क्या वासनाओं का दमन आवश्यक है?

Acharya Prashant

6 min
426 reads
क्या वासनाओं का दमन आवश्यक है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या वासनाओं का दमन आवश्यक है?

आचार्य प्रशांत: दबाना भी एक विधि है। शम- दम ये भी आवश्यक होते हैं। वासनाएँ तो भीतर बहुत समय तक बनी रहेंगी, निर्बीज नहीं हो जाओगेl और तुम ये इंतज़ार नहीं कर सकते कि जब वासनाएँ समूल नष्ट हो जाएंगी सिर्फ तभी तुम वासना मुक्त जीवन जीओगे। तो वासनाओं के दमन का भी अध्यात्म में बड़ा स्थान है। शमन-दमन आना चाहिए। दमन पर्याप्त नहीं है पर दमन आवश्यक ज़रूर है। आज की आध्यात्मिकता ने सप्रेशन (suppression) को गंदा शब्द बना दिया है। बार – बार कहते हैं, “नहीं-नहीं डोंट सप्रेस”। सप्रेशन भी ज़रूरी होता है। मन को दबाना पड़ता है, इच्छाओं को मारना पड़ता है। वो सीखो!

वो काफी नहीं है, उससे आगे जाना पड़ेगा क्योंकि बहुत समय तक अगर मन को दबाते रहोगे तो वो विद्रोह कर देगा। लेकिन वो ज़रूरी है। काफी नहीं है , लेकिन ज़रूरी है! तो वो भी सीखो!

फिर दमन के पश्‍चात् मन के शोधन की, मन को निर्मल करने की और विधियाँ हैं,” उनको लगाओ”।

प्र: मन विद्रोह कर चुका हो तो क्या करना है?

आचार्य: तो बेटा, “अभी तुम दमन और करो”। तुमने दमन करा ही नहीं तो मन ने विद्रोह कैसे कर दिया? अभी तो तुम मनचले हो। मनचला कह रहा है कि, “मेरा मन दमन के विरुद्ध विद्रोह कर रहा है”, तो झूठ बोल रहा है! विद्रोह तो मैं तब बता रहा हूँ कि हो सकता है कि जब तुमने मन का अतिशय दमन कर दिया हो। तुमने तो अभी दमन की शुरुआत भी नहीं करी। तुम्हारा मन कैसे विद्रोह कर रहा है?

प्र: दमन करना मतलब, क्या माने?

आचार्य: दमन माने कि, मन बोल रहा है कि चल, आम के खेत में, बढ़िया बाग में अमराइयाँ लदी हुई है, तुमने कहा, “नहीं ये ठीक नहीं है!” मैं नहीं समर्थन करता। इच्छा भले उठ रही है, भावना भले उठ रही है पर मैं जानता हूँ ये ठीक नहीं है और मैं वही करूँगा जो ठीक है। मन ने कहा, “ उठाओ गाड़ी निकल जाओ, अब सीधे कलकत्ता रुकना है”, तुमने कहा, -“थम जाओ! मन तो बेपेंदे का लोटा कभी इधर लटका कभी उधर को लुढ़कता है। कब तक मन पर चलते रहेंगे?” मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक! ये तो पल- पल रंग बदलता है। कब तक इसकी सुनते रहेंगे?

प्र: यह कैसे जाने कि जो काम अभी कर रहे हैं वो मन ही करवा रहा है?

आचार्य: तुम यही मान के चलो कि जो कर रहे हो सब गलत है। मन ही करवा रहा है। जब मन की गुलामी के अभ्यस्त हो गए हो तो जाहिर सी बात है कि जो कुछ भी कर रहे हो वो भीतर से वृत्ति का आवेग उठता है, वही कर डालते हो। तो तुम डिफॉल्ट मान्यता अपनी यही रखो कि, जो कुछ कर रहा हूँ वो बस एक मानसिक लहर है। फिर उसके बाद उसको जाँचो। क्योंकि दस में से आठ- नौ काम तो तुम्हारे सिर्फ वृत्तियों का आवेग होते हैं। कोई एक-दो काम होते है जो बोध से आते हैं, जो धर्मोचित होते है जिनमें ज़रा जागरूकता होती है। तो जब पता है कि दस में से आठ- नौ काम तो मैं करता ही बेहोशी में हूँ, कर्ता ही उन्माद में हूँ, तो मान के चलो की संभावना तो यही है कि उन्मत्त हूँ इसीलिए कर रहा हूँ।

प्र: जब तक दमन ना करो तब तक पता भी नहीं चलता कि अंदर कितना ज़ोर पड़ा हुआ है। दमन करने पर रेजिस्टेंस आता है। बहुत सारी चीज़ें खुलके भी पता चलती हैं।

आचार्य: बिल्कुल! ये ऐसी ही बात है कि, डकैत कई एक एक करके तुम्हारे घर में घुसते रहे हो और तुम उनको सप्रेम आज्ञा देते रहे हो, - “आइये -आइए स्वागत है अनुमति है!”, और फिर तुमने एक दिन कहा कि मैं रोकूंगा! और तब तुम्हें पता चला कि डकैतों मैं जान कितनी थी? अभी तक तो तुम सोच रहे थे कि तुम्ही मालिक हो, तुम्हारी अनुमति से काम चल रहा है। अभी तक तो तुम सोच रहे थे कि, डकैत तुम्हारी आज्ञा लेकर के भीतर प्रवेश करते है। एक दिन उन्हें रोक करके देखो तब पता चलेगा!

तब तुम्हें पता चलेगा कि उनमें कितनी ताकत है और तुम उनके कितने बड़े गुलाम हो? एक दिन रोक के देखो उन्हें! भीतर से जो ये इच्छायें उठती हैना! ये तुमको लगता भर है कि तुम्हारी इच्छायें हैं। ये तुमको भ्रम भर होता है कि, “ये इच्छायें तुम्हारी है”। ये तुम्हारी है या नहीं ये जाँचना हो तो एक दिन इन्हें रोक के दिखा दो। तब तुम्हें पता चलेगा कि ये क्या हो रहा है? मैं तो रोकना चाह रहा हूँ और इच्छाएं रुक ही नहीं रहीं है, वो विद्रोह कर रही हैं। वो खून खराबे पर उतर आयीं है। तब तुम जानोगे की इच्छाएँ तुम्हारी नहीं है। इच्छाओं का अपना एक बहाओ है। उनका जैसे अपना एक अलग इरादा हो।

प्र: घर से निकलने से पहले मन तो हमेशा यही कहता है कि, यहीं रुक जाऊँ, यहीं अच्छा है, अच्छा टाइम स्पेंड हो रहा है, दोस्त भी है। जो मर्जी चाहे वो हो सकता है। लेकिन एक अंदर से आवाज़ आती है, नहीं! अगर खुद को जानना है तो एकांत में जाना पड़ेगा, अकेला रहना पड़ेगा, ये सब कुछ सहन करना पड़ेगा। ऐसा लगता है कि कितना आसान हो।

आचार्य: बेटा, तुम्हें सूत्र बता दिया। तुम जैसा जीवन जी रहे हो उसमें से दस में से आठ या नौ तुम्हारे संकल्प बस वृत्ति गत होते हैं। भीतर से जो आदिम वृत्तियाँ हैं वो तुमपर नियंत्रण कर लेती हैं और तुम उनके अनुसार चल देते हो। एक या दो मौके ऐसे हो सकते हैं कि जब तुम सच के कहने पर चलते हो। तो जब हमें पता है कि सच के कहने पर तो हम दस में से एक ही बार चलते हैं। तो तुम ये मानके चलो की, भीतर से जो भी आवेग उठ रहा है वो आवेग ज़रा गड़बड़ ही है, ये मानके चलो। फिर उसका परीक्षण करो। ये मान्यता रखने से कम से कम तुम बहकने से बच जाओगे। कम से कम इतना होगा कि तत्काल लहर के साथ बह नहीं जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories