Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
क्यों कहा जाता है, "शरीर मेरा नहीं है"?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
9 min
283 reads

I am not the body, nor have I the body

मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है

अष्टावक्र गीता, (अध्याय-2, श्लोक-22)

प्रश्नकर्ता: पहली लाइन तो बार-बार सुनी भी है और शायद उसके कारण हमें लगता है कि "मैं देह नहीं हूँ" पर जो उसकी अगली लाइन है कि "न देह मेरी है" इस वक्तव्य को समझाने के लिए थोड़ा सा इस पर प्रकाश डालें।

आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र कह रहे है कि, आत्मस्थ की वो स्थिति होती हैै जहाँ वो देह से सम्बन्धित अनुभव करता ही नहीं। वो मिट गया है, देह अपना काम कर रही है।

मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है

मेरी का अर्थ होता है, मालकियत। शरीर है, किसका है, शरीर? शरीर का है, मेरा नहीं है। न देह मेरी है का अर्थ यह नहीं है कि देह का कोई अस्तित्व ही नहीं बल्कि मालिकियत को नकारा जा रहा है। देह है पर मेरी नहीं। तो किसकी है? अपनी है! यह एक आत्म-संलग्न प्रणाली है जो स्वयं को संचालित करना जानती है। इसमें मस्तिष्क है, अंग हैं। देह अपने आपमें पूरी है, स्व-संचालित है, मैं इससे स्वयं को अनावश्यक रूप से नहीं बांधूंगा।

शरीर तो है पर मेरे पास शरीर नहीं है। हैविंग का अर्थ होता है मालकियत, ओनरशिप, पोजेसन । शरीर है, किसका है शरीर? शरीर का है, मेरा नही है।

एक प्रयोग करियेगा, किसी भी ग्रन्थ में खूब डूबने के बाद, उठिएगा और आईने में अपनी शक्ल देखियेगा। आपको कुछ समय लगेगा ये याद करने मे कि ये आप ही हैं। नहीं तो जो प्रतिबिंब आएगा वो क्षण, दो क्षण, पांच क्षण के लिए अंजाना सा लगेगा। आप कहेंगे किसी का है। फिर पुरानी स्मृतियाँ पुनः सक्रिय होंगी और आपको याद आएगा कि अरे! ये तो मैं हूँ। नहीं तो आप वो हैं नहीं, वो देह है। देह के साथ आपने एक फ़िज़ूल नाता जोड़ हुआ है।

सत्संगति में रहने पर, शात्राभ्यास करने पर, थोड़ा सा अनुभव हो जाता है उस नाते के टूटने का। आप अपनी शक्ल को वैसे ही देखेंगे जैसे आप दीवार को देख रहे हैं, या किसी बंदर की शक्ल को देखते हैं, या किसी अपरिचित की शक्ल को देखते हैं। आपके भीतर तुरन्त कोई तादात्म का भाव नहीं उठेगा। आप तत्काल ये नहीं कहेंगे - मैं। कह देंगे, थोड़ी देर लगेगी लेकिन।

शरीर वास्तव में मात्र अपना ही है। शरीर आपका नहीं।

अष्टावक्र के शब्द सिर्फ एक ध्रुव-तारे की तरह हैं, बहुत दूर की बात हैं। वो इसलिए हैं ताकि आपको हौंसला मिले कि ऐसा भी हो सकता है। अष्टावक्र के शब्दों को रट मत लीजिएगा। वो उनकी बात है "मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है" ये आपका तो अनुभव नहीं है न। ये आपकी तो वास्तविकता नहीं है न। आप तो किसी और ही भावना में जी रहे है; मैं देह हूँ, यह देह ही मेरी है तो, बिना अष्टावक्र हुए, अष्टावक्र की बात दोहराने मत लग जाइयेगा। ये अध्यात्म में ख़ूब होता है कि अष्टावक्र अभी हुए नहीं, लेकिन शब्द किसके पकड़ लिए हैं? अष्टावक्र के। देह से पूरा गहन नाता बरकरार रखा है, देह भाव सघन है और कह क्या रहे हैं? "नाह्म देहास्मी" ये मत करियेगा। मैं दोहरा रहा हूँ।

अष्टावक्र ने ये बात आपसे इसलिए नहीं कही है कि आप इसको रट मारें। अष्टावक्र ने ये बात आपको अनुप्रेरित करने के लिए कही है। आपकी हौंसला-अफ़जाई के लिए कही है। आपको बेईमान बनाने के लिए नहीं कही है। आप अभी ये दृष्टता मत करियेगा कि आप भी कहना शुरु कर दें कि "मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है"। गलत बात हो जाएगी न। एक चोट लगनी चाहिए कि देखो अष्टावक्र जैसे भी हुए हैं जो इतनी दूर निकल गए कि झूठा देहभाव पीछे छूटा। और एक मैं हूँ, जो देह को ही ढोये-ढोये फिर रहा हूँ। अपमान लगना चाहिए, प्रेरणा मिलनी चाहिए। कुछ ऊर्जा उठनी चाहिए बदलाव की तरफ। इसलिए हैं अष्टावक्र के वचन।

प्र: आचार्य जी, प्रणाम

आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की बात सुनने को मिलती है अक्सर। पर हम लोग तो चेतना में जीते हैं। हम तो हमेशा समाज में जैसे रहेंगे किसी भी या तो रिलेशनशिप में रहेंगे और रेलशनशिप में रहने का मतलब निर्भरता तो रहेगी ही। तो ये किस हद्द तक सही है मतलब कि आत्मनिर्भर...

आचार्य: चेतना तुम्हारी जितनी ज़्यादा शरीर से जुड़ी हुई है वो शरीर की परनिर्भरता को अपनी परनिर्भरता मानेगी। शरीर है न हवा पर आश्रित। शरीर है न पौधों पर आश्रित। शरीर है न दूसरों पर आश्रित। शरीर है न पृथ्वी पर आश्रित। शरीर पूरे तरीके से आश्रित ही है। शरीर मिट्टी से उठा है और पूरी तरह से मिट्टी पर आश्रित है। अब तुम शरीर से जुड़े हो तो तुम भी आश्रित हो गए। इसलिए परनिर्भरता को बुरा बोला गया है। शरीर की परनिर्भरता प्राकृतिक है, कोई उसमे बुराई नही। तुम्हारी परनिर्भरता कृतिम है, वो तुम्हारे लिए घातक है।

प्र: आपने भी समझाया है और मैन ओशो जी को भी पढ़ा है कि जो प्रेम है; संबंधों में फलित नही होती जो, रिलेशन में। संबंध जो, किसी दो व्यक्ति के बीच मे संबंध। जैसे, माँ-बेटी या पति-पत्नी, संबंधो में नही फलित होती। वो नकली प्रेम होता है। फिर आपने भी समझाया कि जो असली प्रेम है वो बाँटने से फलित होती है, अंदर। तो इसी को थोड़ा समझना चाहूंगा कि बाँटने से कैसे फलित होती है?

आचार्य: जब तुम समझे ही नहीं तो तुम्हें कैसे पता कि मैंने क्या समझाया है? चलो, समझो। प्रेम में दो बातें - ख़ुद के प्रति वैराग्य, बेख़ुदी। अपने से रिश्ते का ज़रा कमजोर होना, दूसरे से रिश्ते का मज़बूत होना - ये प्रेम।

समझ रहे हो बात को?

ये जो भावना होती है कि मैं हूँ, और ख़ास हूँ, और विशिष्ट हूँ और दूसरों से भिन्न हूँ। ये जो विशिष्टता, ये व्यक्तित्व होता है, जो इंडिविजुअलिटी होती है, इसका कमज़ोर पड़ जाना और साथ ही साथ, पार, किसी दूसरे तल की मुक्ति के आकर्षण का बढ़ जाना, ये प्रेम है। ये दोनों एक साथ ही होते है, एक साथ ही हो सकते हैं। मुक्ति की चाहत इतनी सघन हो जायेगी कि अपने प्रति अनुराग क्षीण हो जाएगा। और अपने प्रति अनुराग बने ही हुआ है तो अपने से फिर तुम मुक्ति चाहोगे क्यों? तो ये दोनों बातें एक साथ होती हैं।

अब बताओ क्या होगा जब तुम अपने से जरा हट जाओगे? अपने से हटने का अर्थ ये होता है कि तुमने देख लिया कि मैं प्रकृति मात्र बना बैठा था। तभी तो तुम अपने आप से हट रहे हो न। मैं देह बना बैठा था। मैं जिससे जुड़ा हुआ था, वो प्रकृति भर है, देह भर है। मैं नहीं हूँ। मैं व्यर्थ ही उससे जुड़ा हुआ था। मेरी मंजिल कहीं और है, मुझे उसकी ओर जाने दो। तो देह से तुम जरा हटे।

देह से जो हटता है उसे ये भी दिख जाता कि देह-देह सब एक है, सब मिट्टी। जबतक तुम देह से जुड़े हुए हो, तुम अपने और दूसरे में बड़ा भेद करोगे। तुम्हें लगेगा मैं अलग हूँ, ये अलग है। जैसे तुम अपने से हटे नहीं, कि तुम कहोगे ये और ये (खुद के और दूसरे की ओर इशारा करते हुए) बिल्कुल एक हैं। दोनों क्या है? मिट्टी हैं, मिट्टी के खेल चल रहे हैं। प्रकृति है और दो देहें है, दोनों अपने-अपने प्रकृतिगत संस्कारों पर चल रहीं हैं। अब इसमें और उसमें (दो देहों के बीच में) तुम्हें बड़ा साझापन दिखेगा। जैसे ही ख़ुद से हटे नहीं, वैसे ही दूसरों में और अपने में बड़ी समानता दिखाई देने लग जाती है। तुम कहोगे एक देह वो है, एक देह मैं हूँ, और देह तो देह है। और छटपटाती चेतना वो है और उतनी ही छटपटाहट इधर भी है। और छटपटाहट किस बात की है तुम में, कि तुम्हें वहाँ पहुँचना है। और जब दूसरा बिल्कुल तुम्हारे जैसी चेतना है, तो उससे तुम अब अलगाव कैसे रख पाओगे, वो बिल्कुल तुम्हारे ही जैसा है। तुममें, उसमें कोई अंतर ही नहीं, तुम कह कैसे पाओगे कि वो अलग है तुमसे। ये प्रेम है।

फिर तुम कहते की मुझे तो वो चाहिए ही, वो दूसरा भी बिल्कुल मेरे ही जैसा है, उसे भी वही चाहिए। ख़ुद भी पाउँगा, उसे भी दिलाऊँगा। ख़ुद भी पाउँगा, उसे भी दिलाऊँगा।

ये बात तुम सिर्फ तभी कह सकते हो जब तुम अपने लिए कुछ ऐसा पाने निकले हुए हो जो देह के लिए नहीं है। जबतक तुम कुछ ऐसा पा रहे हो अपने लिए जो देह के लिए है वो तुम दूसरे के साथ कभी खुले दिल से बाँट ही नहीं पाओगे। क्योंकि देह के लिए जो भी वस्तुएँ हैं, वो हैं तो वस्तुएँ ही न, हर वस्तु बाँटने से कम हो जाती है। परमात्मा मात्र ऐसा है, सच्चाई मात्र ऐसी है जो बाँटने से कम नहीं होगा। जबतक देह बने बैठे हो, बाँटने का भाव तुममें आ नहीं सकता। आएगा भी तो सतही होगा। जब उसको पाने निकलते हो, जो अनन्त है, काटने से कटता नहीं। और पांच हिस्सों में काट दो तो पांचों हिस्से अनकटे पूर्ण के बराबर होते हैं। तब तुम दूसरे को भी देते हो। वो दूसरा अब तुम्हारे लिए दूसरा है ही नहीं। वो दूसरा अब बिल्कुल तुम्हारा भाई है, भाई भी नहीं है वो दूसरा, वो दूसरा अब तुम्हारा प्रतिबिंब है, प्रतिबिंब भी नहीं है वो दूसरा, वो दूसरा अब तुम्हें साफ दिखायी देता है कि तुम ही हो। तुम्हें अब बाँटना पड़ेगा, ये मजबूरी है तुम्हारी।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles