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क्या श्रीकृष्ण अर्जुन से हिंसा करवाते हैं? || आचार्य प्रशांत, महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध हेतु तैयार करते हैं, तो फिर हिंसा और अहिंसा में भेद क्या हुआ? हिंसा किस प्रकार उचित है?

आचार्य प्रशांत: हिंसा को तुम बड़े स्थूल रूप से देखते हो, ठीक वैसे जैसे तुम प्रेम को भी स्थूल रूप से देखते हो, ठीक वैसे जैसे तुम स्वयं को और परमात्मा को भी स्थूल रूप से देखते हो। स्थूल दृष्टि मात्र स्थूल बातें ही पकड़ पाती है।

तो किसी-ने-किसी को तीर मार दिया, तुम कह देते हो, "हिंसा हो गई।" तीर मारना कोई हिंसा है क्या? तीर क्या है? लोहा। जो शरीर में प्रवेश करे तो ख़ून निकलता है, ठीक? और सर्जरी (शल्य चिकित्सा) क्या होती है? लोहा जो शरीर में प्रवेश करे तो ख़ून निकलता है। तो तुम्हें कैसे पता कि हिंसा क्या है? अगर लोहे का शरीर में प्रवेश करना ही हिंसा है, तो सर्जरी भी हिंसा हुई। हुई कि नहीं हुई? फिर तो जो स्त्रियाँ कान छिदाती हैं और नथुने छिदाती हैं, वह भी हिंसा हुई, क्योंकि लोहा ही तो है जो शरीर में घुस रहा है। तीर तो घुसकर के निकल भी आए, लेकिन कान में झूमर लटकाया है, यह तो निकलता भी नहीं — तो यह तो परमहिंसा है फिर; लोहा शरीर में स्थाई हो गया।

लोहा माने पदार्थ, कोई भी, सोना हो कि अल्मुनियम हो, स्टील हो, सब क्या हैं? पदार्थ ही हैं। तो लोहे के शरीर में प्रवेश करने में तो हिंसा नहीं हो सकती। कुछ और बात होगी। हिंसा किसका नाम है?

प्रश्नकर्ता: मन के अंदर हिंसा का भाव आना।

आचार्य प्रशांत: (मुस्कुराते हुए) अरे, हिंसा माने क्या? कह रहे हैं - "हिंसा माने मन के अंदर हिंसा का भाव आना।"

प्रश्नकर्ता: किसी को नुक़सान पहुँचाना।

आचार्य प्रशांत: नुक़सान पहुँचाना! यह अच्छी बात है। थोड़ा आगे बढ़ें। किसी का अहित कर दो — यह भाव हिंसा है। तो डॉक्टर जब सर्जरी कर रहा है, तो उसमें अहित करने का भाव नहीं है, तो उसको आप हिंसा नहीं मानते हो, है न? कैसे पता चलेगा कि कहाँ हित है और कहाँ अहित? अभी हम दूसरे के प्रति हिंसा की बात कर रहे हैं, कैसे पता चलेगा कि दूसरे का कहाँ हित है और कहाँ अहित?

प्रश्नकर्ता: अगर उससे उसका कल्याण हो जाए।

आचार्य प्रशांत: कैसे पता चलेगा कि दूसरे का कल्याण कहाँ निहित है?

प्रश्नकर्ता: अगर हम सोचें कि हम पूर्ण हैं और दूसरा कैद में बंद है, और अगर हम उसे मुक्त कर पाएँ।

आचार्य प्रशांत: यह पता होना आवश्यक है न कि हित कहाँ है और अहित कहाँ है। और अगर आप जानते हो अपना हित, तो आप दूसरे का हित भी जानोगे। आपका हित है आपकी पूर्णता में, और जो पूर्ण है वह अपनेआप को कहीं पर सीमित देख नहीं सकता न। पूर्ण की कोई सीमा होती है? इसकी (सामने रखे कप ओर इंगित करते हुए) सीमा है, क्योंकि यह अपूर्ण है। जो भी अपूर्ण है उसकी एक सीमा होगी। पूर्ण की कोई सीमा होती है? तो अहिंसा की परिभाषा मिल गई तुम्हें।

जिसने भी अपनेआप को अपूर्ण जाना, उसके कर्म को 'हिंसा' कहते हैं। अपनेआप को अपूर्ण मानकर तुम जो कुछ करोगे, उसका नाम है 'हिंसा'।

“रियासत के बिना मैं अधूरा हूँ, मुझे दूसरे की गर्दन काटनी है ताकि रियासत मिल जाए” — यह कहलाई हिंसा। यह हिंसा क्यों है? क्योंकि तुमने अपनेआप को अपूर्ण माना, और अपूर्ण मानने के फल स्वरूप तुमने उसकी गर्दन काटी ताकि तुमको साम्राज्य मिल जाए, तो यह कहलाई 'हिंसा'। मैं किसी की याद में तड़प रहा हूँ, मैं किसी के प्रेम में पागल हूँ, उसके बिना बहुत अधूरा-अधूरा लगता है, अब ये क्या है?

प्रश्नकर्ता: हिंसा।

आचार्य प्रशांत: ये भी हिंसा है, उतनी ही बड़ी हिंसा है। पहली स्थिति में तुमने अपनेआप को अधूरा मानकर दूसरे की गर्दन काटी, दूसरी स्थिति में तुम अपनेआप को अधूरा मानकर दूसरे से गले लग रहे हो — हिंसा ये दोनों ही हैं। जहाँ तुम अपनेआप को अधूरा मानना शुरू किए तहाँ तुम हिंसक हो गए। अब तुम उसकी गर्दन काट रहे हो, गला काट रहे हो, या उसके गले लग रहे हो; फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुमने अपनेआप को अधूरा माना नहीं कि तुम हिंसक हो गए।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, "अर्जुन, तू अपनेआप को जो भी कुछ मानता है, वो अधूरी बात है। तू अपने कृष्ण-स्वरूप को, कृष्ण-स्वभाव को पहचान। अब अधूरा नहीं तू। अब तू साम्राज्य के लिए नहीं लड़ रहा, अब व्यक्तिगत रूप से तुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए।" अर्जुन पहले ठीठकता ही इसलिए था, कहता था, "बंधु-बांधवों को, और भीष्म जैसे वृद्ध बुजुर्गों को, पितामहाओं को मारकर के व्यक्तिगत साम्राज्य पा भी लिया तो क्या पाया।" कि - दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है? उसकी धारणा थी कि युद्ध वह अपने लिए लड़ रहा है। और उसकी बात ठीक भी थी, क्योंकि आम आदमी युद्ध लड़ता ही अपने लिए है। आम आदमी युद्ध लड़ता ही इसलिए है कि कोई व्यक्तिगत लाभ हो जाए।

कृष्ण ने उससे कहा, "अर्जुन तू ‘अपने’ लिए नहीं लड़ रहा है, तू ‘धर्म’ के लिए लड़ रहा है," — अब हिंसा नहीं है। धर्म के लिए तुम जो भी कुछ करो वह हिंसा नहीं है। अपने लिए जो भी कुछ करोगे वह हिंसा है — भले ही वह लगे प्रेम जैसा। और धर्म के लिए तुम हिंसा भी करो तो प्रेम है। अंतर समझ लेना।

तुम्हारे प्रेम में भी हिंसा है, कृष्ण की हिंसा में भी प्रेम है, क्योंकि तुम्हारा प्रेम तुम्हारी अपूर्णता से उठता है, तुम्हारे स्वार्थवश उठता है। और कृष्ण की हिंसा कृष्ण की पूर्णता से उठती है, परमार्थवश उठती है; स्वार्थवश नहीं उठती।

कृष्ण को क्या लेना-देना कि - बादशाह कौन बनेगा, साम्राज्य किसे मिलेगा? अर्जुन को लेना-देना था इसीलिए अर्जुन के हाथ-पाँव काँपते थे, पसीना छूटता था। कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "अर्जुन, अब तू भूल जा कि तू अपने लिए लड़ रहा है, अब यह लड़ाई कृष्ण की है। तू कृष्ण का शरीर बन जा। तेरे हाथ अब कृष्ण के हाथ हैं।" कृष्ण सारथी हैं। सारथी का मतलब समझते हो? जो तुमको कहीं लेकर के जाए। "अब तू अपने पाँव नहीं चल रहा है, अब तू कृष्ण के पाँव चल रहा है। कृष्ण तुझे लेके जा रहे हैं, कृष्ण तुझे बता रहे हैं तुझे क्या करना है।" अब अर्जुन जो भी कुछ करे, वह सम्यक है; वह हिंसा नहीं है।

याद रखना, ख़ून बहाने में हिंसा नहीं होती, हिंसा होती है अपूर्णता के भाव से कर्म करने में। जहाँ तुम्हारे भीतर द्वैत उठा, जहाँ तुम्हें लगा — "मैं अपूर्ण और सामने जो भी है वह भी अपूर्ण," — और जहाँ तुम्हें लगा कि यह दोनों अपूर्ण मिलकर पूर्ण हो जाएँगे, तहाँ हिंसा हो गई। जहाँ तुमने अपनापन और परायापन देखा, वहीं हिंसा हो गई। जहाँ तुम्हें दो दिखे, वहीं हिंसा हो गई।

दो दिख रहे हैं न? अब दूसरे का, जैसा मैंने कहा, तुम गला काटो तो भी हिंसा क्योंकि गला काटा तो भी दूसरा, 'दूसरा' था। और दूसरा दिख रहा है न, तो तुम दूसरे से गले लगे तो भी हिंसा। क्योंकि गले किससे लगे? दूसरे से। यह भी हिंसा।

कृष्ण कह रहे हैं — "अधूरे तुम हो ही नहीं। तुम कृष्ण हो।" और कृष्ण क्या हैं? पूरे। "अर्जुन, तू अर्जुन है ही नहीं, तू आत्मा मात्र है, तू विशुद्ध सत्य है। अब लड़ और अब भूल जा कि तुझे विजय मिलेगी कि नहीं।" संपूर्ण गीता में मुझे दिखा दो कि कृष्ण कहाँ कह रहे हैं कि आवश्यक है विजयी होना; एक श्लोक दिखाओ। ज़ोर इस बात पर है ही नहीं कि - "अर्जुन तू राजा बन," ज़ोर इस बात पर है ही नहीं कि तू जीतेगा कि हारेगा। बहुत संभावना थी कि अर्जुन लड़ते-लड़ते हार भी जाता, दिवंगत हो जाता — कौरवों की सेना से एक चौथाई से ज़्यादा छोटी थी पांडवों की सेना। ऐसा समझ लो कि उधर अगर चार थे, तो इधर तीन थे, बारह और सात! बहुत संभावना थी कि अर्जुन हार जाता, मारा जाता, लेकिन गीता यथावत रहती, क्योंकि कृष्ण ने जो कहा उसका उद्देश्य जीत नहीं थी, उसका उद्देश्य था युद्ध, धर्मयुद्ध।

"धर्म के लिए जो भी उचित है तू कर। तुझे व्यक्तिगत रूप से ताज मिलेगा या नहीं, तू राजा बनेगा कि नहीं, मुकुट धारण करेगा या नहीं, यह बात ही नहीं है। बात बहुत सीधी है, यह साम्राज्य दुर्योधन के पास नहीं जाना चाहिए, क्योंकि दुर्योधन का जैसा मन है और दुर्योधन की जैसी नीतियाँ हैं, अगर वह राजा बनता है तो पूरे हस्तिनापुर में दुर्दशा छा जाएगी।"

सवाल इसका नहीं है कि अर्जुन को ताज मिला कि नहीं, सवाल इसका है कि मानवता के साथ क्या हो रहा है। और याद रखना - हस्तिनापुर की सल्तनत उस समय भारत की सबसे मजबूत प्रभावी सल्तनत थी। हस्तिनापुर का जो शासक बनता, वह पूरे भारत पर छा जाता, और भारत उस समय विश्व का केंद्र था। जो हस्तिनापुर का शासक होता वह मानवता को, मानवता के पूरे इतिहास को बदल देता। अगर दुर्योधन चढ़ गया होता सिंहासन पर, तो धर्म का बहुत नाश होता, इसलिए आवश्यक है कि - "अर्जुन, तू लड़। फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तू जिएगा कि मरेगा, फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुझे विजय मिलेगी या नहीं, पर तू लड़। अपने लिए नहीं, अखिल विश्व के लिए लड़।"

जब कृष्ण कहते हैं, "पूर्ण के लिए लड़," तो 'पूर्ण' माने अखिल ब्रह्मांड। "सबके लिए लड़। यह तेरी व्यक्तिगत लड़ाई नहीं है, यह तू द्रौपदी के लिए नहीं लड़ रहा, यह तू भीम के लिए नहीं लड़ रहा, यह तू अपनी स्मृतियों के लिए नहीं लड़ रहा, यह तू अपने वंश के लिए नहीं लड़ रहा, यह तू अपने व्यक्तिगत अधिकार के लिए नहीं लड़ रहा। अर्जुन, अब तू कृष्ण के लिए लड़ रहा है, धर्म के लिए लड़ रहा है, पूरी मानवता के लिए लड़ रहा है; तो लड़।"

और जब भी तुम धर्म के लिए कुछ करते हो, वह हिंसक नहीं हो सकता — भले ही ख़ून बहे। और जब भी तुम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ करते हो — भले ही उसमें ख़ून की जगह चुंबन हो, आलिंगन हो — वह हिंसा ही है। और याद रखना, कई दफे तीरों में और गोलियों में कम हिंसा होती है, चुम्बनों और आलिंगनों में ज़्यादा हिंसा होती है, क्योंकि हमारे तो चुंबन और आलिंगन होते ही व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए हैं।

कृष्ण को हिंसक मत बोल देना। यह बात कम लोगों ने समझी है। भारत में, कई समुदाय हुए हैं जो कृष्ण को आज भी बहुत सम्मान नहीं दे पाते, ख़ास तौर पर जो लोग अहिंसा को बहुत केंद्रीय तत्व मानते हैं। वह कृष्ण को लेकर के असमंजस में पड़ जाते हैं कि कृष्ण को कैसे देखें। जैनों को कई बार असुविधा हो जाती है कृष्ण को देखने में, क्योंकि वहाँ तो सारी बात ही अहिंसा की है, और कृष्ण के ऊपर तो हजारों, लाखों मौतों की ज़िम्मेदारी है।

युद्ध तो हो ही नहीं रहा था, अर्जुन तो भगोड़ा था। वह तो कह रहा था, "सरेंडर! मैं जा रहा हूँ, मुझसे नहीं लड़ा जाएगा।" तो लोग तर्क देते कहते हैं कि — “इतने जीव मरने से बच जाते, युद्ध ही नहीं होता तो। कृष्ण ने क्यों इतना अमानवीय कृत्य कराया? इतने लोगों की जान क्यों ली?” पगलों! तुम पूरी तस्वीर देख ही नहीं पा रहे हो। तुम्हें तो यह दिख रहा है कि कितने लोग महाभारत के युद्ध में दिवंगत हुए, मारे गए, तुम्हें यह नहीं दिख रहा है कि दुर्योधन अगर राजा बन जाता तब क्या आफ़त बरसती। अभी तो तुम्हें बस यह दिख रहा है कि उतने लोग उस लड़ाई में मारे गए। और वह लड़ाई ना होती तो क्या होता? क्या होना था? राज्य किसके हाथ था?

प्रश्नकर्ता: दुर्योधन के।

आचार्य प्रशांत: दुर्योधन के हाथ। और फिर यही नहीं कि उस समय क्या होता, मैं कह रहा हूँ मानवता का पूरा इतिहास बदल जाता। जिन्हें पूरी बात नहीं दिखती, जिन्हें पूरी बात नहीं पता होती, अक्सर वह बहुत बेतुके निष्कर्ष निकाल लेते हैं।

प्रश्नकर्ता: अभी यह इतिहास की बात हो रही है इसलिए समझना बहुत आसान है कि पूरी स्थिति क्या थी। लेकिन क्या हम व्यवहारिक जीवन में अगर किसी ऐसी परिस्थिति में खड़े हों, तो क्या हम यह देख पाएँगे कि यह काम हम अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हैं, या धर्म के लिए?

आचार्य प्रशांत: यह तो प्रतिपल आत्म-अवलोकन से ही पता चलता है। मैं प्रतिपल क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि तुम अगर चौबीस घंटे अपने स्वार्थ के लिए ही काम करते हो, तो किसी विशेष परिस्थिति में भी तुम स्वार्थ के लिए ही काम कर रहे होगे। तुमने अपना चित्त ऐसा बना लिया है जो अपनेआप को सदा अपूर्ण ही जानता है, और सदा अपने छोटे-छोटे क्षुद्र लाभों की कोशिश में दौड़ते रहता है। तो वो चित्त किसी भी ख़ास परिस्थिति में भी क्षुद्र और संकीर्ण होगा, और अपने छोटे-छोटे लाभ व्यक्तिगत स्वार्थ ही देख रहा होगा। तो यह मत पूछो कि - "किसी ख़ास हालत में हम कैसे पता करें कि हम स्वार्थ द्वारा प्रेरित हैं या परमार्थ द्वारा?"

तुम जैसे सदा हो, वैसे ही किसी ख़ास हालत में भी हो। दिनभर अपने पर निगाह रखो!

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