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क्या महिलाएँ बुद्धि का कम इस्तेमाल करती हैं? || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
18 min
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प्रश्न: फरीदाबाद से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं, महिला हैं। कह रही हैं कि "मैंने देखा भी है कि घर-परिवार में महिलाओं को बड़े फैसले लेने या राय देने से रोका जाता है और उनको इतना महत्त्व भी नहीं दिया जाता हैं, बड़े मसलों में। पूछ रही हैं कि क्या वाकई महिलाएँ अपना बुद्धि का कम इस्तेमाल करती हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो बच्चा पैदा होता है, चाहे वो लड़का हो, चाहे लड़की, उसके पास कुछ जन्मगत गुण होते हैं। ठीक है?

शिक्षा, परवरिश, इनका उद्देश्य ये होता है कि आप जिस तरह से पैदा हुए हैं, उसको ध्यान में रखते हुए आपको ऐसे संस्कार दिए जाएँ कि आप बोध की ओर, ऊँचाई की ओर फ़िर मुक्ति की ओर बढ़ सकें। ऐसा हमारे यहाँ होता नहीं है। जो बच्ची पैदा होती है, उसका एक बच्चे से, एक लड़के से, बालक से, ज़रा प्राकृतिक अलगाव होता है, वो दोनों अलग–अलग होते हैं। ये बातें सब माएँ जानती हैं। एक लड़की पैदा हुई है, एक लड़का पैदा हुआ है, उनके व्यवहार में बचपन से ही अंतर होता है, बल्कि गर्भ से ही अंतर होता है। ये अंतर अपने-आप में ना अच्छी बात है, ना बुरी बात है। बात ये है कि उस बच्ची को एक बहुत सही तरह की शिक्षा दी जानी चाहिए थी।

देखिये, बुद्धि जीवन का उद्देश्य नहीं है, जीवन का उद्देश्य मुक्ति है। लेकिन ये जो बच्ची है, इसको बहुत देह केंद्रित वातावरण मिलता है और शिक्षा मिलती है। इसका नतीजा ये होता है कि उसमें भावनाओं का उबार आ जाता हैं और बुद्धि उसकी कुंद हो जाती है। तो व्यवहारिक तौर पर हमें यह देखने को मिलता है, विशेषकर भारत में, विदेशों में भी, पर भारत में विशेषकर कि महिलाएँ बहुत भावुक होती हैं, बहुत देह-केंद्रित होती हैं और चेतना का और बुद्धि का अपेक्षाकृत कम इस्तेमाल करती हैं। ऐसा होना अनिवार्य बिलकुल नहीं है, ऐसा होना बड़े दुर्भाग्य की बात है। ऐसा नहीं है कि कोई महिला ऐसी हो नहीं सकती या बहुत सारी, बल्कि बहुसंख्यक महिलाएँ ऐसी हो नहीं सकतीं जो मुक्ति की ओर उतनी ही गति से बढ़ रही हों, उतने ही बोध में स्थापित हो जितने पुरुष। बल्कि पुरुषों से आगे ही निकल गईं हो मुक्ति की दिशा में, ऐसा बिलकुल संभव है, ऐसा होना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है।

उसका कारण हमारी परवरिश है। तो आप पूछ रही हैं यदि कि "क्या महिलाएँ ऐसी होती हैं?" तो उसका उत्तर है कि महिलाएँ ऐसी होती हैं पर उसमें दोष उस बच्ची का नहीं है, उस बच्ची को दी जाने वाली परवरिश का है। तो यह मत समझ लीजियेगा कि महिलाओं के जन्म को ही दोष दिया जा रहा है, या महिला शरीर, स्त्री–देह को ही दोष दिया जा रहा है। स्त्री–देह को नहीं दोष दिया जा रहा है, उस माहौल को दोष दिया जा रहा है जिसमें उस बच्ची को ये बता के ही बड़ा किया गया है कि "तेरा काम है बच्चे पैदा करना, तेरा काम है स्त्री बन करके किसी पुरुष की सेवा करना, परिवार की देख–रेख करना। तू करेगी क्या इतनी बुद्धि चला के? तुझे कौन से दफ्तर जाना है? और अगर तुझे पढ़ाई करनी भी है, तो कुछ गिने–चुने, स्त्री सुलभ विषयों में कर। बाकी विषयों से तेरा संबंध क्या है?"

बहुत खेद की बात होती है, जब स्त्री अपने-आप को स्वयं ही पुरुष का खिलौना बना देती है।

आप अपने खिलौने को बहुत बुद्धिमान चाहेंगे नहीं न कभी? पुरुष भी अपने खिलौने को चाहता नहीं है कि बहुत बुद्धिमान हो। बुद्धिमान खिलौना आपके लिए आफ़त बन जाएगा। आप उसे इधर–उधर कुछ भी करना चाहोगे, वो करने ही नहीं देगा। पुरुष, स्त्री को जैसा देखना चाहता है― बुद्धिहीन, स्त्री यदि खुद ही अपने-आप को वैसा बना ले, तो इससे ज़्यादा खतरनाक और दुःखद बात क्या हो सकती है? पुरुष, स्त्री को देह रूप में देखना चाहता है। जब मैं कह रहा हूँ 'पुरुष', तो मेरा मतलब है एक बेवकूफ पुरुष, जैसे ज़्यादातर होते हैं बेवकूफ। एक बेवकूफ आदमी, औरत को सिर्फ़ देह के तौर पर देखना चाहता है। और उसने क्या किया है? उसने बच्ची की परवरिश ही ऐसी करी है कि वो खुद ही अपने-आप को देह मान ले।

अभी मैंने कहा था कि एक समय ऐसा था जब दुश्शासन खड़ा हुआ था, द्रौपदी से दूर और उसका चीरहरण करने की कोशिश कर रहा है कि द्रौपदी की साड़ी खींच लूँगा, निर्वस्त्र कर दूंगा उसको। आज जानते हैं क्या हुआ है? आज वो दुश्शासन, द्रौपदी के भीतर समा गया है। पहले तो कोई दूसरा चाहिए होता था स्त्री को निर्वस्त्र करने के लिए। आज दुश्शासन स्त्री के भीतर ही बैठा हुआ है, वो खुद ही अपने-आप को निर्वस्त्र करती रहती है पुरुष का खिलौना बनने के लिए।

पुरुषों को और क्या चाहिए? मौज ही मौज। पहले तो ज़बरदस्ती किसी कपड़े उतारने पड़ते थे, अब तो स्त्रियों खुद ही पुरुषों की मौज करा रही हैं और बड़े खुश है पुरुष, कह रहे हैं "बढ़िया"। अगर स्त्री की बुद्धि चलने लग गई, तो पुरुषों की मौज बंद हो जाएगी न। इसीलिए स्त्री को जानबूझ करके बेवकूफ रखा जाता है। यह काम हमारी मीडिया करती है, ये काम इंस्टाग्राम करता है, ये काम विज्ञापन करते हैं, ये काम पूरा बाज़ार कर रहा हैं, ये काम शिक्षा व्यवस्था कर रही है। और वास्तव में स्त्री को अगर कोई बचा सकता है तो सिर्फ़, अध्यात्म। क्योंकि अघ्यात्म ही तुम्हे बताता है कि "बेटा, क्या तुम अपने-आप को शरीर माने बैठी हो? तुम्हारा तो शोषण हो रहा है शरीर बन–बन के।" लेकिन अध्यात्म की ओर स्त्रियाँ आना नहीं चाहतीं। हमारा जितने भी लोगों से संपर्क है, उसमें से स्त्रियाँ सिर्फ़ १५% हैं।

संस्था के इतने लोग हैं, वो लगातार लोगों से संपर्क में रहते हैं, बड़ी लंबी–चौड़ी हमारी लाखों की लिस्ट है। उसमें १५% होंगी स्त्रियाँ। बाकियों को तो कहते हैं, "अरे ये आचार्य, ये तो हमसे बड़ी रूड बातें करता है। हम इसकी बात नहीं सुनेंगे। हमारे यूट्यूब, इंस्टाग्राम वगैरह पर १३–१४% होती है, वो आता है न कि जेन्डर डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ योर फॉलोअर्स (आपके अनुयायियों का लिंग वितरण)। उसमें आएगा ८६% मेल, १४% फीमेल। लड़कियाँ, महिलाएँ, दूर ही भागती हैं, सच्चाई सुनने से। क्यों दूर भागती हैं?

क्योंकि उनको बता दिया गया है कि तुम्हें क्या ज़रुरत है सच्चाई-वगैरह सुनने की? तुम तो झूठ सुनो, देह बनके जीयो। हम तुम्हारी परवरिश कर देंगे, हम तुमको पैसे–वैसे दे देंगे, सुख–सुविधा दे देंगे, तुम घर में बिलकुल डॉल, गुड़िया बनकर रहो। तुम्हें करना क्या है सच्चाई वगैरह से? तुम तो बोटॉक्स की बात करो। वो यूनिवर्स ही दूसरा है, जहाँ कुछ और ही चल रहा है। यहाँ मैं कहूँ उपनिषद, गीता, सत्य, श्लोक, युद्ध, संग्राम, मुक्ति। वहाँ का मुहावरा ही दूसरा है, शब्दकोश ही दूसरा है― ऑय लैशेज, ये वाला पर्स और क्या क्या होता है, बताओ भई, तुम तो अनुभवी आदमी हो। क्या–क्या है? बोलो, वहाँ का क्या शब्दकोश होता है? वहाँ भाषा ही दूसरी चल रही है। ना आचार्य जी उनसे बात कर पाते है, ना वो हम से बात कर पातीं। कहती हैं, ये क्या? वॉट इस (क्या होता है) सत्य? हम बात करते हैं कि "भाई, अपने दोष हटाने हैं", वहाँ बात होती है "अपने बाल हटाने हैं।"

सारी महिलाओं की बात नहीं कर रहा हूँ। बेकार में फेमिनिस्ट (नारीवादी) नारे लगाना मत शुरू कर देना और लगाने हैं तो लगाते रहो, मुझे धेले का फ़र्क नहीं पड़ता। ढंग की महिलाएँ थीं, उनको नमन करता हूँ, उनके पाँव छूता हूँ, पर ये भी साफ़-साफ़ बताए दे रहा हूँ, सच बोलना मेरा काम है कि महिलाओं को बिलकुल ही मंदबुद्धि और देह रूपा बना दिया है इस पूरे समाज ने।

महिला स्वयं अपनी दुश्मन है और महिला दूसरी महिलाओं की भी दुश्मन बन बैठी है। बहुत अफसोस की बात है। मैं प्रतीक्षा में हूँ उस दिन की जिस दिन स्त्रियाँ उपनिषद लिखेंगी। उन्हें स्त्री नहीं बोलेंगे तब। वो देवी हैं फ़िर। अभी तो छोड़ दो कि उपनिषद लिखेंगी, अभी तो ये है कि पढ़ना भी नहीं चाहतीं।

८५% का आंकड़ा बोला था न मैंने अभी? तो जहाँ विज़डम लिटरेचर (ज्ञान साहित्य) की बात है, वहाँ ८५% कौन हैं? पुरुष। और जहाँ कॉस्मेटिक्स , ब्यूटी प्रोडक्ट्स के सेल की बात होती है, वहाँ ८५% कौन हैं? महिलाएँ। ये महिलाएँ अच्छा कर रही हैं अपने साथ? इससे नतीजा क्या निकलेगा? विज़डम नहीं चाहिए, कॉस्मेटिक्स चाहिए, ये क्या है? क्या शिक्षा दे रहे हैं हम अपनी बेटियों को?

प्र: इसी से मिलता–जुलता एक और प्रश्न आया है। श्रोता जर्मनी से हैं, डॉक्टर हैं। तो कह रहे हैं कि जो हमारे शरीर के सारे मैकेनिज्म (तंत्र) होते हैं, उसमें बहुत ताकत होती है। तो जैसे आपने कहा कि "आप इसके विरुद्ध बहें, प्रकृति के विरुद्ध बहें।" तो उनको ये थोड़ा असंभव सा महसूस होता है। तो मार्गदर्शन चाहती हैं इसी बात पर।

आचार्य: शरीर के मैकेनिज्म्स ने बताया कि उनमें कितनी ताकत है, उनके खिलाफ़ नहीं जा सकते? तो आप जिस चीज़ को असम्भव बता रहे हैं, आपने अभी–अभी स्वयं ही उस को संभव करके दिखा दिया है। आपके शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपको शरीर का दृष्टा बना सके। अभी–अभी आपने शरीर का दृष्टा बनके, शरीर की क्षमता या अक्षमता का आंकलन करा न अभी-अभी? ये काम शरीर ने नही करा, ये काम चेतना न करा है। अगर आप वो कर सकते हैं जो अभी आपने अपने प्रश्न में करा है, तो आप उसी काम को और आगे बढ़ाई न।

प्रश्न में अभी अभी क्या करा इन्होंने? इन्होंने शरीर की क्षमता का आंकलन करा। आंकलन करने को आपको शरीर का दृष्टा बनना पड़ेगा। आप जिससे अलग नहीं हैं, आप उसका आँकलन नहीं कर सकते। आप जिससे अलग नहीं, आप उसका आँकलन नहीं कर सकते। वज़न नापने की मशीन क्या अपना ही वजन नाप सकती है? आँख क्या स्वयं को देख सकती है? बोलो।

वज़न नापने की मशीन, आपके वजन का आँकलन कर सकती है क्योंकि आप और वो अलग–अलग हैं। आपने अभी–अभी अपने शरीर की क्षमता, या सीमित क्षमता या अक्षमता का आँकलन कैसे कर लिया? चेतना है जो जड़–पदार्थ से ऊपर है, उसको देख सकती है। आपने अभी–अभी देख लिया है। बस आपने अभी थोड़ा सा ऊपर उठ के देखा है। अब और भी ऊपर उठकर बहुत कुछ देख सकते हैं।

मैथेमैटिकल इंडक्शन (गणितीय अधिष्ठापन) क्या बोलता है? अगर 'एन' के होने से 'एन+१' का होना सिद्ध होता है, 'एन' के होने से 'एन +1' का होना सिद्ध हो गया, तो फ़िर तो बात तो बहुत दूर तक चली जाएगी न? एक से दो का होना सिद्ध हो जाएगा, दो से तीन का होना सिद्ध हो जाएगा, तीन से चार का होना। अभी-अभी आपने एक से दो का होना सिद्ध कर दिया है, तो उसी बात को आगे बढ़ाइए, इंडक्शन के माध्यम से, देखिये कहाँ तक जाती है बात।

आप अभी छोटे–मोटे दृष्टा बन रहे हैं, बहुत दूर के दृष्टा भी बन सकते है। क्योंकि एक बात तो पक्की हो गई है, कि आँख है, उस आँख ने अभी बहुत करीब की चीज़ देखी है, वही आँख सितारों को भी देख सकती है, क्योंकि आँख है।

मैं नहीं कह रहा हूँ - आसान है, मैं कह रहा हूँ - सम्भव है। ये सब मेरी सीख नहीं है, 'आसान है वग़ैरह–वग़ैरह'। सच्ची बात बोलता हूँ― 'आसान नहीं है, पर संभव है।' आसान नहीं है, पर संभव है। और संभव सिर्फ़ तब है जब तुम चाहो। चाहोगे या नहीं चाहोगे, तुम जानो। तुम्हारा काम है तुम्हारी करना, मेरा काम है मेरी करना। मेरा काम है, तुम्हें सही चुनाव की ओर धकेलते रहना। हाँ, तुम सही चुनाव की ओर जाओगे या नहीं जाओगे, ये तुम्हारा चुनाव है। तुम अपना काम करो, मैं अपना काम करता हूँ। मैं अपना काम कर सकता हूँ न, बिना ये देखे कि तुम क्या कर रहे हो? तो तुम्हें भी प्रकृति के काम का गुलाम होने की ज़रुरत नही है।

तुम मेरे सामने बैठे हो, तुम अभी लगभग पूरी तरह प्राकृतिक हो। तुम वहीं कर रहे हो, तुम से प्रकृति तुम्हारी करवा रही है। मैं फ़िर भी अपना काम कर रहा हूँ न तुम्हारे साथ?

ठीक इसी तरीक़े से तुम्हारा शरीर पूरी तरह प्राकृतिक है। वो जो कर रहा है, करता रहे। तुम भी अपना काम करते रहो। जो रिश्ता मेरा तुम्हारे साथ है, वो रिश्ता तुम अपने शरीर के साथ रख लो। तुम मेरे सामने बैठ के सो भी जाते हो, मैं सत्र नहीं रोक देता न? उसी तरह तुम्हारा शरीर सो भी जाए, तो भी तुम अपनी चेतना मत रोक दो। आसान नहीं है, संभव है। मेरे लिए भी आसान नहीं है। तुम लोग जो मेरी राह में प्राकृतिक रोड़े लगाते हो, मेरा काम भी कोई आसान नहीं है। पर अपना करता रहता हूँ काम। नहीं, काम पूरा नहीं हो गया, फलीभूत नहीं हो गया, पर करता रहता हूँ। वैसे ही, तुम भी अपना काम करते रहो, शरीर को अपना काम करने दो। हम यहाँ सत्र कर रहे हैं और नीचे बाहर कुछ कुत्ते भौंक रहे हैं, वो पूरी तरह प्रकृति है। हम अपना काम कर रहे हैं, कुत्ते अपना काम कर रहे हैं, कुत्ता क्या है? कुत्ता हमारी देह है। हमारी देह का नाम ही पशु है। वो अपना भौंक रहा है, उसे सत्र से क्या मतलब है? हम अपना सत्र कर रहे हैं, हमें भौंकने से क्या मतलब?

समझ में आ रही है बात?

यही पुरुष–प्रकृति विभाग योग है। प्रकृति अपनी जगह रहे, पुरुष अपनी जगह रहे। क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ को अलग जानो। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग और कुछ नहीं, यही है। तुम क्षेत्रज्ञ हो, कुत्ता क्षेत्र है। क्या करें, कुत्ते के मुँह में जा करके कपड़ा ठूंसें, "भौंक मत" या अपना काम करते रहे? बोलो। और ज़्यादा भौंक रहा हो तो दरवाज़े वगैरह बंद कर लो, भई। बड़े हठी होते हैं कुत्ते, वो समझ गए कि तुम्हें भौंकना उनका नहीं पसंद है, तो पूरी पलटन ले के आएँगे भौंकने। उन्हें बात समझ में आ गई है कि ये तुम्हें पसंद नहीं है हमारा भौंकना। ऐसे ही मक्खियाँ होती हैं। एक बार वो समझ गईं कि तुम चाहते नहीं हो कि तुम्हारी नाक पे बैठें, तो फ़िर तुम्हारी नाक छोड़कर कहीं और नहीं बैठेंगी। ठीक यहीं बैठती हैं। अंततः तुम्हें यही करना पड़ता है - ये प्रकृति है, अपना काम करेगी। मैं पुरुष हूँ, मैं अपना काम करूँगा।

देखो, एक बिंदु पर आ करके उसको छोड़ देने के अलावा कोई रास्ता नहीं रहता है। आप तो डॉक्टर हैं, साहब, जर्मनी से बोल रहे हो न? डॉक्टर हैं। आप क्या करोगे बताओ, किसी टर्मिनल डिजीज (अंत्य रोग) का? आप क्या करोगे, मुझे बताओ किसी असाध्य बिमारी का, इनक्यूरेबल डिजीज का? आप क्या करोगे किसी ऑटोइम्यून डिसॉर्डर (स्व - प्रतिरक्षित विकार) का, जो ठीक हो ही नहीं सकता?

लड़ोगे? वो कुत्ता है, उसे भौंकने दो न। आप अपना काम करो, काम करो न अपना। वो भौंकेगा, भौंकने दो उसको। आपको तो ये बात बहुत आसानी से समझ में आ जानी चाहिए। शरीर में इतना कुछ है जो लगा ही रहता है। आप क्या कहते हो? लगा रहने दो, मुझे मेरा काम करने दो। नहीं?

प्र: डॉक्टर साहब ने फ़िर एक सवाल पूछा है, शरीर के सम्बन्ध में हो। तो बात कुछ ऐसी है कि शायद, जर्मनी में ही वो कुछ छात्रों को भी पढ़ाते हैं। तो कह रहे है कि "अगर मैंने उनको यह समझाना शुरू कर दिया कि देह तो देखो मिट्टी है, प्रकृति है, आप इसके पर के हो, तो ये तो बात उनके लिए उल्टी पड़ जाएगी। उनको वो समझ ही नहीं आएगी बात, मतलब फ़िर आगे उनकी रुचि कैसे आएगी कि देह को समझें भी? सारी चीज़ एकदम ही मीनिंगलेस (अर्थहीन) होने की उनको समस्या उठ रही है।

आचार्य: देखो, तुम कहीं बंद हो और वहाँ दरवाज़ा है, दरवाज़ें में ताला लगा हुआ है, ताले को समझना है। ताले को क्यों समझना है? ताले को खोलने के लिए। ताले को चूमने के लिए थोड़ी। जिसके पार जाना है उसे समझना पड़ता है न? जिसके पार जाना है, उसे समझना पड़ता है न। ताले के पार जाना है तो ताले को समझना पड़ेगा। देह के पार जाना है, देह को समझना पड़ेगा। ये बोलिए अपने छात्रों से, कि देह को समझना बहुत ज़रूरी है, देह के पार यदि जाना है तो।

भोगी भी दुनिया को समझने की कोशिश करता है, किसलिए? "भोगूँगा।" और साधक भी दुनिया को समझने की कोशिश करता है, कि "पार जाऊँगा"। साधक समझ जाता है, भोगी नहीं समझ पाता। तुम ताले के अंदर ही घुस जाओ, तो ताला खुलने से रहा। ताले को भोगने के लिए, तुम ताले में ही प्रवेश कर गए कि "छेद दिख रहा है, मैं घुस ही न जाऊँ इसमे!" तो ताले को फ़िर तुम खोल तो नहीं ही पाओगे। दुनिया ताले की तरह है, उसको समझो अच्छे से। एक–एक, कलपुर्जा, सबकुछ कैसे काम करता है, कहा दबाव क्या हो जाता है, कौन सी चीज़ किससे जुड़ी है, सब कुछ समझो।

पार जाने के लिए समझो।

वास्तव में विज्ञान का इससे अच्छा प्रयोग हो नहीं सकता। दुनिया को समझो ताकि दुनिया के बारे में किसी भ्रम में ना रहो। एक अच्छे वैज्ञानिक के लिए अध्यात्म और आसान हो जाता है। एक अच्छे शरीर-शास्त्री के लिए मुक्ति और आसान हो जानी चाहिए क्योंकि वो भली–भांति समझ गया है कि तुम्हारा क्रोध कहाँ से आता है। वो जानता है कि तुम्हारे शरीर में जो भी हलचल होती है, वो क्या है। तुम किसी साधारण आदमी को समझाओगे, वो नहीं समझेगा। पर कोई एँडोक्राइन ग्लैंड्स के बारे में सब जानता है, उसे आसानी से समझ में आएगा।

जो एकदम निरक्षर हो, जिसने हार्मोन शब्द न सुना हो, वो कैसे समझ पाएगा कि तुम्हारी जो उत्तेजनाएँ उठती हैं, वासनाएँ उठती हैं, उनका एक बड़ा रासायनिक कारण है। पर शरीरशास्त्री समझ जाएगा। तो यही विज्ञान का सही उपयोग है कि जगत को समझो, भौतिक पदार्थों को समझो ताकि जान पाओ कि जो तुम्हे दिखाई देता है, वो वैसी चीज़ है नहीं। जिसको तुम दीवार बोलते हो, वो ९९.९% खाली स्थान है। ये बात तुम आम आदमी को बताओगे, समझ में ही नहीं आएगी। पर जिसने विज्ञान पढ़ा है, वो समझ जाएगा कि "ये जो दीवार लग रही है, यह है नहीं। ये ९९.९% खाली है। और जो ०.१% है, वो भी पदार्थ नहीं है। वो बस एक एनर्जी बैरियर (ऊर्जा बाधा) है।

अब आसान हो रहा है न अपने इन्द्रियों के अनुभव के झूठ को देख पाना? इंद्रियाँ तुम्हें क्या बता रही हैं? कि ये तो एक ठोस दीवार खड़ी है सामने। पर विज्ञान बताएगा, यहाँ ठोस जैसा कुछ नहीं। ठोस जैसा भी कुछ नहीं, पदार्थ जैसा भी कुछ नहीं। समझ में आ रही है बात?

इंद्रियाँ तुम्हे बताएँगी सब कुछ अलग–अलग है, विज्ञान तुम्हें बताएगा "कुछ नहीं अलग–अलग है, सब अणु–परमाणु हैं और वेव्स हैं और क़ुर्ट्ज़ हैं और स्ट्रिंग्स हैं। क्या अलग–अलग है यहाँ पर?

तो अगर एकत्व समझना है अस्तित्व में निहित, विज्ञान कितना काम आता है, बहुत ज़यादा। नहीं तो आम आदमी को तो बस क्या दिखाई पड़ती है? विविधता, डाइवर्सिटी। अंडरलाइन यूनिटी ऑफ यूनिवर्स (ब्रह्मांड की अंतर्निहित एकता) तो वैज्ञानिक को ज़्यादा आसानी से दिखाई पड़ेगी।

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