क्या प्रेम एक भावना है?

Acharya Prashant

11 min
847 reads
क्या प्रेम एक भावना है?

प्रश्नकर्ता: काम को ले कर मैं पूरा श्रम नहीं करता; पता होते हुए भी नहीं करता। जैसे नींद आती है पढ़ाई के समय। एक तरह की बेईमानी भी है। उस काम में मेरी पूरी रुचि नहीं होने का एक कारण यह भी रहा है कि वो चीज़ मूल्यहीन लगती रही है और इस वजह से बचपन से ही कष्ट पाया है, और कष्ट पाते हुए भी कोई बदलाव नहीं ला पाया। लेकिन जब से अध्यात्म में प्रवेश किया, ये मुझे नहीं छोड़ता; बाकी चीज़ों को मैंने छोड़ा है, लेकिन ये मुझे ही नहीं छोड़ता। हमने कबीर साहब की बात की, तब कहा गया कि भाव और प्रेम, दोनों में फर्क है। तो भाव और प्रेम में क्या फर्क है?

आचार्य प्रशांत: काम अगर ऐसा नहीं है कि तुम्हारी नींद उड़ा दे, तो उसको चुनना तुम्हारी भूल है। नींद को दोष मत दो, नींद तो प्राकृतिक है। अहम् को कुछ तो भोगना है न? वो नींद को भी भोगता है। कहते हो न? “सो लिए अच्छा लग रहा है।” तो हमने सोने की अवस्था को भी क्या करा? भोगा। सोने से बेहतर कुछ मिल जाता तो नहीं सोते तुम। रातों की नींद उड़ी है न जब नींद से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ मिल गया है? आम तौर पर हमें जो ज़्यादा महत्वपूर्ण मिला होता है नींद से, वो नींद से बदतर ही होता है। डर के मारे नहीं सोते, चिंता के मारे नहीं सोते, चोरी के मारे नहीं सोते, या वासना के मारे नहीं सोते; लेकिन साधक भी नहीं सोते रात में। रात में जगता हुआ पाओ, तो चोर होगा, कामी होगा, और ये भी संभावना है कि कोई साधक हो, और साधक माने यही नहीं कि कोई बैठ कर के, आँख बंद कर के ध्यान कर रहा है; कोई रात भर बैठ कर पुस्तकालय में पढ़ रहा है तो साधक ही हुआ न? वो भी जगते हैं रात भर।

अपने आप को कुछ ऐसा दे दो जिससे नींद ही उड़ जाए, भूख प्यास का अता-पता भूल जाओ; वो नहीं दे रहे हो और फिर तुम दोष दो भूख को और नींद को तो ये बात ठीक नहीं है।

भूख और नींद चेतन तो है नहीं, शरीर की माँग होते हैं; सोओगे नहीं तो ये शरीर ही झड़ जाएगा। तीन-चार दिन खाना-पीना न मिले, तो झेल लोगे; तीन-चार दिन नींद न मिले तो पगला जाओगे; शारीरिक चीज़ है, नींद का दोष नहीं। अपने आप को कुछ बहुत ऊँचा देना पड़ता है, कुछ बहुत आकर्षक देना पड़ता है।

अब आते हैं तुम्हारे दूसरे प्रश्न पर कि प्रेम और भाव में क्या अंतर है। प्रेम और भाव में समानता कहाँ दिख रही है? पहले तो ये बताओ। प्रेम का अर्थ ही होता है, भावों के प्रति आकर्षण छोड़ देना। भाव होते हैं सब दुनियादारी के, और प्रेम होता है दुनिया के पार का आकर्षण। भाव तुम्हारे भीतर की मिट्टी से उठे हैं, और उसी मिट्टी को प्रोत्साहन देते हैं। प्रेम निर्मम होता है; वो मिट्टी को झाड़ देता है, बिलकुल बेरहमी से; वो कहता है “एक ही है जिसकी ओर जाना है।” ‘पिया तोसे नैना लागे रे’ (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) और बाकी ये सब मिटटी-टट्टी, इनसे थोड़ी ही दिल लगाना है। भाव किसी ऊँचाई की बात करते ही नहीं, क्योंकि कर सकते ही नहीं। सब भावनाएँ रासायनिक होती हैं; सब भावनाएँ जैविक होती हैं, पार्थिव होती हैं। प्रेम कोई भाव नहीं होता। जिन्होंने प्रेम कभी जाना ही नहीं, वही प्रेम को भावना कह कर सम्बोधित कर जाते हैं।

दस साल पहले, कॉलेजी छात्रों के लिए एक एक्टिविटी (कार्यकलाप) बनाई थी, ‘लव इज़ नॉट’ (प्रेम क्या नहीं है); तो उसमें एक उप-शीर्षक था, ‘लव इज़ नॉट ऐन इमोशन’ , ‘प्रेम, भावना नहीं होती’। हमने कहा कि अभी ये अठारह-बीस साल के हैं, अभी इन्हें समझा दो, शायद ये बच भी जाएँ; एक बार ये भावुक हो गए, और भाव के दरिया में बहने लगे, तो इनका दरिया कहाँ जा कर के गिरेगा कुछ पक्का नहीं। इनकों वो एक्टिविटी शीट दे देना, सबको मिलनी चाहिए (आचार्य जी, सामने बैठे स्वयंसेवक से); बड़ी पुरानी है, बड़ी उपयोगी है।

भावना तो तुम्हें लिप्त कराती है, रंजित कराती है न? और प्रेम का कोई लेना-देना ही नहीं होता किसी चीज़ से। भावना में तुम्हें क्रोध आ गया, तो तुम किसी चीज़ को दूर करना चाहते हो, तोड़ देना चाहते हो, मिटाना चाहते हो, ठीक? द्वेष की स्थिति है। और भावना में राग उठ गया, तो जिससे राग उठा है तुम उसके निकट आना चाहते हो, पकड़ लेना चाहते हो, बाँध लेना चाहते हो, गले लगा लेना चाहते हो, राग। प्रेम न राग है न द्वेष है। प्रेम ऐसा है जैसे कोई आसमान की ओर देख रहा है, इधर राग है (बाईं ओर इंगित करते हुए), इधर द्वेष है (दाईं ओर इंगित करते हुए), उसे पता ही नहीं कि यहाँ राग खड़ा है, यहाँ द्वेष खड़ा है; उसकी नज़र ही आसमान की ओर है, जिसकी नज़र आसमान की ओर है, बस उसे ही प्रेमी समझना। जो इधर-उधर ताक-झाँक कर रहा है, छोटी-छोटी बातों से मतलब है, इससे लिप्त हो गया, उससे आसक्त हो गया, उससे खफा हो गया, उससे जुड़ गया, उससे कट गया; ये कहाँ का प्रेमी है?

जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावै सोय।

और वो उधर (ऊपर की ओर इंगित करते हुए), जो ऊपर देख रहा है “यही मारग है, यहाँ साहब मिलेंगे।” नीचे यहाँ ये सब घूम रहे हैं, अंटू-बंटू-चन्टू। जिसे अंटू-बंटू-चन्टू से कोई मतलब नहीं रहा, समझ लो वही प्रेमी है, और जो भावनाओं में ही बहा जा रहा है, अंटू कितना सुन्दर है, बंटू के लिए नए मोजे खरीदने हैं और ये चन्टू बहुत चालु बनता है, इसकी चंटई उतारनी पड़ेगी, आज चाँटा मारूँगा; जो चन्टू की चंटाई को चाँटा मारने में ही अभी लगा हुआ है, वो प्रेमी कैसे हो सकता है? वो तो लिप्त है न अभी चन्टू के साथ? जो आस-पास की दुनिया से ही लिप्त है, वो प्रेमी नहीं हुआ।

प्रेम कैसे कर सकते हो तुम सफाई और गंदगी से एक साथ? ये कैसा प्रेम है? अगर सत्य अकेला है जिससे प्रेम किया जा सकता है, तो तुम ये चमत्कार कर कैसे गुज़रते हो, कि, "मैं सत्य से भी प्रेम करता हूँ और चन्टू से भी"? या बंटू से; चन्टू तो चंट है। ये चमत्कार कैसे होता है कि मुझे सच से भी प्यार है, और मुझसे भी; कैसे कर लेते हो? और हमें तो बहुतों से प्यार है, जिन्हें बहुतों से प्यार है, उन्हें सच से प्यार कैसे हो सकता है?

इसीलिए हमारी प्रेम की परिभाषा ममता से बहुत मिलती जुलती है, जबकि मैं कह रहा हूँ कि प्रेम निर्मम होता है, प्रेम से ज़्यादा निर्मम कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन संस्कृति और फिल्मों का असर, हमें लगता है, जितना चिपका-चिपकी करो, जितना दूसरे के मन, और दूसरे के तन, और दूसरे की ज़िन्दगी पर चढ़ कर और चिपक कर रहो, यही तो प्रेम है।

तो प्रेम भाव नहीं होता, कि मेरे भीतर भाव उठ रहा है; और प्रेम अगर भाव होता है, तो मैं उन छात्रों से कहा करता था कि तुम बताओ तुम्हें कौन सा भाव चाहिए, हर भाव के लिए एक इंजेक्शन है मेरे पास। तुम्हें उदास होना है? अभी एक इंजेक्शन लगाते हैं, बिलकुल उदास हो जाओगे, तुम्हें ख़ुशी चाहिए? अभी लगाते हैं, ख़ुशी छा जाएगी; बोलो कौन सा भाव चाहिए? क्योंकि हर भाव एक रसायन मात्रा है। प्रेम रसायन नहीं होता। प्रेम पार्थिव नहीं है, रासायनिक नहीं है। कोई इंजेक्शन न बना है न बन सकता है, जिसको लगा कर के तुम में मुमुक्षा जग जाए। कोई इंजेक्शन न बना है न बन सकता है, जिसको लगा कर के तुम में बुद्धत्व जग जाए; बाकी सब कुछ इंजेक्शन का खेल है, एक गोली खिलाई जाएगी, बिलकुल सही हो जाओगे। क्या बोल रहे हो? संसार से विरक्त हो गए हो? ये लो तुम लाल गोली; पाँच मिनट के अंदर संसार के पीछे भागते नज़र आओगे, दो-चार हार्मोन ही तो सक्रीय करने है तुम्हारे; दनदना के भागोगे, सारी विरक्ति छूमंतर हो जाएगी।

तो बोलने की शुरुआत मैंने यहाँ से करी थी कि प्रेम और भाव में अंतर क्या है, और अंत तक आते-आते कह रहा हूँ “तुमने समानता कहाँ देख ली भइया?” जहाँ भाव है वहाँ प्रेम नहीं हो सकता; लेकिन इस बात को समझने में हमें बहुत कठिनाई होगी, क्योंकि घर में, बाज़ार में, और फिल्मों में, और टीवी में, हमने प्रेम के नाम पर सिर्फ भावनाओं का खेल देखा है। है न? तो हम इस बात को किसी भी तरीके से सोच ही नहीं पाते, कल्पना ही नहीं हो पाती, हमारे ज़हन में कोई तसव्वुर ही नहीं उठता कि ऐसा कैसे होगा कि प्रेम है पर भावनाएँ नहीं हैं। ऐसा कैसे होगा? ऐसा ही है। और प्रेम के होने का ये मतलब नहीं है कि भावनाएँ नहीं होंगी, प्रेम के होने का, ज़्यादा सूक्ष्म अर्थ है। समझना चाहते हों तो बताऊँ?

प्रेम के होने का अर्थ है कि अब भीतर के सारे भाव प्रेम के केंद्र से संचालित होंगे। जाना वहाँ है, उससे प्रेम है (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) तो अब क्रोध आएगा, क्रोध का भाव उठेगा, पर किस पर उठेगा? जो वहाँ पहुँचने से रोकता हो; तो ऐसा नहीं कि अब क्रोध बचा नहीं, पर अब क्रोध के केंद्र पर वो बैठ गया है, तुम मुझे वहाँ जाने से रोकोगे तो फिर देखना हमारा क्रोध। ममत्व भी आएगा ㄧ किससे आएगा? उससे आएगा (ऊपर की ओर इंगित करते हुए), क्योंकि वही अपना है, और कौन है?

सब कुछ रंग जाएगा उसके रंग में जो प्रियतम है तुम्हारा। सारी भावनाएँ रहेंगी पर वो प्रेम के अनुगत हो जाएँगी, प्रेम के पीछे-पीछे छाया की तरह चलेंगी; अब वो प्रेम के आगे-आगे नहीं चलेंगी कि भावना आगे है, प्रेम पीछे है। भावना बड़ी चीज़ हो गई, प्रेम छोटी चीज़, न! प्रेम आगे है, भावनाएँ सब पीछे-पीछे। सब भावनाएँ सेविकाएँ हो गईं प्रेम की। अच्छा कपड़ा पहनना है; ये तो कहोगे बात भावना की है; इन्हें आकर्षण है सुन्दर कपड़ों से; नहीं। अब अच्छे कपड़े की परिभाषा क्या हो जाएगी? अच्छा कपड़ा वो जो उस तक पहुँचने में मदद दे। तो अभी भी कपड़ों का आकर्षण है, अच्छे कपड़ों का आकर्षण निश्चित रूप से है। पर कौन सा कपड़ा अच्छा है? जो वहाँ पहुँचने में मदद दे। खाना? खाने का आकर्षण अभी भी है, खाना बढ़िया होना चाहिए। पर बढ़िया खाने की परिभाषा क्या हो गई? वो खाना जो वहाँ तक पहुँचाने में मदद दे, वो बढ़िया हो गया।

तो सब कुछ रंग जाएगा उसके रंग में। कोई भी तुमसे सवाल पूछा जाएगा, तुम उसका उत्तर एक ही केंद्र से दोगे, एक ही बात को दृष्टि में रख कर दोगे। कोई तुमसे पूछे, "अच्छा क्या?" तुम बोलोगे “जो वहाँ ले जाए।” कोई पूछे, "बुरा क्या?" “जो वहाँ न ले जाए।” कोई तुमसे पूछेगा “अच्छा बताओ, गर्मियाँ आ रही है, पर्यटन करने कहाँ जाओगे?” तुम बोलोगे “अमर-पुर, और कहाँ?” भाई जाएँगे तो ज़रूर, क्योंकि शरीर मिला है तो कहीं न कहीं तो गति करेंगे, कुछ-न-कुछ घूमना-फिरना भ्रमण तो होगा ही, शारीरिक बात। लेकिन वहाँ जाएँगे, जहाँ जाने से वहाँ (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) जाने में सहायता मिलती हो। कहाँ नहीं जाएँगे? जहाँ जाने से वहाँ के दरवाज़ें बंद होते हों।

तो, हमारा खाना-पीना, उठना-बैठना, संगती, ये सब चलेगा, इनसे जुड़ी हुई भावनाएँ भी चलेंगी, पर उन भावनाओं के केंद्र पर वो बैठ जाएगा जिससे तुम्हें प्रेम है।

तो दो बातें हुईं; पहली, प्रेम भावना नहीं है। दूसरी बात, जब प्रेम होता है तो सारी भावनाएँ प्रेम के पीछे-पीछे जैसे इंजन के पीछे डब्बे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories