क्या माँस खाना गलत है? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

6 min
1.7k reads
क्या माँस खाना गलत है? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, फल और सब्ज़ी हम इसलिए खाते हैं क्योंकि उनके दर्द को अनुभव नहीं कर पाते, परंतु जानवर के विषय में ऐसा नहीं है। दर्द दोनों को ही होता है, फिर क्या सही है और क्या ग़लत?

आचार्य प्रशांत: जानवर वगैरह की परवाह छोड़ो, चाहे जानवर हो, सब्ज़ी हो या कुछ और हो, बात खाने की नहीं है। तुम यह पूछो कि - "जो कर रहा हूँ वह करते समय होश है मुझे?" दो ही बातें होती हैं जिनसे ज़िंदगी जीने लायक रहती है — एक होश और एक प्रेम। तुम चबाओ मच्छी; अगर प्रेम में भरे होकर चबा सकते हो तो ख़ूब चबाओ। यह ना पूछो कि - "माँस खाना सही है या ग़लत है?" तुम यह पूछो कि माँस खाते वक़्त चित्त की दशा क्या रहती है? — प्रेम में भरे हुए होते हो, या भीतर सूक्ष्म हिंसा के दाँतों से तुम किसी का माँस चिंचोड़ रहे होते हो?

कोई ग़लती नहीं है माँस खाने में अगर तुम प्रेमपूर्वक खा सको, तुम यह कर सकते हो तो ख़ूब खाओ। और अगर तुम हिंसा में भरकर माँस चबा रहे हो मछली का, तो फिर हिंसा में भरकर तुम किसी का भी माँस चबा सकते हो। फिर तुम जिसके भी माँस का स्पर्श करोगे, वो काटने, चीरने, शोषण करने के लिए ही करोगे — चाहे वह अपने बच्चे का ही क्यों न स्पर्श करो, चाहे अपनी पत्नी का ही क्यों न स्पर्श करो।

माँस से तुम्हारा फिर एक ही रिश्ता रह जाएगा कि — "मेरी भूख मिटे माँस से।"

होशपूर्वक तुम किसी का अगर क़त्ल कर सकते हो तो बेशक़ करो, प्रेमपूर्वक तुम किसी का ख़ून बहा सकते हो तो बेशक़ बहाओ। बात का सम्बन्ध उससे नहीं है कि उसको मार दिया या क्या कर दिया, बात का सम्बन्ध तुमसे है कि — तुम अपने साथ क्या कर रहे हो, तुम किस स्थिति में जी रहे हो। और अगर तुम होश में नहीं हो, तो तुम भले ही शाकाहारी हो, तुम दूसरे तरीकों से हिंसा करोगे। तुम्हें क्या लगता है, जो लोग माँस नहीं खाते वे सिर्फ़ माँस ना खाने के कारण बड़े प्रेमपूर्ण हो जाते हैं? बिलकुल झूठी बात है। एक-से-एक हिंसक होते हैं, और हैं कहने को शाकाहारी — शाकाहारी क्या फलाहारी हैं, कोई दुग्धाहारी हैं, कोई कुछ हैं।

असली बात यह नहीं है कि क्या खाया, किससे क्या बोला, कहाँ गए, क्या किया, क्या नहीं किया। असली बात यह है कि किसने किया, किस हालत में किया। करने वाली वृत्ति और प्रेरणा क्या थी? क्योंकि तुम्हें उसी के साथ जीना है। तुम्हें मुर्गे के साथ नहीं जीना; मुर्गा तो गया। तुम्हें अपने साथ तो जीना है? और अगर तुम हिंसा से, और क्रोध से, और आग से, और कपट से भरे हुए हो, तो अपने साथ जिओगे कैसे?

शाकाहार का या अहिंसा का ताल्लुक दूसरे के प्रति दया से नहीं है, उसका ताल्लुक तुम्हारी अपनी अंतः स्थिति से है। जिनके भीतर बोध उठता है उनके लिए फिर मुश्किल हो जाता है पीड़ा पहुँचाना।

याद रखना - पूर्णरूपेण तो तुम पीड़ा रोकने में कभी सफल नहीं हो सकते, जब तक तुम जीव हो। जीव हो अगर, तो तुम्हारी आँतों के भीतर ही न जाने कितने बैक्टीरिया मर रहे हैं; जीव हो अगर तुम, तो साँस लेते हो और साँस लेने की प्रक्रिया में ही पता नहीं कितने जीवों को मार देते हो। जीव हो तुम अगर, तो चलने भर में अनगिनत जीवों की हत्या कर देते हो। उनके बारे में तुम कुछ नहीं कर सकते। पर अगर बोध उठा है तुममें, तो तुम उतना ज़रूर करोगे जितना कर पाने की तुम्हारी सीमित हैसियत है। और मैं कह रहा हूँ कि इतनी सीमित हैसियत तुम्हारी ज़रूर है कि - मुर्गा खाए बिना भी ज़िंदा रह सको।

कुछ हिंसा तो ऐसी है जो अपरिहार्य है, वह होती ही रहती है, उसको तुम नहीं रोक सकते। तुम पेड़ से पत्ती भी खाते हो तो हिंसा तो वहाँ भी है, पर रोक नहीं पाओगे। और जिस चीज़ के बिना तुम बिलकुल ही चल नहीं सकते हो, तुम्हारा जीव-रूप ही समाप्त होता हो, उसके लिए क्षमा है। पर उतना तो कर लो जितना कर सकते हो। नहीं तो फिर माँस-भक्षण का तो कोई अंत नहीं है न? मुर्गा और मच्छी ही क्यों, आदमी क्यों नहीं खाते? आदमी के माँस में तो और भी पोषक तत्त्व होते होंगे।

आदमी का माँस तुम इसलिए नहीं खाते क्योंकि आदमी का माँस खाए बिना भी जिया जा सकता है। उसी तरह से मुर्गे व बकरे के बिना भी जिया जा सकता है। ये हिंसा करे बिना भी तुम जी सकते हो। एक जीव है, चल-फिर रहा है, ठीक है तुम्हारी तरह चैतन्य नहीं है, तुम्हारी तरह बुद्धिमान नहीं है, पर जैसा भी है चल-फिर रहा है। अपने में मग्न है, उसका अपना उल्लास है, उसका अपना नृत्य है, उसका अपना जीवन, अपना खेल है। तुम काहे उसकी गर्दन मरोड़ते हो? और अगर गर्दन मरोड़ने की तुम्हारी वृत्ति बन गई है, तो मैं पूछ रहा हूँ कि - कल तुम अपने बच्चे की, अपने भाई की, अपने पड़ोसी की गर्दन नहीं मरोड़ोगे? मन तो वही है न! बोलो। जिस हाथ से तुम एक की गर्दन मरोड़ रहे हो, उसी हाथ से दूसरों की क्यों नहीं मरोड़ोगे? इसलिए नहीं मरोड़ोगे - अपनी ख़ातिर, मुर्गे की ख़ातिर नहीं।

लोग आते हैं, मुर्गे को लेकर बहस करनी शुरू कर देते हैं कि मुर्गा तो है ही खाने के लिए। अरे, मुर्गा होगा खाने के लिए, चलो मान लिया मुर्गा खाने के लिए है, हालाँकि यह महा-कुतर्क है कि मुर्गा खाने के लिए है, पर मान लिया कि मुर्गा होगा खाने के लिए, पर तुम्हें अगर कोई बता दे कि मुर्गा खाने से तुम्हें कैंसर होता है, तो खाओगे? तब कहोगे कि, "मुर्गा तो है ही खाने के लिए"? तो तुम देखो कि तुम जो कर्म कर रहे हो, उसका स्रोत क्या है और उसका परिणाम क्या है। कहाँ से उठ रहा है वह कर्म, और कहाँ को जा रहा है?

अपने ही ख़ातिर मत खाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories