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क्या अहम् की कोई सत्ता नहीं? || (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नागार्जुन कहते हैं कि किसी की सत्ता नहीं है। कर्म, कर्ता, और फल, इसकी लोक व्यवहार की दृष्टि से ही सत्ता है, बाकी निरपेक्ष रूप से इनकी कोई सत्ता नहीं। तो फिर धर्म और अध्यात्म का मतलब क्या है?

आचार्य प्रशांत: जिसके लिए अहं की कोई सत्ता नहीं, उसके लिए धर्म और अध्यात्म का कोई महत्त्व भी नहीं। नागार्जुन जिसकी बात कर रहे हैं उसको ना धर्म चाहिए ना अध्यात्म, आप अपनी बात करिए। आपके लिए अहं है या नहीं है?

पूरा बौद्ध दर्शन इसी बुनियाद पर खड़ा है, कि अहं तो है ही नहीं। प्रक्रियाएँ हैं, दुःख है, सुख है, प्रकृति है, अहं नहीं है। दुःख हो सकता है, दुखी कोई नहीं है। और वो बात बिलकुल ठीक है, पर उसके लिए ठीक है जो अहं से मुक्त हो गया और जिसका अहं गिर गया, झड़ गया।

आप अपनी बात कहिए, आप क्या बोलते हैं? 'दुःख है' या 'मैं दुखी हूँ'?

श्रोतागण: मैं दुखी हूँ।

आचार्य: जब आप ये कहना शुरू कर दें कि, "दुःख है और दुखी कहने वाला स्वयं को मिथ्या है", तब नागार्जुन की बात आप के लिए प्रासंगिक होगी, अभी तो नहीं है।

ये बड़ा छलावा बनता है, समझिए बात को। नो-सेल्फ़ के नाम पर जब आप अहं की सत्ता को ही अस्वीकार कर देते हैं तो अब अहं का विलय और विसर्जन कैसे होगा? घर में कूड़ा है, आपने उस कूड़े की सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया तो अब उसकी सफ़ाई कैसे होगी? तो अहं के छुपने का बहाना बन जाता है अहं की सत्ता का अस्वीकार। जो है ही नहीं उसका कोई उपचार करने की भी तो ज़रुरत नहीं न अब। अहं बहुत खुश होता है, उसने घोषणा कर दी है कि, "मैं हूँ ही नहीं", अब जब वो है ही नहीं तो उसका उपचार क्या करना? तो अहंकारियों के लिए ये दर्शन अक्सर बड़ा सुविधाजनक हो जाता है।

ऊँचा दर्शन है पर सिर्फ़ उनके लिए जो सत्य के पारखी हों, जिन्हें सत्य ही चाहिए। जिन्हें सत्य नहीं चाहिए उनके लिए ये दर्शन आत्मघातक है।

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