रही है। अगर ये सबक तुम्हें किसी और तरीक़े से दिया जा सकता तो दे दिया होता। क्योंकि तुमने रिश्ते को जैसा समझ लिया है, रिश्ता वैसा है नहीं। उन रिश्तों में ज़रूरी है कि दर्द मिले, ठोकर मिले; तभी बेहतर हो पाओगे। और तभी फिर आगे सार्थक और सच्चे सम्बन्ध भी बना पाओगे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने किसी को बड़ी सच्चाई से और बड़ी शिद्दत से प्रेम किया, पर उसने मुझे धोखा दिया। मैंने किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्यार नहीं किया था और जो मैं ज़्यादा-से-ज़्यादा कर सकता था उनके लिए, वो मैंने किया। पर फिर भी उसने मेरा दिल क्यों तोड़ दिया? मुझे काफ़ी ठेस लगी। मैं जानना चाहता हूँ कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? मेरा दिल क्यों टूटा?

आचार्य प्रशांत: देखो, यह हो नहीं सकता कि प्यार करो और उसमें धोखा न हो। प्यार का क्या मतलब होता है? कि तुम किसी व्यक्ति, वस्तु, किसी भी चीज़ की ओर आकर्षित हो रहे हो, उससे संबंध बनाना चाहते हो; यही प्रेम है न? ये कि मुझे किसी के साथ रहना है, किसी से रिश्ता जोड़ना है और उससे मुझे कुछ चैन मिलेगा, सुकून मिलेगा, ख़ुशी मिलेगी।

हमें ये पता कहाँ होता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है और कौन अच्छा है। और हम यही मान रहे होते हैं कि हमें पता है। और तुम जो मान रहे हो वो बात बिलकुल खोखली है, ग़लत है। लेकिन तुम्हें कैसे समझाया जाए कि तुमने दूसरे को जो समझ लिया है, दूसरा वैसा है नहीं। तुमने ख़ुद को जो समझ लिया है तुम वैसे हो नहीं। तुमने रिश्ते को जो समझ लिया है, रिश्ता भी वैसा है नहीं। ये बात अगर कोई तुम को समझाने आएगा, बताने आएगा तो तुम सुनोगे नहीं। तो इसलिए ज़रूरी है कि दिल टूटे।

दिल जब तक टूटेगा नहीं तब तक भीतर का झूठ भी टूटेगा नहीं।

बल्कि बेहतर होता है उन लोगों के साथ जिनको जल्दी दिखायी पड़ जाता है कि वो इस लायक़ ही नहीं हैं कि एक सच्चा रिश्ता बना सकें।

ठीक ऐसे जैसे कोई अंधा व्यक्ति इस लायक़ ही नहीं होता कि अपनी मंज़िल को देख सके और वहाँ जाने का रास्ता तलाश सके। उसको तो अभी इलाज की ज़रूरत है न, ताकि वो आँखों की रोशनी पा सके। या उसको प्रशिक्षण की ज़रूरत है कि आँखों में रोशनी नहीं भी है तो भी किस तरीक़े से मंज़िल की ओर आगे बढ़ना है। पर न तो वो इलाज कराए, न अपनी ट्रेनिंग , प्रशिक्षण कराए और अपनी अंधियारी आँखों के साथ वो निकल पड़े मंज़िल से रिश्ता बनाने, तो उसे ठोकर तो लगेगा ही न।

और मैं कह रहा हूँ, ठोकर लगना इतनी कोई बुरी बात भी नहीं है, अगर उसके बाद तुम समझ सको कि कमी उस व्यक्ति में नहीं है जिससे तुम्हें ठोकर लगी; कमी रिश्ते के स्वभाव में ही है। रिश्ते का जो नेचर है, रिश्ते की जो प्रकृति है, वही ऐसी है कि धोखा होना ही था। और एक पक्ष को नहीं, दोनों तरफ़ धोखा होना। तुम्हें भी और उधर भी।

क्योंकि अनजान तो दोनों ही हैं, सच्चाई, हक़ीक़त तो दोनों में से ही कोई नहीं जानता। तो दिल तो टूटना ही है। और छोटी-मोटी चोट लगे तो हम संभलते नहीं इसीलिए फिर ज़रूरी हो जाता है कि हमें बहुत बड़ी वाली ठोकर लगे। ज़ार-ज़ार रुला दे।

तुम बीते हुए हसीन पलों, ख़ूबसूरत लम्हों की और देखो और हक्के-बक्के रह जाओ कि ये सब क्या था। अगर वो सच था तो आज दुख क्यों है! और अगर वो सबकुछ झूठ था तो मुझे वो झूठ कभी दिखायी क्यों नहीं दिया!

और अगर छोटा सा धोखा हो जाएगा तो तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा क्योंकि छोटे-मोटे धोखों को बर्दाश्त करने की तो हमने आदत डाल ली है, वो रोज़ ही होते रहते हैं। तो हमारे लिए अच्छा है कि ज़िन्दगी हमें बहुत ज़ोर का थप्पड़ मारे। ये मत शिकायत करना कि किसी इंसान ने तुम्हारे साथ धोखा कर दिया। नहीं, किसी इंसान ने धोखा नहीं कर दिया। तुम जैसे हो, तुम्हारे साथ ये होना ही था और इसमें मैं तुम्हारा कोई ख़ास दोष नहीं निकल रहा हूँ, सभी ऐसे होते हैं।

शुरुआत सभी की ऐसी ही होती है क्योंकि हम सब बचपन से ही एकदम इंफ्लुएंस्ड (प्रभावित) होते हैं, संस्कारित, कंडीशन्ड होते हैं। जब बचपन से ही दिमाग़ में मकड़ी के जाले लगे हुए हैं, तो बचपन के बाद जवानी आती है तो उसमें तुम्हारे दिमाग़ में कितनी सफ़ाई आ जानी है?

दिमाग़ में जाले तो बचपन से ही लगे हुए हैं और उन्हीं जालों के साथ हम फिर रिश्ते बना लेते हैं। उन रिश्तों में ज़रूरी है कि दर्द मिले, ठोकर मिले; तभी बदलोगे, तभी बेहतर हो पाओगे। और तभी फिर आगे सार्थक और बेहतर और सच्चे संबंध भी बना पाओगे।

जानते हो सबसे ज़्यादा अच्छा झटका किनको लगता है? अच्छे झटके से मेरा मतलब है — एकदम चार-सौ-चालीस वोल्ट वाला। सबसे बढ़िया मोटा झटका उनको लगता है जो सबसे ज़्यादा अच्छाई करने की कोशिश करते हैं, अपनी ओर से।

जैसे तुमने कहा न कि 'मैं तो सच्चा था, मैं तो वफ़ादार था, मेरे साथ ये सब क्यों हुआ?' तुम्हारे साथ इसीलिए हुआ क्योंकि तुम सच्चे थे और वफ़ादार थे। वफ़ा किसी काम की होती है क्या अगर वफ़ा को ये पता ही नहीं कि किससे निभानी है? ये कोई वफ़ा है।

क्या करते हो तुम अपनी सच्चाई में और वफ़ादारी में? तुम किसी ऐसे का हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींचने की कोशिश करते हो जिसका इरादा ही है तलहटी में घोंसला बसा लेने का। और फिर तुम कहते हो, ‘मैंने तो बड़ा अच्छा काम करने की कोशिश की, उसने मेरा हाथ क्यों छोड़ दिया? और छोड़ने से पहले हाथ काट भी लिया उसने।‘

क्योंकि बाबा! तुम्हें पता ही नहीं था कि हाथ थामना किसका है। तुम उसे ऊपर खींच रहे थे कि यहाँ कहाँ नीचे तुम गटर में फँसे हुए हो, चलो बाहर आओ, ऊपर आओ। और उसका इरादा ही नीचे वहाँ रहने का है। उसका इरादा वहाँ नीचे रहने का इसलिए है क्योंकि हम सब पैदा ही ऐसे होते हैं। मैंने कहा न, बचपन से दिमाग़ में मकड़ी के जाले होते हैं, तो उसका इरादा ही वही है।

अब तुमने अच्छाई करने की कोशिश की इसलिए तुमको अच्छा वाला झटका लग गया। तुम्हें नहीं लगा होता झटका — बहुत लोगों को नहीं लगता है। सब थोड़ी ही ऐसे सवाल लिखकर भेजते हैं कि 'हाय! हाय! मैं इश्क़ में बर्बाद हो गया'; तुमने लिखकर भेजा है। बहुत लोगों को नहीं लगता है झटका। किनको नहीं लगता है? जो वहीं गटर में ही घर बसाने को तैयार हो जाते हैं, उनको नहीं लगता है। उनका दिल कभी नहीं टूटता।

दिल भी उन्हीं का टूटता है जो सबसे ज़्यादा दिल पर चलते हैं। जिनका दिल दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा साफ़ होता है; सबसे ज़्यादा उन्हीं का टूटेगा। और अच्छा है कि टूट जाए, ज़िन्दगी तुम्हें कुछ सबक दे रही है। अगर ये सबक तुम्हें किसी और तरीक़े से दिया जा सकता तो दे दिया गया होता। और दूसरे तरीक़ों को तुम सुनोगे नहीं।

तुम्हें लगेगा कि 'अरे! मुझे तो मज़े लेने से रोका जा रहा है। मुझे तो रिश्ते बनाने से रोका जा रहा है। मुझे तो ये करने से वंचित किया जा रहा है।' तो फिर ज़िन्दगी कहती है – 'ले भाई, नहीं वंचित किया जा रहा, अब कर ले अपने मन की जो करना है।'

और फिर तुम निकल पड़ते हो वफ़ा निभाने कि 'देखो, मैं तो वफ़ादार हूँ।' और फिर चार-सौ-चालीस वोल्ट! और कहते हो कि सर बड़ी ज़ोर की लगी है।

बात समझ रहे हो?

तुम जान लेना कि तब टूटे हो जब तुम्हें दिखायी दे कि वो सबकुछ जो तुम्हें बहुत प्यारा लग रहा था, वैसा था ही नहीं जैसा तुम उसे सालों तक समझते रहे। वो एक-एक फ़ोटो जो तुम्हारे एलबम में क़ैद है, वो कुछ और ही मतलब रखती थी। तुम उसको देखकर के न जाने क्या ही अर्थ निकालते रहे। समझ लेना, तुम तब थोड़े चेते, थोड़े होश में आये जब तुम कहो कि 'इस फ़ोटो का और इस चिट्ठी का और इस घटना का और उस याद का अर्थ तो कुछ और ही था, न जाने मैं क्या सोचता रहा।'

हमें जब कहीं सुख मिलने लग जाता है न, तो हम वहाँ ज़्यादा पूछ्ताछ करते नहीं हैं। क्योंकि पूछ्ताछ करने में ख़तरा रहता है। कहीं कोई ऐसी बात न सामने आ जाए जिससे सुख छिन जाए या ख़त्म हो जाए। लेकिन तुम पूछो चाहे नहीं पूछो, चीज़ तो चीज़ होती है, अगर वह मौजूद है तो है। तुम्हारे न पूछने से सच्चाई मिट तो नहीं जाती।

और जो चीज़ मौजूद है, वो फिर अपना असर भी करेगी, अपना रंग दिखाएगी। जब वो अपना असर करती है, अपना रंग दिखाती है तो हमें झटका लगता है। पहले ही कुछ सवाल पूछ लिए होते — चार सवाल सामने वाले व्यक्ति से और चालीस सवाल अपनेआप से — तो ये झटके की नौबत नहीं आती; पर तब हम नहीं पूछते हैं।

मुझे बड़ा ताज्जुब होता है, सबसे ज़्यादा बात आपस में ये प्रेमी लोग करते हैं, लेकिन जितना झूठ प्रेम में बोला जाता है उससे ज़्यादा कहीं नहीं बोला जाता। इतनी बातें करते हैं तुम्हें लगेगा कि इन्हें तो एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ पता होगा। नहीं, तुम्हारे पड़ोसी को तुम्हारे बारे में ज़्यादा पता होगा, तुम्हारे प्रेमी को बहुत कम पता होगा। क्योंकि वो असली सवाल कभी पूछेगा नहीं और तुम नक़ली चेहरा दिखाने से कभी बाज़ आओगे नहीं। रिश्ते का आधार ही झूठ।

दुनियाभर की बातें कर ली जाएँगी, असली बात कभी नहीं की जाएगी। क्योंकि वहाँ ख़तरा है। असली बात कर दी गयी तो कहीं सुख न छिन जाए। एक झटके में छिनेगा, जैसे एक झटके में ब्रेकअप होता है — खट! झटका!

ये सब इसलिए हुआ है ताकि दोबारा न हो। और अगर बस एक ही बार हो, तो भला हुआ की हुआ। पर अगर मूर्ख तुम्हें बने ही रहना है, जो कहानी तुम्हारे साथ एक बार हुई वो तुम्हें दोबारा दोहरानी है, जो चोट तुमने एक बार खायी वो दोबारा खानी है तो फिर तुम्हारी ज़िन्दगी तुम जानो; मैं क्या बोल सकता हूँ!

असल में प्यार, इश्क़बाज़ी ये सबसे सही तरीक़े होते हैं हमें हमारी बेवकूफ़ियाँ दिखाने के लिए। क्योंकि जितना बेवकूफ़ एक आदमी प्रेम में बनता है उतना और कहीं नहीं बनता। और एकदम ज़ाहिर हो जाता है कि ठगे गये। अगर इतनी ईमानदारी हो कि तुम स्वीकार कर सको कि 'हाँ, ठगे गए।' सामने वाले ने नहीं ठग लिया, तुम्हारे भीतर ही जो बेवकूफ़ियाँ बैठी हैं, उन्होंने तुम्हें ठग लिया।

क्योंकि अरमान जितना प्रेम में उछलते हैं उतना और कहीं उछलते ही नहीं। अब प्रेम में उछलते हुए अरमान लेकर के गये हुए हो और एकदम सज-बज के गये हो, नए कपड़े डाल लिए हैं और ख़ुशबू वग़ैरह छिड़क रखी है। पाँच-सात बार अपनी शक़्ल देख ली है आइने में — 'मूँछ का एक बाल है, थोड़ा सा और काट दूँ, थोड़ा ये कर दूँ, वो कर दूँ' — ये सब कर रहे हो बिलकुल अपनी नज़र में। और फिर यही मुँह जिसको इतना चमका कर गये थे, उस पर थप्पड़ खाकर आ रहे हो। थप्पड़ ज़रूरी नहीं हाथ से ही पड़ा हो, नज़र से भी पड़ जाता है। नज़र न पड़ने से भी पड़ जाता है।

कितने होशियार हो तुम, ये बात आशिक़ी से ज़्यादा कहीं स्पष्ट नहीं होती। कि बहुत होशियार समझते थे अपनेआप को और इतने बड़े बेवकूफ़ निकले। जो चेहरा कल तक ऐसा लगता था कि 'वाह! अरे, बाबा — आज उसी चेहरे से मुँह छुपाते फिरते हो।' लगता है 'कहीं अरे, दरवाज़ा खोलकर कहीं झाँक न ले।' जिसकी आवाज़ कोयल जैसी होती थी; अभी कहते हो – 'कर्कशा कहीं की।'

दूसरे व्यक्ति की इसमें ग़लती नहीं है, तुमने पहचानने में ही ग़लती करी थी। तुम्हारी आँखों की खोट है, हमारी नीयत की खोट है, तुम्हें देखना नहीं आता था। ये चोट इसीलिए लगी ताकि तुम्हें पता चल जाए कि तुम्हें देखना नहीं आता था; अब चेत जाओ कम-से-कम।

कहते हो, 'साहब! अभी चेतने का वक़्त नहीं है। होश की फ़ुर्सत नहीं है, अभी तो हम इश्क़ में हैं।'

ठीक है, भाई। अगर इश्क़ तुम्हारा ऐसा है कि तुम्हें होश की फ़ुर्सत नहीं देता; तो इसी इश्क़ की चोट फिर तुम्हें होश में लाएगी।

जो इश्क़ खड़ा ही बेहोशी की बुनियाद पर होता है, वही इश्क़ फिर ऐसा दर्द देता है कि एकदम होश में आ जाते हो।

तो मैंने तो बोला ही न बेटा, तुम भाग्यवान हो कि तुमको समझ में आ गया। सौ में से निन्यानवे लोगों को तो समझ में भी नहीं आता कि उन्होंने बेवकूफ़ी करी है। एक प्रतिशत ही संभावना है कि इतनी ज़ोर का झटका लगेगा कि तुमको समझ में आ जाएगी बात।

वो भी एक जो झटका होता है, वो मैंने क्या कहा था, किनको लगता है? जो हाथ पकड़कर के ऊपर खींचने की कोशिश कर रहे होते हैं। उसके लिए ऊपर वाले के प्रति बहुत निष्ठा चाहिए, नहीं तो तुम ऊपर काहे को खींचोगे? ज़्यादातर लोग ऊपर खींच ही नहीं रहे होते। वो नीचे ही बस जाते हैं, तो उन्हें झटका लगता भी नहीं है।

तुम ऐसे कह रहे हो जैसे हर आदमी जो इश्क़ करेगा, उसे झटका लगेगा फिर वो समझ जाएगा, फिर वो सच्चे प्रेम की ओर बढ़ जाएगा।

झटका लगना बड़े नसीब की बात होती है और झटका सिर्फ़ उनको लगता है जो बहुत साफ़ स्तर का प्रेम कर रहे होते हैं; बाक़ियों को नहीं लगना है। उनके लिए प्रेम वहीं गटर में ही बस जाने का कारण बन जाता है बस।

तो ऐसा नहीं होता है कि वो पहली बार गटर में फँसे, अब दूसरी बार वो आकाश में उड़ेंगे। वो गटर में फ़ँसते हैं और फिर गटर में ही बसते हैं। वो वहीं बस ही जाते हैं।

यह बहुत पुराना झाँसा है कि 'अरे! शराब छोड़ने के लिए पहले शराब पीनी तो पड़ेगी न।' शराब जो पीते हैं उनकी शराब छूट जाती है या सौ में से निन्यानवे लोगों को लत लग जाती है? क्या तर्क है 'कि जब उस अनुभव से गुजरेंगे तभी तो।'

और पिछले पचास सालों में तो ये एक बहुत प्रचलित मान्यता बन गयी है कि जितने तरीक़े की आसक्तियाँ हैं उनमें बिलकुल गहराई से लौट जाओ और फिर कहो कि 'देखो उसमें पूरी तरीक़े से लिप्त होकर के ही तो उसके पार जाएँगे।' आज तक किसी को पूरी तरह लिप्त होकर पार जाते देखा है?

ये अंधा और अंतहीन कुआँ है। इसमें ऐसा नहीं होता कि जो नीचे गिरा, वो नीचे जाएगा और फिर उछलकर के वापस आएगा। इसमें जो नीचे जाता है, वो नीचे ही जाता ही चला जाता है, दलदल है। सौ में से, हज़ार में से कोई एक होता है जो उबर पाता है। बाक़ी तो नीचे गये तो और नीचे गये, तो और नीचे गये, तो और नीचे गये, तो और नीचे गये। माया देवी को तुमने इतना हल्का माना है क्या कि वो तुमको डेमो देकर छोड़ देंगी?

मगर की पकड़ में जब आ जाते हो तो मगर ऐसा करता है कि तुम्हारा बस दो उँगलियाँ काटकर तुमको छोड़ देता है? या ऐसा होता है कि दो उँगलियाँ पकड़ में आ गयी तो अब पूरा शरीर ही, तुमको खींच लेगा, अंदर अपने? बहुत कम ऐसे होते हैं जो मगर के साथ फँस जाएँ और बस दो उँगलियों की क़ुर्बानी देकर के बच जाएँ। बहुत कम ऐसे होते हैं। बाक़ी तो जिसका हाथ एक बार मगर ने पकड़ा उसको अब वो पूरा ही निगल जाएगा।

बाक़ी जो तुम्हारी वृत्ति तुमसे करवाती हो, कर लेना, मर्ज़ी है तुम्हारी। लेकिन कभी भी अपनेआप को ये तर्क मत देना कि 'ये सब अनुभव लेंगे तभी तो इन अनुभवों के पार जाएँगे।’

ये बहुत मूर्खतापूर्ण तर्क है; ऐसा कभी किसी के साथ नहीं हुआ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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