प्रश्न: आचार्य जी, मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि सेक्स का अभाव मानसिक अशांति का कारण बनता है। क्या सेक्स का कोई विकल्प नहीं है जिससे व्यक्ति शांत रहे?
आचार्य प्रशांत जी: घर में बच्चे होते हैं छोटे, उन्हें कुछ-न-कुछ उपद्रव करना है। जैसे-जैसे वो डेढ़-दो साल के हो गए, उनकी ऊर्जा बढ़ने लगती है, और काम -धंधा अभी कुछ है नहीं। स्कूल में अभी भी प्रवेश मिला नहीं। तो जो दो साल वाले होते हैं, ये बड़े ख़तरनाक हो जाते हैं, क्योंकि ये चलते भी हैं, ये बोलते भी हैं। ये पालना झूलने वाले नहीं हैं, ये पालने में नहीं पड़े हैं। ये चलते हैं, ये बोलते हैं। और ज़िम्मेदारी इनपर कुछ है नहीं। तो ये तोड़-फोड़ मचाएँगे, ये करेंगे, वो करेंगे।
जो ही चीज़ मिलेगी, ये उसी चीज़ को पकड़ना चाहेंगे। अभी यहाँ पर कोई दो साल का बच्चा-बच्ची हो, और उसको यहाँ पर छोड़ दो। तो उसने अब तक सबकुछ आज़मा लिया होता, ये पकड़ लिया होता, इसको चख लिया होता। कैमरे में जहाँ-जहाँ बटन दबाए जा सकते थे, दबा दिया होता। मेरे बाल खींच लिए होते, इसकी दाढ़ी बाँध दी होती। सब कर डाला होता।
एक काम और करते हैं ये दो साल के बच्चे। जानते हो क्या? ये अपने शरीर को भी खिलौना बनाते हैं। उसकी शुरुआत पहले से ही हो चुकी होती है, जब वो तीन-चार महीने, पाँच महीने के होते हैं। कभी अँगूठा चूसेंगे, कभी पाँव का अँगूठा पकड़लेंगे, कभी पाँव मुँह में डाल लेंगे। कभी कुछ करेंगे।
और शरीर से खेल रहे हैं, क्योंकि उन्हें कुछ तो चाहिए। मन चंचल है, उसे कुछ तो पकड़ना है। किसी-न-किसी चीज़ से तो उपद्रव करना है। तो ये बच्चे ऐसा भी करते हैं कि अपना जननांग भी पकड़ लेंगे। फिर माताएँ आतीं हैं छुड़ाने – “छोड़ो, छोड़ो, गंदी बात। ये नहीं करते।”
और वो कुछ नहीं कर रहा है, खेल रहा है मस्त।
उसको चाहिए कुछ, उसको खिलौना चाहिए। वो बुरा बच्चा नहीं है, उसके पास ऊर्जा बहुत है, उसे खेलना है। तो फिर माँ लाकर उसे खिलौना दे देगी, विधि लगाएगी कि बच्चा व्यस्त हो जाए। वही हाल वयस्कों का है।
वो दो साल का बच्चा कहीं ख़त्म थोड़े ही हो जाता है, वो दो साल का बच्चा लगातार हमारे भीतर बना रहता है। उसको अगर तुम जीवन में कोई सार्थक खिलौना नहीं दोगे, तो फ़िर वो अपने ही अंगों को पकड़कर खेलेगा। और ऐसा नहीं है कि वो सिर्फ़ जननांग से ही खेलता है, वो फ़िर सारे ही अंगों से खेलता है।
खेलना का क्या मतलब है? जिस चीज़ को तुम पकड़ लो, जिस भी चीज़ पर तुम्हारी पकड़ बन जाए। तुम्हारे चेहरे पर तुम्हारी पकड़ नहीं बनी हुई है क्या? देखा है कितनी बार अपने चेहरे को देखते हो? कोई तो बोल रहा था कि, “कंघी करता हूँ, और बाल कितने टूटे हैं, ये गिनता हूँ।” ये क्या है? ये तुमने बालों पर अपनी पकड़ बना ली है। क्योंकि तुम्हें कुछ तो पकड़ना है, तो तुमने बाल पकड़ लिए।
कभी चले जाओ, ये जो सैलून होते हैं, वहाँ देखो – चेहरा कैसे पकड़ा जाता है, पाँव कैसे पकड़ा जाता है। देवी जी बैठी हुई हैं, वो कह रही हैं, “और घिसो अँगूठा।” ज़िंदगी में कुछ करने को नहीं है, तो तीन-तीन घंटे अँगूठा घिसा जा रहा है। ये वही छोटा बच्चा है जो अपना अँगूठा चूस रहा था, जो अपना जननांग पकड़कर बैठ गया था।
आईने के सामने घण्टे-घण्टे भर देखा जा रहा है कि – “टाई बिलकुल नपी-तुली है कि नहीं। अभी तो नॉट उतनी मर्दाना नहीं लग रही, जितनी लगनी चाहिए।” तो नॉट दोबारा बाँधेंगे। दोबारा बाँधी, तो लम्बाई कम हो गई। अब दोबारा बाँधेंगे। ये क्या कर रहा है? इसने गले को पकड़ लिया, इसने टाई को पकड़ लिया। अब खेल रहा है उसके साथ। ये सब क्यों हो रहा है? तुम्हारी फ्लाइट छूट रही हो, तुम टाई पर इतना ध्यान लगाओगे? तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, तुम टाई से खेल रहे हो।
बात समझ में आ रही है न?
तो ये सब उपद्रव, जिनकी बात की, ये कुछ ख़ास नहीं हैं। हम शरीर के हर हिस्से के साथ खेलते हैं। ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ़ यौनांग को ही पकड़े हैं। कान छिदवा रहे हो, ये क्या कर रहे हो? बाँह पर टैटू बनवा रहे हो, ये क्या कर रहे हो? बोलो। भौहें नुचवा रहे हो, ये क्या कर रहे हो? पाँव के बाल छीले जा रहे हैं, ये क्या कर रहे हो? पाँव के बाल कोई छीले, तो उसको तो तुम बुरा मानते नहीं। कोई अपना जननांग पकड़े, वो गन्दा आदमी है। जो पाँव छिलवाए, वो गन्दा आदमी नहीं है? उसकी भी तो सारी आसक्ति शरीर से है न।
ये जो दाढ़ी छीली जाती है रोज़, ये क्या है?
प्रश्नकर्ता: साफ़ -सफाई।
आचार्य प्रशांत जी: ये शरीर से आसक्ति नहीं है क्या, कि रोज़ दाढ़ी छील रहे हो? पर इन बातों को हमारी सामाजिक नैतिकता बुरा मानती ही नहीं है। ये बातें ठीक हैं। कोई अपने होंठ घिस रहा है लाली से, बिलकुल कोई दिक़्क़त ही नहीं। कोई दिक़्क़त नहीं। पर कोई आना यौनांग घिसना शुरु कर दे, तो तुम कहोगे, “बड़ा बुरा काम किया। हस्त-मैथुन कर रहा है।”
आसक्ति-आसक्ति सब एक है। देह में तुम नाक से चिपक जाओ, कि पेट से चिपक जाओ, कि अँगूठे से चिपक जाओ, कि जाँघ से चिपक जाओ, कि यौनांग से चिपक जाओ – सब एक है। और सब की मूल वजह भी एक है। उस मूल वजह का नाम है – ‘फुर्सत’।
उनको अपने से श्रेष्ठ मत मान लेना, जो यौनांग की अपेक्षा बालों से चिपके रहते हैं। चिपके तो वो भी शरीर से ही हैं न। और जब लगोगे तुम किसी महत आयोजन में, तो तुम्हारे पास वक़्त नहीं बचेगा कि तुम शरीर से चिपक सको।
ये सब व्याधियाँ अतिरिक्त फुर्सत के कारण हैं। जैसे ही जीने के लिए कोई अनुकूल कारण मिलेगा, वैसे ही व्यर्थ की चीज़ों पर ध्यान देना, समय देना छोड़ दोगे।
तुमने कहा न, “ऊर्जा का ऊर्ध्गमन”। ऊर्जा का उर्ध्गमन यही होता है। ‘ऊर्ध्व’ माने – जो ऊपर की तरफ़ है। कोई ऊपर की तरफ़ वाला काम करो, तो नीचे वाली आफ़तें अपने आप बंद हो जाएँगी। कोई ऊपर वाला काम करो। और नीचे की आफ़तों पर जितना ध्यान दोगे, वो बनी ही रहेंगी, ध्यान देने से वो कम नहीं हो जाने वालीं ।
प्रश्नकर्ता: शरीर या मन पर इसके कोई दुष्प्रभाव नहीं आते?
आचार्य प्रशांत जी: तुम्हें अभी यही व्यक्तिगत चिंता सता रही है कि – “मेरे शरीर पर क्या साइड इफ़ेक्ट आ जाएगा।”
प्रश्नकर्ता: मन के ऊपर?
आचार्य प्रशांत जी: वो भी तो व्यक्तिगत चिंता ही है। मैं कह रहा हूँ, उद्देश्य होना चाहिए तुम्हारे व्यक्तित्व से कहीं आगे का। जैसे अपने व्यक्तिगत सुख के लिए तुम काम चिंतन करते हो, वैसे ही अपने शरीर की सुरक्षा के लिए पूछ रहे हो, “कहीं कोई साइड इफ़ेक्ट तो नहीं हो जाएगा?” ले देकर अटके तो रह गए किसमें? शरीर में, और अपने ही व्यक्तित्व में। तो ये प्रश्न ही व्यर्थ है – “मेरे व्यक्तित्व पर कहीं कोई व्यक्तिगत कुप्रभाव तो नहीं पड़ेगा?”
व्यक्तिगत सुप्रभाव भी बुरा है, तो व्यक्तिगत कुप्रभाव की क्या बात करूँ। जब तक तुम व्यक्तिगत में ही फँसे हुए हो, तब तक ये सब चलता रहेगा।
इन चीज़ों का कोई समाधान नहीं होता कि – ‘मन में वासना के ख़याल बहुत आते हैं। रात में स्वप्नदोष हो जाता है’। इनका कोई समाधान नहीं होता, इनसे बस आगे बढ़ जाया होता है कि – ये छोटी बातें हैं, हम इनसे आगे बढ़ गए। ये बातें हमें अब नज़र ही नहीं आतीं। न जाने अब कहाँ पीछे छूट गयीं।
कुछ बातों का समाधान करने के लिए भी उन बातों से उलझा नहीं जाता, बस उन बातों से आगे बढ़ जाते हैं। आगे बढ़ जाओ, तो ये बातें पीछे छूट जाती हैं। और इनका समाधान करने लग गए, तो इन बातों के सामने अटके रह जाओगे।
दिन भर को किसी सार्थक काम के लिए कड़ी मेहनत। ऐसी नींद आएगी फिर, कि न स्वप्न, और न स्वप्नदोष। कभी कोई दिन हुआ है ऐसा कि करी है हाड़-तोड़ मेहनत? तब जो नींद आती है, वो सुषुप्ति कहलाती है। उसमें सपना ही नहीं होता। और जब सपना ही नहीं होगा, तो स्वप्नदोष कहाँ से आ जाएगा।
पर उतनी मेहनत तो करो। और उतनी मेहनत तो प्रेम ही करवाएगा।