क्या रावण सच में ज्ञानी था?

Acharya Prashant

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क्या रावण सच में ज्ञानी था?
उल्टी-पुल्टी मान्यताएँ पकड़े बैठे हो, अपने आप को कुछ मान रहे हो, ‘मैं लंकेश हूँ।’ ज्ञान होता तो अपने आप को कोई लंकेश थोड़ी बोलेगा, स्त्री का अपहरण थोड़ी करेगा। ज्ञान होता रावण को, तो वह अपने आप को और कुछ क्यों मान रहा होता? रावण ने तो ज्ञान को सिर्फ़ सूचना की तरह रखा है। अगर ज्ञानी होता, तो फिर श्रीराम के ख़िलाफ़ युद्ध में थोड़ी खड़ा हो जाता वो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य, जैसे कि हमारा ये बुक “ट्रुथ विदाउट अपॉलजी” हमें ज्ञान के मार्ग पर आगे प्रेरित करता है, पर अभी जैसे सामाजिक चाल-चलन में है, काफ़ी लोगों को मैंने सुनते देखा है, “ज्ञानी रावण, रावण एक ज्ञानी था।” तो मुझे ऐसा लगता है कि ‘ज्ञान’ ये शब्द उस मार्ग पर होता है कि जब आप सत्य के मार्ग पर होते हैं। वो ज्ञान का मार्ग होता है, सत्य का मार्ग।

तो किस हद तक ‘ज्ञान’ ये शब्द रावण से जुड़ा रहना, इस पर सहमत आप करते हैं?

आचार्य प्रशांत: रावण को ज्ञानी बोलना, मोटे तौर पर, कामचलाऊ तौर पर तो ठीक है। पर ज्ञान का अनिवार्य लक्षण होता है कि वो अहंकार को काटता है। अहंकार क्या है? झूठी मान्यता का पुतला, “मैं ये हूँ, मैं वो हूँ, आई ऐम एक्स, आई ऐम वाय।” इसको ही तो ‘ईगो’ कहते हैं न। और झूठे ज्ञान को ही अज्ञान कहते हैं, तो अहंकार माने झूठा ज्ञान।

ज्ञानी बस उसको बोल सकते हैं जिसने अपना झूठा ज्ञान काटा हो, जिसने अपना अज्ञान, यानि अहंकार काटा हो। तो सिर्फ़ उसी को ज्ञानी बोल सकते हैं। ज्ञान रखकर भी जो अहंकार पकड़े बैठा हो, उसको ज्ञानी नहीं बोलते। उसने तो ज्ञान को सिर्फ़ सूचना की तरह रखा है और ज्ञान को अहंकार का खिलौना बना दिया है, खिलौना ही नहीं, अहंकार का पोषण बना दिया है। है न?

उसने ज्ञान को अविद्या की तरह लिया है, एक बाहरी सूचना। उसका इस्तेमाल सिर्फ़ वो किसलिए कर रहा है? ताकि जो मेरे उद्देश्य हैं, मेरी कामनाएँ हैं, मेरा हठ है, वो सब और मजबूत हो जाए। उसे ज्ञानी नहीं बोलते। अगर आप कहते हो कि ज्ञान है और उस ज्ञान के बावजूद आप अहंकार पकड़े बैठे हो, उल्टी-पुल्टी मान्यताएँ पकड़े बैठे हो, अपने आप को कुछ मान रहे हो, “मैं लंकेश हूँ।” ज्ञान होता तो अपने आप को कोई लंकेश थोड़ी बोलेगा, अपने आप को कोई पुरुष थोड़ी बोलेगा, कि स्त्री का अपहरण करेगा!

ज्ञान तो कहता है, “तुम इनमें से कुछ भी नहीं हो।” ज्ञान तो कहता है, “तत् त्वम् असि।” ज्ञान कहता है कि तुम सत्य मात्र हो। ज्ञान होता रावण को तो वो अपने आप को और कुछ क्यों मान रहा होता? वो तो अपने आप को बहुत कुछ मानता था न। “मैं असुरों का सम्राट हूँ, मैं स्वर्णनगरी लंका का अधिपति हूँ, मैं एक पुरुष हूँ और रानियाँ हैं, और मैं ला रहा हूँ, मैं सीता को भी ले आऊँगा और रानी बनाऊँगा।” वो तो अपने आप को बहुत कुछ मान रहा था। जो अपने आप को इतना कुछ मान रहा है, वो ज्ञानी कहाँ है?

‘ज्ञानी’ का अर्थ है, जो सीधे कह दे अपने आप से कि “मैं कुछ नहीं हूँ।” या फिर कह दे, “मैं सत्य मात्र हूँ।” या तो कह दे “मैं कुछ नहीं हूँ” या कह दे कि मैं?

प्रश्नकर्ता: “सत्यमात्र हूँ।”

आचार्य प्रशांत: हाँ, “निराकार सत्य मात्र हूँ।” रावण ने ऐसा तो कहा नहीं, तो रावण ज्ञानी नहीं है। हाँ, रावण ने बहुत सारी सांसारिक सूचनाओं का संग्रह कर रखा है, बहुत तरह की सांसारिक कुशलताएँ अर्जित कर रखी हैं। वो सांसारिक सूचनाएँ ले लेने से, या कुशलताएँ ले लेने से, या सांसारिक धन-दौलत इकट्ठा कर लेने से, या ज़मीन-जायदाद जीत लेने से आप ज्ञानी नहीं हो जाते।

रावण ज्ञानी नहीं था। रावण अगर ज्ञानी होता तो फिर राम के ख़िलाफ़ युद्ध में थोड़ी खड़ा हो जाता वो।

सतही तौर पर आप कह सकते हो, “रावण ज्ञानी था” कि हाँ, ठीक है, ग्रंथ पढ़ रखे हैं।

प्रश्नकर्ता: लोग उसे अलग तरीके से ले लेते हैं और आइडल बना लेते हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, रावण ज्ञानी नहीं है। ज्ञान की पहचान है, अहंकार का लोप। जो ज्ञान रखकर भी कुछ बना बैठा है, सौ तरह की फ़िज़ूल बातों में यक़ीन रखता है, उसको कहाँ ज्ञानी कह सकते हैं?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कहीं-कहीं रावण की फ़िलॉसफ़ी मुझे लगती है कि फ़्रेडरिक नीत्शे से भी कहीं-कहीं मिलती है, जैसे फ़्रेडरिक नीत्शे बोलते थे कि “पावर इज़ द अल्टिमेट विल ऑफ़ अ ह्यूमन बीइंग।" तो क्या रावण की भी फ़िलॉसफ़ी मैच होती है?

आचार्य प्रशांत: देखो, नीत्शे जहाँ से आ रहे थे वो दूसरी जगह थी। उन्होंने इंसान को बहुत दबा-कुचला, कमज़ोर देखा था, धर्म के आगे। उन्होंने जर्मनी की बहुत ख़राब हालत देखी थी, तो वहाँ से फिर वह बोलते थे कि "पावर होना चाहिए, अ विल टू पावर।" फिर वो बोलते थे कि “मेरा आएगा” वो महामानव आएगा मेरा, सुपरमैन आएगा।

तो वो सब तो दूसरी दिशा से आ रहे थे। वो कह रहे थे, इंसान के पास रीढ़ होनी चाहिए। वो कहते थे, जो गॉड का कॉन्सेप्ट है, वो तुम्हें कभी रिस्पॉन्सिबल नहीं बनने देता, और इसलिए कभी ताक़तवर नहीं बनने देता। तो इसलिए वो कहते थे कि ये जो पुराने किस्म का क्रिश्चियनिटी का गॉड है, इसको विदा करो ताकि इंसान पैदा हो पाए। वो इंसान को उसकी उच्चतम संभावना में देखना चाहते थे। कहते थे कि सिर्फ़ ये साधारण इंसान नहीं चलेगा, मुझको एक ‘अति मानव’ चाहिए। ठीक है? तो वो वहाँ से आ रहे थे। वो ऊपर से एक-सी बात लगेगी, पर है नहीं वैसे।

प्रश्नकर्ता: थैंक यू।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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