क्या आत्मा शरीर के भीतर होती है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2016)

Acharya Prashant

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क्या आत्मा शरीर के भीतर होती है? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2016)

प्रश्नकर्ता१: सर, हम ये भी अक्सर बोल देते हैं कि हमारे शरीर में सोल होता है पर विज्ञान कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा, लेकिन वो वास्तव में होता है। तो अगर होता है तो मौत के समय जब वो हमारे शरीर से बाहर निकल जाती है तो उसका क्या होता है?

आचार्य प्रशांत: बेटा सोल, शरीर में नहीं होती है। मौत के समय जो चीज़ शरीर से हटती है वो सोल नहीं है, वो तुम्हारी अहम्-वृति है, इगो टेन्डेन्सी है। सोल कोई पदार्थ थोड़े ही है कि पदार्थ में घुस जाएगी। कल बात करी थी न? शरीर पदार्थ है और पदार्थ में क्या घुसेगा हमेशा? पदार्थ। तो सोल शरीर में कैसे हो सकती है? जो भी चीज़ स्पेस में हो—और शरीर स्पेस में होता है न—जो भी चीज़ समय में चलती हो आगे को, वो चीज़ पदार्थ ही होगी।

प्र: अभी आपने कहा जो हृदय होता है, वो एक स्पेस है, तो वो शरीर में कैसे है?

आचार्य: वो, वो वाला स्पेस नहीं है। वो ये वाला स्पेस नहीं है कि जिसमें पदार्थ या वस्तुएँ होती हैं, वो अपना एक अलग आकाश है। वो ये वाला नहीं है जिसमें ये सब सामान होता है। मौत के समय जो मरता है, मौत के समय जो शरीर से अलग होता है, वो है तुम्हारा 'मैं' भाव। आत्मा नहीं, 'मैं' भाव, अहम्-वृति।

प्र: सर, ये जाता कहॉं है?

आचार्य: आया कहॉं से था? जहाँ से आया था वहीं को चला जाता है। शरीर जब एक हालत में रहता है, सिर्फ़ तभी तक उसमें 'मैं' भाव रह सकता है। अगर शरीर की उम्र बढ़ जाए या शरीर में टूट-फूट हो जाए तो फिर 'मैं' भाव और शरीर वैसे ही अलग-अलग हो जातें हैं जैसे कि किसी कंपाउंड का डिकॅम्पोज़िशन हो जाए, कि पहले उसमें दो चीज़ें जुड़ी हुईं थी—सोडियम और क्लोराइड–-और फिर सोडियम अलग और क्लोराइड अलग।

तो मौत यही है कि अब शरीर अलग और 'मैं' भाव अलग हो गया है। ये 'मैं' भाव आत्मा नहीं है, ये 'मैं' भाव अहंता है। याद रखना शरीर अभी भी वैसा ही है, न उसका वज़न कम हो गया, न उसकी और भी किसी तरह की कोई प्रोपर्टी बदल गयी, बस अब वो 'मैं' नहीं बोल पाएगा। अब वो अपनेआप को ज़मीन से अलग नहीं देख पाएगा।

जब तक 'मैं' की भावना है तब तक तुम कहोगे कि मैं चबूतरे पर बैठा हूँ। तुम अपनेआप को चबूतरे से अलग देखोगे, तुम कहोगे, ‘मैं मिट्टी पर खड़ा हूँ।’ पर मृत्यु के उपरांत जो शरीर होता है वो अपनेआप को बाकी अस्तित्व से अलग नहीं देख पाता। तुम उसे मिट्टी पर डाल दो और छोड़ दो, वो कुछ समय बाद मिट्टी हो जाएगा।

प्र२: सर, जब जीवित होते हैं तो कम वज़न होता है, जब मर जाते हैं तो ज़्यादा वजन हो जाता है, ऐसा लगता है?

आचार्य: नहीं, ऐसा नहीं है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है।

प्र३: सर, 'मैं' भाव क्या है?

आचार्य: वही, जो तुमसे कहता है, ‘मुझे चोट लगी, मैं ऊँचा उठा, मैं कुछ हासिल कर लूॅंगा, मैं खा रहा हूँ, तुम मेरे दोस्त हो, मुझे चाहिए, मैं तुमसे पृथक हूँ, यही है 'मैं' भाव; शरीर ये सब नहीं करेगा। मौत हो गई, शरीर का ‘मैं मैं मैं’ करना ख़त्म‌। और कुछ नहीं बदलता।

प्र: सर, मौत हो जाती है तो खून पानी हो जाता है? ऐसा सब बोलते हैं तो क्या यह सच है?

आचार्य: हाँ, बिलकुल! क्योंकि जब तक सोडियम क्लोराइड से जुड़ा हुआ है तब तक मामला नमकीन है। और सोडियम और क्लोराइड अलग हो गए तो ऐसा नहीं होगा कि आधा नमक क्लोराइड में चला गया और आधा नमक सोडियम में। तुम क्लोरीन को अगर चखोगे तो उसमें ऐसा नहीं कि कुछ कम नमक मिलेगा, तुम सोडियम को भी अगर चखोगे तो उसमें ऐसा नहीं कि तुम्हें कुछ कम नमक मिलेगा; नमक सिर्फ़ तब है जब दोनों जुड़े हुए हैं, दोनों के अलग होने के बाद नमक पूरी तरह गायब हो गया। ऐसा नहीं होता कि नमक का बँटवारा हो गया है, कि अब थोड़ा क्लोरीन नमकीन लगेगी और थोड़ा सोडियम नमकीन लगेगा, ऐसा नहीं होता है न।

इसी तरीके से समझ लो 'प्राण' होते हैं। एक बार शरीर और अहम् भाव अलग-अलग हुए नहीं कि अब वो सबकुछ जो होता था इन दोनों के मिले रहने पर, अब बिलकुल ही नहीं होगा। इन दोनों के मिले रहने पर शरीर एक प्रकार से गति करता था, अब वो नहीं करेगा। इन दोनों के मिले रहने पर शरीर में चेतना रहती थी, अब वो नहीं रहेगी। शरीर जितनी भी गतियाँ दिखाता था—जब तक ये दोनों मिले हुए थे—अब वो नहीं दिखाएगा।

सोडियम से मिला हुआ क्लोरीन कुछ और ही हो जाता था न? और सोडियम से टूट करके क्लोरीन अब बिलकुल वैसा नहीं रहेगा जैसा सोडियम क्लोराइड था। तो समझ लो शरीर ऐसा ही है। एक बार उसमें से 'मैं' भाव निकला, एक बार उसमें से निकल गया सोडियम या निकल गया क्लोरीन तो जो बचता है, वो बिलकुल वैसा नहीं रहेगा जैसा वो था जब सोडियम और क्लोरीन जुड़े हुए थे, जब शरीर और अहंता जुड़े हुए थे।

प्र४: सर, किसी का शरीर एक दिन के लिए अगर गाड़ दिया जाए तो पूरा शरीर कार्य करता है लेकिन मृत्यु के समय ऐसा क्या हो जाता है कि शरीर की एक-एक कोशिका काम करना बंद कर देती है?

आचार्य: कोशिका क्या कोई मशीन है जो काम करेगी? तुम पूरा शरीर विज्ञान के द्वारा जैसा है ऐसे का ऐसा निर्मित कर दो, बिलकुल ऐसा ही, क्या उसमें प्राण आ जाएँगे? नहीं। तो प्राण समझ लो कि लावण्य है। प्राण समझ लो नमक का स्वाद है जो तभी होता है जब क्लोरीन से सोडियम जुड़े। अन्यथा तुम कितनी भी शुद्ध क्लोरीन पैदा कर लो, तुम कितनी भी विशुद्ध देह बना लो विज्ञान के माध्यम से, उसमें प्राण नहीं आ जाऍंगे। प्राण तो तभी आऍंगे जब देह में आकर के 'मैं' भावना जुड़ेगी। वो 'मैं' भावना अलग हो जाती है।

और वो जो 'मैं भाव' है, वो भी मटिरियल नहीं है। तो वो अलग होकर कहाँ गया, तुम देख नहीं पाओगे, वो अपने ही किसी और देश में चला गया। तुम उसे तलाशोगे, तुम्हें मिलेगा नहीं। पर वो चला गया इसका प्रमाण ये है कि अब देह वैसी नहीं रह जाएगी जैसी थी।

प्र५: सर, हम आत्मा को देख सकते हैं?

आचार्य: बेटा, तुम सिर्फ़ उसको देख सकते हो जो पदार्थ हो।

प्र: रात में वो जो एक प्रकाश के साथ बहुत तेज़ी से निकलता है उसको हम बोल देते हैं या घर वाले बोल देते हैं कि आत्मा जा रही है, इसको राम-राम बोल दो।

आचार्य: ये सब बेकार की बात है। वो कुछ नहीं है वो उल्का है, टूटा हुआ तारा। वो चट्टानें हैं जो धरती के वायुमंडल में प्रवेश कर गई और जब यहाँ पर आती हैं तो हवा से घर्षण होता है तो जलने लगती हैं। वो उल्कापिंड हैं, वो बड़े-बड़े पत्थर हैं, वो आत्मा नहीं है। जलते हुए पत्थर हैं वो, उनकी राख गिरती है ज़मीन पर। और कई बार वो इतने बड़े होते हैं, इतने बड़े कि गिरने से पहले पूरा नहीं जल पाते तो जब गिरते हैं तो गड्ढा और कर देते हैं।

प्र: सर, जैसे किसी की मृत्यु हो जाती है तो कहते हैं कि आत्मा शरीर से निकल जाती है और अच्छा काम करो तो स्वर्गलोक में जाएगी, नहीं तो नरक लोक में जाएगी।

आचार्य: आत्मा अचल है। अचल माने जो चल नहीं सकता, जो सर्वव्यापक है इसीलिए चलेगा कैसे। जो हर जगह मौजूद हो वो चल के कहाँ जाएगा! कहीं जाने के लिए ज़रूरी है न कि पहले तुम वहाँ पर न हो? जो सर्वव्यापक है, ओम्नीप्रेज़ेंट, वो तो चल ही नहीं सकता तो आत्मा कहीं आती-जाती नहीं है, ये सब भ्राॅंतियाँ हैं।

प्र६: सर, आप मृत्यु के बाद जीवन पर विश्वास करते हैं?

आचार्य: मृत्यु क्या है? मुझसे तो कुछ भी पूछोगे तो मैं कहूँगा, 'तुम बात किसकी कर रहे हो?' मृत्यु माने क्या?

'मैं' का अलग होना मृत्यु है। शरीर से 'मैं' जुड़ा था तो एक जन्म था, शरीर से 'मैं' टूटा तो तुम कहते हो कि मृत्यु हुई, अब यही 'मैं' अगर किसी दूसरी चीज़ से जुड़ गया तो पुनर्जन्म हो गया न, तो वो तो हमारे साथ वैसे भी होते ही रहता है।

अभी तुम बैठे हो और सुन रहे हो मुझे तो तुम कहते हो कि मैं छात्र, मैं शिष्य। थोड़ी देर पहले तुम अपने टेम्पो में नारे लगा रहे थे, तब तुम कहते कि मैं दोस्त। तो 'मैं' एक चीज़ से हटकर दूसरी चीज़ से जुड़ा कि नहीं जुड़ा? पहले 'मैं' किससे जुड़ा हुआ था? दोस्त से। अभी 'मैं' किससे जुड़ गया? गुरु से जुड़ गया, या अपनेआप को शिष्य मान लिया। ठीक है न? तो मौत भी हो गई, पुनर्जन्म भी हो गया इतनी देर में।

हम पल-पल मरते हैं और पल-पल हमारा पुनर्जन्म होता है। कुछ ऐसा नहीं है कि जब अस्सी साल के हो जाओगे और शरीर जलेगा तभी उसके बाद पुनर्जन्म होगा। 'मैं' का लगातार इधर-से-उधर भटकते रहना और एक विषय से छूटकर दूसरे विषय से संयुक्त होते रहना ही मृत्यु और पुनर्जन्म है। बात आ रही है समझ में?

मृत्यु से पहले 'मैं' बोलता था कि ‘मैं शरीर’, और मृत्यु हुई नहीं कि अब 'मैं' बोल पाएगा कि 'मैं शरीर'? अब नहीं बोल पाएगा। पर ये तो लगातार ही हो रहा है। अभी बोल रहे हो, ‘मैं श्रोता’ क्योंकि सुन रहे हो, थोड़ी देर में दौड़ने लगोगे तो बोलोगे ‘मैं धावक’। फिर अभी नाश्ता करोगे, तब क्या बोलोगे? ‘मैं खाने वाला।’

प्र७: सर जो बातें आप अभी जो वर्तमान समय में बता रहें हैं, यही बातें बचपन में ज़्यादा समझ में आती हैं, तो बचपन में नहीं बताई जा सकती ये बातें?

आचार्य: बिलकुल बताई जा सकती हैं, पर तुम्हारा बचपन अभी भी तो है, कौन-सा बड़े हो गए हो? बचपन की परिभाषा ही यही है कि जब तक समझे नहीं तब तक बच्चे, जिस दिन समझ गए उस दिन बड़े।

प्र: सर, बचपन में ज़्यादा समझ में आता है, जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है कम समझ में क्यों आता है?

आचार्य: बहुत बढ़िया! क्योंकि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे अहंकार बढ़ता है, वैसे-वैसे ये भावना बढ़ती है कि हम तो बड़े हैं, हमें सब पता है। हमारी साठ की उम्र है, हमें न बताना। अपना ज्ञान अपने पास रखो।

प्र: सर, ऐसा नहीं बोल सकते कि जब तक मैं कुछ सीख रहा हूँ तब तक मेरा बचपन है?

आचार्य: बहुत बढ़िया! है न! तो सीखने के लिए बच्चा होना ज़रूरी है। लेकिन साथ-ही-साथ जिस अर्थ में हमने कहा था कि नहीं सीखे तब तक बच्चे, उसको भी जानना ज़रूरी है। दो अलग-अलग शब्द होते हैं, एक होता है- बचपना और एक होता है- बच्चों जैसा रहना। सीखने के लिए बच्चों जैसा रहना ज़रूरी है। है न! और उपद्रव करने के लिए बचपना ज़रूरी है।

बचपने में कोई बड़ी बात नहीं, बचपना तो बस ये बताता है कि जैसे फल पकने नहीं पाया। और बच्चों जैसा होना बताता है कि मन निर्मल है, मन बच्चे जैसा है। ख़ूब उम्र बढ़ जाए फिर भी मन बच्चे जैसा रहे, ये बड़ी प्यारी बात है। लेकिन उम्र बढ़ने ही नहीं पाई, अपरिपक्वता रह गई, ये बचपना हो गया।

दोनों अलग-अलग बातें हैं, समझना! तुममें ख़ूब परिपक्वता आ गई, परिपक्वता समझते हो न? मैच्योरिटी। तुममें ख़ूब परिपक्वता आ गई लेकिन फिर भी इनोसेंस बची हुई है, भोलापन बचा हुआ है, तो तुम कहलाओगे वास्तव में बच्चे। तो उसे कहेंगे- तुम्हारा बच्चे जैसा स्वभाव। लेकिन पता चला कि हो तो पैंतालीस के गए हो पर अभी दूसरों पर ही निर्भर रहते हो, बुद्धि ऐसी है कि कहीं ठहरती नहीं, इधर-से-उधर कूदती रहती है, तो फिर उसको कहेंगे- बचपना और उसमें कुछ ख़ास नहीं।

प्र७: सर, अपने मन की शांति के लिए अच्छे काम करना तो अच्छी बात है पर संयोग से अगर हमसे कभी ग़लत काम हो गया तो इसके बारे में हम क्यों पछताऍं फिर?

आचार्य: कोई ज़रूरत नहीं है पछताने की।

प्र: सर, अगर तेल की कढ़ाई में हम को तला नहीं जाएगा तो हम क्यों डरें इस चीज़ से?

आचार्य: क्योंकि तेल की कढ़ाई है! मौत के बाद नहीं है, अभी है। जो बातें तुमसे ग्रंथों में कही गई हैं कि बुरे काम का बुरा अंजाम, वो बात बिलकुल ठीक है। बस उसको समझने में भूल हो जाती है। भूल ये हो जाती है कि तुम सोचते हो कि कभी आएगा क़यामत का दिन और उस दिन होगा फैसला हमारा। क़यामत का दिन प्रतिपल है, रोज़ है, आज ही है क़यामत का दिन।

क़यामत इसमें नहीं है कि काम का अंजाम क्या होगा, क़यामत इसमें है कि काम ही तो ग़लत हो गया न, यही तो क़यामत हो गई। और ग़लत काम का अंजाम कैसा आना है? ग़लत ही आना है। तो अंजाम के लिए तुम इंतज़ार क्यों कर रहे हो? तुमने ग़लत कर दिया, ग़लत हो गया; उसी में तो सज़ा है। सज़ा ग़लत काम के परिणाम में नहीं है, सज़ा ग़लत काम करने में है। और ग़लत काम का क्या मतलब हुआ? ग़लत काम का मतलब हुआ वो जो उलझे हुए मन से करा जा रहा है, जो बे-तरतीब मन से करा जा रहा है, जो संदेह से भरे हुए मन से करा जा रहा है, वही काम ग़लत है।

जब तुम संदेह के साथ कोई काम कर रहे होते हो तो बड़ा अच्छा लग रहा होता है? लग रहा होता है? तो यही तो सज़ा हो गई, यही तो हो गया कि तुम तेल में तले जा रहे हो। कोई वास्तव में थोड़े ही बड़ा कढ़ाहा रखा है और उसमें तुम्हें डाला जाएगा। तुम्हें किसी पर शक़ है और जल रहे हो अंदर से, यही तो है तेल में तला जाना। और जब शक़ होता है, तो अंदर से जलते हो या नहीं? ईर्ष्या होती है तो अंदर से जलते हो या नहीं? डरते हो तो मन बिलकुल सकपका जाता है कि नहीं? संकुचित हो जाता है कि नहीं? यही तो सज़ा है। और वो तुम्हें किसी ख़ास दिन नहीं मिलनी, जिस भी दिन तुम ग़लती करते हो, ठीक उसी समय तुम्हें सज़ा मिल जाती है। > ग़लती आप अपनी सज़ा है, उसे किसी अन्य सज़ा की ज़रूरत ही नहीं है।

प्र: सर, शक़ क्यों होता है फिर किसी पर?

आचार्य: क्योंकि उसके साथ नहीं हो। तुम मेरे साथ बैठे हो, क्या मुझे शक़ हो सकता है कि कहीं वहाॅं बैठकर के पकोड़े तो नहीं खा रहा? जिससे दूरी बनाओगे, उससे शक़ करोगे। जहाँ प्रेम नहीं है, जहाँ दूरियॉं हैं, वहीं पर शक़ है।

प्र: सर, एक वृद्ध आदमी है, उसका मन चाहता है कि नहीं मरे लेकिन उसका शरीर मर जाता है, ऐसा क्यों?

आचार्य: क्योंकि शरीर तो पदार्थ है न और पदार्थ की अपनी प्रॉपर्टीज़ होती हैं। रेडियोएक्टिव एलिमेंट होता है, सुना है न उसकी आधी ज़िंदगी होती है?

प्र: उसका क्षय होता रहता है।

आचार्य: तो जैसे रेडियोएक्टिव एलिमेंट भी क्षय करता है, वैसे ही तुम्हारे शरीर के सेल्स भी क्षय करते हैं। ये तो प्रॉपर्टी है कि इतने दिन ही चलेगा। रेडियोएक्टिव एलिमेंट लिखा के आता है, उसकी आधी जिंदगी है मान लो अगर छब्बीस साल, तो छब्बीस साल में वो क्या हो जाएगा? आधा क्षय। वैसी ही तुम्हारी ज़िंदगी होती है। भाई! अस्सी ही चलेगा, ये जो लेकर आए हो, इससे ज़्यादा है ही नहीं। दवा में लिखा रहता है कि नहीं एक्सपायरी डेट? तो वैसे ही तुम भी जब पैदा होते हो तो तुम पर छपा होता है एक्सपायरी डेट। ये तो तुम्हारा जो पूरा तंत्र है, उसकी प्रॉपर्टी है।

प्र: सर, ठप्पा कौन लगाता है?

आचार्य: ये जो पूरी प्रकृति है वो आप ठप्पा लगा देती है। ये पेड़ पैदा हुआ है, ये एक्सपायरी डेट के साथ आया है। प्रकृति में जो भी कुछ है वो समय के साथ आया है और समय के साथ जाएगा।

प्र: सर, ये घट-बढ़ नहीं सकता?

आचार्य: थोड़ा-बहुत, थोड़ा-बहुत।

प्र: सर, किसी का एक्सीडेंट हो जाता है तो उस केस में क्या होता है?

आचार्य: वो देखो ऐसा ही है कि कोई रेडियोएक्टिव एलिमेंट है और उसे अगर रखा रहने दो तुम, तो अपनेआप वो छब्बीस साल में ख़त्म होगा, पर तुम लेकर के उसको उच्च तापमान, उच्च दबाव में डाल दो और उसे तोड़ दो, तो वो आज भी ख़त्म हो सकता है न? तो ये तुमने दुर्घटना कर दी उसके साथ कि अपने सहज काल में वो इतने दिन चलता पर जितने दिन चलता उससे पहले ही कुछ और हो गया और वो टूट-टाट गया। यही दुर्घटनाऍं हैं।

प्र: सर, उसका भी एक्सपायरी डेट होगा?

आचार्य: बेटा! उसका एक्सपायरी डेट नहीं होता, वो सब संयोग होता है।

प्र: सर, ये हमें कैसे पता चलेगा कि यही एक्सपायरी डेट है हमारी?

आचार्य: वो तुम्हें पता करने की ज़रूरत नहीं। जो भी पैदा हुआ है, उसके पास अस्सी साल, सौ साल का समय शरीर द्वारा नियत है, लेकिन बीच में संयोगवश दुर्घटनाऍं हो सकती हैं। हो सकता है कि तुम बीस साल में ही चले जाओ।

प्र: नहीं सर, जैसे मान लीजिए हमें पता न हो, एक उदाहरण ले लेते हैं कि उसके ऊपर ठप्पा लगा है कि वो डेढ़ सौ साल का है लेकिन उसने अपनेआप को ऐसा बना लिया कुछ उल्टी-सीधी चीज़ खाकर या शराब पीकर या कुछ भी, तो वो पहले ही चला जाए?

आचार्य: हाँ, हो सकता है पहले ही चला जाए, बिलकुल हो सकता है। ये बात भी प्रॉपर्टी की है न कि तुम उसे अगर पहले ही अगर उबाल दोगे तो वो टूट जाएगा? रेडियोएक्टिव एलिमेंट चलना छब्बीस साल था पर तुमने उसे पहले ही उबाल दिया तो पहले ही टूट जाएगा।

प्र८: सर, हम अपने बच्चों को कैसे समझाऍंगे कि वो—जैसे कि हमें समझाया जाता है कि तुम झूठ न बोलो, तो उससे सोचने-समझने की शक्ति खो देता है। ठीक। तो अब हम उसे कैसे बताएँगे कि तुम सुधर जाओ, जब उन्हें पता ही नहीं है कि हम क्या सोचते हैं?

आचार्य: क्योंकि अगर तुम झूठ बोल रहे हो तो झूठ बोलने में कष्ट है। सच इसलिए नहीं बोलो कि सच बोलने से स्वर्ग मिल जाएगा या सच न बोलना पाप होगा; सच इसलिए बोलो क्योंकि जब तुम किसी से झूठ बोलते हो तो तुम उससे डर गए हो। इसलिए सच बोलो। और अगर डरे नहीं हो तो तुम जो भी बोल रहे हो वही ठीक। अगर प्रेम में बोल रहे हो तो जो बोल रहे हो वही ठीक।

प्र: सर, जैसे किसी बच्चे को बताना है कि सिगरेट पीना हानिकारक है तो उसे कैसे समझाऍंगे?

आचार्य: वो उसे ऐसे समझाओ कि हानि सिगरेट पीने में नहीं है, हानि सिगरेट पीने से पहले है। तुम अगर परेशान न होते तो तुम सिगरेट क्यों पीते। सिगरेट पीने से पहले परेशान थे इसलिए सिगरेट पी, तो हानि कब थी? सिगरेट पीने से पहले। अपनेआप को परेशानी से दूर कर लो सिगरेट की ज़रूरत ही कम हो जाएगी। जो जितना तनाव में होता है, उसे सिगरेट उतनी ज़्यादा चाहिए। जो जितना ग़मगीन होता है, उसे शराब उतनी ही ज़्यादा चाहिए। तो शराब थोड़े ही बुरी है, ग़म बुरा है न। ग़म हटा दो, शराब हट जाएगी। तनाव हटा दो, सिगरेट हट जाएगी। पर हम कहते हैं कि सिगरेट में बुराई है। सिगरेट में क्या बुराई है?

प्र: सर, तो क्या तनाव तभी हटेगा जब हम सिगरेट पिऍंगे?

आचार्य: हटता नहीं है, दब जाता है। कुछ समय के लिए तुम्हें ऐसा लगता है कि चला गया, कहीं जाता नहीं है। चला गया होता तो फिर अगली सिगरेट की ज़रूरत क्यों पड़ती? तुम तो एक पीते हो, फिर बीस मिनट बाद कहते हो, 'फिर वापस आ गया तनाव, दूसरी दो।' और जीवन भर भी पीते रहो तो तनाव चला थोड़े ही जाएगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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