क्या कोरोना महामारी भी प्रकृति देवी का ही प्रकोप है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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क्या कोरोना महामारी भी प्रकृति देवी का ही प्रकोप है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: छठा अध्याय — धूम्रलोचन वध (एक के बाद एक वध ही वध हैं।)

तो दूत तो भाई अपमानित सा चेहरा ले करके गया दैत्यराज के पास, तो दैत्यराज ने भी अपेक्षा नहीं करी थी कि एक स्त्री उनका विवाह प्रस्ताव ठुकरा देगी, वह भी तब जब उन्होंने इंद्र को हरा रखा है, त्रिभुवन को जीत रखा है और ये सारी बातें। तो वो एकदम अपमानित और कुपित हो गए और उनके अपने सेनापति थे धूम्रलोचन, उनसे बोला, “धूम्रलोचन, तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टा के केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ।” यह तो ये विवाह करने को आतुर थे, विवाह था या इनका बलात्कार का मन था।

ऐसे होते हैं भोगी, ये बस प्रकृति का शोषण और उत्पीड़न करना चाहते हैं। देख रहे हो? नारी के प्रति घोर असम्मान, कि विवाह प्रस्ताव भेजा है और स्वीकार नहीं हुआ तो कह रहे हैं कि जाओ और उसके केश पकड़कर घसीटते हुए यहाँ ले आओ। स्पष्ट ही है कि ऐसों का अंत होगा, देवी इनका नाश करेंगीं। “और धूम्रलोचन, अगर उस स्त्री की रक्षा के लिए कोई दूसरा वहाँ खड़ा हो, चाहे देवता, यक्ष या गंधर्व तो उसे मार अवश्य डालना।” तो प्रकृति का तो शोषण करेंगे और जो प्रकृति की रक्षा के लिए खड़े होंगे, उन्हें मार डालेंगे, यह दैत्यों की निशानी है। प्रकृति का शोषण करना है और उसकी रक्षा के लिए जो भी कोई खड़ा हो, उसको मार ज़रूर डालना।

ये सब कहानियाँ नहीं हैं, ये निरंतर चलने वाली सच्चाइयाँ हैं। यह बात तब भी सच थी, यह बात आज भी सच है। इनको कल्पना मत मान लेना कि किसी ने ऐसे ही बस कल्पना करी, लिख दिया। ये अमर सच हैं। आदमी तब भी दैत्य था, आदमी आज भी दैत्य है। मनुष्य के भीतर शोषण की वृत्ति तब भी विद्यमान थी, आज भी है। यह बात क्या पुरानी लग रही है? आज की नहीं है बिल्कुल? प्रकृति का शोषण करना है और अगर कोई उसको बचाने के लिए खड़ा हो तो उसको मार डालो, बचना नहीं चाहिए।

तो शुंभ के इस प्रकार आज्ञा देने पर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरों की सेना लेकर चल दिया। उसने हिमालय पर रहने वाली देवी को देखा और ललकार कर कहा, “अरी! तू शंभू-निशुंभ के पास चल, यदि प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामी के पास नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोंटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा।” यह भाषा देख रहे हो, यह तेवर देख रहे हो। ये पुराने ही नहीं है, ये आज के भी हैं। या तो आ जा, नहीं तो ज़बरदस्ती तेरे बाल पकड़कर घसीटते हुए ले आऊँगा, तुझे भोगूँगा तो ज़रूर।

देवी बोलीं, “तुम्हें दैत्यों के राजा ने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान हो और तुम्हारे पास विशाल सेना भी है, ऐसी दशा में यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ।” चुनौती दे रही हैं, कह रहीं हैं कि इतने तुम ताकतवर हो, महादैत्य हो, क्या तुम्हारी भुजाएँ हैं, क्या तुम्हारी छाती हैं और क्या तुम्हारी यह बड़ी सी सेना है, क्या तुम्हारे पास अस्त्र-शस्त्र हैं! मुझे ललकार क्या रहे हो, आओ और मुझे ज़बरदस्ती उठाकर ले चलो न। मैं क्या कर पाऊँगी, मैं तो अबला नारी। देवी के यूँ कहने पर असुर धूम्रलोचन उनकी ओर दौड़ ही पड़ा, पुरुष का अहंकार, दौड़ ही पड़ा, “अच्छा, चुनौती देती है! बोलती है बलपूर्वक ले चलो।” तो अंबिका ने ‘हुँ’ शब्द के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया। महिषासुर वध में तो फिर भी थोड़ा लंबा-चौड़ा कार्यक्रम था, ऐसे मारा, वैसे मारा; यहाँ कुछ नहीं। आ रहा था, बोलीं, “हुँ,” वो जहाँ था, वहीं पर राख हो गया।

प्रकृति ऐसे ख़त्म करती है। बड़े-बड़ों को कोरोना वायरस ने गिरा दिया। होगे तुम कहीं के बादशाह, देवी ने बोला बस ‘हुँ’, और गिर गए। बच भी नहीं पा रहे, अपने घर में भी कैद हो गए तब भी नहीं बच पा रहे। जेल, कारागार बस वही होता है जब तुम्हें कोई घसीट कर ले और कहीं पर डाल दे। किसी को सजा दी जाती है तो उसे जेल दी जाती है, और अभी प्रकृति ने दुनिया के आठ सौ करोड़ लोगों को सबको जेल दे दी। दे दी कि नहीं दे दी? ऐसी जेल दे दी जिसमें तुम खुद जेलर हो। कोई बाहर से नहीं आया ताला लगाने, पर तुम्हारी हिम्मत नहीं पड़ेगी बाहर निकलने की, निकलो बाहर और मरोगे। समझ में आ रही है बात?

कुछ दुष्टई तो करी होगी न, कुछ कुकर्म तो करा होगा, कुछ पाप तो करा होगा जो कारागार की सज़ा मिली, और अभी वह सज़ा अभी टल नहीं गई है। कोई नहीं जानता कि वायरस का अभी क्या रूप आने वाला है। कोई नहीं जानता कि अगला वायरस कौन सा आएगा जिस तरीके से हमारी हरकतें हैं। समझ में आ रही बात? तो देवी को बहुत कुछ नहीं करना पड़ता, बस ‘हूँ’, एक नन्हा सा वायरस , और सब भस्म हो जाता है; कुछ नहीं बचता, चिताएँ ही चिताएँ। समझ में आ रही बात? छेड़ो तुम प्रकृति को, फिर देखो क्या होता है!

तो फिर क्रोध में भरी हुई दैत्यों की विशाल सेना और अंबिका ने एक-दूसरे पर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसों की वर्षा आरंभ की। देवी का वाहन सिंह क्रोध में भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में कूद पड़ा। उसने कुछ दैत्यों को पंजों की मार से, कितनों को अपने जबड़ों से और कितने ही महादैत्यों को होठ की दाढ़ों से घायल करके मार डाला। उस सिंह ने अपने नखों से कितनों के पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनों के सर धड़ से अलग कर दिए। कितनों की भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दन के बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्यों के पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया। अत्यंत क्रोध में भरे हुए देवी के वाहन उस महाबली सिंह ने क्षण भर में ही असुरों की सारी सेना का संहार कर डाला।

शुंभ ने जब सुना कि देवी ने धूम्रलोचन असुर को मार डाला तथा उसके सिंह ने सारी सेना का सफाया कर डाला, तब उस दैत्यराज को बड़ा क्रोध हुआ, उसका होंठ काँपने लगा, उसने चण्ड और मुण्ड दो महादैत्यों को आज्ञा दी, “हे चण्ड और हे मुण्ड! तुम लोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ और उस देवी के झोंटे पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ। यदि इस प्रकार उसको लाने में संदेह हो तो युद्ध में सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना। उस दुष्टा की हत्या होने तथा सिंह के भी मारे जाने पर उस अंबिका को बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना।”

यह देख रहे हो आसुरी विवाह प्रस्ताव? ज़्यादातर विवाह प्रस्ताव ऐसे ही होते हैं। बहुत प्रसन्न मत हो जाया करो जब तुम्हारे सामने कोई आ करके प्रेम प्रस्ताव, विवाह प्रस्ताव रखे। वो अधिकांश ऐसे ही होता है। तुम न करके देखो, फिर क्या होगा! जब तक आशा है कि तुम ‘हाँ’ कर दोगे, तब तक तो पुष्प भेंट किए जा रहे हैं, उपहार दिए जा रहे हैं और तुम ‘न’ करके देखो, वही व्यक्ति जो तुम्हारे सामने प्रेमी बनकर खड़ा था, उसका रूप देखना अब।

वही कह रहा है कि बाल पकड़कर घसीटते हुए ले आओ और घसीटते न बने तो हत्या कर दो। उसकी हत्या कर दो, उसके सिंह की हत्या कर दो, उसका कोई रक्षक हो, उसकी हत्या कर दो, यह असुरों का प्रेम होता है। यह अधिकांश मनुष्यों का प्रेम होता है। क्योंकि प्रेम होता ही नहीं है उसमें, बस भोगने की चाहत होती है। शरीर से सुंदर लग रहा है कोई, उसके शरीर का जितना उपभोग कर लें, यही प्रेम है हमारा। समझ में आ रही है बात? पुरानी घटना नहीं है, किन्हीं बीते हुए कल्पों की, कालों की, ज़मानों की बात नहीं है; आज की बात है, घर-घर की बात है, हर इंसान की बात है, हर शहर, हर गली की बात है।

प्र: आचार्य जी, अभी जैसे कोरोना का उदाहरण लेकर देवी प्रकोप को आपने समझाया, तो अभी थोड़े दिन पहले आपका एक वीडियो आया था ‘मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?’ तो जो देवी प्रकोप है, उसमें सभी लोग मतलब जो दैत्य नहीं हैं, उनको भी फिर उसमें शामिल होना पड़ा।

आचार्य: सब आठ सौ करोड़, सब। इसीलिए अध्यात्म बार-बार बोलता है कि किसी भी कुकृत्य से यह कह करके अपनी ज़िम्मेदारी समाप्त मत मान लेना कि मैंने नहीं किया, मैंने नहीं किया। कर्मफल व्यक्तिगत तो होता ही होता है, वह सामूहिक भी होता है। तुमने किया भले नहीं, पर तुम्हारे सामने हो रहा था न, तुम्हें दंड मिलेगा। तुम जिस काल में जीवित हो, उसी काल में पृथ्वी का नाश हो रहा था न, भले तुमने नाश नहीं किया, पर तुम्हारे ही काल में हो रहा है, तुम देख रहे हो, तुम्हें भी दंड मिलेगा।

तुमने क्या वह सब कुछ करा उस चीरहरण को रोकने के लिए जो तुम कर सकते थे? यदि नहीं करा तुमने वह सब कुछ तो भले ही चीरहरण में, हे भीष्म! तुम्हारा हाथ न हो, लेकिन दंड तुम्हें भी मिलेगा। चीरहरण करा किसने था? दु:शासन ने दुर्योधन की आज्ञा पर, पर दंड द्रोण को भी मिला, भीष्म को भी मिला, क्यों? उन्होंने तो नहीं किया न। वे उपस्थित थे, इसलिए मिला।

इसी तरीके से आज पृथ्वी पर जो कुछ हो रहा है, उसका दंड हमें भी मिलेगा भले हमने करा नहीं, क्यों? क्योंकि हम उपस्थित हैं। और जो हम अधिक-से-अधिक कर सकते हैं, आज जो हो रहा है उसे रोकने के लिए, हमने वो करा नहीं है न? क्या पैमाना इस बात का कि आपने अधिकतम करा कि नहीं करा? आपने अधिकतम तब तक नहीं करा जब तक आपने जो हो रहा है, उसको रोक ही नहीं दिया। या तो उसको रोक दो या रोकने के प्रयास में मिट जाओ।

आप अभी हो और जो कुकृत्य चल रहा है, वह चल ही रहा है, इसका मतलब आपने अभी अधिकतम करा नहीं न। आपने अधिकतम अगर कर दिया होता तो या तो जो चल रहा है शोषण प्रकृति का आपने रोक दिया होता उसको या उस शोषण को रोक पाने के प्रयास में आप समाप्त हो गए होते, मिट ही गए होते। न आप समाप्त हुए हो, न शोषण समाप्त हुआ है, इसका मतलब आपने अभी पूरी तरह प्रयास नहीं किया और नहीं किया तो फिर जैसे बाकियों को सजा मिल रही है, आपको भी मिलेगी। जैसे बाकियों को फिर वायरस का डर है कि घर में कैद रहो, आपको भी घर में कैद रहना होगा।

तो अब हम सातवें अध्याय में प्रवेश करते हैं। चण्ड-मुण्ड को अब कहा शुंभ ने कि जाओ और देवी को बाँध लाओ। तदनंतर शुंभ की आज्ञा पाकर वे चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य चतुरंगिणी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिए। फिर गिरिराज हिमालय के स्वर्णमय ऊँचे शिखर पर पहुँचकर उन्होंने सिंह पर बैठी देवी को देखा। वे मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। उन्हें देख कर दैत्य लोग तत्परता से पकड़ने का उद्योग करने लगे। किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने तलवार से संभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गए।

तब अंबिका ने उन शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया, उस समय क्रोध के कारण उनका मुँह काला पड़ गया, ललाट में भौहें टेढ़ी हो गई और वहाँ से तुरंत विकराल मुखी काली प्रकट हुईं जो तलवार और पाश लिए हुए थीं। वे विचित्र खट्वांग धारण किए और चीते की चर्म की साड़ी पहने नर-मुण्डों की माला से विभूषित थीं। उनके शरीर का माँस सूख गया था, केवल हड्डियों का ढाँचा था, जिससे भी अत्यंत भयंकर जान पड़ती थीं। उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। उनकी आँखें भीतर को धँसी हुईं और कुछ लाल थीं। अपने भयंकर गर्जना से संपूर्ण दिशाओं को गुँजा रही थीं।

बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुईं वे कालिका देवी बड़े वेग से दैत्यों की सेना पर टूट पड़ीं और उन सब का भक्षण करने लगीं। वे पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाओं और घंटा सहित कितने हाथियों को एक ही हाथ से पकड़ कर मुँह में डाल लेती थीं। इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथी के साथ रथी सैनिकों को मुँह में डालकर उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं। किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से मारकर गिरा देतीं। वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँह से पकड़ लेती और रोष में भरकर उनको दाँतों से पीस डालती थीं। काली ने बलवान और दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया। कोई तलवार के घाट उतारे गए, कोई खट्वांग से पीटे गए और कितनी असुर दाँतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए।

इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेना को क्षणभर में मार गिराया। यह देख चण्ड उन भयानक काली देवी की ओर दौड़ा तथा महादैत्य मुण्ड ने भी अत्यंत भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाए हुए उन चक्रों से भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया। वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए थे ऐसे जान पड़े मानो सूर्य के बहुतेरे मंडल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों। तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यंत रोष में भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल बदन के भीतर कठिनाई से देखे जा सकने वाले दाँतो की प्रभा से वे अत्यंत उज्जवल दिखाई देती थीं। देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में ले ‘हम्’ का उच्चारण करके चण्ड पर दावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला। चण्ड को मारा देखकर मुण्ड भी देवी की ओर दौड़ा तब देवी ने रोष में भरकर उसे भी तलवार के वार से घायल करके धरती पर सुला दिया।

महा पराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ओर भाग गई। तदनंतर काली ने चण्ड और मुण्ड का मस्तक हाथ में ले चण्डिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्ठाहास करते हुए कहा, “देवी! मैने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्ध यज्ञ में तुम शुंभ और निशुंभ का स्वयं ही वध करना।”

ऋषि कहते हैं: वहाँ लाए हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महा दैत्यों को देखकर कल्याणमयी चण्डी ने काली से मधुर स्वर में कहा, “देवि! तुम चण्ड और मुण्ड को लेकर मेरे पास आई हो इसलिए संसार में चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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