प्रश्नकर्ता : क्या कामुकता गलत है?
आचार्य प्रशांत: नहीं कुछ भी गलत नहीं है, गलत सिर्फ़ वो मन है जो दुनिया में चैन तलाशता है। ‘काम’ काम है, पर किसी की देह आपको आत्मिक सुकून नहीं दे सकती। ज़्यादातर लोग काम में प्रवेश इसलिए करते हैं कि चरमसंभोग के समय किसी तरीके से उस आत्मिक शांति के एक-दो क्षण मिल जाएँ। एक रूप में मिल भी जाते हैं; मिलते हैं और छिनते हैं और फिर वापस आप वहीं आ जाते हो जैसा आप संभोग पूर्व थे, और फिर आप बस हाथ मलते हो और अगले साक्षात्कार की तैयारी करते हो।
कामुकता में कुछ न अच्छा है न गलत है, कामुकता कामुकता है। जैसे आप भोजन करते हो ठीक उसी तरीके से जननेन्द्रियों की आदत है, उनके संस्कार हैं, उन्हें कामुकता में उतरना है, उसमें कुछ नहीं है। लेकिन मन जब किसी स्त्री या पुरुष की देह से ये उम्मीद करे कि वो देह उसे शांति दे देगी तो फिर उसे निराश लौटना पड़ेगा। आप दस-हज़ार बार किसी स्त्री के साथ सहवास कर लो, आपको वो नहीं मिलेगा जो आपको चाहिए, फिर आप भटकते रहो एक नहीं सौ औरतों के पास। बात समझ रहे हो? और एक बार ये मन से...
प्र२: ये अब कह रहा है, “मैं अपने साथी को छोड़ने के लिए तैयार हूँ।”
(स्रोतागण हँसते हैं)
आचार्य: नहीं, पकड़ने छोड़ने की भाषा तो बोल ही नहीं रहा न मैं। मैं बस ये कह रहा हूँ कि जिस उम्मीद के साथ जा रहे हो वो पूरी नहीं होगी। पाँच-दस-बीस मिनट का तुम्हें ये मनोरंजन मिल जाएगा, उसके बाद ख़त्म।
अच्छा जब ये उम्मीद नहीं रहती, इस उम्मीद के बिना तुम किसी के साथ रहते हो, तब फिर वही क्षण दूसरे हो जाते हैं। तब उन क्षणों में सामने वाले की देह का शोषण नहीं होता, फिर कह सकते हो कि एक प्रेमपूर्ण सहवास है, साथ में हैं।
असल में सहवास शब्द ही बड़ा अच्छा है, सहवास; साथ में होना। अब साथ में हैं, अब ये नहीं है कि, "मैं तुझे भोग रहा हूँ कि निचोड़ रहा हूँ कि तेरा पूरा जिस्म नोचे खाए जा रहा हूँ।" अब वो वाली भावना नहीं रहती है। और वही ब्रह्मचर्य है।
ब्रह्मचर्य का ये मतलब नहीं है कि स्त्री के साथ होना नहीं है; ब्रह्मचर्य का ये मतलब है कि स्त्री के साथ भी हो तो भी ब्रह्मस्थ हो। किसी के भी साथ हो, दुनिया में हो लेकिन साथ हमेशा ब्रह्म के हो। तो ये बड़ी मज़ेदार बात है कि ऐन सम्भोग के मौके पर भी आप ब्रह्मचारी हो सकते हो, बल्कि सिर्फ़ वो जो ब्रह्मचारी है सिर्फ़ वही वास्तविक संभोग कर सकता है। बाकी लोग संभोग नहीं करते, बाकी लोग तो वहाँ पर भी वही नंगानाच करते हैं जो उनकी बाकी ज़िंदगी में है। जो आदमी जैसा दफ़्तर में है, जैसा बाजार में है, बिस्तर पर भी तो वैसा ही होगा न? आप दफ़्तर में डरे हुए हो और बाज़ार में लालची हो, तो आप बिस्तर पर भी डरे हुए और लालची ही होगे।
सिर्फ़ ब्रह्मचारी में ये ताकत होती है कि वो बिस्तर पर भी सहज हो पाए, शांत रह पाए; फिर उस सहवास में एक अलग गुणवत्ता होती है, उसकी बात अलग होती है। फिर उसमें आप भिखारी की तरह माँग नहीं कर रहे होते, ना डकैत की तरह आप लूट रहे होते हो। और आमतौर पर हम जिसको संभोग कहते हैं वो इन्हीं दोनों स्थितियों का नाम है; या तो हम भिखारी की तरह माँग रहे होते हैं या डकैत की तरह लूट रहे होते हैं। या तो राहजनी हैं या बलात्कारी हैं, या तो भिखारी हैं नहीं तो उच्चके हैं।
कुछ भी मत पूछो कि अच्छा है या बुरा। कुछ भी मत पूछो कि पकड़ें या छोड़ें, कुछ भी मत पूछो कि करें कि न करें। ये देखो कि कौन है जो कर रहा है और किस मन से कर रहा है। दूषित मन के साथ संभोग छोड़ दो तुम पूजा भी करोगे तो वो पूजा भी दूषित हो जाएगी। और साफ़ मन के साथ अगर तुम संभोग भी करोगे तो वो पूजा ही रहेगा।
आप छोड़ दो बात को कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। आप बस अभी देखो, “अभी कैसा हूँ?” आपके साथ ये दोस्त लोग हैं, आप देखो इनसे आपका रिश्ता कैसा है। इस रिश्ते में तो कहीं डर नहीं छुपा हुआ है, इस रिश्ते में तो कहीं कोई बनावट नहीं छुपी हुई है। इस रिश्ते में जितनी भी मलिनता हो उसको साफ़ कर दो। एक रिश्ता भी अगर पूरा साफ़ हो गया, तो तुम्हारे सारे रिश्ते पूरे तरीके से शुद्ध हो जाएँगे। और जिसके बाकी रिश्ते साफ़ न हों, उसका कोई एक रिश्ता साफ़ हो ये संभव ही नहीं है।
जो अब दफ़्तर में डरा हुआ है, ये सम्भव कैसे है कि वो कहीं-न-कहीं बीवी से डरा हुआ नहीं होगा? जो अधिकारियों से डरता है, अपने बॉस से, वो ऐसा कैसे हो सकता है कि अपने दोस्त के साथ पूरी तरह ईमानदार होगा, हो ही नहीं सकता।
प्र३: जो नहीं डरता है उसको हमेशा तैयार रहना पड़ता है।
आचार्य: और ये तैयारी कितनी हिंसक है समझो। तैयारी तो वही करता है न जिसको युद्ध में उतरना हो, प्रेम की तो तैयारी नहीं की जाती।
तो आप अभी जैसे हो, जैसे चल रहे हो, जैसा जीवन है; अभी यहाँ से उठोगे, शायद खाने-पीने जाओगे। आप देखो कि आप खाने-पीने बैठे हो तो आपका भोजन से क्या रिश्ता है, आप कैसे खा-पी रहे हो। आप देखो कि आप कहीं ठहरे हो तो वहाँ पर जो मैनेजर है, वेटर है उससे आपका क्या रिश्ता है। आप अगर यहाँ से लौटोगे तो आप देखो कि आप जिस वाहन का चुनाव कर रहे हो, वो चुनाव कैसे हो गया। और इतना मज़ा आने लग जाता है इसमें; अपने ही चोर को पकड़ने में जो मज़ा है न वो और किसी चीज़ में नहीं है। आप इसमें उतरो तो और भीतर आपको चोर-ही-चोर मिलेंगे।
और अगर सिर्फ़ चोर ही होते तो वो चोर पकड़े नहीं जाते, इसका मतलब वो कोतवाल भी भीतर ही है जो उन्हें पकड़ रहा है। उस कोतवाल को साक्षी कहते हैं। अपने ही साक्षी रहो।
प्र१: जब आप अपने अंदर की आवाज़ सुनोगे तो वह भी कहता है कि “जो भी कुछ हो रहा है उसे होने दो।”
आचार्य: जिसे आप अंदर की आवाज़ कह रहे हैं वो अधिकतर मन की ही आवाज़ होती है, मन के ही एक टुकड़े की। वो सत्य की आवाज़ नहीं होती। सत्य की कोई आवाज़ नहीं होती, सत्य का पूरा माहौल होता है। आवाज़ तो एक चीज़ होती है, एक वस्तु होती है। सत्य का पूरा एक माहौल होता है, सत्य छा जाता है। उसमें आप समझ भी नहीं पाओगे कि कोई आवाज़ आई या नहीं आई, बस पूरा माहौल बदल जाएगा।
प्र१: बस माहौल नहीं बदल रहा इस समय।
आचार्य: माहौल नहीं बदल रहा क्योंकि आप आवाज़ों पर बहुत ध्यान देते हो। ये आंतरिक जितनी भी आवाज़ें हैं, इन आवाज़ों को गम्भीरता से लेना छोड़ो। यही आवाज़ें थोड़ी देर बाद आपको ये कहेंगी कि आपने इस कक्ष में मुझसे जो बात करी वो सारी बात अव्यवहारिक हैं, आप देख लेना। ये जो भीतर की आवाज़ें हैं ये भीतर का षड्यंत्र हैं, इनको गम्भीरता से लेना छोड़ दो।
मैं तुम्हें अभी लिखित में देने को तैयार हूँ, अभी बैठे हो शांत हो, अभी आपकी एक फ़ोटो भी ली जाए न तो आपकी चेहरे पर एक गुणवत्ता है। अगर भीतर की आवाज़ों पर ध्यान देते रहे, उनको महत्व देते रहें तो ठीक आधे घन्टे बाद, एक घन्टे बाद चेहरा ऐसा नहीं रहेगा और अपने साथियों से आप कह रहे होगे, “बातें सुनने में तो ठीक थीं, सैद्धांतिक तौर पर तो ठीक थीं पर जीवन में उतारना मुश्किल है, बातें अव्यवहारिक हैं, इमप्रैक्टिकल हैं।” चेहरा ऐसा नहीं रहेगा। ये सब कारगुज़ारी उन भीतरी आवाज़ों की ही होगी।
प्र१: नहीं, मैं व्यावहारिक महत्व ही देख रहा हूँ।
आचार्य: केवल अभी देख रहे हो।
प्र१: नहीं नहीं, मुझे अभी भी उनकी व्यावहारिकता पर शंका है।
आचार्य: इसका मतलब वो आवाज़ें अभी भी हैं। अगर इस संवाद में पूरे तरीके से डूब जाओ, उतर जाओ तो उन आवाज़ों के लिए कोई जगह शेष नहीं रहेगी। और अभी भी वो आवाज़ें कह रहे हो बस थोड़ी सी हैं, मैं तुम्हें बता रहा हूँ थोड़ी देर बाद बहुत सारा लगेगा।
प्र१: नहीं, पर यह तो नॉर्मल (सामान्य) है न?
आचार्य: नॉर्मल नहीं है, ये व्याधि है, बीमारी है।
प्र१: क्योंकि बचपन में ऐसी चीज़..
आचार्य: ना ना, बचपन पर ध्यान मत दो। हमने नॉर्मल की भी बड़ी विकृत परिभाषा बना रखी है। हम कहते हैं कि जो कुछ बार-बार होता हो वही नॉर्मल है। अब यदि सब पागलखाना हो तो उसमें नॉर्मल क्या कहलाएँगे? चारों तरफ पागल-ही-पागल हैं तो लगेगा यही नॉर्मल होता है। वो नॉर्मल नहीं है। तो उसको नॉर्मल बोलना छोड़ो।
प्र१: हम पागलों की संगत में हैं और खुद भी वैसे हैं तो वही नॉर्मल है।
आचार्य: दुनिया पागलखाना नहीं है, हम पागलखाने में हैं। और कोई आवश्यकता नहीं है पागलखाने में होने की। व्यर्थ ही एक ऐसे पागलखाने में हैं, जिससे चाहे तो अभी बाहर आ जाएँ।
प्र१: वही तो नहीं हो रहा।
आचार्य: वो तब तक नहीं होगा जबतक मानोगे नहीं कि वहाँ नॉर्मल नहीं है सब। जबतक तुम्हें वो लोग नॉर्मल लग रहे हैं तुम बाहर क्यों आना चाहोगे? तुम कहोगे, "यही ठीक है!" पहले देखो कि ये नॉर्मल नहीं है, इसमें बीमारी है।
प्र१: नहीं, बीमारी तो हम ढूँढ लेते हैं।
आचार्य: ढूँढना नहीं है। बीमारी कष्ट के रूप में सामने आती है। अगर कष्ट है तो मतलब सिद्ध है कि बीमारी है, ढूँढना नहीं पड़ेगा।
प्र१: कष्ट है, आप बाहर आते हो मगर जाओगे कहाँ?
आचार्य: तुम जबतक अंदर बैठे हो बारिश का पता चलेगा?
प्र१: नहीं चलेगा।
आचार्य: फिर वही सवाल पूछ लिया न कि, "बाहर आ जाओगे तो जाओगे कहाँ?" बाहर जाकर पता चलेगा न कि बाहर क्या है। कभी गए?
प्र१: जैसे यहाँ भी आए तब भी...
आचार्य: तुम यहाँ आए शारीरिक तौर पर, मन तुम्हारा उसी हॉल में कैद है। शरीर इधर-उधर घुमाने से क्या होगा?
प्र१: हमारी समझ शक्ति अभी भी तीस पर ही है।
आचार्य: वो रहेगा, वो पैंतीस भी नहीं रहेगा, वो पाँच भी नहीं रहेगा। तब तक नहीं रहेगा जबतक अपने-आपको एक कदम बाहर निकालने की अनुमति नहीं देते।
मैं सिर्फ़ ये कह सकता हूँ कि देखो। मैं सिर्फ़ प्रेरित कर सकता हूँ कि कोई खतरा नहीं है, कुछ बिगड़ नहीं जाएगा, तुम शांत, विशुद्ध, पूर्ण-परिपूर्ण आत्मा हो। तुम्हारा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, जाओ कदम बाहर निकालो। लेकिन असली विश्वास तुम्हें तभी आएगा जब तुम कदम स्वयं बाहर निकालोगे। जबतक वो नहीं करोगे तब तक शंका बनी रहेगी।
तुम यहाँ बैठ करके मुझसे जितनी चाहे बातें पूछ लो, मैं तुम्हें चाहे जितना शास्त्रीय ज्ञान दे लूँ अन्ततः तुम्हें श्रद्धा करके और हृदय पर हाथ रखकर कदम बाहर निकालना पड़ेगा। निकालोगे तभी कह पाओगे कि, "इन्होंने जो कहा था ठीक था।" यहाँ बैठे-बैठे तो यही कहोगे कि “अभी कुछ बात—कुछ तो अटक रहा।” जो निकाल देते हैं वो फिर लौट कर आते हैं, कहते हैं, “अब समझ में आया कि आप जो कहते थे ठीक था।”
प्र१: कदम कौन सी दिशा में बढ़ाना है, ये कैसे जानेंगे?
आचार्य: भूल जाओ, तुम नहीं तय करोगे। अभी जो है, जो दिशा है वो यह है कि अभी जो कुछ है उसमें पूर्णतया डूबो। अभी हमने बात करी थी न कि यहाँ से निकलोगे, खाना-पीना खाओगे, घूमोगे-फिरोगे, जो भी करोगे, उसी में अगर पूर्णतया स्थापित हो तो तुम देखोगे, दिशा पता चलती है कि नहीं चलती है। दिशा कहीं से कोई ईमेल थोड़े ही आएगी कि अगली दिशा क्या है, वो भीतर से पता चल जाता है कि, "ये मेरी दिशा है!" वो तभी पता चलता है जब जीवन को साफ़ नज़र से, ईमानदारी से देख रहे हो और उसमें कोई दो पैसा भी नहीं लगता। कि लगता है?
वो कोई ख़र्चे की बात नही है, उसमें कोई खतरा नहीं है। ईमानदारी में न कोई रुपया-पैसा है, न कोई ख़तरा है, और कोई बोझ भी नहीं है क्योंकि तुम्हें कुछ करने की ज़िम्मेदारी नहीं है, तुम्हें बस देखना है।
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