क्या हैं संसार, अहम् और ब्रह्म? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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क्या हैं संसार, अहम् और ब्रह्म? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति॥ किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठाः। अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्‌॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक १)

अनुवाद: ब्रह्मवेत्ता ऋषि कहते हैं - इस जगत का मूल कारण ब्रह्म किस रूप में है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं? हम किससे जीवित रहते हैं? हम कहाँ प्रतिष्ठित हैं? हे ब्रह्मज्ञ महर्षियों! हम किसकी प्रेरणा से सुख-दुःख का अनुभव करते हुए संसार-चक्र व्यवस्था में भ्रमण करते हैं?

आचार्य प्रशांत: उपनिषदों का आरंभ बहुधा एक प्रकट जिज्ञासा से होता है। कुछ जानना है, समझना है, कोई बहुत गहरी सारभूत बात है, यूँ ही नहीं चर्चा हो रही। जहाँ जिज्ञासा प्रकट नहीं भी है वहाँ प्रच्छन्न है, पर एक आतुरता है अवश्य, कि जो चीज़ स्पष्ट नहीं है वो होनी चाहिए।

अभी सर्वसार उपनिषद् में भी हमने देखा और श्वेताश्वतर में भी यही है, कि पहला ही श्लोक कई प्रश्नों को खड़ा कर देता है। तदोपरांत उपनिषद् का पूरा प्रयास रहता है उन प्रश्नों की गहराई में जाने का और समाधान करने का।

“इस जगत का मूल कारण ब्रह्म किस रूप में है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं? हम किससे जीवित रहते हैं? हम कहाँ प्रतिष्ठित हैं? हे ब्रह्मज्ञ महर्षियों! हम किसकी प्रेरणा से सुख-दुःख का अनुभव करते हुए संसार-चक्र व्यवस्था में भ्रमण करते हैं?”

संसार के बारे में जानना है, स्वयं के बारे में जानना है और ब्रह्म के बारे में जानना है। आरंभ में ही प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कर दिए गए हैं: ब्रह्म, अहं और संसार। इसी को ऐसे भी कह सकते हो - परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। ब्रह्म, अहं और संसार कह सकते हो, या परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। तो इन्हीं का अन्वेषण आने वाले सूत्रों में होने वाला है।

कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुखदुःखहेतोः॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक २)

अनुवाद: काल, स्वभाव, सुनिश्चित कर्मफल व्यवस्था, आकस्मिक घटना, पंच महाभूत और जीवात्मा—ये इस जगत के कारणभूत तत्व हैं या नहीं, इन पर सदैव विचार करना चाहिए! इन सब का समुदाय भी इस जगत का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि ये आत्मा के अधीन हैं। आत्मा भी कारण नहीं, क्योंकि यह सुख-दुःख के कारणभूत कर्मफल व्यवस्था के अधीन है।

आचार्य: “काल, स्वभाव, सुनिश्चित कर्मफल व्यवस्था, आकस्मिक घटना, पंचमहाभूत और जीवात्मा—ये इस जगत के कारणभूत तत्व हैं या नहीं, इन पर सदैव विचार करना चाहिए।”

माने, कारणभूत तत्व वो होता है जिससे कार्य उत्पन्न होता है या भाँति-भाँति के कार्य उत्पन्न होते हैं। कारणभूत तत्व होता है बिलकुल मौलिक; जिससे तमाम तरह के बदलाव उद्भूत हैं पर जो स्वयं नहीं बदलता, जो एकदम आधार में बैठा है और स्वयं निराधार है, जो प्रकृति का आधार है और स्वयं निराधार है। प्रकृति का आधार है इसीलिए उसको हम कह रहे हैं कारणभूत, माने वो प्रकृति का कारण है; प्रकृति उससे उठ रही है, वो स्वयं किसी से नहीं उठ रहा; प्रकृति परिवर्तनशील है, प्रकृति का कारणभूत तत्व अपरिवर्तनीय है।

तो जब पूछा गया कि कारणभूत ब्रह्म क्या है तो नेति-नेति की शुद्ध और लाभप्रद परम्परा में ही उत्तर आया है, ये बताते हुए कि कारणभूत क्या नहीं है। कारणभूत क्या है वो आगे देखेंगे, कारणभूत क्या नहीं है उससे शुरुआत हो रही है।

क्या-क्या नहीं है कारणभूत, दोहराते हैं - काल, स्वभाव, सुनिश्चित कर्मफल व्यवस्था, आकस्मिक घटना, पंच महाभूत, जीवात्मा। कहा गया है, “ये कारणभूत हैं या नहीं, विचार करो।” फिर कहा, “इन सबका समुदाय”, समुदाय माने इनको अगर तुम इकट्ठा ले लो, अलग-अलग नहीं, इकट्ठा, “इन सबका समुदाय भी जगत का कारण नहीं हो सकता क्योंकि ये सब तो आत्मा के अधीन हैं, और आत्मा स्वयं भी कारण नहीं क्योंकि ये सुख-दुःख के कारणभूत कर्मफल व्यवस्था के अधीन है।”

यहाँ पर आत्मा से आशय है- जीवात्मा। काहे की? ये जितनी आपने बातें कह दीं; स्वभाव भी यहाँ कहा गया है, यहाँ पर स्वभाव से आशय है प्रकृति। यहाँ पर इस श्लोक के संदर्भ में जहाँ स्वभाव कहा जा रहा है, उसको मानिए जीवात्मा का स्वभाव, माने जीवात्मा का व्यवहार, माने जीवात्मा की प्रकृति। और जहाँ आत्मा कहा गया है उसको समझना है जीवात्मा, अहं समझ लीजिए।

तो कहा गया कि काल है या कर्मफल है या आकस्मिक घटना है या पंचमहाभूत हैं, इन सबका जो अनुभोक्ता है वो तो जीवात्मा है। जब इनका अनुभव करने वाला जीवात्मा है तो ये सब तो जीवात्मा के विषय मात्र हुए, ये कैसे कारणभूत हो गए? और जो जीवात्मा है वो स्वयं भी कारणभूत नहीं हो सकता क्योंकि वो स्वयं सुख-दुःख और तमाम तरीके के अनुभवों से रचित है।

समझ में आ रही है बात?

संसार के सब विषय या उन विषयों का समुदाय कारणभूत नहीं हो सकता, क्योंकि वो विषय हैं ही विषयता के लिए; विषयता का नाम है 'जीवात्मा'। उन विषयों का अपने-आप में कोई स्वतंत्र वस्तुगत अस्तित्व है ही नहीं। विषय का अनुभव करने वाला अनुभोक्ता ना हो, तो विषय की तो सत्ता ही नहीं बचती न? तो विषय फिर केंद्रीय या कारणभूत नहीं हो सकता। ना ही विषयी कारणभूत हो सकता है, क्योंकि विषयी किससे बना है? विषयी बना है उम्र-भर के अपने तमाम अनुभवों से। और वो अनुभव उसको कहाँ से आए हैं? विषयों से आए हैं। उन अनुभवों में उसे कभी सुख मिला है, कभी दुःख मिला है।

तो जो बात कही जा रही है वो बड़ी तात्विक है। कहा ये जा रहा है कि ये पूरी जो दुनिया है, इसमें दो ही तत्व होते हैं - एक, जिसको तुम कह सकते हो 'दृश्य', दूसरे को कह सकते हो 'दृष्टा'। एक, जिसको तुम कह सकते हो 'अपरा-प्रकृति', जिसको आप कहते हो 'जड़ प्रकृति'; अपरा - ये जो तमाम बिखरा हुआ संसार है जड़ पदार्थों का। और दूसरा, जिसको आप कह सकते हो 'चैतन्य प्रकृति' या 'परा-प्रकृति', जिसको आप 'पुरुष' या 'अहं' भी कह सकते हो।

ये दो हैं; संसार माने ये दो। और ये दोनों ही एक-दूसरे पर परस्पर अवलंबित हैं। तो दोनों में से कोई भी मूलभूत या फंडामेंटल (मूलभूत) नहीं हो सकता। मूलभूत वो होता है न जो किसी पर भी आश्रित ना हो? जो क्या हो बिलकुल? निराधार। अब यहाँ तो संसार आश्रित है जीव पर, और जीव आश्रित है संसार पर। इसका मतलब ये है कि जीव भी मुक्त या पूर्ण या स्वतंत्र नहीं है, और संसार भी मुक्त, पूर्ण या स्वतंत्र नहीं है।

यहाँ से शुरुआत होती है उपनिषद् की। ठीक है? कि सबसे पहले तो भई जीव और जीव से संबंधित जितने तत्व हैं, जितनी उपाधियाँ हैं, जितने पंच-महाभूत हैं, इन सबको हटाओ। काल को हटाओ, स्थान को हटाओ, ये सब बातें हटाओ, ये आधारभूत नहीं हो सकतीं। कुछ और है जो इनके नीचे बैठा है, कुछ और है जो इन सबका कारण है; उस तक पहुँचना है, क्योंकि वो ही असली चीज़ है।

अब, कैसे पहुँचना है? तो अब जब पहुँचने की आकांक्षा हुई तो ऋषियों ने क्या किया?

ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्ह्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्‌। यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ३)

अनुवाद: तब उन्होंने ध्यान योग का अवलम्बन लिया जिससे उन्हें अपने गुणों से आच्छादित ब्रह्मस्वरूप आत्मशक्ति का साक्षात्कार हुआ, जो काल, स्वभाव आदि से लेकर आत्मा तक सभी कारणों का एकमात्र अधिष्ठाता है।

आचार्य: “तब उन्होंने ध्यान योग का अवलंबन लिया।” जब संसार और संसारी दोनों के पीछे के सत्य को जानने की इच्छा हुई तो ऋषियों ने ध्यान का अवलंबन, माने सहारा लिया। और फिर, “उन्हें अपने गुणों से आच्छादित ब्रह्मस्वरूप आत्मशक्ति का साक्षात्कार हुआ, जो काल, स्वभाव आदि से लेकर आत्मा तक सभी कारणों का एकमात्र अधिष्ठाता है।”

और जो बात चर्चा से नहीं बन रही थी वो बात मौन से बन गई; जो बात शाब्दिक ज्ञान से नहीं बन रही थी वो बात ध्यान से बन गई। ऋषियों ने ध्यान-योग का अवलंबन लिया और फिर उनको ब्रह्मस्वरूप आत्मशक्ति का साक्षात्कार हुआ, जो कि सभी कारणों का एकमात्र अधिष्ठाता है; अधिष्ठाता माने जिसपर सब प्रतिष्ठित हो, जो आधार हो।

क्या पता चला उन्हें अपने ध्यान में? ध्यान में जो पता चलता है उसे आसानी से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। ठीक है? क्योंकि वो बात चैतन्य, सामान्य चैतन्य जगत की होती नहीं। तो इसीलिए आप ध्यान में जितना गहरे जाते जाते हैं, वैसे-वैसे आपकी जो बात है वो गीतों में बदलती जाती है, स्पष्टता प्रतीकों में बदलती जाती है। और, और ज़्यादा आप गहरे चले गए तो फिर शब्द मौन में बदलते जाते हैं। कुछ छवियाँ उठेंगी, कुछ बात समझ में आएगी, लेकिन वो जो बात उठेगी भीतर से, वो इतनी जटिल होगी दूसरों के लिए, कि उसको समझा पाना बहुत आसान नहीं होगा।

तो यहाँ पर क्या होता है? ध्यान में ऋषियों को क्या अनुभूति होती है? वो कहते हैं;

तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः। अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्‌॥

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ४)

अनुवाद: उन्होंने एक ऐसे चक्र को देखा जो एक नेमि, तीन वृत्तों, सोलह अन्त (सिरों), पचास अरों, बीस प्रत्यरों (सहायक अरों), छः अष्टकों, एक ही पाश से युक्त, एक मार्ग के तीन विभेदों, दो निमित्त तथा मोह रूपी एक नाभि वाला था।

आचार्य: “उन्होंने एक ऐसे चक्र को देखा जो एक नेमि, तीन वृत्तों, सोलह अन्त (सिरों), पचास अरों, बीस प्रत्यरों (सहायक अरों), छः अष्टकों, एक ही पाश से युक्त, एक मार्ग के तीन विभेदों, दो निमित्त तथा मोह रूपी एक नाभि वाला था।”

जैसे सपना आया हो, और उस सपने में बहुत विभूतियुक्त संदेश छुपे हुए हों। क्या देखा?

एक चक्र देखा है। ऋषि जानना चाहते थे कि “प्रकृति क्या, संसार क्या, मैं कौन और सत्य क्या?” और ये जानने के लिए जब वो ध्यानस्थ हुए तो उन्होंने देखा एक चक्र। उस चक्र में नेमि है, नेमि माने जो परिधि होती है। अर है, अर माने ये जो तीलियाँ होती हैं। और बीच में केंद्र है, और नेमि बाहर है। लेकिन और भी वृत्त हैं; तीन और उसमें वृत्त हैं। एक बहुत ही विशिष्ट-सा चक्र है जो ऋषि को दिखाई दिया है और ऋषि ने उस चक्र का यहाँ पर वर्णन कर दिया है। उस चक्र में ही प्रकृति के और संसार के सारे संकेत छुपे हुए हैं। क्या संकेत हैं?

ये जो सबसे पहले नेमि दिख रही है ये परिधि है, जिसको प्रकृति कह सकते हैं; ये प्रकृति है। केंद्र या नाभि पर मोह बैठा है, ये ऋषि ने स्वयं ही बता दिया, कि ये जो संसार का चक्र है—चक्र माने कौन-सा चक्र है ये? संसार का चक्र, जीवन-मरण का चक्र—इसके केंद्र पर, इसकी नाभि पर क्या बैठा है? मोह बैठा है। इसकी परिधि पर क्या है? प्रकृति है। और तीन इसमें वृत्त हैं। प्रकृति के तीन क्या होते हैं? गुण। तो ये जो तीन वृत्त हैं, ये गुण हैं प्रकृति के तीन।

सोलह अन्त हैं। पचास इसमें तीलियाँ हैं। पचास अरों वाला है, और उसके अलावा बीस प्रत्यरों को भी देखा ऋषि ने। तो इसको ऐसे समझाया गया है कि परिधि के अन्त सिरे का जोड़ जो है वो सोलह कलाएँ हैं, और ये जो पचास अरें हैं ये अन्तःकरण की वृत्तियों के भेद हैं पचास। इसी तरीके से बीस सहायक अरें हैं, जिनमें दस इंद्रियाँ हैं, पाँच विषय हैं, पाँच प्राण हैं।

ऐसे करके इस पूरे चक्र की व्याख्या की गई है। पर वो जो पूरा चक्र है, कुल मिला-जुलाकर के, है प्राकृतिक ही; जो कुछ भी उसमें है वो प्रकृति के ही अधीनस्थ है।

ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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