प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम! आपने कई सत्रों में कहा है कि शारीरिक वृत्ति व्यक्ति को सत्य के पथ पर बढ़ने से रोकती है। शरीर की जन्मजात वृत्तियाँ अड़ंगे डालती हैं। लेकिन ये भी कहा गया है कि जैसे आग में हाथ पड़ने पर शरीर स्वयं हाथ पीछे कर लेता है, शरीर की भी अपनी एक बुद्धिमत्ता है। मैं यहाँ पर थोड़ा संशय में हूँ। तो फिर यदि शरीर की अपनी बुद्धिमत्ता है, तो भूख, नींद इत्यादि जो है वो भी अपनी बुद्धिमत्ता हुई न! फिर वृत्ति क्या है? कृपया शरीर की वृत्ति और बुद्धिमत्ता में अंतर स्पष्ट करें l
आचार्य प्रशांत: शरीर की बुद्धिमत्ता सिर्फ शरीर के संरक्षण और शरीर की ही सुरक्षा मात्र के लिए है। आग में हाथ जा रहा होगा, शरीर हाथ को पीछे खींच लेगा। पर शरीरधारी कुसंगति में बढ़ रहा होगा, तो शरीर अपने आप को पीछे नहीं खींच लेगा क्योंकि तुम संगति में हो चाहे कुसंगति में हो शरीर को अंतर नहीं पड़ता। शरीर तो बस ये चाहता है कि वो भौतिक दृष्टि से बना रहे, बचा रहे; खुद भी बचा रहे और अपने साथ-साथ अन्य जीवों का निर्माण भी करता चले। इतनी बस शरीर की माँग है।
तो तुम जा रहे हो शराबखाने की ओर, शरीर चिल्ला उठेगा अगर उसे पत्थर से ठोकर लग जाए, पर शरीर कभी तुमसे चिल्लाकर ये नहीं कहेगा कि शराबखाने की ओर क्यों जा रहे हो।
तुम अपने जीवन की दुर्दशा कर लो, तुम अपने मन को हज़ार विकारों से भर लो, तुम जीवन में बंधन-ही-बंधन ले आ लो, शरीर मना नहीं करने वाला। हाँ! ज़रा-सी भूख लगे, चोट लगे, प्यास लगे, नींद कम मिले तो शरीर ज़रूर चिल्लाएगा।
शरीर ये तुमसे पूछेगा ही नहीं कि तुम जीवन किसके साथ बिता रहे हो। अगर नर हो तो मादा चाहिए, वो कैसी भी हो। इसीलिए तुम चाहे वेश्यावृत्ति करो, चाहे हस्तमैथुन करो, शरीर को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि शरीर को तो बस मैथुन चाहिए। वो कहाँ से आ रहा है, किस गुणवत्ता का है और तुम्हारे जीवन को किस दिशा ले जाएगा शरीर को इससे कोई प्रयोजन नहीं है। शरीर कहता है, ‘कहीं से भी आए; आए, मैथुन चाहिए।’
तो जिसको तुम शरीर की बुद्धिमानी कह रहे हो, वो वास्तव में शरीर की वृत्ति ही है। शरीर की बुद्धिमानी तो है, पर वो बुद्धिमानी बड़ी सीमित है। शरीर की बुद्धिमत्ता शरीर को बचाने से आगे जाती ही नहीं। शरीर की सारी बुद्धिमता का एक ही लक्ष्य है, क्या? शरीर बचा रहे और अपने जैसे अन्य शरीरों का निर्माण करता रहे। इससे ज़्यादा नहीं है शरीर की बुद्धिमत्ता। और इसी को शरीर की वृत्ति भी कहा जाता है।
तुम्हारी नाक ने तुमसे कभी कहा है कि मोक्ष चाहिए? तुम्हारी उँगलियाँ कभी कहतीं हैं कि आनंद चाहिए? तुम्हारे जननांग तुमसे कहते हैं मुक्ति चाहिए? उनका तो एक ही लक्ष्य है। पेट को भोजन चाहिए; जननांगों को यौन तृप्ति चाहिए। आँखों को थोड़ा रोशनी चाहिए ताकि देख सकें; खाल को उचित तापमान चाहिए, उचित आर्द्रता, ह्यूमीडिटी चाहिए; ये सब न मिले तो खाल तड़पने लग जाएगी।
तुम मंदिर में भी बैठे हो और वहाँ गर्मी थोड़ी ज़्यादा हो गई, तो खाल तड़पना शुरू कर देगी न! कहेगी, ‘भागो-भागो!’ और तुम मयखाने में भी बैठे हो और वहाँ एसी ( वातानुकूलित) चल रहा है तो खाल शिकायत नहीं करेगी। ये है शरीर की बुद्धिमत्ता!
समझ में आ रही है बात?
तो जो लोग कहते हैं कि नेचुरल, नेचुरल, (स्वभाविक) वो मतलब ही नहीं समझ रहे नेचर का! इंसान का नेचर प्रकृति नहीं है, इंसान का नेचर शरीर नहीं है, इंसान का नेचर आत्मा है। जब आप कहते हो कि हम नेचुरल फूड्स खाएँगे, तो आप बिल्कुल भैंस जैसी बात कर रहे हो। भैंस का नेचर प्रकृति है, शरीर है, शरीर से ज़्यादा कुछ है नहीं भैंस; तो भैंस अगर घास खाए तो वो कहेगी, ‘मैं नेचुरल (प्राकृतिक) हूँ।‘
तो आप अगर घास खाने लग गए तो उतने भर से आप नेचुरल (स्वभाविक) नहीं हो जाते; आप नेचुरल (स्वभाविक) तब हुए जब आप आत्मा में जी रहे हो। मनुष्य का स्वभाव आत्मा है, पशु का स्वभाव प्रकृति है। पर भ्रम इतना फैला हुआ है कि अखबार उठा लो; समाचार देख लो; पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ लो; यहाँ तक कि चिकित्सकों-विशेषज्ञों से भी बात कर लो; वो नेचर शब्द का प्रयोग 'प्रकृति' के लिए ही करते हैं।
'नेचर' शब्द का प्रयोग 'प्रकृति' के लिए बेशक हो सकता है; अगर आप पशु हों। पशु के लिए 'नेचर' माने 'प्रकृति'।मनुष्य के लिए 'नेचर' माने 'आत्मा'।
बहुत लोग आते हैं, कहते हैं, ‘देखिए! भूख, प्यास, मैथुन इत्यादि पर संयम की क्या ज़रूरत है? ये तो नेचुरल हैं न!’ हाँ! ये नेचुरल हैं; पर किसके लिए नेचुरल है? ये जानवरों के लिए नेचुरल हैं। मनुष्य के लिए नहीं नेचुरल हैं।
पर लोग खूब ये तर्क देने आते हैं। कहते हैं, ‘नेचुरल रहना चाहिए।‘ खरगोश दिनभर मादा खरगोश के पीछे भागे, ये नेचुरल बात है। ठीक है। वो और कुछ कर ही नहीं सकता। खरगोश है बेचारा! उसकी चेतना विकसित ही नहीं है। उसके और विकल्प ही नहीं है। तो उसे दिन भर मादा खरगोश के पीछे भागना ही है।
पर नर मनुष्य यदि दिन भर मादा के पीछे भागे और कहे कि मैं तो वही कर रहा हूँ जो नेचुरल है; तो वह कामुक ही नहीं, मूर्ख भी है।
अंतर समझ रहें हैं?
पशु का स्वभाव है प्रकृति; और प्रकृति माने? शरीर, जीव, ये चारों ओर स्पंदित होता हुआ विश्व, ये प्रकृति है।
मनुष्य का स्वभाव प्रकृति नहीं है। आप शरीर मात्र नहीं हैं। मनुष्य के पास एक तड़पता हुआ मन है, जो आत्मस्थ होने को व्याकुल है। तो मनुष्य का स्वभाव आत्मा है। मनुष्य शरीर भरोसे नहीं जी सकता। हाँ! पशु शरीर भरोसे मज़े में जीएगा। आप बस पशु को शारीरिक तृप्ति दिए जाओ, वो कोई शिकायत करता है? उसे खाने-पीने को दे दो, आराम करने की जगह हो, सहवास के लिए नर या मादा उपलब्ध हो, कूद-फांद मचाने को खुला क्षेत्र हो; यदि वो कूद-फांद वाला पशु हो तो।
पशु इससे ज़्यादा की माँग ही नहीं करेगा। सुना है कि कोई पशु कह रहा है कि मुझे मुक्ति चाहिए, मोक्ष चाहिए, आनंद चाहिए, समाधि चाहिए, बोध चाहिए? सुना है? तो पशु शरीर मात्र है। उसको शारीरिक तृप्ति जब तक मिल रही है वो शिकायत करेगा ही नहीं। आप भी पशु हो क्या? आप पशु मात्र नहीं हो। शारीरिक तृप्ति भर से आपका काम नहीं चलने वाला।
स्वतंत्रता सेनानियों ने जान दे दी थी। इसलिए थोड़े ही कि उन्हें शारीरिक तृप्ति की कमी थी। इसीलिए कि उन्हें मुक्ति चाहिए थी, आज़ादी। कोई जानवर आज़ादी के लिए जान नहीं देता। अपवाद स्वरुप दो-चार किस्से आप सुन लें तो सुन लें। अन्यथा तथ्य ये है कि जानवर जंगल में जितने दिन जीता है, उससे ज़्यादा जीता है चिड़ियाघर में।
जानवर को आप जंगल में छोड़ दीजिए और उसे आप पालतू बना लीजिए, वो ज़्यादा जीता है। और अगर आपने उसे पालतू बनाकर के कोई तकलीफ इत्यादि नहीं दी है, उसकी सुख-सुविधा का ख्याल रखा है तो जानवर शिकायत नहीं करने वाला है। लेकिन मनुष्य तड़पेगा। मनुष्य को अगर आपने चिड़ियाघर में डाल दिया या पालतू बना लिया तो मनुष्य तड़पेगा। क्योंकि मनुष्य शरीर-भर नहीं है कि दो बार की रोटी मिल रही है, पानी मिल रहा तो संतुष्ट रहा आए। मनुष्य आत्मा है और आत्मा का स्वभाव है मुक्ति। आत्मा माने मुक्ति।
तो इस तर्क से बहुत-बहुत बचिएगा कि नींद पर कैसे संयम लगाएँ, ये तो नेचुरल है, कि मैथुन पर कैसे संयम लगाएँ, ये तो नेचुरल है, कि भई जवान लड़के हो तो लड़कियों की तरफ तो भागोगे ही, ये नेचुरल है। ये नेचुरल नहीं है। ये आपकी पाशविकता का सबूत है। पशु ये सब करें तो नेचुरल है। मनुष्य ये सब करे तो अननेचुरल है। मनुष्य ये सब करे तो वो अपना आत्मस्वभाव छोड़कर पशुस्वभाव धारण कर रहा है। तो अननेचुरल हो गया न? लेकिन नेचुरल शब्द की तो हमने व्याख्या ही यही कर दी है। कि नेचर माने वो सब जो ये बाहर पेड़-पौधे दिख रहे हैं, इसी को नेचर कहते हें। पशु के लिए है ये सब नेचर। भूलिएगा नहीं। आप ये जल्दी से मत कह दीजिएगा कि हम शिविर में गए थे शिमला तो बड़ी नेचुरल जगह में ठहराया था।
गाय-भैंस हो तो कहे कि हाँ, बड़ी नेचुरल जगह है। आपके लिए नेचुरल सिर्फ वही जगह है जहाँ आपका आत्मा से परिचय और मिलन हो। तो इस अर्थ में आप कहिएगा कि नेचर से मिलन हुआ। जब आप वापस जाएँ और कोई पूछे, 'क्या किया?' तो कहिएगा नेचर से मिलन हुआ। सुनने वाला सोचेगा कि शायद कह रहे हैं नदी-पहाड़ देखे। उसको समझ में ही नहीं आएगा किआपने असली बात क्या कह दी। आपने वास्तव में ये कह दिया कि जहाँ गए थे वहाँ आत्मा से मिलन हुआ। क्योंकि आपके लिए नेचर का अर्थ नदी, पहाड़ या शरीर नहीं हो सकता। आपके लिए नेचर का अर्थ है आत्मा।
तो यहाँ जो हो रहा है वो नेचुरल है। क्यों नेचुरल है? इसलिए नहीं कि यहाँ घास उगी हुई है। क्यों नेचुरल है यहाँ जो हो रहा है?
श्रोता: आत्मा की बात है।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि यहाँ जो बात है, वो आत्मा की है। यहाँ मन को आत्मा की तरफ ले जाया जा रहा है। इसलिए नेचुरल है। समझ में आ रही है बात?
प्रश्नकर्ता: जैसे आपने कहा कि मनुष्य का स्वभाव ये प्रकृति नहीं है, आत्मा है। लेकिन प्रश्न ये आ रहा है मन में कि एक जो आत्मस्थ होता है, जो अपने, या ये कहेंगे हम, मन अपनी आत्मा में स्थिर हो जाता है, या हम ऐसे कहेंगे जैसे बुद्ध थे तो भूख तो उनको भी लगती थी। वो भी सोते थे। और एक आत्मस्थ व्यक्ति भी, आपने ही कहा था कि वो मैथुन भी कर सकता है। लेकिन वो अपनी आत्मा में स्थिर रहता है। तो तब भी क्या वो शरीर की वृत्तियाँ रहेंगी उसके अंदर?
आचार्य प्रशांत: तुम अपने संदर्भ में पूछो। तुम्हें बुद्ध का क्या पता? तुम ये पूछो कि तुम्हारी हालत क्या है। जिन्होंने तुम्हें आत्मा के बारे में कहा, उन्होंने तुम्हें ये भी कहा कि आत्मा के बारे में कोई अनुमान मत लगाना। आत्मा के साथ गेस वर्क नहीं चलता। मुक्त पुरुष क्या कर रहा है, क्या नहीं, ये वो खुद भी नहीं जानता, तुम क्या जानोगे? तुम अपनी बात करो। तुम्हारी इतनी रूचि इसी में क्यों है कि भूख का क्या करें और मैथुन का क्या करें? मुक्ति की बात करो। ये जिस वजह से परेशान हो, उदास हो, मुँह उतरा रहता है, उन वजहों की बात करो। उन्हीं से तो मुक्ति चाहिए न?
प्रश्नकर्ता: वही चर्चा चल रही थी कि वही, कि हम उसमें बढ़े तो वृत्तियाँ हमें रोकेंगी। तो मन में यही प्रश्न था कि मान लो जैसे नींद आ रही है तो क्या मुझे उसको इनकार कर देना है बिल्कुल?
आचार्य प्रशांत: तुम बता दो। जा रहे हो फ़्लाइट पकड़ने तो भागोगे, या कहोगे कि सो जाऊँ? ये तो निर्भर करता है कि तुम मुक्ति को कितना मूल्य देते हो और नींद को कितना मूल्य देते हो। सीधी बात है। यहाँ कोई ऐसा नहीं बैठा होगा जिसने जीवन में हज़ारो बार नींद का विरोध न किया हो। है कोई ऐसा? है कोई ऐसा? परीक्षा की पढ़ाई करनी है, नींद आ रही है। नींद को किनारे कर देते हो या नहीं?
और तो और छोड़ दो, सिनेमा हॉल में बैठकर पिक्चर देख रहे हो, नींद आने लगती है तो कहते हो, ‘अरे, अगर सो गया तो सीन छूट जाएगा। पता नहीं क्या कहानी आगे बढ़ जाए।’ तो वहाँ भी नींद का विरोध कर देते हो। बात-बात पर नींद का विरोध करना तो जानते ही हो। कामवासना मिटाने के लिए किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो। और उसको आने में अभी आधे घंटे की देर है। तब भी तुम नींद का विरोध कर लेते हो। सो नहीं जाते। और जब बात मुक्ति की आती है तो कहते हो, ‘अब मुक्ति की तरफ चलें है, नींद आ रही है तो नींद का विरोध क्यों करें।’ इससे तो यही पता चलता है कि तुम्हारे मन में मुक्ति के लिए मूल्य कितना है।
जिनके मन में मुक्ति के लिए मूल्य था, वो तो मुक्ति के लिए फाँसी चढ़ गए। तुम्हारी तुम जानो। (व्यंग करते हुए) सो जाओ। क्या करोगे मेरी बात सुनकर! दोपहर का भोजन कर लिया होगा। मौसम इतना प्यारा है। अरे ये सब आत्मा, मुक्ति, सत्संग चलता रहता है। सोओ, आराम से। अब तुम पूछ रहे हो न कि संतजन फिर खाएँ क्यों, बुद्ध भी सोते क्यों थे? तो अब वजह सुनो। संत खाता है ताकि शरीर को मुक्ति की ओर बढ़ा सके। वो इसलिए नहीं खाता कि शरीर की माँग की भरपाई कर सके। वो वैसे खाता है जैसे तुम गाड़ी में ईंधन डलवाते हो ताकि गाड़ी को मंज़िल की ओर बढ़ा सको।
अंतर समझ में आ रहा है?
संत वैसे ही खाता है जैसे योद्धा खाता है कि खा रहा हूँ ताकि कल दुश्मन पर मज़बूत प्रहार कर सकूँ। वो इसलिए नहीं खाता कि खाना स्वादिष्ट है। तुम क्यों खाते हो? संत अगर सोता भी है तो इसीलिए कि उठेगा तो और ऊर्जावान रहेगा अपनी मुक्ति पाने के लिए भी और दूसरों तक भी मुक्ति पहुँचाने के लिए। वो इसलिए नहीं सोता कि सोने में क्या रस आ रहा है, आहाहा, चलो सो जाओ!
सोने और सोने में फर्क है। खाने और खाने में फर्क है। पैसा तुम भी इकठ्ठा करते हो। और गाँधी जी भी निकला करते थे तो हमेशा अपने साथ दानपात्र लिए रहते थे। छोटे बच्चों को भी कहते थे, 'क्या है? एक अन्नी है? चलो, डाल दो इसमें।' स्त्रियाँ आती थीं उनसे मिलने। उनसे कहते थे, 'इतने आभूषण क्यों पहनकर घूम रही हो? चलो, सब डालो यहाँ पर। देश की आज़ादी के काम आएँगे।' पैसा तुम भी इकठ्ठा कर रहे हो, पैसा गाँधी भी इकठ्ठा करते थे, पर इकठ्ठा करने और इकठ्ठा करने में फर्क है।
समझ में आ रही है बात?