क्या सिर्फ़ राम को याद रखना पर्याप्त है? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2019)

Acharya Prashant

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क्या सिर्फ़ राम को याद रखना पर्याप्त है? || आचार्य प्रशांत, श्रीरामचरितमानस पर (2019)

प्रश्नकर्ताः तुलसीदास जी ने कहा है : 'नहिं कलि करम न भगति बिबेकू, राम नाम अवलंबन एकू।' आपका भी वीडियो सुना जहाँ कहीं भी राम नाम का शीर्षक मिला कि राम नाम एक ऐसी चीज़ है जो निराकार और साकार दोनों के बीच का है। तो मैं बच्चों को ये भी बताता हूँ कि प्रभु के नाम का सहारा लो, उनका स्मरण करो, हर काम करो तो प्रभु को याद करके करो; राम को केन्द्र में रखकर, उनको धन्यवाद देकर करो, देहभाव से मुक्त होकर करो। पर मुझे लगता है अभी मैं स्वयं अंधेरे में हूँ, ऐसी स्थिति में मैं ख़ुद क्या करूँ? कृपया स्पष्ट करें।

आचार्य प्रशांतः ‘मैं क्या करूँ?’ बहुत अच्छा प्रश्न नहीं है, कभी भी बहुत अच्छा प्रश्न नहीं है। सब इसे ध्यान से समझेंगे।

‘मैं क्या करूँ?’ बहुत प्रचलित प्रश्न है, बहुत आम सवाल है लेकिन बहुत अच्छा सवाल नहीं है। अच्छा सवाल ये है, कि ‘'मैं क्या होकर करूँ?’' ‘'मैं क्या बनकर करूँ?’' ‘'जब मैं कर रहा हूँ तब मैं कौन हूँ?’' ‘'जब मैं कर रहा हूँ तो मैं हूँ कौन?’' और तुम्हारे सामने हर विकल्प खुला है।

‘अहम्’ वो जो किसी से भी जाकर के संपृक्त हो सकता है, किसी की भी पहचान पहन सकता है, किसी से भी नाता जोड़ सकता है। तो तुम चाहो तो रावण हो के भी कर सकते हो, तुम चाहो तो राम हो के भी कर सकते हो। पुरानी कहानियाँ सब इसीलिए तो हैं कि तुम्हें बताएँ कि जो रावण होता है वो क्या करता है? तो तुम भी अपनेआप से पूछ लो कि 'अभी मैं क्या बनकर कुछ करने जा रहा हूँ?'

पूछ लो अपनेआप से कि राम का चरित्र तो मैं जानता ही हूँ। आप रामचरितमानस की बात कर रहे हैं तो राम का चरित्र तो जानते हैं। आप जब कर्म करने जा रहे हों तो अपनेआप से पूछ लीजिएगा कि 'इस वक्त राम हूँ क्या मैं?' 'ये जो मैं जा रहा हूँ अपने पड़ोसी का सिर फोड़ने, क्या राम यही करते?' 'ये जो मैं जा रहा हूँ किसी को झूठ बोलने, धोखा देने, क्या राम यही करते?'

आप बने तो रावण हुए हैं और फिर पूछ रहे हैं, ‘'मैं क्या करूँ?’' तो ये कोई अच्छा सवाल कैसे हो सकता है? क्योंकि रावण बन कर तो अब आप करोगे वही जो रावण कर सकता है। रावण बन कर आप हनुमान वाले कर्म तो कर नहीं पाओगे, या कर लोगे?

पूछा करो अपनेआप से, ‘'अभी मैं हूँ कौन?’' ‘'इस वक्त मैं कौन हूँ?’' कुछ न समझ में आ रहा हो तो जिन चरित्रों को जानते हो आध्यात्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक उन्हीं की ओर मुड़ कर देख लो और पूछ लो कि, 'इस वक्त मैं उनमें से किस चरित्र समान आचरण कर रहा हूँ?' तुम्हें दिख जाएगा कि ठीक हो या नहीं हो।

तुममें बदला लेने की भावना आ रही है तो ये तो नहीं कह पाओगे कि, 'अभी मैं संत हूँ।' और जब मन ऐसा हो कि जिसने तुम्हारा नुक़सान भी किया, उसे भी क्षमा करने का भाव हो तो फिर तुम जानते हो कि, 'अभी मैं संत हूँ। अभी मैं वही कर रहा हूँ जो अष्टावक्र पहले ही अध्याय में समझा गए हैं, कि क्षमा, तोष, शील धारण करो। तो अभी मैं अष्टावक्र हूँ।'

‘'मैं हूँ कौन?’' ये प्रश्न तुमको बताएगा।

बच्चों को तो शुरुआती साधना में एक सूत्र ये भी दिया जा सकता है कि, 'बेटा! जब किसी परिस्थिति में फँसे हो, जब निर्णय लेने का समय हो तो अपनेआप से पूछ लिया करो कि इस स्थिति में जो भी तुम्हारे इष्टदेव हैं, वो क्या करते?'

'बताओ कौन है तुम्हारा इष्ट?'

वो कोई नाम लेंगे राम, कृष्ण, हनुमान; कोई कुछ और बोलेगा। कोई बहुत धार्मिक नहीं होगा तो कोई और नाम ले लेगा। कोई थोड़ा क्रांतिकारी झुकाव का होगा तो वो कह देगा भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद। कोई अन्य धर्मों की मान्यता का होगा तो कह देगा क्राइस्ट , कह देगा अली। ये सब इष्टदेव हुए जिनको तुम सर उठा के देखते हो, जिनके सामने तुम विनम्र रहते हो।

तो उनसे कहो कि तुम जिसको भी अपने इष्टदेव की तरह देखते हो, जब निर्णय लेने का मौका आए तो अपनेआप से यही सवाल पूछ लिया करो, ‘'इस घड़ी में मेरे इष्टदेव क्या करते? अगर मैं वाकई उनकी साधना करता हूँ, अगर मैं वाकई उनके सामने नमित हूँ, तो आदर्श बना के ही सही, मैं ये पूछ लूँ कि अगर ऐसा मौका होता तो वो क्या करते?’'

अच्छा छोड़ो, और नहीं कुछ समझ में आ रहा, आचार्य जी को सुनते हो? तो निर्णय लेने की बेला में यही पूछ लो कि इस तरह के मौकों पर आचार्य जी ने क्या करने की सलाह दी है? ये एक सूत्र मात्र है। बिलकुल आरंभिक सूत्र है जिन्होंने अभी-अभी शुरुआत की हो उनके लिए। क्योंकि अगर तुम ये भी नहीं कर पा रहे तो ये दोगलापन हुआ न!

एक तरफ़़ तो तुम कह रहे हो कि तुम किसी को अपना आदर्श मानते हो और दूसरी तरफ़़ तुम कह रहे हो कि जैसा उसने जीवन जिया वैसा जीवन तुम जीना भी नहीं चाहते। एक तरफ़़ तो तुम कह रहे हो कि कोई तुम्हारा आदर्श है और दूसरी तरफ़़ तुम कह रहे हो कि उसने जैसे निर्णय लिए थे हम वैसे निर्णय नहीं लेना चाहते, तो ये पाखंड हुआ कि नहीं हुआ?

तो निर्णय लेने की घड़ी में यही सवाल कर लिया करो अपनेआप से कि, 'अभी क्या मैं हूँ कृष्ण जैसा? अभी हूँ मैं अर्जुन जैसा? अभी मैं कैसा हो रहा हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं वही काम कर रहा हूँ जो दुर्योधन ने करे थे? और अगर मैं वही करने जा रहा हूँ जो दुर्योधन ने करा था तो मैं दुर्योधन ही हूँ। और अगर मैं दुर्योधन ही हूँ तो फिर मैं अपनेआप से ये हक़ वापस लेता हूँ कि अब मैं कभी भी कृष्ण को पूजूँगा।'

दुर्योधन हो तुम, तो फिर दुर्योधन की तरह रहो। दुर्योधन क्या जाता था कृष्ण को पूजने? जाता था? तो फिर अब तुम भी कभी मत जाना कृष्ण को पूजने। अब दुर्योधन बन गए हो तो पूरी तरह दुर्योधन ही बनो। अब ख़बरदार अगर तुमने कृष्ण मंदिर में प्रवेश किया तो! अब जाना मत, अब तुम दुर्योधन हो। और अगर कहते हो कि कृष्ण आदर्श हैं मेरे, तो फिर वो करो जो कृष्ण ने किया।

यहाँ बड़ी विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। एक से एक कायर, कमज़ोर बता रहे होंगे, ‘'हमारे आदर्श हैं श्रीराम'।’ उनके पास तो कुछ नहीं था तो वो जंगल के बंदर भालू की सेना बना के भी लंकेश से भिड़ गए थे और तुम अपनी हालत देखो। तुम जीवन की साधारण चुनौतियों का भी सामना नहीं कर पाते। और कहते हो हम राम मंदिर जा रहे हैं ‘'जय श्रीराम!’'

अगर ‘जय श्रीराम’ कह रहे हो तो जीवन की चुनौतियों का सामना करने की सामर्थ्य भी तो दिखाओ।

राम ने चुनौती स्वीकार की थी या भाग गए थे वापस? तो तुम अगर भगोड़े हो जीवन के सामने, डरपोक हो, तो क्या ‘जय श्रीराम, जय श्रीराम’ करते हो! और रावण वही नहीं होता कि जिसके दस सिर हैं, कि दशानन है, लंकेश है तो ही रावण है; जो कोई अधर्म के रास्ते पर चल रहा हो, वो रावण है।

असली रावण तो तुम्हारे भीतर ही बैठा है न, क्योंकि तुम्हारे ही चित्त में अधर्म के प्रति बड़ा लगाव है। रावण रोज़-रोज़ खड़ा होता है सामने। अगर उससे नहीं लड़ते तो अपनेआप को राम भक्त कहने का क्या अधिकार है तुमको?

तुम्हें डर सता रहा है, तुम्हें लालच लग रहा है और तुमने लालच के सामने घुटने टेक दिए और फिर बोल रहे हो ‘'जय श्रीराम!’' ये पाखंड हुआ न? राम ने अयोध्या के सिंहासन का लालच करा था? करा था क्या? वो तो लालच त्याग करके चल दिए थे वन की ओर, और तुम सुबह से लेकर शाम तक रोज़ लालच के सामने घुटने टेकते हो और उसके बाद कहते हो, ‘'हम राम भक्त हैं’', ये ग़लत हुआ न?

तो ऐसे निर्णय कर लिया करो कि जिसको भी अपना इष्ट मानते हो, 'इस स्थिति में वो क्या करते?' और जो भी लोग आदर्श बनने लायक रहे हैं, गौर से देखोगे न तो सभी ने एक ही बात बताई है अलग-अलग तरीक़ों से। किसी ने तुम्हें ये नहीं सिखाया है कि जब लालच सताए तो लालच के आगे समर्पण कर दो। किसी ने सिखाया है?

फ़र्क नहीं पड़ता तुम किसको अपना इष्ट मानते हो, किसी भी इष्ट ने ये शिक्षा तो नहीं दी होगी, या दी है? पर हम ऐसे लोग हैं जो अपने इष्टदेव के साथ भी वफ़ादारी नहीं करते। वफ़ा तो हम जानते ही नहीं हैं। वफ़ा माने निष्ठा। निष्ठा हमारी है भी तो ज़बानी है, ज़बान से हम बोल देंगे, ‘'हम इनको पूजते हैं, इनको सम्मान देते हैं, इनको अपना कुलदेवता मानते हैं, फ़लाने हमारे इष्टदेव हैं।’' ये सब बातें ज़बानी हैं।

जो तुम्हारा इष्टदेव हो, जो तुम्हारा पूज्य हो, जो तुम्हारे लिए आराध्य हो, फिर उसके समान जीवन भी तो जी के दिखाओ न। अरे! ठीक उसके जैसा नहीं जी सकते तो कम-से-कम उसकी छाया ही बन के दिखा दो। उसके बराबर नहीं चल सकते तो उसके अनुगामी ही बन के दिखा दो।

पर तुम तो उसके बराबर चलना तो छोड़ो, उसका अनुगमन करना तो छोड़ो, उसके विपरीत चल के दिखा देते हो। ये बात ही बड़ी अजीब है! कहते हो अपनेआप को रामभक्त और चलते हो राम के विपरीत।! कहते हो कि मैं तो क्रांतिकारियों का बड़ा कायल हूँ, बड़ा फैन हूँ और निजी जीवन में जब क्रांति करने की बारी आती है तो हवा निकल जाती है। ये दोगलापन है।

बच्चों को यही सिखाइए कि जो कोई तुम्हें इतना ऊँचा, इतना सुंदर, इतना प्यारा लगता हो कि तुम्हारा मन करता हो इसी के सामने सर झुका दें, फिर उसके जैसी ज़िंदगी भी बिताना। जिसके सामने सिर झुका दिया, ज़िंदगी भी उसी के जैसी बिताओ। ये नहीं कि सिर तो झुका रहे हो सूरज के सामने और ज़िंदगी जी रहे हो अंधेरे की।

भूला नहीं करो कि जो भी तुम्हारा आराध्य हो, है तो वो भी तुम्हारी ही तरह हाड़-माँस का ही न। दैवीयता भले उसमें उतरी हो लेकिन ज़मीन के तल पर तो वो तुम्हारी तरह हाड़-माँस का ही पुतला है। अगर वो एक अद्भुत, उज्ज्वल जीवन जी पाया तो तुम क्यों नहीं जी सकते? और भूलो नहीं कि उसने जो जीवन जिया है उस जीवन से तुम्हें प्यार है, तभी तो वो व्यक्ति तुम्हारा आराध्य है।

अगर वो वैसी ज़िंदगी जी गया तो तुम क्यों नहीं जी सकते? या तो उसके जैसी ज़िंदगी जियो या दोबारा ये मत कहना कि ये मेरे आदर्श हैं और आराध्य हैं, दोबारा कहना मत।

प्रः आचार्य जी, हम अपना आराध्य कैसे चुनें?

आचार्यः जैसे चुनना हो वैसे चुनो, पूरी छूट है। ये सिर जिस भी उज्ज्वल और ऊँचे रूप के सामने झुकता हो, झुकने दो, बहुत विकल्प हैं।

सब लोगों की अलग-अलग संस्कृतियाँ होती हैं, अलग-अलग संस्कार, अलग-अलग रुझान; अपने रुझान के मुताबिक जो तुम्हें सबसे उज्ज्वल और आकर्षक लगता हो तुम सिर उसी के सामने झुका दो। परमात्मा तो हज़ारों तरीक़े से अवतार लेता है, तुम्हें जो अवतार भाता हो, तुम उसी के उपासक हो जाओ। लेकिन जिसके उपासक हो जाओ फिर उसकी उपासना ईमानदारी से करो।

तुम्हें बुद्ध भले लगते हों तो फिर तुम चीखते-चिल्लाते नज़र नहीं आ सकते, कि एक तरफ़ तो कह रहे हो कि बुद्ध मुझे बहुत भाते हैं और दूसरी ओर गली में शोर मचा रहे हो, हाय-हाय कर रहे हो। बुद्ध ने शोर का पाठ पढ़ाया था या मौन का जीवन जिया था? तो तुम कैसे उपासक हो बुद्ध के, जो हर समय चिल्लाते-चीखते ही नज़र आते हो? कभी होठों से चिल्लाते हो और कभी अंतर चीख-पुकार मची रहती है।

कौन-सा अवतार तुम्हें भाएगा? वो अवतार जो तुम्हारी स्थिति से ज़रा मेल खाएगा, ज़रा सहायक होगा। उदाहरण दिए देता हूँ, अगर पैसा है तुम्हारे पास, सांसारिक सुख-वैभव है तुम्हारे पास, और फिर भी चैन नहीं है तो संभावना यही है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे बुद्ध।

और अगर तुम्हारी स्थिति ये है कि शोषण में जी रहे हो, प्रताड़ना में जी रहे हो, बुरी सामाजिक स्थितियों में जी रहे हो, दुश्मन आक्रामक है और वो तुम्हें धर्म का पालन नहीं करने दे रहा तो संभावना है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे गुरु गोबिंद सिंह। अगर ऐसे राजनैतिक माहौल में जी रहे हो जहाँ किसी दूसरे ने तुमको राजनैतिक ग़ुलामी में डाल रखा है तो संभावना है कि तुम्हारे आदर्श बनेंगे भगत सिंह।

स्त्री हो, ऐसे परिवार में हो जहाँ नास्तिकता प्रचलित है पर तुम्हारे मन में भक्ति उदित हो रही है तो संभावना है कि तुम्हारी आदर्श बनेंगी मीराबाई।

तो कौन बनेगा तुम्हारा आदर्श, वो तो तुम्हारी स्थिति पर निर्भर करता है। अपनी स्थिति के अनुसार देख लो कि कौन पूजनीय है तुम्हारे लिए। लेकिन जिसको आदर्श बनाओ, फिर उससे निष्ठा निभाओ। ये नहीं कि मैं तो मीराबाई की पुजारन हूँ, और हर रविवार बीस-चालीस हज़ार की शॉपिंग (खरीदारी) करनी तो ज़रूरी है। ये नहीं चलेगा।

प्रः जब कोई किसी को आदर्श बनाता है और चूँकि वो उसके अंदर से तो आता नहीं है, तो अभिनय से शुरुआत करता है, तो क्या ये सही है?

आचार्यः घटिया पात्रों का अभिनय करे जा रहे हो इससे अच्छा तुम राम का अभिनय ही कर लो। तुम रावण का अभिनय कर-कर के दूसरों की पत्नियाँ उठाए लाए जा रहे हो तो तुम राम का अभिनय भी सीख लो कि धर्म के लिए लड़ूँगा। अगर तुम्हारी आत्मा जागृत नहीं हुई है तो तुम्हें अभिनय में ही जीना पड़ेगा न!

अहंकार तो सिर्फ़ अभिनय करता है, अभिनय माने नकल। मौलिकता तो सिर्फ़ आत्मा में होती है। आत्मा अगर जाग्रत नहीं है तो मौलिक तो तुम्हारे पास कुछ हो नहीं सकता। तुम अभिनय में ही जिओगे।

मेरी बात थोड़ी अजीब लग रही होगी लेकिन बहुत व्यवहारिक है। मुक्ति का इसमें सूत्र है। जब तुम नकल में ही जीते हो तो रावण की नकल क्यों करते हो, राम की ही कर लो भाई! ऐसा तो नहीं है कि तुम जब रावण हो तो मौलिक हो और जब राम की नकल कर रहे हो तभी नकलची हो। नकलची तो तुम लगातार हो।

लेकिन हमारी बड़ी अजीब विधि है, दुनिया की रीत देखो, कोई रावण की नकल कर रहा हो तो हम उसको नहीं कहते कि 'अरे! नकली आदमी है, ये तो नकल ही कर रहा है।' लेकिन जब कोई राम की नकल करने लगता है तो हमें बड़ी तकलीफ़ होती है, हम कहते हैं, ‘'देखो, ये न तुम सिर्फ़ नकल उतार रहे हो आदर्शों की।’'

भाई! जब तुम घटिया काम कर रहे होते हो, जब तुम एक- से- एक गिरी हुई और घिनौनी हरकत कर रहे होते हो, तब भी तो तुम नकल ही उतार रहे होते हो न! या तुम ये कह रहे हो कि तुम मौलिक रूप से गिरे हुए और घिनौने हो? नहीं, तुम मौलिक रूप से तो गिरे हुए या घिनौने नहीं हो लेकिन फिर भी तुम गिरे हुए, घटिया और घिनौने काम कर रहे हो। यानि कि तुम जब गिरे हुए हो तब भी तुम नकल ही कर रहे हो।

तो मैं कह रहा हूँ नकल करने में बुराई क्या है? हाँ, बुरे की नकल करने में बुराई है। नकल करने में नहीं बुराई है पर बुरे की नकल क्यों करते हो? नकल ही जब करनी है तो अच्छे की कर लो न। अच्छे की नकल करते-करते क्या पता एक दिन अच्छे ही हो जाओ। और नहीं भी हुए अच्छे तो कम- से- कम बुरे की नकल करने से तो बचोगे। इसके अलावा मैं तुम्हें सलाह भी क्या दूँ? क्योंकि नकलची तो हो ही।

आत्मा जाग्रत हो, मन आत्मा में डूबा हो तो किसी की नकल की ज़रूरत नहीं पड़ती। राम थोड़े ही किसी की नकल कर रहे थे, वो तो मौलिक थे। पर हमें तो नकल में ही जीना है। हम तो अभी साधना के पहले ही चरण में हैं तो हमें तो किसी-न-किसी को आदर्श बनाना पड़ेगा। हमें किसी-न-किसी का अनुकरण तो करना पड़ेगा।

हम अभी ये नहीं कह सकते कि तुम किसी का अनुकरण मत करो, तुम किसी को आदर्श मत बनाओ। अगर ये बात कह दी तो बड़ा नुक़सान हो जाएगा। वो बात आख़िरी होती है कि जब तुम किसी का अनुगमन न करो, जब तुम किसी को आदर्श न बनाओ। वो बिलकुल आख़िरी बात है।

वो बात अवतारों को, ऋषियों को, पैगंबरों को शोभा देती है कि हम ऑरिजनल (मूल) हैं, हम मौलिक हैं, हमने किसी की नकल नहीं करी। वो बात किसको शोभा देती है? वो जो लाखों में एक होते हैं, उनको शोभा देती है। बाकियों के लिएतो यही अच्छा है, जो अभी-अभी साधना की शुरुआत कर रहे हैं उनके लिए तो यही अच्छा है कि जब नकल करते ही हो, तो नकल रावण की जगह राम की कर लो भाई!

ऐसा तो नहीं है कि राम की नकल नहीं करोगे तो तुम नकल करना ही बंद कर दोगे। जो राम की नकल नहीं करेगा वो क्या करेगा? रावण की नकल करेगा। नकल करनी ही है, मजबूरी ही है नकल करनी तो सही नकल करो।

आदर्शों का अपना महत्व है। हाँ, एक स्थिति आती है, एक मुक़ाम आता है जिसके बाद सब आदर्शों का त्याग कर देना चाहिए। पर जो बेड़ियों में जकड़ा हुआ है, अज्ञान से घिरा हुआ है अगर वो साधना के प्राथमिक चरण में ही कह देगा कि मुझे किसी को आदर्श नहीं बनाना तो वो कोई प्रगति भी नहीं कर पाएगा। तो शुरु में तो तुमको किसी-न-किसी को आदर्श बनाना ही पड़ेगा।

आदर्श किसको बनाना है, इसकी हमने चर्चा कर ली। किसको बनाना है? अपनी हालत को देख के बनाना है। तुम्हारी हालत में जो तुम्हारा सहायक हो सके, उसको अपना आदर्श बनाओ, और फिर उसके नक़्शे-क़दम पर चलते जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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