क्या है ढ़ाई आखर प्रेम का? || आचार्य प्रशांत, कबीर साहब पर (2019)

Acharya Prashant

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क्या है ढ़ाई आखर प्रेम का? || आचार्य प्रशांत, कबीर साहब पर (2019)

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय । । ~ कबीर साहब

प्रश्न: आचार्य जी, कबीर साहिब का ये जो दोहा है, “पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय,” इसमें ‘प्रेम’ शब्द से क्या आशय है?

आचार्य प्रशांत: ‘प्रेम’ माने – चाह। ज्ञान माने – पता होना कि रास्ता कैसा है।

ज्ञान माने पता होना कि तुम्हारा वाहन कैसा है। ज्ञान माने पता होना कि तुम्हारे पास संसाधन क्या-क्या हैं, क्या तुम्हारी शक्ति है, क्या तुम्हारी सीमा है; तेल कितना है तुम्हारी गाड़ी में, तुम्हारा रास्ता कहाँ-कहाँ से होकर जाता है। ये सब क्या है? ज्ञान।

मंज़िल की चाह ही नहीं है, और इतना बड़ा तुम्हें नक़्शा दे दें, तेल से भरी गाड़ी दे दें, तो क्या पहुँच जाओगे?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य प्रशांत: यही दिक़्क़त है। नक़्शा भी बता दूँ, संसाधन भी बता दूँ, उपाय भी बता दूँ, श्रम किसे करना है पहुँचने का? और वो श्रम तुम ज्ञान के बूते नहीं कर पाओगे; वो श्रम तो तुमसे करवाएगा प्रेम ही। अब प्रेम ही न हो, गाड़ी बढ़िया खड़ी करके सोओगे कहीं पर – “गाड़ी बहुत अच्छी है। मस्त सीट है। चलो सो जाते हैं।”

गुरु गाड़ी है बिल्कुल।

ज़्यादातर लोग ज्ञान का यही करते हैं; ज्ञान इकट्ठा करके सो जाते हैं। कहते हैं, “बढ़िया चीज़ मिल गई है। अब सोते हैं इसी पर।” तो बढ़िया चीज़ तुम्हें दी किसलिए गई थी? कि उसका उपयोग करके मंज़िल तक जाओ। पर मंज़िल के लिए कोई चाहत ही नहीं। कुछ लोग और आगे के होते हैं, वो कहते हैं, “बढ़िया गाड़ी मिली है। चलो बेच ही देते हैं।”

(हँसी)

तो ज्ञान के विक्रेता भी ख़ूब होते हैं। वो ज्ञान बेच-बेचकर के दुनिया की चीज़ें कमाते हैं। दुनिया की पार की मंज़िल पर पहुँचने का उनका कोई इरादा नहीं।

वो जाएँगे किसी के सामने, ज्ञान झाड़ेंगे, उससे इज़्ज़त ले लेंगे। किसी और के सामने ज्ञान झाड़ेंगे, उसे प्रभावित करके उससे कोई काम करा लेंगे। कोई बड़ी बात नहीं कि ज्ञान की दुकान ही खोल देंगे, कि – “आओ, आओ, चलो बैठो। पैसा निकालो। ये ज्ञान का उपयोग अपनी मुक्ति के लिए कर ही नहीं रहे; ये ज्ञान का उपयोग बन्धक बने रहने के लिए कर रहे हैं। और ज्ञान चीज़ तो क़ीमती ही है, दुनिया के बाज़ार में बिकती तो ख़ूब है।

तुम ज्ञान का पूरा उपयोग कर सकते हो दुनिया में बने रहने के लिए, ठीक उसी जगह बने रहने के लिए। बिरला होता है कोई जो ज्ञान का उपयोग करता है, (आकाश की ओर इंगित करते हुए) वहाँ ‘ऊपर’, मंज़िल पर पहुँचने के लिए।

ज्ञान बहुतों को मिलता है, काम किसी-किसी के आता है।

तो साहिब बोले,

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

जग भर को तो ज्ञान है, किसको नहीं ज्ञान है। घर-घर में वेद -पुराण रखी हुई हैं, बाइबल-क़ुरआन रखी हुई हैं। ज्ञान किसको नहीं है! काम किसके आ रहा है? काम उसके आएगा जिसके दिल में प्रेम है। उसके ज्ञान काम आ जाएगा।

साहिब ने आगे भी बात की है। उन्होंने कहा है कि ज्ञान तुम्हारे पास नहीं भी हो, पर अगर प्रेम है तो चल पड़ोगे और धीरे-धीरे ज्ञान आता जाएगा। पूछ लोगे, इससे पूछ लोगे, उससे पूछ लोगे; कुछ अनुभव से आएगा, कुछ ध्यान से आएगा।

तो ज्ञान नहीं है और प्रेम है, काम चल जाएगा; प्रेम है तो ज्ञान धीरे धीरे आ जाएगा। पर प्रेम नहीं है, और ज्ञान है, तो ज्ञान से कुछ नहीं होगा। ज्ञान होने से प्रेम आने की कोई आश्वस्ति नहीं है। तुम जीवन भर ज्ञान रखकर बैठे रहो, उससे प्रेम नहीं प्रकट होगा।

रमण महर्षि कह गए, “भक्ति ज्ञान की माता है। प्रेम है तो ज्ञान आ जाता है। भक्ति ज्ञान की माता है।”

प्रेम है तो धीरे-धीरे ज्ञान आ जाएगा, पर ज्ञान है तो उससे प्रेम नहीं आ जाएगा; बेटा माँ को नहीं पैदा कर देगा। हम बड़े प्रेमहीन, रूखे लोग होते है; कुछ पानी नहीं होता हस्ती में। सब बिल्कुल सूखा-सूखा। हम में से ज़्यादातर लोगों के तो आँसू भी नहीं बहते ठीक से। आँख से कुछ बह रहा है। क्या? कीचड़; आँसू नहीं।

और जबतक तो प्रेम वाली आर्द्रता नहीं है, तब तक क्या करोगे? बैठे रहो ज्ञानी बनकर।

ढ़ाई आखर प्रेम का!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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