क्या बच्चे पैदा करना ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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क्या बच्चे पैदा करना ज़रूरी है? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्न: आचार्य जी, क्या बच्चे पैदा करना ज़रूरी है?

आचार्य प्रशांत जी: ‘बच्चा’ माने क्या होता है? एक घर है, उस घर के लिए ‘बच्चे’ का क्या अर्थ है? परिवार में ‘बच्चे’ का क्या मायना है?

प्रश्नकर्ता: वंश आगे बढ़ाने के लिए बच्चे का होना ज़रूरी है – ऐसा लोग कहते हैं।

आचार्य प्रशांत जी: तुम्हारे लिए बच्चे का अर्थ क्या है? घर में बच्चा क्यों चाहिए?

प्रश्नकर्ता: घर में खुशी के लिए ।

आचार्य प्रशांत जी: तो ले आओ बच्चा। अगर बच्चे से खुशी मिलती है, तो क्या ज़रूरी है कि वो तुम्हारे ही गर्भ से निकले? ले आओ बच्चा ।

प्रश्नकर्ता: ऐसा हम सोचते हैं। ज़रूरी नहीं है कि पति भी ऐसा ही सोचें ।

आचार्य प्रशांत जी: तो उनसे पूछो न कि -“तुम्हें चाहिए क्या है?”

प्रश्नकर्ता: उनका कहना है कि बच्चा ‘अपना’ होना चाहिए। फ़िर ऐसी बातों पर झगड़ा भी होता है।

आचार्य प्रशांत जी: हम क्या ये सवाल नं पूछें कि – “अपना बच्चा इतना ज़रूरी क्यों है?”

प्रश्नकर्ता: मेरे लिए ‘अपना’ बच्चा होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन बच्चा होना चाहिए ।

आचार्य प्रशांत जी: बात ये नहीं है कि बच्चा ज़रूरी है या नहीं । बात ये है कि – यदि है ज़रूरी तो क्यों है? और अगर ये भी कह रहे हो कि – “नहीं है ज़रूरी,” तो क्यों नहीं है? सवाल पूछा जाना चाहिए या नहीं? कि -“हम हैं, तुम हो और इस रिश्ते में बच्चे की जगह क्या है?”

क्या हम करुणा से इतने भरे हुए हैं कि हमें छोटू चाहिए गोद में? ऐसा हमारी ज़िंदगी देखकर तो लगता नहीं है कि हम करुणा से ओतप्रोत हैं। कुत्ते के पिल्ले को तो मारकर भगा देते हैं, और ख़ुद कह रहे हैं कि -“बच्चा नहीं आया तो जीवन में हमारा वात्सल्य भाव कैसे प्रकट होगा?” हम क्यों चाहते हैं बच्चा? और ये पूछना ख़तरनाक है क्योंकि हम नहीं जानते कि हम क्यों चाहते हैं बच्चा। हम सिर्फ़ इसीलिए चाहते हैं क्योंकि सबके पास बच्चा है।

जैसे एक बच्चा बोले, “उनके पास भी है गुब्बारा, उनके पास भी है गुब्बारा, मम्मी मुझे भी गुब्बारा दिलाओ न।” और पूछो , गुब्बारा चाहिए क्यों?” तो उनके पास कोई जवाब नहीं होगा ।

प्रश्नकर्ता: तो शादी के मामले में भी ऐसे ही होता है ।

आचार्य प्रशांत जी: तो शादी भी ऐसे ही हो गई। “सबकी हो गई मैं ही रह गया। चल बेटा दौड़ लगा।”

प्रश्नकर्ता: शुरुआत वहीं से ही हो जाती है। फ़िर समझाएँ कैसे अपनों को, कन्विंस कैसे करें?

आचार्य प्रशांत जी: या कन्विंस कर लो, या कन्सीव कर लो। या तो समझा लो, या गर्भ धारण कर लो। देख लो क्या करना है।

प्रश्नकर्ता: ऐसा कहा जाता है कि गर्भ धारण करने पर परेशानियाँ बढ़ेंगी।

आचार्य प्रशांत जी: परेशानी तो तब आएगी न जब गर्भवती होंगे। अगर होंगे ही नहीं।

वो यही तो कहते हैं कि – “अगर पैंतीस -चालीस के बाद गर्भ धारण करोगे तो परेशानी आएगी।” तुम कहो, “परेशानी तो तब आएगी न जब गर्भवती होंगे। यहाँ हो कौन रहा है?”

हम ज़रा भी जागरुक लोग नहीं हैं। हमें बिलकुल समझ में नहीं आ रहा है कि इस समय दुनिया की हालत क्या है। दुनिया एक भी नए बच्चे का बोझ बर्दाश्त नहीं कर सकती। और ये आध्यात्मिक नहीं, वैज्ञानिक, इकोलॉजिकल (पारिस्थितिक) बात बोल रहा हूँ मैं। तुम बच्चा पैदा कर देते हो, बच्चे के सात-साथ रोड भी पैदा करोगे, मकान भी पैदा करोगे, हवा भी पैदा करोगे, पानी भी पैदा करोगे, अन्न भी पैदा करोगे।

और पृथ्वी पर ये सब चीज़ें नहीं बचीं हैं।

बच्चा तो पैदा कर दोगे, वो खाएगा क्या? वो रहेगा कहाँ? साँस क्या लेगा? पिएगा क्या?

और मुझे समझ में आता है कि कुछ लोगों में ये भावना हो सकती है कि – हम पिता की तरह काम करें। हम दुलराएँ, सहलाएँ, पुचकारें, भरण-पोषण करें, बच्चे को बड़ा करें। तो मैं कहता हूँ कि ये नेक ख़याल है, जाकर बच्चा गोद ले लो। कितने बच्चे हैं जो अगर गोद ले लिए जाएँ तो उनका भला होगा।

गोद क्यों नहीं लेते?

ये ज़िद्द ही बहुत बचकानी है कि -“जब तक मेरे वीर्य से नहीं पैदा होगा, तब तक मुझमें प्रेम ही नहीं आएगा।” ये प्रेम का और वीर्य का क्या सम्बन्ध है?

बहुत मसलों को मैं खुला छोड़ देता हूँ। कहता हूँ, “आप देखिए, आप के होश की बात है।” इस मसले को मैं कभी खुला नहीं छोड़ता क्योंकि बात व्यक्तिगत नहीं है। ये इस दुनिया के लोगों की बात है, और जानवरों के पक्षियों के, पूरी पृथ्वी के अस्तित्व का सवाल है। तुम जो बच्चा पैदा करोगे, वो खाना माँगेगा। और उसको खाना देने के लिए जंगल कटेंगे। और मुझे बिलकुल नहीं पसंद कि जानवर मरें, पक्षी मरें क्योंकि लोगों को बच्चे पैदा करने हैं ।

उसको रहने की जो जगह चाहिए देखो उसकी क्या क़ीमत है। जितना वो भोजन लाएगा, उस भोजन को जुटाने में जितनी ग्रीन हाउस गैस बनेगी, उसको देखो। और फ़िर तुम्हें ये भी पक्का नहीं है कि तुम्हारा बच्चा शाकाहारी ही रह जाएगा। उसने अपने जीवन में अगर मुर्ग़े और बकरे काटे, फ़िर? कुछ तो खाएगा। अगर मुर्ग़ा -बकरा नहीं खाएगा, तो अन्न तो खाएगा। जानते हो, जो संयोजित कृषि होती है वो भी बहुत हिंसक होती है। बच्चे को अन्न भी देने के लिए बड़ी हिंसा होगी।

पृथ्वी पर अब जगह नहीं है। हम दूसरों की जगह पर जी रहे हैं। ‘दूसरे’ माने , दूसरे इंसान ही नहीं, दूसरे जानवर। जहाँ पेड़ होना चाहिए था वहाँ आदमी बैठा हुआ है। जो जगह पक्षी की होनी चाहिए थी, जो जगह हिरण की होनी चाहिए थी, शेर की होनी चाहिए थी, वहाँ हम जाकर बैठे हैं। और ऊपर से हमें बच्चे और लाने हैं।

वो बच्चे कहाँ बैठेंगे?

ये बहुत पुरानी और व्यर्थ की मानसिकता है। अगर तुम इसमें थोड़ी जाँच पड़ताल करोगी, तो तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा कि लोगों के भीतर ये भावना कैसे बैठ गई कि जीवन में बच्चा होना ही चाहिए।

करोगे क्या उसका? जब आ जाता है तब उसका पता चलता है ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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