प्रश्न: आचार्य जी, हमसे कहा जाता है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। लेकिन सारे शैतान तो भरे दिमाग में ही घूमते रहते हैं। और यह ‘खाली दिमाग’ होता भी कैसे है? क्या किसी ने कभी ‘खाली दिमाग’ का अनुभव किया भी होगा? क्या साधक ऐसा करते हैं?
आचार्य प्रशांत जी:
शैतान का घर, शैतान का घर होता है। ‘खाली दिमाग’ शैतान का घर नहीं होता। शैतान, शैतान के ही घर में प्रवेश करता है। तुम्हारे घर में कौन आ रहा है, ये इस पर निर्भर करता है कि तुम कौन हो। तुम शैतान हो, तुम्हारे घर में शैतान आएगा। तुम साधु हो, तुम्हारे घर में साधु आएगा।
ये सब लोकोक्तियाँ हैं। इनके पीछे आवश्यक नहीं है कि बोध की गहराई हो।
मन के केंद्र पर कौन बैठा है, वो निर्धारित करता है कि मन की सामग्री कैसी होगी। मन के केंद्र पर शैतान बैठा है, तो दुनिया भर के शैतानों को आमंत्रित करेगा वो। मन के केंद्र पर साधु बैठा है, तो वहाँ साधुओं की भीड़ रहेगी। तुम कौन हो? तुम जो हो, उसी अनुसार तुम्हारे मन में विचार चलेंगे।
यहाँ बात खाली होने की, या भरे होने की नहीं है। यहाँ बात, केंद्र में कौन है, उसकी है। तुम क्या बने बैठे हो? ‘अहम’ की जो तुम्हारी परिभाषा होगी, मान्यता होगी, वो तुम्हारा संसार निर्धारित कर देगी।
और बिलकुल ठीक कहा, “भरे दिमाग में भी तो शैतान ही चलते हैं।” जब घर ही शैतान का है, तो उसमें कौन भरे नज़र आएँगे? शैतान ही शैतान। तो जो लोग सोचते हैं कि – खाली दिमाग में शैतान होता है, और भरे दिमाग में भगवान होता है – वो बिलकुल ही नासमझ हैं।
खाली हो, या भरा हो, फ़र्क नहीं पड़ता। बात ये है कि घर किसका है? शैतान भी नाम -पट्टिका देखकर अंदर आता है। पता देख लेता है। और जब बाहर देख लेता है कि लिखा हुआ है – ‘एस. चक्रबोर्ती’, तो अंदर आता है। ‘एस.’ छुपा हुआ है, ‘चक्रबोर्ती’ इतना बड़ा है। ‘एस.’ माने?
प्रश्नकर्ता: शैतान।
(हँसी)
आचार्य प्रशांत जी: शैतान, शैतान के ही घर में आता है।
तुम्हारे मन में अगर शैतान घूम रहा है, तो शैतान को दोष मत दो। तुम शैतान हो, तब वो आया है। मजाल है शैतान की, कि साधु के घर में घुस जाए। और साधु को शैतान के घर से क्या लेना-देना? वो वहाँ नहीं घुसेगा।
तुम जैसे हो, तुम अपने इर्द-गिर्द वैसा ही संसार रच लेते हो।
फ़िर पूछा है – खाली दिमाग क्या होता है? क्या किसी ने खाली दिमाग का अनुभव भी किया होगा? साधु के दिमाग में साधु आते हैं। पर साधु की नीयत कहीं टिकने की तो होती नहीं।
*बहता पानी निर्मला, बंधा गंदा होइ*साधु जन रामता भला, दाग न लागे कोइ
साधु तो रमता है, क्योंकि इस धरती पर उसका घर नहीं हो सकता, यहाँ बस वो रमण-भ्रमण कर सकता है। घर तो उसका ‘वहाँ’ होना है। तो इसीलिए तुम सुनते हो न, “रमता जोगी”। वो रमता क्यों है? क्योंकि घर यहाँ क्या बनाना?, घर तो ‘वहाँ’ है। तो साधु के घर में, साधुओं की भीड़ खड़ी भी हो गई, तो क्या करेगी? वो सफ़ाई वगैरह करेगी, ठीक-ठाक करेगी, धूप-दिया करेगी, और रवाना हो जाएगी अपने असली घर की ओर।
तो साधु का घर खाली रहेगा। न सिर्फ़ उसमें मेहमान नहीं रहेंगे, उसमें वो भी नहीं रहेगा, जिसका वो घर है, क्योंकि उसको भी ‘वहीं’ जाना है। ये होता है खाली दिमाग। वो संसार से भरा नहीं होता। पर खाली तुम्हारा दिमाग हो सके, उसके लिए आवश्यक है कि पहले तुम्हारा दिमाग साधुओं से भरे। साधु आएँगे, तो तुम्हारे घर को खाली कर जाएँगे।
ऐसा नहीं कि कुछ लूट ले जाएँगे।
(हँसी)
उन्हें टिकना नहीं है। वो चले जाएँगे।
शैतान? शैतान वो है, जिसको इस दुनिया में ही अड्डा बनाना है। उसे यहीं रुकना है। उसे लगता है यहीं सबकुछ है। शैतान आएगा, वो अड्डा बनाएगा। वो चिपक जाएगा। जिसके दिमाग में शैतान है, जो स्वयं शैतान है, उसका दिमाग हमेशा भरा हुआ होगा।
शैतान कहीं जाने वाला नहीं । उसे रुकना है, बैठना है। साधु का काम है – आना, साफ़ करना, और रवाना हो जाना।