क्या बड़ों का सुझाव हमेशा सही होता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2014)

Acharya Prashant

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क्या बड़ों का सुझाव हमेशा सही होता है? || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2014)

प्रश्न: आचार्य जी, हमारे अभिभावक, हमारे बड़े, जो भी सुझाव देते हैं क्या वो हमेशा सही होते हैं?

आचार्य प्रशांत जी: मैं बड़ा हूँ तुमसे, हूँ न? मैं जो जवाब दूँगा, तुम्हें कैसे पता वो सही होगा?

यही प्रयोग कर लेते हैं। मैं भी तो बड़ा हूँ, जैसे दूसरे बड़े तुम्हें सलाह देते हैं, वैसे ही मैं भी कुछ बातें बोल रहा हूँ तुमसे। तुम्हें कैसे पता इन बातों में कितना दम है?

एक आदमी यहाँ सोया पड़ा है, दो घंटे के संवाद में वो सोया पड़ा हुआ है, ऐसे हो सकते हैं दो-चार लोग यहाँ भी जो सोए पड़े रहते हैं , क्या वो बता पाएगा इन बातों में कितना दम था? या बेदम थी? दोनों में से कुछ भी बता पाएगा?

एक आदमी आधे चित्त का है, कभी यहाँ है कभी वहाँ है, दो मिनट को यहाँ रहता है, फिर कूद करके वो बाहर पहुँच जाता है, शरीर यहीं है, मन बाहर पहुँच गया, मन चाँद पर बैठा हुआ है, शहर घूम रहा है, चाट खा रहा है, पिक्चर देख रहा है, वो बता पाएगा बातों में दम था कि नहीं? वो कुछ बोलेगा ज़रू, क्योंकि उसने थोड़ा कुछ सुना है, पर वो जो कुछ भी बोलेगा उल्टा ही होगा, अर्थ का अनर्थ करेगा।

जिसने आधी ही बात सुनी, वो और ज़्यादा ख़तरनाक है, सोए हुए से ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि वो अर्थ का अनर्थ करेगा। वो कहेगा, “नहीं! मैं था, मैं जगा हुआ था।” सोए हुए में कम-से-कम ये अकड़ तो नहीं आएगी। वो कहेगा, “भाई! मैंने तो कुछ सुना ही नहीं, मैं सोया हुआ था।”

ये जो अध-जगे होते हैं, ये बहुत ख़तरनाक हो जाते हैं, क्योंकि इनका दावा होता है कि – “हम तो जगे थे।” और जगे ये थे नहीं, समझ में इन्हें कुछ आया नहीं। समझ में किसे आएगा? कौन है जो साफ़-साफ़ देख पाएगा कि बात में दम है कि नहीं, सलाह मानने लायक है कि नहीं? कौन कह पाएगा?

जो जगा हुआ है।

तो बस यही उत्तर है।

किसी की भी बात में कितना वज़न है, ये जानने के लिए सबसे पहले तुम्हें जगा हुआ होना होगा। क्योंकि बात का वज़न तुम्हीं जानोगे न? और कौन जान सकता है? सोया हुआ आदमी क्या ये जान सकता है कि उसके आसपास और कितने सोए हुए हैं? क्या ये जान सकता है? सोया हुआ आदमी क्या ये भी जान सकता है कि कौन जगा हुआ है?

तो मैं जगा हुआ हूँ कि नहीं, कि मेरी बात सत्य से आ रही है या नहीं, ये जानने के लिए तुम्हें कैसा होना पड़ेगा? तुम्हें जगा हुआ होना पड़ेगा। तो सवाल ये मत पूछो कि – “हम कैसे जाने कि बड़े-बूढों की बात में कोई दम है या नहीं?” सवाल ये होना चाहिए कि – “मैं जगा हुआ हूँ कि नहीं?”

बस ये पुछो।

और अगर ये जानना है कि तुम जगे हुए हो या नहीं, तो बात बहुत सीधी है – अगर मन चिंताओं में है, इच्छाओं में है, भटकाव में है, तो तुम सो रहे हो। अगर मन महत्वकांक्षाओं में है और स्मृतियों में है, तो तुम सो रहे हो। और अगर मन ध्यान में है, शांति में है, तो तुम जगे हुए हो।

जब कभी भी पाओ कि मन भटक रहा है इधर-से-उधर, तो जान लेना कि – “सोया हुआ हूँ और इस वक़्त मैं कुछ नहीं समझ पाऊँगा। इस वक़्त तो किसी की सलाह लेना भी व्यर्थ है क्योंकि वो जो कुछ बोलेगा भी, मुझे अभी समझ में आएगा नहीं।”

मत पूछो कि किसी और की सलाह में क्या वज़न है, पूछो कि – “मैं जगा हुआ हूँ कि नहीं?” और कैसे जाँचोगे कि जगे हुए हो कि नहीं? – मन शांत है, या अशांत है। बस बात ख़त्म।

प्रश्नकर्ता: क्या मन की चंचलता या भटकाव सही है? यदि नहीं, तो लोग क्यों वर्तमान और भविष्य की कल्पनाएँ करते हैं?

आचार्य प्रशांत जी: सही है या नहीं, ये तो बहुत बाद की बात है, है क्या ये पूछो न। जिसको तुम ‘मन की चंचलता’ कह रहे हो, वो क्या है? क्या है? कि कभी इधर चले कभी उधर चले, कभी दाएँ मुड़े, कभी बाएँ मुड़े, ये क्या है?

पागलपन है और क्या है!

इधर चले तो एक विचार हावी हो गया, कि उधर चलो, तो उधर चल दिए। उधर चले तो कोई दूसरा प्रभाव हावी हो गया कि ऊपर चलो, तो खंभे पर चढ़ गए, खंभे पर चढ़े तो एक तीसरा विचार हावी हो गया कि ज़मीन में घुस जाओ, वहाँ घुसे तो डर लग गया तो फिर दाएं की ओर भागे; यही है चंचलता।

यही होती है न चंचलता, कि एक से दूसरा विचार निकल रहा है, और हर विचार किसी बाहरी प्रभाव का नतीजा है। तो ऐसा गुलाम जिसके सौ मालिक हैं, एक मालिक कभी इधर को बुलाता है, दूसरा मालिक कभी उधर को बुलाता है, तीसरा उधर को बुलाता है, और व्यक्ति कहीं पहुँच नहीं पा रहा है, बस फुटबॉल की तरह…

फुटबॉल का मैच चल रहा होता है, इतने सारे लोग होते हैं उस गेंद को मारने वाले, वो गेंद कहीं पहुँचती है कभी? इस सिरे से उस सिरे बस घूमती रहती है। हमने तो नहीं देखा कि इतनी लातें खाकर कोई गेंद कहीं पहुँच गई हो। यही चंचलता है – फुटबॉल बन जाना, कि लातें तो खूब खा रहे हैं, लेकिन पहुँचते कहीं नहीं हैं।

चंचलता की परिभाषा लिख लेना: लातें खूब खाते हैं, पहुँचते कहीं नहीं।

फुटबॉल से ज़्यादा चंचल कुछ देखा है तुमने? और फुटबॉल का उदाहरण इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि बैडमिंटन में दो ही लोग हैं उसे मारने वाले, वो भी लात नहीं मारते, थोड़ा सम्मान दे देते हैं, रैकेट से मारते हैं, और दो ही जन हैं मारने वाले, या चार।

फुटबॉल को मारने वाले कितने हैं?

बाइस।

और धड़ाधड़-धड़ाधड़ लात खाती है, और पहुँच कहीं नहीं पाती है। वही मैदान, उसी के बीच में घूम रही है। यही चंचलता है।

दूसरी बात कह रहे हो – वर्तमान और भविष्य की कल्पनाएँ। भविष्य तो निश्चित रूप से कल्पना है, पर वर्तमान भी कल्पना है। कल्पना करने वाला कौन है? कल्पना नकली होती है, लेकिन कल्पना करने वाला तो असली होगा? सपना नकली है, लेकिन सपना देखने वाला तो कोई होना चाहिए।

वर्तमान नकली नहीं है। वर्तमान का मतलब वो जो कल्पना करता है, वर्तमान असली है। भविष्य की सारी कल्पना तुम कब बैठकर करते हो? वर्तमान में। वो असली है, वो कल्पना नहीं है। क्या ‘कल्पना’ कल्पना कर सकती है?कल्पना करने के लिए तो कोई असली होना चाहिए ना?

वो वर्तमान है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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