क्या हम त्योहारों का असली अर्थ समझते हैं?

Acharya Prashant

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क्या हम त्योहारों का असली अर्थ समझते हैं?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आज दीवाली है, मेरे मन में ये प्रश्न आ रहा है कि क्या हम त्योहारों को उनके सही अर्थों में मनाते भी हैं या नहीं?

आचार्य प्रशांत: अगर धर्म वास्तव में ये है - ईमानदार, बोधपूर्ण, एकांत तो ये दिन (त्योहार) हमें और धार्मिक बनाते हैं या ये वास्तव में हमारी बची हुई धार्मिकता का भी हनन कर लेते हैं? मेरा प्रश्न ये है कि त्योहारों के इन दो-तीन दिनों में, हम आमतौर पर जैसे रहते हैं उससे भी कम धार्मिक नहीं हो जाते क्या? नहीं समझ रहे हैं? हम पूरा साल एक तरीके से बिता रहे हैं उसमें जो हमारा RQ रिलीजियस कोसेंट और जब मैं रिलीजियस कह रहा हूँ तो मैं 'सच्चे धर्म' की बात कर रहा हूँ। सच्चा धर्म माने ईमानदारी, बोध, एकांत, मौन। तो हम पूरा साल जिस तल पर रहते हैं ये दो-तीन दिन आते हैं तो उससे और नीचे नहीं गिर जाते हैं? धर्म का उत्सव मनाने में हम धर्म से और दूर हो जाते हैं। तो अगर वास्तव में कोई अधार्मिक दिन है तो वो आज का है। वास्तव में जो सच्चा धार्मिक इंसान होगा वो आज के दिन शोक मनाएगा और क्या किया जा सकता है?

आज का दिन वो है जिस दिन 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः' जब धर्म की जम के हानि हो रही है तो आज का उत्सव वैसा ही होना चाहिए जैसे मोहर्रम का होता है कि छाती पीटी जा रही है, अरे ये क्या हो गया? ध्यान से देखो तो और क्या है? आज का दिन वास्तव में उत्सव मनाने का है या अपने आसपास हो रही धर्म की छति को देखने का है? लेकिन हम ‘हैप्पी दिवाली' बोलने से बाज़ नहीं आएँगे। ये देखो आ गया मैसेज, ये हैप्पी दिवाली का ही होगा(एक श्रोता के मोबाइल में मैसेज टोन बजने पर), एक और आ गया।

(सभी श्रोता हँसते हूँ)

ये वो दिन है कुणाल(स्वयंसेवी) जिस दिन तुम्हें शोक संदेश भेजना चाहिए। “मुझे बहुत खेद है ईश्वर आपको इस दिन से उबरने की शक्ति दे।" हँसने की बात नहीं केवल यही एक संदेश है जो चारों तरफ जाना चाहिए। “ईश्वर आपको इस कठिन समय से उबरने की क्षमता दे। आप चिंता नहीं करें ये कठिन समय लंबा नहीं होगा, आप शीघ्र ही इसे पार करके ऑफिस जाना शुरू कर देंगे।" दिये की रोशनी से अंधों को क्या मिलेगा? आज यदि ‘सामूहिक चेतना' जैसी कोई चीज़ होती है तो उसमें एक ज़बरदस्त गिरावट आएगी। जैसे पूरे देश ने दारु पी ली हो एक साथ। ये जो त्योहारों का समय होता है उसमें देश की जो औसत चेतना स्तर है वो तीस-चालीस प्रतिशत गिर जाती होगी या और ज़्यादा।

ये काम कर रहे हैं हमारे त्योहार - आदमी तो वैसे भी नशे में रहता है उसे और ज़्यादा नशे में डाल दो। इसको और समझिए जब हम कहते हैं कि त्योहारों का मतलब है परिवारों के साथ रहना तो ये त्यौहार एक सामाजिक साधन हैं। ये धार्मिक तो कहीं से नहीं है। वास्तव में त्योहारों का जो प्राथमिक लक्ष्य है वो व्यक्ति है ही नहीं वो सामाजिक है, वो समाज को याद रखना है। तुम कहीं भी काम कर रहे हो, कुछ भी कर रहे हो, तुम्हें उस दिन अपने परिवार के पास होना है, तुम्हें उस दिन अपने सारे रिश्तेदारों को, दोस्तों को ये संदेश वगैरह भेजने हैं। ये ईश्वर की इच्छा नहीं है, ये समाज की इच्छा है। समाज ये चाहता है कि आज के दिन तुम... और ऐसे कई दिन बना दिये हैं जिनमें तुम्हें आ कर के अपने सामाजिक बंधनों को मजबूत करना है। क्या ये दिन तुम्हें समाज से मुक्ति देता है या ये दिन तुम्हें और गहराई से बंधनों में जकड़ देता है।

श्रोता: बचपन में हमें बताया जाता था कि वैसे तो समय नहीं मिलता है, ये त्योहार ही हैं जिनके माध्यम से लोगों से मिलना, उन्हें जानना हो पाता है।

मैं पूछती थी लोगों से मिलने के लिए त्योहारों की क्या ज़रूरत है? ऐसे ही मिल लेंगे। और घर की औरतों के लिए ये त्योहार बनाये गये हैं क्योंकि वो घर से बाहर निकल नहीं पाती थी। इन त्योहारों के माध्यम से उसका भी मिलना-जुलना होगा, एक कम्युनिटी (समुदाय) बनेगा।

आचार्य प्रशांत: तो यही क्यों नहीं बना दिया गया कि वो बाहर निकल लें साल भर।

ये तो वैसी-सी बात है कि जेल के कैदी हैं उनके लिए बनाया गया है कि पंद्रह अगस्त के दिन मिठाई दी जाए। अरे, जेल ही तोड़ दो! अगर इतनी करुणा ही है तो।

हम यहाँ वो सब बातें नहीं करने आए हैं कि घर की औरतें और लोग क्या करते हैं- ये सब मूर्खताएँ हैं। हमको भी यहाँ तक तो दिखाई देता है कि अधिकांशतः जो चीज़ें की जा रही हैं उसमें कोई तत्व नहीं है, कोई समझ नहीं है। पर क्या हमको यहाँ तक दिखाई देता है कि अधिकांश जो हो रहा है वो मात्र मूर्खताएँ हीं नहीं बल्कि विषैला है। तो जब ये शुरुआत में कहा था कि ये त्योहार वास्तव में उत्सव मनाने के लिए नहीं शोक मनाने के लिए हैं तो ये बात मज़ाक में कम और वास्तविकता में ज़्यादा हैं। आज का दिन गहरे अधर्म का दिन होता है। समझ रहे हो? आज के दिन जो कुछ भी धर्म के नाम पर किया जाता है वो वास्तव में धर्म की दुर्गति हीं है। धर्म का जो मूल तत्व है, आज उसी को नष्ट किया जा रहा है।

ये सवाल बहुत ज़रूरी है कि सबके घर से फोन आने पक्के हैं। घरों से फोन आएँगें, दोस्त-यारों के मैसेज आएँगे उस पर आपको क्या करना चाहिए? आप तो ये कह सकते हो कि मैं इग्नोर कर दूँगा पर वाकई क्या आपको उनसे कोई संबंध है? अगर आप इग्नोर कर दोगे तो क्या वाकई संबंध हैं और अगर आप इग्नोर ही नहीं कर रहे हैं और आप उनकी हरकतों में हिस्सा लेने चले जा रहे हो तो आपका उनसे संबंध क्या है? आप कौन से क्या संबंध है? मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ आपसे कोई चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि मेरे पास आओ, मेरे पास आओ और आपको पता है कि आपका उसके पास जाना ज़हर की तरह है। आप क्या उसके पास चले जाओगे? ये बोल करके कि उसे मेरी ज़रूरत है। आप उसके दोस्त हो या सबसे बड़े दुश्मन? और सबकी अपनी-अपनी बेड़ियां हैं- कुछ लोग हो सकते हैं जो दिवाली पर घर से दूर बैठे हैं पर दोस्त के लिए उड़ करके चले जाएँगे। उसमें और उन लोगों में क्या फर्क है जो दिवाली पर यहाँ नहीं आ सकते क्योंकि आज उन्हें अपने घर में होना है, आज संडे है। दिवाली पर धर्म की हानि हो रही है ये तुम्हें दिख रहा है पर वो जो दूसरा मौका है उस पर किस-किस चीज़ की हानि हो रही है? ये देखने में डर क्यों लगता है?

दिवाली पर कोई तुमको बोले, “आपकी दिवाली मंगलमय हो!" और आप भी उसे ऐसा ही संदेश भेजें कि आपकी दिवाली भी मंगलमय हो तो तुम्हें दिख रहा है कि ये मूर्खता है और दूसरे मौके पर तुम्हें क्यों नहीं दिखाई दे रहा कि महामूर्खता है। इस मौके और उस मौके में अंतर क्या है? ध्यान से देखो इस मौके और उस मौके में अंतर क्या है? आज भी जो बंदा काम कर रहा है वो एक सामाजिक काम कर रहा है, उसको पता है इस अवसर पर ऐसा होना चाहिए। तुम्हें भी पता है एक अवसर है, उसमें ऐसा होना चाहिए। ये भी एक अवसर है, कैलेंडर में निर्धारित है ये दिन- एक अवसर है, अवसर है और ये प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि आज दिन भर यही होने वाला है। आज जब भी ये सब चारों ओर हो रहा होगा और उसमें आपको भी शामिल करने की कोशिश की जा रही होगी तो आप का धर्म क्या है? और उस धर्म पर चले बिना आप अपने आपको क्या मुँह दिखायेंगे? आज वो दिन है जिसमें या तो आप फिर से गुलाम बन जाएँ जैसा कि आप अपने जीवन में आज तक बनते आए हैं या आज हीं वो दिन है जिस दिन आप देख सकते हैं कि आप क्या कर सकते हैं? आज के दिन आप बिलकुल वही व्यवहार कर सकते हैं जो आप आज तक करते आए हैं या आज वो दिन है जब आप कुछ नया शुरू कर सकते हैं।

तो आज का दिन महत्वपूर्ण तो है। जैसे दूसरे लोग कहते हैं कि आज का दिन महत्वपूर्ण है। तो आज का दिन महत्वपूर्ण तो है पर दूसरे अर्थ में महत्वपूर्ण है। अब वो हमें तय करना है कि किस अर्थ में महत्वपूर्ण है? और आज यहाँ से बाहर निकलते ही धर्म फिर से आपको अपनी गिरफ़्त में लेगा। रीति-रिवाज आपको फिर से गिरफ़्त में लेंगे, निकलते ही लेंगे। यहाँ से आप घर नहीं पहुँचोगे और सत्तर इशारे आ जाएँगे, चारों तरफ से ये बताते हुए कि कुछ खास है। बिल्डिंग्स पर झालर लटक रही होगी, दुकानों पर मिठाइयाँ और सेल, लोग सड़कों पर घूम रहे होंगें, क्या पता बीच-बीच में बम के फटने की भी आवाज़ें आ रही होंगी। अब उसमें हमें पूछना पड़ेगा कि- इस सब में मुझे क्या करना है? हाँ, ठीक है मैं जा कर के पूरे ज़माने की आग नहीं बुझा सकता, वो मेरी फिज़िकल लिमिटेशन है लेकिन जो मेरे ही जीवन में है, मौजूद हैं, घुसे हुए हैं वो जब मेरे पास आते हैं और मुझसे यही बातें करेंगे तो मेरा फ़र्ज़ क्या है? मुझे क्या करना चाहिए? उस मूर्खता का हिस्सा बन जाना चाहिए? बल्कि अपनी उपस्थिति से उसमें चार चाँद लगाने चाहिए? लो तुम तो हो ही, मैं और आ गया और इस प्रकार इसे और वैध्यता दे दो। निश्चित ही कर दो कि इस तरह का व्यवहार जीवन भर चलेगा। तुमने उसकी सहायता की या उसे और अंधकार में धकेल दिया? ये तुम्हें ईमानदारी से अपने आप से पूछना चाहिए।

क्या तुम दूसरों की मूर्खताओं में भाग ले करके उनकी मदद कर रहे हो या वास्तव में अपनी मदद कर रहे हो? या जो कुछ कर रहे हो वो इसलिए कर रहे हो क्योंकि स्वयं डरे हुए हो? हम अक्सर ये बोलते हैं कि “हाँ, हमारे आसपास जो हो रहा है वो पागलपन है लेकिन हम उसमें इसलिए शामिल हो रहे हैं ताकि औरों को बुरा न लगे।" यही तर्क है न हमारा? उसे पसंद है, उसे ज़रूरत है। अब मैं तुमसे एक दूसरा सवाल करता हूँ- ईमानदारी से पूछो क्या वाकई तुम उसमें इसलिए शामिल हो रहे हो कि उसको बुरा न लगे या इसलिए शामिल हो रहे हो क्योंकि तुम्हें डर लगता है? तुम डरे हुए हो। तुम झूठ बोल रहे हो यदि तुम कहते हो मैं इसमें दूसरे की खातिर जा रहा हूँ। तुम इसमें दूसरे की खातिर नहीं शामिल होते, तुम इसलिए शामिल होते हो क्योंकि तुम्हारी खुद की लगी पड़ी है, तुम्हें डर लगता है और ये अत्यंत कठिन होगा।

उस डर के बारे में सोचिए कि कोई तुम्हें ‘शुभ दीपावली' बोले और बदले में तुम शांत रहो। ये तो छोड़ ही दो कि उसे पलट के एक शब्द ज्ञान का बोल दिया। कोई आपको बोल रहा है शुभकामनाएँ और आपको दिख रहा है कि नकली आदमी है और क्या शुभकामनाएँ? लेकिन आपके लिए चुप रहना असंभव है तो यहाँ पर आप उसका दिल रखने के लिए बोल रहे हो आपकी हिम्मत ही नहीं है कुछ और कह देने की, कुछ और कर पाने की। ये मौका आया है, ये तो मुझे करना ही पड़ेगा। पूछना पड़ेगा अपने आपसे कि ये तो सीधे-सीधे मेरे मन की नकली विवशता है, इसमें ये बात है भी नहीं कि मुझे दूसरे का मन रखना है। पहली बात तो मन रखने में ही कुछ नहीं है और दूसरी बात मन रखने का जो बहाना है वो भी झूठा है। हमारी हिम्मत नहीं है, हमारी हिम्मत नहीं है और ऊपर से हम कहते हैं आज का दिन संबंधों को और प्रगाढ़ करने का है। अगर तुम्हें वाकई प्रेम होगा तो तुम उन मूर्खताओं में शामिल होगे या स्पष्टरूप से उनसे कहोगे, “क्योंकि मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूँ, मैं तुमसे प्रेम करता हूँ इसलिए मैं उन चीज़ों में शामिल नहीं होऊँगा जो तुम्हें हानि पहुँचा रहे हैं।" तो कहने के लिए त्यौहार है, संबंधों की, रिश्तेदारों की बात है लेकिन इसमें संबंधों का सच तो और स्पष्ट रूप से दिखता है। ये जो त्यौहार है, ये तो तुम्हारे रिश्तों की कलई और खोल देता है।

आपको पता भी है कि क्या हो रहा है? लेकिन आपकी हिम्मत नहीं है। पति को अच्छे से पता है कि क्या पागलपन है? लेकिन उसकी हिम्मत नहीं है कि पत्नी से बोल दे कि “सुनो! कुछ नहीं, हम ये त्योहार मनाने के लिए नहीं है बिल्कुल इससे दूर रहो।” पति की हिम्मत नहीं है कि वो ये पत्नी से कह दे, माँ की हिम्मत नहीं है कि वो ये बात बच्चों से कह दे और ये हमारे संबंधों की सच्चाई बताता है- माँ और बच्चे के संबंध, पति और पत्नी के संबंध। धीरे-धीरे हम सब भूल जाते हैं कि हम ये इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम सब डरे हुए हैं। वास्तव में ये डर का त्यौहार है। हम में से कोई नहीं है जिसमें सच देखने या बोलने की हिम्मत है।

श्रोता: हैव अ फ़ियरफुल दीवाली।

आचार्य प्रशांत: हैव अ फ़ियरफुल दीवाली! आप जो चारों तरफ देख रहे हैं- वो डर का नाच है। पूर्णतया डर का नाच चल रहा है। आपको क्या लगता है ये जो लोग मॉल्स में ख़रीदारी कर रहे हैं क्या वो वाकई उल्लास मना रहे हैं? वास्तव में? तो ये सब जो है वो बस डर का नाच है। (शिविर में उपस्थित लोगों की तरफ इशारा करते हुए)आधे लोग तो डर से ऐसे सुन्न हो गये हैं कि उन्हें कुछ भी समझ में आना बंद हो गया है और जिनको अभी तक समझ में आ भी रहा है तो उनकी हिम्मत नहीं है ज़बान खोलने की।

गीता में एक आता है कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज'। सारे धर्मों को छोड़ दे अर्जुन! मेरी शरण में आजा। यहाँ मेरी से मतलब है- आत्मन की। जिस भी किसी आदमी को समझ में आता है न, उसे ये कहना ही पड़ता है कि सारे धर्मों को छोड़ दो क्योंकि तुम जितने भी धर्मों का पालन कर रहे हो वो सारे नकली हैं। कृष्ण जी अर्जुन को धार्मिक इसी अर्थ में बना रहे हैं कि उससे सारे धर्मों को छोड़ देने को कह रहे हैं और ये सबसे बड़ी धार्मिकता है सारे धर्मों को छोड़ दो। मुहम्मद साहब ने और क्या करा था? जितने धर्मों का पालन करा जा रहा था अरब में उन सारे धर्मों को नष्ट करा था। काबा मोहम्मद साहब से बहुत पहले का है। काबा में हज़ार कबिले के देवताओं की पूजा की जाती थी। मुहम्मद साहब ने वो सब बन्द कराई थी कि “ये सब क्या बेवकूफ़ी है! बन्द करो! एक है अल्लाह बस वही है। ये जो इतने सारे ये तुमने क्या नाटक लगा रखा है?"

तो वास्तविक धर्म इसी में है कि ये जो धर्म हैं बहुत सारे इनको बिल्कुल खंडित किया जाए, ‘सर्वधर्मम परित्यज्य' सारे धर्मों का त्याग कर अर्जुन और वही धार्मिकता है। अब सवाल हमारे सामने है- आज दीवाली है, हमारी है इतनी हिम्मत? औकात है? कि ये जो नकली धार्मिकता है इसका त्याग कर सके? और वो हिम्मत जुटाने की नहीं होती है? वो हिम्मत देखने की होती है, समझने की होती है। ये समझा जाए कि एक ही जीवन है, और समय कीमती है और बहुत कीमती है तो फिर आप उसको खोना बर्दाश्त नहीं करोगे। और जब आपके मन में लालच नहीं होता तो आप फिर ये भी नहीं कहते कि मेरा कुछ छिन जायेगा। ये बात समझने के लिए हमें हिम्मत नहीं चाहिए, हमें बस एक रियलाईजेशन चाहिए कि क्या छिन जाएगा? मैं करूँगा भी तो ये लोग मुझसे छीन लेंगे क्या छीन लो? जो छीन सकते हो। ये फीयरलेसनेस है ये हिम्मत नहीं है। ये निर्भयता है।

और आप देखियेगा बताता हूँ आप जितना इतने गहरे धंसोगे उतना और आप गहरे धंसोगे। कुछ साल पहले तक ऐसे काफी मैसेज आते थे मुझे, बहुत नहीं आते थे पर आते थे अब एक भी नहीं आता या आता भी है तो उनका आता है जो दूर दूर के हैं कुछ जानते नहीं है, भेज देते हैं। कई लोग होते हैं न कांटेक्ट में जितने हैं सब को मैसेज भेज दो तो उस तरीके के दो-चार आ जाते हैं वरना नहीं आते। इसी तरीके से जन्मदिन वगैरा पर आ जाता था पहले फ़ोन-वोन, अब नहीं, बिल्कुल नहीं। आप अगर तय ही कर लो मुझे इसका हिस्सा नहीं बनना तो फिर नहीं बनना। हम खुद इसमें शामिल हैं ये हमारी लाचारी नहीं है ये हमारा लालच है। वो आपकी लाचारी नहीं थी आपका लालच था और उसको ज़रा ध्यान से देखिये कि आपको लालच क्या है? कोई लाचारी नहीं है, कोई मजबूरी नहीं है और ये बिल्कुल मत सोचना ये तुमने दूसरे के लिए किया, मदद करने के लिये या किसी और चीज़ के लिये। तुम्हारा अपना कोई स्वार्थ है तुम्हारा अपना कोई डर है जिसने ये सब काम करवाया।

प्रेम में ये नहीं होता, ये कुछ और था। वो घटना और आज का दिन बिल्कुल जुड़े हुए हैं इसलिए याद आ रहा है। लोग सदियों से इस दिन को मना रहे हैं इससे यही पता चलता है कि निश्चितरूप लोगों को नहीं पता है कि वो क्या कर रहे हैं? क्या है ये उत्सव? और कैसे जानें कि हम क्या कर रहे हैं? बहुत सारे प्रश्न पूछकर नहीं पता चलेगा लेकिन फिर भी शुरु करने के लिए प्रश्नों की कुछ उपयोगिता तो है ही। लेकिन वो हमें बहुत दूर तक नहीं ले जायेगा। बस ध्यान से देखो जैसे कि तुम किसी और ग्रह से हो- ये सब चल क्या रहा है? क्या तुम वास्तव में इतने प्रसन्न हो? कि तुम पटाखे जला रहे हो। सच में? साज-सज्जा उत्सव नहीं है, तेज संगीत उत्सव नहीं है, नये कपड़े पहनना उत्सव नहीं है तो आप ये भी कर सकते हैं कि पूछ लीजिये कि तुम उत्सव मना क्यों नहीं रहे हो? घर में तमाम झालर वगैरह लगी हुई है, अच्छे कपड़े पहन रखे हैं और आप ये सवाल बार-बार पूँछे- “लेकिन तुम उत्सव क्यों नहीं मना रहे?" ये बहुत अच्छा प्रश्न है पूछने के लिये। ये सब तो ठीक है, लेकिन तुम उत्सव क्यों नहीं मना रहे? और सामने वाला बोलेगा अच्छा हाँ यार, सही बोल रहा है तू बम-वम कम हैं और ले आते हैं। ये सब भी ठीक हैं लेकिन तुम उत्सव क्यों नहीं मना रहे? प्रश्न ये है। मैं भी चाहता हूँ कि तुम उत्सव मनाओ सबलोग उत्सव मनाया बहुत अच्छा लगेगा, चारों तरफ उत्सव हो लेकिन तुम उत्सव मना क्यों नहीं रहे हो?

तो यही सबसे सही जवाब होगा- जब कोई आपको हैप्पी दिवाली, बोले। हाँ! “बिल्कुल सही कि आज खुशी का दिन है लेकिन तुम उत्सव मना क्यों नहीं रहे हो?" तो ये मत कहो कि मैं नहीं हूँ सब मना रहे, ज़्यादा बड़ा सवाल ये है पूछना कि तुम उत्सव क्यों नहीं बना रहे हो? तुम सबको शुभकामनाएँ देने के लिए इतने उत्सुक हो, कैसे इंसान हो तो नहीं कि तुम सबको शुभकामनाएँ दे रहे हो लेकिन तुम स्वयं उत्सव नहीं बना रहे। कृपया दुखी न हो और उत्सव मनाए।

तो अब जिसका भी संदेश आए उसे कहिए कि हाँ, आज का दिन शुभ है। लेकिन उत्सव मनाने से डरो मत! जाओ और पूर्ण रूप से उत्सव मनाओ! लोगों को लगेगा हाँ ये सही बोल रहा है जो हम समझ रहे हैं मैंने वो नहीं बोला। जो तुम समझ रहे हो। बहुत अच्छा होता अगर हम वास्तव में उत्सव मना सकते तो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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